भारत के मुस्लिम एक वंचित समुदाय हैं जिनका दुनिया के सबसे बड़े संसदीय लोकतंत्र में प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व ही है। जबकि 2011 की जनगणना के मुताबिक 17.22 करोड़ आबादी व जनसंख्या का 14.2 प्रतिशत होते हुए वे भारत के सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय हैं।
किसी भी सफल लोकतंत्र की पहचान है कि बिना किसी धार्मिक सम्बद्धता के सभी को बराबर की भागीदारी व समान अधिकार मिलें। किंतु वर्तमान भारत में मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक हो गए हैं।
सौभाग्य से वे व अन्य अल्पसंख्यक अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकते हैं जो शायद उनके देश के नागरिक होने की अकेली पहचान है। राजनीतिक दलों के लिए मुस्लिम वोट बैंक तो बड़े आकर्षण का विषय होता है किंतु शायद इस समुदाय के सदस्य चुने जाने के योग्य नहीं माने जाते। इस तरह मुसलमानों को अपने हाशिए पर ढकेले जाने की प्रक्रिया का मौन दर्शक बना कर रख दिया गया है।
स्थिति यह है कि हाल के लोक सभा चुनाव में 303 सांसदों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भारतीय जनता पार्टी, जो अब अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैषी बता रही है, का सिर्फ एक मुस्लिम संसद सदस्य है - पश्चिम बंगाल से सौमित्र खान। भाजपा ने कुल मिला कर 6 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे, यानी लोक सभा के कुल स्थानों का 1.1 प्रतिशत। क्या भाजपा सोचती है कि मुसलमानों का देश पर सिर्फ इतना ही हक है?
यह सम्भव है कि भाजपा ने अपनी राजनीतिक विचारधारा व झुकाव, जिसकी वजह से उसे देश पर अगले पांच वर्ष तक शासन करने हेतु भारी बहुमत मिल गया है, की वजह से उसने जानबूझकर केरल, असम, बिहार, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में जिनमें मुसलमानों की काफी आबादी है में एक भी मुसलमान को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। 2014 लोक सभा चुनाव में भाजपा ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी कि उत्तर प्रदेश, जहां से सबसे ज्यादा सांसद चुन कर जाते हैं, से किसी अन्य दल का भी कोई मुस्लिम सांसद नहीं चुना जा सका। इस सोच से अब अन्य धर्मनिर्पेक्ष दल भी प्रभावित हो रहे हैं कि वे इतना मुस्लिम पक्षधर न दिखाई पड़ें कि उनका हिन्दू वोट खिसक न जाए। सौभाग्य से 2019 में उत्त्र प्रदेश से 6 और कुल मिलाकर 27 मुस्लिम सांसद हैं जो 2014 से 5 अधिक होते हुए भी लोक सभा का सिर्फ 4.97 प्रतिशत है जो देश की मुस्लिम आबादी के प्रतिशत से काफी कम है। इस तुलना में महिलाएं लोक सभा में 14.36 प्रतिशत हैं, वह भी अपनी आबादी में अनुपात के हिसाब से काफी कम ही हैं।
मुसलमानों के राजनीतिक हाशिए पर जाने की प्रक्रिया आंख खोलने वाली है। मुसलमानों को अपनी तटस्थता, अलग-थलग पड़े रहना व बचाव की मुद्रा छोड़कर इस लोकतांत्रिक देश में सक्रिय राजनीतिक भागीदारी कर अपने भविष्य कर खुद निर्धारण करना होगा।
उनके सामने यही एक रास्ता है, यही एकमात्र विकल्प है। अन्यथा उन्हें चुपचाप बैठकर अपने दोयम दर्जे की नागरिकता की हैसियत स्वीकार कर लेनी पडे़गी और फिर किसी से कोई शिकायत नहीं करनी होगी।
हमारा यह मानना है कि यह किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति या समुदाय के लिए जो लाकतंत्र के महत्व को समझते हैं को स्वीकार नहीं होगा।
ऐसे नाजुक दौर में मुसलमानों को चिंतन कर अपनी पहल लेकर भारत के ’सम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिर्पेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’ में अपनी भागीदारी निभानी होगी। संविधान की प्रस्तावना में न्याय की बात है जो सिर्फ ’सामाजिक व आर्थिक’ ही नहीं बल्कि ’राजनीतिक अधिकार’ भी है।
बिना राजनीतिक अधिकार के कोई भी समुदाय, यहां सिर्फ मुसलमानों की बात नहीं है, नए राजनीतिक अछूत बन जाएंगे।
तो इसके लिए क्या करना होगा व आगे का रास्ता क्या है?
