विपक्षी पार्टियों के सवाल का सवाल ही नहीं है। अब तो जानकार भी सवाल उठा रहे हैं और वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां भी एक दूसरी वैक्सीन की पोल खोल रही हैं। तो ऐसे में आम भारतीय का वैक्सीन पर भरोसा पुख्ता हो तो क्या इसके लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, उपराष्ट्रपति व केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों को कई अन्य राष्ट्राध्यक्षों की तरह सार्वजनिक रूप से वैक्सीन लगवाने को खुद आगे आ, स्टेट्समैनशिप नहीं दिखानी चाहिए?
अमेरिका में निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन और उनकी पत्नी ने सार्वजनिक रूप से वैक्सीन लगवाई। टेलीविजन पर उसका प्रसारण हुआ। हालांकि इसके बावजूद अमेरिका में लोग वैक्सीन लगवाने में ज्यादा रूचि नहीं ले रहे हैं। बहरहाल, अमेरिका ने अपनी दो कंपनियों फाइजर व मॉडर्ना की वैक्सीन को मंजूरी दी है। इसलिए वहां के नेताओं ने इनकी वैक्सीन लगवाई। दुनिया के और भी कई देशों में जिस वैक्सीन को मंजूरी मिली है उसके नेता वह वैक्सीन लगवा रहे हैं। रूस में बनी वैक्सीन का पहला डोज राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की बेटी को दिया गया।
तभी सवाल है कि भारत में राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केंद्र सरकार के मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री कौन सी वैक्सीन लगवाएंगे? क्या वह सार्वजनिक रूप से वैक्सीन लगवाएंगे ताकि लोगों का इनके प्रति भरोसा बन सके?
अब कायदे से तो देश और प्रदेश के शीर्ष नेताओं को भारत की अपनी भारत बायोटेक में बनी स्वदेशी वैक्सीन (कोवैक्सीन) लगवानी चाहिए लेकिन अगर उन्हें अपनी वैक्सीन पर बहुत भरोसा नहीं है तो उन्हें ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन (कोवीशील्ड) लगवानी चाहिए। सरकार ने इन दोनों वैक्सीन को मंजूरी दी है। अगर सरकार के शीर्ष पर बैठे नेता भारत की स्वदेशी वैक्सीन लगवाते हैं तो देश और दुनिया में भी इसका बड़ा मैसेज जाएगा।
यह भी ऐसे समय में, जब भारत में मंजूर की गई दोनों वैक्सीन को लेकर कंपनी खुद एक दूसरे के भेद खोल रही हों, यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने वैक्सीन लगवाने से मना कर दिया है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी किसी बहाने से टीका लगवाना टाल दिया है। उन्होंने कहा है कि पहले जरूरतमंदों को टीका लगाया जाए। यह भी तब, जब वह कोरोना संक्रमित होकर ठीक हो चुके हैं। ऐसे में जितना आमजन का शक संभावित हैं, उतना ही शीर्षस्थ नेताओं खासकर पीएम की पहल भरोसा बढाने में कारगर साबित होगी।
इस सबसे इतर, खास यह है कि सिर्फ वाह-वाह करने या दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीनेशन प्रोग्राम शुरू करने का ऐलान करके पीठ थपथपाने की बजाय, सरकार को इन पर उठ रहे सवालों का जवाब मांगना चाहिए और खुद भी लोगों को जवाब देना चाहिए। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि अब यह सिर्फ विपक्षी पार्टियों के सवाल उठाने का मसला नहीं है। अब वैक्सीन के जानकार भी सवाल उठा रहे हैं और वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां ही पोल खोल रही हैं।
भारत की स्वदेशी वैक्सीन तैयार करने वाली भारत बायोटक के प्रबंध निदेशक (एमडी) कृष्णा एल्ला ने प्रेस कांफ्रेंस कर ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की कोवीशील्ड वैक्सीन की पोल खोली, जिसे सीरम इंस्टीच्यूट ने तैयार किया है और जिसके भरोसे प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं कि भारत में दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीनेशन कार्यक्रम शुरू होने जा रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, कृष्णा एल्ला ने कहा कि कोवीशील्ड के परीक्षण के दौरान वालंटियर्स को चार एमजी का पैरासिटामोल यानी बुखार उतारने की दवा दी गई ताकि साइड इफेक्ट्स को सामने आने से रोका जा सके। उन्होंने अपनी वैक्सीन की तारीफ करते हुए कहा कि इसके लिए कोई पैरासिटामोल नहीं दिया गया।
क्या सरकार को इस बात की जांच नहीं करानी चाहिए कि कोवीशील्ड के परीक्षण के दौरान वालंटियर्स को पैरासिटामोल क्या तय मानक के तहत दिया गया था? क्या यह एक गलत काम था? कृष्णा एल्ला ने यह भी कहा कि भारत बायोटेक की को-वैक्सीन में साइड इफेक्ट 10 फीसदी तक है, जबकि दूसरी वैक्सीन में 60 से 70 फीसदी तक साइड इफेक्ट हैं। दूसरी वैक्सीन का उन्होंने नाम नहीं लिया पर जब दो ही वैक्सीन को मंजूरी मिली है तो दूसरी वैक्सीन का मतलब कोवीशील्ड है। अगर उसमें 60 से 70 फीसदी तक साइड इफेक्ट है तो इसकी खबर क्यों नही आई है और क्या मंजूरी देने से पहले इसका संज्ञान लिया गया है?
