कांग्रेस में यह सब नहीं होता है क्या?

Written by राकेश कायस्थ | Published on: May 19, 2018
शरारती बच्चा पड़ोस में रहने वाले किसी दूसरे बच्चे का सिर फोड़ देता है। झगड़ालू मां उल्टा शिकायत लेकर सामने वाले घर पहुंचती है— `मेरा लल्ला तो बहुत सीधा है। कोई गलत काम कर ही नहीं सकता।’ पड़ोसन अपने बेटे का फूटा सिर दिखाती है। बदले में झगड़ालू मां पड़ोसन को उसकी सात पुश्ते याद दिलाती है और फिर पांव पटकती हुई वापस लौट आती है। कहानी में कुछ नया नहीं है। फर्क सिर्फ इतना है कि यह कहानी अब सिर्फ एक मुहल्ले तक की नहीं है बल्कि हमारे समय का राष्ट्रीय आख्यान यही है। 



मौजूदा सरकार को लेकर इसके समर्थकों में एक ऐसा अनोखा ममत्व है, जिसका कोई उदाहरण पूरी दुनिया में कहीं और नहीं मिलता है। कोई कहे कि घोटाला हो गया, तो एक साथ कई आवाज़े आएंगी— पहले नहीं हुआ क्या? पुल गिर गया। जवाब मिलेगा— पहले नहीं गिरा था क्या? मेडिकल कॉलेज में बच्चे बिना ऑक्सजीन के मर रहे हैं। फिर वही जवाब— बच्चे कब नहीं मरते?

कितनी मासूम दलीले हैं। एक नीरव मोदी, एक चौकसी, एक माल्या, एक बिड़ला डायरी, एक चंदा कोचर, एक व्यापम, एक राफेल इन सबसे क्या होता है? कांग्रेसियों को देखो 70 साल में कितना लूटा है। यह दुनिया की पहली ऐसी सरकार है, जिसके समर्थकों ने उसे कुछ भी खाने और कहीं भी हगने का खुला लाइसेंस दे रखा है। चुनाव आयोग से लेकर विजिलेंस कमीशन और सर्वोच्च न्यायपालिका तक कोई ऐसा संस्थान नहीं है, जिसकी सीढ़ियों पर विष्ठा ना बिखरा हो। लेकिन कमाल देखिये किसी भी दुर्गंध नहीं आ रही है। यहां भी वही दलील— कांग्रेसियों के समय भी तो बदबू था।

ये सारी दलीलें स्वीकार्य हो सकती थीं, अगर 2014 के मेनिफेस्टो में वोट इस आधार पर मांगा गया होता कि हम कांग्रेसियों से ज्यादा खाना और उनसे कई गुना ज्यादा हगना चाहते हैं। लेकिन क्या वोट इस आधार पर मांगा गया था और जनादेश इसी आधार पर दिया गया था? हम स्मृतियों के अकाल मृत्यु वाले समय में जी रहे हैं। इसलिए कुछ भी याद दिलाने की कोशिश बेमानी है।

सवाल यह है कि सरकार को लेकर यह ममत्व सिर्फ भक्तो और ट्रोल्स में है? जी नहीं पढ़ा-लिखा मध्यमवर्गीय तबका जो बीजेपी के लिए ओपनियन मेकर की भूमिका निभाता आया है, वह इस मुहिम का झंडाबरदार है। अपनी फ्रेंड लिस्ट में देख लीजिये, बैंक कर्मचारी, लेक्चरर, पत्रकार, सरकारी मुलाजिम और वकील। तमाम ऐसे लोग मिल जाएंगे तो मौजूदा तंत्र की कारगुजारियों पर दांत निपोर रहे हैं— अरे छोड़िये ये सब तो होता रहता है। 

आखिर यह सामूहिक मनोविज्ञान किस तरह निर्मित हुआ है? चर्चा लंबी खिंच सकती है। इसलिए दो-तीन बातें बहुत संक्षेप में। पहली बात यह है कि बीजेपी के पढ़े-लिखे वोटरो को भी लगता है कि सिर्फ इस सरकार का चलते रहना ही उसकी व्यक्तिगत उपलब्धि है। सरकार के चलने में किसी को कोई शक नहीं है। लेकिन प्रचंड बहुमत के बावजूद समर्थकों में एक असाधारण किस्म का असुरक्षा बोध है। वे डर जाते हैं कि गलत को गलत कहते ही उनके महान नेता के पांव उखड़ जाएंगे।

मतदाताओं को बिना कुछ दिये इस तरह का parmanet stake holder बना लेना एक विलक्षण बात है। नरेंद्र मोदी ने यह काम जिस खूबसूरती से किया है, इसकी कोई और मिसाल कहीं नहीं मिलती। समूहों का मनोविज्ञान पढ़ना और दिमाग पर राज करना दुनिया का सबसे जटिल काम है। हज़ारो करोड़ रुपये का सरकारी फंड, कॉरपोरेट तंत्र का सपोर्ट और इनसे बढ़कर खुद प्रधानमंत्री की व्यक्तित्व। तिलिस्म कुछ ऐसा रचा गया है कि इसके टूटने के आसार दिखाई नहीं देते।

दूसरी बात इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। कल तक जो लोग बीजेपी के पक्ष में जनमत निर्माण का काम करते थे, वे अब फॉलोअर हैं। एक नया समर्थक वर्ग नरेंद्र मोदी के पक्ष में है। वही नौजवान वोटर, जिसके पास स्मार्ट फोन है और एक बाइक है। नौकरी की उसे परवाह नहीं है। वह न्यूज़ चैनलों और अब व्हाट्स एप की खुराक पर पल-बढ़ रहा है। वह इस कदर हिंसक है कि अगर आप उससे उसकी नौकरी का सवाल पूछ बैठे तो गला काटने में उतारू हो जाये।

न्यू इंडिया, बदले हुए भारत का यही नया वोटर नरेंद्र मोदी की असली ताकत है। पार्टी विद डिफरेंस स्लोगन की चिंदियां सड़क पर यहां-वहां बिखरी पड़ी हैं। अब बैंक क्लर्क या लेक्चचर जैसे पुराने सपोर्टर के पास कोई और रास्ता नहीं सिवाय दांत निपोरकर कहने के— क्या कीजियेगा, पॉलिटिक्स है ना। कांग्रेस में यह सब नहीं हुआ है क्या?

(ये लेखक के निजी विचार हैं।)

बाकी ख़बरें