काहे के भगवान, जब भक्त हों बेलगाम

Published on: 12-12-2015
Published on: December 12, 2015



प्राचीन मान्यता है, राजा ईश्वर का रूप होता है। आधुनिक मान्यता है, जनता जिसे चुनती है राजा वही होता है, भले ही वह खुद को सेवक क्यों ना बताये। राजा चाहे राजतांत्रिक तरीके से बना हो या फिर जनतांत्रिक तरीके से, भक्त हर युग में उसे भगवान साबित करने पर तुले रहते हैं। लेकिन किसी के साबित करने से राजा कभी भगवान नहीं बन पाता है बल्कि इसके लिए उसे वास्तव में ईश्वरीय आचरण करने पड़ते हैं। पौराणिक आख्यानों और दंतकथाओं से ये बात बेहतर ढंग से समझी जा सकती है। लंका विजय के लिए रामचंद्र जी अपनी वानर सेना के साथ सेतु बांध रहे थे। अचानक एक वीर वानर सैनिक की नज़र छोटी सी गिलहरी पर पड़ी जो कंकड़ उठा-उठाकर समुद्र में फेंक रही थी। वानर सैनिक को पुल बनाने का यह तरीका पसंद नहीं आया। नाराज़ होकर उसने गिलहरी को हवा में उछाल दिया। कोई और युग होता, तो गिलहरी उन्मादी वानरों के पांव तले रौंद दी जाती। रामचंद्र जी वानरों की पीठ थपथपाते और लंका विजय से वापस आने के बाद किसी दिन प्रेस कांफ्रेंस में यह कह देते--  मेरे लिए सभी प्राणी बराबर है। दुख तो पिल्ले की मौत पर भी होता है, वह तो एक प्यारी सी गिलहरी थी। लेकिन राम ब्रांडिंग से बनाये गये भगवान नहीं बल्कि सचमुच के मर्यादा पुरषोत्तम थे। उन्होने उसी वक्त गिलहरी को उठाया और प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा। कहते हैं, आज भी तीन रेखाओं की शक्ल में गिलहरी की पीठ पर रामचंद्र जी की उंगलियों के निशान मौजूद हैं। इसके बाद पूरे लंका अभियान के दौरान किसी वानर की ऐसी उद्धंडता की कोई और कहानी नहीं मिलती। मतलब बहुत साफ है। अपने भक्तों को जो नियंत्रित कर पाये और पीड़ितों पर नेह बरसाये वही नेता या राजा भगवान का दर्जा हासिल कर सकता है।
 
भक्त हमेशा भावुक होते हैं। लेकिन भगवान स्थिर चित्त होते हैं। भगवान का काम अपने भक्त को सहनशील, दयालु और विवेक संपन्न बनाना होता है। रामकथा के एक और प्रसंग से यह बात बहुत अच्छी तरह समझ में आती है। लंका विजय के बाद हनुमान अपने प्रभु की सेवा के लिए अयोध्या में ही रह गये। एक बार उन्होने नगर में विचरण करते हुए एक ऐसा व्यक्ति देखा जो शौच पर बैठा हुआ था और जोर-जोर से श्रीराम का नाम ले रहा था। हनुमान को बहुत गुस्सा आया। उन्होने गलत समय पर राम का नाम ले रहे उस आदमी की पीठ पर उन्होने एक तगड़ा लात जमा दिया। शाम को जब हनुमान राम दरबार पहुंचे तो उन्होने अपने प्रभु के शरीर पर किसी के पैर का नीला निशान देखा। ` प्रभु यह क्या है, किसने आपको चोट पहुंचाने की धृष्टता की है’--  हनुमान ने नाराज़ होकर पूछा। रामचंद्र जी ने मुस्कुराकर कहा— `यह पीड़ी तुम्हारी ही दी हुई है, हनुमान। हर आश्रित को पहुंचाई गई पीड़ा मुझे वहन करनी पड़ती है। यही मेरा राजधर्म है।‘ हनुमान को तत्काल अपनी गलती समझ में आ गई और उन्हे रामचंद्र जी से क्षमा याचना की। क्या इस धरती पर रामराज लाने को तत्पर लोकतंत्र के किसी राजा ने ये कहानियां सुनी हैं?  मुझे लगता है, शायद नहीं सुनी हैं। कई बार सोचता हूं कि अगर मौजूदा दौर के भक्त अगर रामचंद्र जी के समय होता तो क्या होता? फिर तो प्रभु को जूठा बेर खिलाने के इल्जाम में आदिवासी बुढ़िया शबरी पीट-पीटकर मार डाली गई होती। मंथरा की झोपड़ी में आ लगा दी जाती। राजा भरत का ऐसा घेराव होता कि खड़ाउं रखकर भी वे 14 दिन तक राज नहीं चला पाते, 14 साल की बात तो दूर रही। क्या राजा रामचंद्र ऐसे भक्तों को रोक पाते? ज़रूर रोक पाते, बल्कि अनगिनत उदाहरण बताते हैं कि उन्होने रोका। भक्तों का चरित्र हर युग में एक ऐसा जैसा होता है, लेकिन भगवान का चरित्र बदलता रहता है। अब यह चरित्र इस कदर बदल चुका है कि वैचारिक स्तर पर भगवान और भक्त के बीच की दूरी लगभग मिट गई है। भक्त ही अपने आप को भगवान समझने लगे हैं.. भगवान के बारे में क्या कहें.. हे राम!
Hindi writer and columnist

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