बड़ा सवाल इसके असर को लेकर भी है। कोवैक्सीन का तो खैर अभी तीसरे चरण का ट्रायल चल ही रहा है पर कोवीशील्ड का ट्रायल पूरा हो गया है। इसलिए उसके बारे में सबको पक्के तौर पर पता होना चाहिए कि उसका असर कितना है, वह वायरस से कितनी और कब तक सुरक्षा दे सकता है?
सीरम इंस्टीच्यूट में बनी ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन के बारे में तीन अलग अलग दावे हैं। खबरों के मुताबिक, ब्रिटेन के रेगुलेटर ने कहा है कि यह 80 फीसदी तक प्रभावी है। हालांकि स्वीडिश कंपनी एस्ट्राजेनेका का कहना है कि यह 62 फीसदी से लेकर 90 फीसदी तक प्रभावी है। परीक्षण के दौरान ब्रिटेन और ब्राजील में वालंटियर्य को फुल दो डोज दिए गए थे और उन पर यह 62 फीसदी प्रभावी था। ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया का कहना है कि भारत में इसका ओवरऑल प्रभाव 74 फीसदी से थोड़ा ज्यादा है।
इसी सिलसिले में जब सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला से एक टीवी कार्यक्रम में दवा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इस समय दुनिया में सिर्फ़ तीन वैक्सीन है जिसने अपनी प्रभावकारिता सिद्ध की है। इसके लिए आपको बीस से पच्चीस हज़ार लोगों पर दवा आज़मानी होती है। कुछ भारतीय कंपनियां भी इस पर काम कर रही हैं। और उनके नतीजों के लिए हमें इंतज़ार करना होगा। लेकिन फ़िलहाल सिर्फ़ तीन वैक्सीन फ़ाइज़र, मॉडर्ना और एस्ट्रोज़ेनेका ऑक्सफ़ोर्ड हैं जिन्होंने ये साबित किया है कि ये काम करती हैं। इसके अलावा कोई भी चीज़ जिसने ये साबित किया है कि वह सुरक्षित है। वह पानी जैसी है। जैसे पानी सुरक्षित होता है. लेकिन एफ़िकेसी 70%, 80% या 90% होती है। ये सिर्फ़ इन तीन वैक्सीनों ने साबित किया है।
पूनावाला के इस बयान से काफ़ी विवाद पैदा हुआ क्योंकि यह कहना कि बाक़ी सारी वैक्सीन पानी जैसी हैं, भारत में बन रही वैक्सीन की गुणवत्ता पर एक सवाल की तरह था।
भारत बायोटेक के एमडी कृष्णा एल्ला ने अपनी वैक्सीन को लेकर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की जिसमें उन्होंने काफ़ी भावनात्मक होते हुए कई दलीलों से अपनी वैक्सीन का बचाव करने की कोशिश की है। उन्होंने, एक तरह से पलटवार करते हुए कहा, "किसी कंपनी ने मुझे (कोवैक्सिन को) पानी की संज्ञा दी है, इस वजह से मुझे ये बताना पड़ रहा है। अगर मैं थोड़ा नाराज़गी के साथ बोलूं तो मुझे माफ़ करिएगा। इस सबसे दुख होता है। एक वैज्ञानिक को दुख होता है जो 24 घंटे काम करता है। क्योंकि उसे लोगों की ओर से आलोचना मिलती है। वो भी उन लोगों के स्वार्थी कारणों की वजह से। एल्ला ने अपने बचाव में तमाम तर्क दिए लेकिन सवाल है कि क्या इन दलीलों से वैक्सीन की गुणवत्ता सिद्ध हो सकती है।