सबसे पहले मुसलमानों को अपने आप को इस अपराध बोध से मुक्त कर लेना चाहिए कि वे इस देश के सात दशक पहले हुए विभाजन के लिए जिम्मेदार हैं। जो इस देश में रह गए उन्हें जो काम उन्होंने किया नहीं उसके लिए क्यों अपरोध बोध होना चाहिए? जो पाकिस्तान चाहते थे वे तो चले गए। जो इस देश को ही अपना घर मानते थे वे ही यहां रहे। दूसरा, जो उन्हें तो मालूम है लेकिन दूसरों को एहसास कराने की जरूरत है कि मुसलमानों के साथ कोई तुष्टिकरण जैसी चीज नहीं हुई है। यदि हुई होती तो उनकी स्थिति दालितों से थोड़ी ही बेहतर कैसे रहती? कुछ मामलों, जैसे साक्षरता व सरकारी नौकरियों में अनुपात, में तो वे दलितों से भी पिछड़ गए हैं। यह हकीतक सच्चर समिति की आख्या में देखी जा सकती है। तीसरा, उन्हें दूसरों को यह भी समझाना पड़ेगा कि उन्हें आतंकवादी घटनाओं में नाजायज तरीके से फंसाया गया है। कई मुस्लिम जो आंतकी गतिविधियों में संलिप्त होने के आरोप में पकड़े गए थे बाद में सबूतों के अभाव में बरी हुए अथवा सजा न हो सकने की स्थिति में अभी भी जेलों में सड़ रहे हैं। इसमें ज्यादातर निर्दोष हैं। इस देश में दलितों व अदिवासियों के साथ मुसलमानों का भी ज्रेलों में प्रतिशत अपनी आबादी के अनुपात से ज्यादा है। इसी तरह सरेआम पीटने वाली घटनाओं में भी पीड़ित ज्यादातर निर्दोष थे व यदि दोषी थे भी तो उन्हें देश के कानून के हिसाब से जो सजा हो सकती थी उससे कहीं ज्यादा सजा दी गई, जो पीड़ितों के साथ सरासर अन्याय हुआ।
आखिरी बात, उन्हें सक्रिय राजनीतिक भागीदारी से विधायिका में अपना राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ाना होगा। इसके लिए कोई अभियान या आंदोलन भी छेड़ना पड़ सकता है। भारतीय नागरिक के रूप में बराबरी के अधिकार को हासिल कर इस देश के कार्यकलापों में हिस्सेदारी करनी होगी क्योंकि संविधान के ’हम भारत के लोग’ में मुस्लिम भी शामिल हैं।
अब मुसलमानों को सुना जाना चाहिए। उन्हें भी अपनी ’मन की बात’ कहने का अधिकार है।
लेखकः बसंत रावत, कौसरअली सैयद, संदीप पाण्डेय
किसी भी सफल लोकतंत्र की पहचान है कि बिना किसी धार्मिक सम्बद्धता के सभी को बराबर की भागीदारी व समान अधिकार मिलें। किंतु वर्तमान भारत में मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक हो गए हैं।
सौभाग्य से वे व अन्य अल्पसंख्यक अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकते हैं जो शायद उनके देश के नागरिक होने की अकेली पहचान है। राजनीतिक दलों के लिए मुस्लिम वोट बैंक तो बड़े आकर्षण का विषय होता है किंतु शायद इस समुदाय के सदस्य चुने जाने के योग्य नहीं माने जाते। इस तरह मुसलमानों को अपने हाशिए पर ढकेले जाने की प्रक्रिया का मौन दर्शक बना कर रख दिया गया है।
स्थिति यह है कि हाल के लोक सभा चुनाव में 303 सांसदों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी भारतीय जनता पार्टी, जो अब अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैषी बता रही है, का सिर्फ एक मुस्लिम संसद सदस्य है - पश्चिम बंगाल से सौमित्र खान। भाजपा ने कुल मिला कर 6 मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे, यानी लोक सभा के कुल स्थानों का 1.1 प्रतिशत। क्या भाजपा सोचती है कि मुसलमानों का देश पर सिर्फ इतना ही हक है?