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रसिद्ध संक्रामक रोग विशेषज्ञ जय प्रकाश मुलियल कहते हैं, उन्हें डेटा देना चाहिए। मुझे लगता है कि हमारे देश को किसी भी वैक्सीन को तब तक स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए जब तक उसका डेटा पियर रिव्यू के चरण से पार नहीं हो जाए और उसके बारे में कहा जा सके कि वह काम करती है। मुलियल दोनों कंपनियों के नेतृत्व के व्यवहार को निराशापूर्ण बताते हुए कहते है कि कंपनियों के बीच विवाद से टीकाकरण अभियान को नुक़सान पहुंचता है।
पब्लिक हेल्थ फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया से जुड़े संक्रामक रोगों के विशेषज्ञ डॉ. गिरिधर बाबू भी मानते हैं कि कंपनियों की ओर से बयानबाज़ी टीकाकरण अभियान के लिए ठीक नहीं है। वह कहते हैं कि अभी तक जो भी टीकाकरण अभियान होते थे, उसमें वैक्सीन किस कंपनी की ओर से बनाई गई है, ये कभी भी पब्लिक नॉलेज में नहीं आता था। रेगुलेटर वैक्सीन को मंज़ूरी देते थे और सरकार या यूनिसेफ़ जो भी वैक्सीन लेते थे, वो सरकारी तंत्र में चली जाती थी। इस बार जो हुआ है, वो सब काफ़ी दुर्भाग्यशाली है। ये सब नहीं होना चाहिए था। इस समय ज़रूरत है कि वैक्सीन के प्रति भरोसा पैदा किया जाए, लोगों को बताया जाए कि फ़लां वैक्सीन अच्छी है और उसे लिया जा सकता है।
ऐसे में सवाल फिर वहीं आकर रुक जाता है कि क्या पीएम नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार के शीर्षस्थ मंत्री आदि लोगों में भरोसा बढाने को सार्वजनिक तौर से वैक्सीन लगवा, स्टेट्समैनशिप दिखाएंगे? इसका जवाब समय आने पर ही मिल पाएगा।
अमेरिका में निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन और उनकी पत्नी ने सार्वजनिक रूप से वैक्सीन लगवाई। टेलीविजन पर उसका प्रसारण हुआ। हालांकि इसके बावजूद अमेरिका में लोग वैक्सीन लगवाने में ज्यादा रूचि नहीं ले रहे हैं। बहरहाल, अमेरिका ने अपनी दो कंपनियों फाइजर व मॉडर्ना की वैक्सीन को मंजूरी दी है। इसलिए वहां के नेताओं ने इनकी वैक्सीन लगवाई। दुनिया के और भी कई देशों में जिस वैक्सीन को मंजूरी मिली है उसके नेता वह वैक्सीन लगवा रहे हैं। रूस में बनी वैक्सीन का पहला डोज राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की बेटी को दिया गया।
तभी सवाल है कि भारत में राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केंद्र सरकार के मंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्री कौन सी वैक्सीन लगवाएंगे? क्या वह सार्वजनिक रूप से वैक्सीन लगवाएंगे ताकि लोगों का इनके प्रति भरोसा बन सके?
अब कायदे से तो देश और प्रदेश के शीर्ष नेताओं को भारत की अपनी भारत बायोटेक में बनी स्वदेशी वैक्सीन (कोवैक्सीन) लगवानी चाहिए लेकिन अगर उन्हें अपनी वैक्सीन पर बहुत भरोसा नहीं है तो उन्हें ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन (कोवीशील्ड) लगवानी चाहिए। सरकार ने इन दोनों वैक्सीन को मंजूरी दी है। अगर सरकार के शीर्ष पर बैठे नेता भारत की स्वदेशी वैक्सीन लगवाते हैं तो देश और दुनिया में भी इसका बड़ा मैसेज जाएगा।
यह भी ऐसे समय में, जब भारत में मंजूर की गई दोनों वैक्सीन को लेकर कंपनी खुद एक दूसरे के भेद खोल रही हों, यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने वैक्सीन लगवाने से मना कर दिया है। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी किसी बहाने से टीका लगवाना टाल दिया है। उन्होंने कहा है कि पहले जरूरतमंदों को टीका लगाया जाए। यह भी तब, जब वह कोरोना संक्रमित होकर ठीक हो चुके हैं। ऐसे में जितना आमजन का शक संभावित हैं, उतना ही शीर्षस्थ नेताओं खासकर पीएम की पहल भरोसा बढाने में कारगर साबित होगी।
इस सबसे इतर, खास यह है कि सिर्फ वाह-वाह करने या दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीनेशन प्रोग्राम शुरू करने का ऐलान करके पीठ थपथपाने की बजाय, सरकार को इन पर उठ रहे सवालों का जवाब मांगना चाहिए और खुद भी लोगों को जवाब देना चाहिए। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि अब यह सिर्फ विपक्षी पार्टियों के सवाल उठाने का मसला नहीं है। अब वैक्सीन के जानकार भी सवाल उठा रहे हैं और वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां ही पोल खोल रही हैं।
भारत की स्वदेशी वैक्सीन तैयार करने वाली भारत बायोटक के प्रबंध निदेशक (एमडी) कृष्णा एल्ला ने प्रेस कांफ्रेंस कर ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका की कोवीशील्ड वैक्सीन की पोल खोली, जिसे सीरम इंस्टीच्यूट ने तैयार किया है और जिसके भरोसे प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं कि भारत में दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीनेशन कार्यक्रम शुरू होने जा रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, कृष्णा एल्ला ने कहा कि कोवीशील्ड के परीक्षण के दौरान वालंटियर्स को चार एमजी का पैरासिटामोल यानी बुखार उतारने की दवा दी गई ताकि साइड इफेक्ट्स को सामने आने से रोका जा सके। उन्होंने अपनी वैक्सीन की तारीफ करते हुए कहा कि इसके लिए कोई पैरासिटामोल नहीं दिया गया।
क्या सरकार को इस बात की जांच नहीं करानी चाहिए कि कोवीशील्ड के परीक्षण के दौरान वालंटियर्स को पैरासिटामोल क्या तय मानक के तहत दिया गया था? क्या यह एक गलत काम था? कृष्णा एल्ला ने यह भी कहा कि भारत बायोटेक की को-वैक्सीन में साइड इफेक्ट 10 फीसदी तक है, जबकि दूसरी वैक्सीन में 60 से 70 फीसदी तक साइड इफेक्ट हैं। दूसरी वैक्सीन का उन्होंने नाम नहीं लिया पर जब दो ही वैक्सीन को मंजूरी मिली है तो दूसरी वैक्सीन का मतलब कोवीशील्ड है। अगर उसमें 60 से 70 फीसदी तक साइड इफेक्ट है तो इसकी खबर क्यों नही आई है और क्या मंजूरी देने से पहले इसका संज्ञान लिया गया है?
बड़ा सवाल इसके असर को लेकर भी है। कोवैक्सीन का तो खैर अभी तीसरे चरण का ट्रायल चल ही रहा है पर कोवीशील्ड का ट्रायल पूरा हो गया है। इसलिए उसके बारे में सबको पक्के तौर पर पता होना चाहिए कि उसका असर कितना है, वह वायरस से कितनी और कब तक सुरक्षा दे सकता है?
सीरम इंस्टीच्यूट में बनी ऑक्सफोर्ड एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन के बारे में तीन अलग अलग दावे हैं। खबरों के मुताबिक, ब्रिटेन के रेगुलेटर ने कहा है कि यह 80 फीसदी तक प्रभावी है। हालांकि स्वीडिश कंपनी एस्ट्राजेनेका का कहना है कि यह 62 फीसदी से लेकर 90 फीसदी तक प्रभावी है। परीक्षण के दौरान ब्रिटेन और ब्राजील में वालंटियर्य को फुल दो डोज दिए गए थे और उन पर यह 62 फीसदी प्रभावी था। ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया का कहना है कि भारत में इसका ओवरऑल प्रभाव 74 फीसदी से थोड़ा ज्यादा है।
इसी सिलसिले में जब सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया के सीईओ अदार पूनावाला से एक टीवी कार्यक्रम में दवा के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि इस समय दुनिया में सिर्फ़ तीन वैक्सीन है जिसने अपनी प्रभावकारिता सिद्ध की है। इसके लिए आपको बीस से पच्चीस हज़ार लोगों पर दवा आज़मानी होती है। कुछ भारतीय कंपनियां भी इस पर काम कर रही हैं। और उनके नतीजों के लिए हमें इंतज़ार करना होगा। लेकिन फ़िलहाल सिर्फ़ तीन वैक्सीन फ़ाइज़र, मॉडर्ना और एस्ट्रोज़ेनेका ऑक्सफ़ोर्ड हैं जिन्होंने ये साबित किया है कि ये काम करती हैं। इसके अलावा कोई भी चीज़ जिसने ये साबित किया है कि वह सुरक्षित है। वह पानी जैसी है। जैसे पानी सुरक्षित होता है. लेकिन एफ़िकेसी 70%, 80% या 90% होती है। ये सिर्फ़ इन तीन वैक्सीनों ने साबित किया है।
पूनावाला के इस बयान से काफ़ी विवाद पैदा हुआ क्योंकि यह कहना कि बाक़ी सारी वैक्सीन पानी जैसी हैं, भारत में बन रही वैक्सीन की गुणवत्ता पर एक सवाल की तरह था।
भारत बायोटेक के एमडी कृष्णा एल्ला ने अपनी वैक्सीन को लेकर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की जिसमें उन्होंने काफ़ी भावनात्मक होते हुए कई दलीलों से अपनी वैक्सीन का बचाव करने की कोशिश की है। उन्होंने, एक तरह से पलटवार करते हुए कहा, "किसी कंपनी ने मुझे (कोवैक्सिन को) पानी की संज्ञा दी है, इस वजह से मुझे ये बताना पड़ रहा है। अगर मैं थोड़ा नाराज़गी के साथ बोलूं तो मुझे माफ़ करिएगा। इस सबसे दुख होता है। एक वैज्ञानिक को दुख होता है जो 24 घंटे काम करता है। क्योंकि उसे लोगों की ओर से आलोचना मिलती है। वो भी उन लोगों के स्वार्थी कारणों की वजह से। एल्ला ने अपने बचाव में तमाम तर्क दिए लेकिन सवाल है कि क्या इन दलीलों से वैक्सीन की गुणवत्ता सिद्ध हो सकती है।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रसिद्ध संक्रामक रोग विशेषज्ञ जय प्रकाश मुलियल कहते हैं, उन्हें डेटा देना चाहिए। मुझे लगता है कि हमारे देश को किसी भी वैक्सीन को तब तक स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए जब तक उसका डेटा पियर रिव्यू के चरण से पार नहीं हो जाए और उसके बारे में कहा जा सके कि वह काम करती है। मुलियल दोनों कंपनियों के नेतृत्व के व्यवहार को निराशापूर्ण बताते हुए कहते है कि कंपनियों के बीच विवाद से टीकाकरण अभियान को नुक़सान पहुंचता है।
पब्लिक हेल्थ फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया से जुड़े संक्रामक रोगों के विशेषज्ञ डॉ. गिरिधर बाबू भी मानते हैं कि कंपनियों की ओर से बयानबाज़ी टीकाकरण अभियान के लिए ठीक नहीं है। वह कहते हैं कि अभी तक जो भी टीकाकरण अभियान होते थे, उसमें वैक्सीन किस कंपनी की ओर से बनाई गई है, ये कभी भी पब्लिक नॉलेज में नहीं आता था। रेगुलेटर वैक्सीन को मंज़ूरी देते थे और सरकार या यूनिसेफ़ जो भी वैक्सीन लेते थे, वो सरकारी तंत्र में चली जाती थी। इस बार जो हुआ है, वो सब काफ़ी दुर्भाग्यशाली है। ये सब नहीं होना चाहिए था। इस समय ज़रूरत है कि वैक्सीन के प्रति भरोसा पैदा किया जाए, लोगों को बताया जाए कि फ़लां वैक्सीन अच्छी है और उसे लिया जा सकता है।
ऐसे में सवाल फिर वहीं आकर रुक जाता है कि क्या पीएम नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार के शीर्षस्थ मंत्री आदि लोगों में भरोसा बढाने को सार्वजनिक तौर से वैक्सीन लगवा, स्टेट्समैनशिप दिखाएंगे? इसका जवाब समय आने पर ही मिल पाएगा।