यह सम्भव है कि भाजपा ने अपनी राजनीतिक विचारधारा व झुकाव, जिसकी वजह से उसे देश पर अगले पांच वर्ष तक शासन करने हेतु भारी बहुमत मिल गया है, की वजह से उसने जानबूझकर केरल, असम, बिहार, गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में जिनमें मुसलमानों की काफी आबादी है में एक भी मुसलमान को अपना उम्मीदवार नहीं बनाया। 2014 लोक सभा चुनाव में भाजपा ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी कि उत्तर प्रदेश, जहां से सबसे ज्यादा सांसद चुन कर जाते हैं, से किसी अन्य दल का भी कोई मुस्लिम सांसद नहीं चुना जा सका। इस सोच से अब अन्य धर्मनिर्पेक्ष दल भी प्रभावित हो रहे हैं कि वे इतना मुस्लिम पक्षधर न दिखाई पड़ें कि उनका हिन्दू वोट खिसक न जाए। सौभाग्य से 2019 में उत्त्र प्रदेश से 6 और कुल मिलाकर 27 मुस्लिम सांसद हैं जो 2014 से 5 अधिक होते हुए भी लोक सभा का सिर्फ 4.97 प्रतिशत है जो देश की मुस्लिम आबादी के प्रतिशत से काफी कम है। इस तुलना में महिलाएं लोक सभा में 14.36 प्रतिशत हैं, वह भी अपनी आबादी में अनुपात के हिसाब से काफी कम ही हैं।
मुसलमानों के राजनीतिक हाशिए पर जाने की प्रक्रिया आंख खोलने वाली है। मुसलमानों को अपनी तटस्थता, अलग-थलग पड़े रहना व बचाव की मुद्रा छोड़कर इस लोकतांत्रिक देश में सक्रिय राजनीतिक भागीदारी कर अपने भविष्य कर खुद निर्धारण करना होगा।
उनके सामने यही एक रास्ता है, यही एकमात्र विकल्प है। अन्यथा उन्हें चुपचाप बैठकर अपने दोयम दर्जे की नागरिकता की हैसियत स्वीकार कर लेनी पडे़गी और फिर किसी से कोई शिकायत नहीं करनी होगी।
हमारा यह मानना है कि यह किसी भी स्वाभिमानी व्यक्ति या समुदाय के लिए जो लाकतंत्र के महत्व को समझते हैं को स्वीकार नहीं होगा।
ऐसे नाजुक दौर में मुसलमानों को चिंतन कर अपनी पहल लेकर भारत के ’सम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिर्पेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’ में अपनी भागीदारी निभानी होगी। संविधान की प्रस्तावना में न्याय की बात है जो सिर्फ ’सामाजिक व आर्थिक’ ही नहीं बल्कि ’राजनीतिक अधिकार’ भी है।
बिना राजनीतिक अधिकार के कोई भी समुदाय, यहां सिर्फ मुसलमानों की बात नहीं है, नए राजनीतिक अछूत बन जाएंगे।
तो इसके लिए क्या करना होगा व आगे का रास्ता क्या है?
सबसे पहले मुसलमानों को अपने आप को इस अपराध बोध से मुक्त कर लेना चाहिए कि वे इस देश के सात दशक पहले हुए विभाजन के लिए जिम्मेदार हैं। जो इस देश में रह गए उन्हें जो काम उन्होंने किया नहीं उसके लिए क्यों अपरोध बोध होना चाहिए? जो पाकिस्तान चाहते थे वे तो चले गए। जो इस देश को ही अपना घर मानते थे वे ही यहां रहे। दूसरा, जो उन्हें तो मालूम है लेकिन दूसरों को एहसास कराने की जरूरत है कि मुसलमानों के साथ कोई तुष्टिकरण जैसी चीज नहीं हुई है। यदि हुई होती तो उनकी स्थिति दालितों से थोड़ी ही बेहतर कैसे रहती? कुछ मामलों, जैसे साक्षरता व सरकारी नौकरियों में अनुपात, में तो वे दलितों से भी पिछड़ गए हैं। यह हकीतक सच्चर समिति की आख्या में देखी जा सकती है। तीसरा, उन्हें दूसरों को यह भी समझाना पड़ेगा कि उन्हें आतंकवादी घटनाओं में नाजायज तरीके से फंसाया गया है। कई मुस्लिम जो आंतकी गतिविधियों में संलिप्त होने के आरोप में पकड़े गए थे बाद में सबूतों के अभाव में बरी हुए अथवा सजा न हो सकने की स्थिति में अभी भी जेलों में सड़ रहे हैं। इसमें ज्यादातर निर्दोष हैं। इस देश में दलितों व अदिवासियों के साथ मुसलमानों का भी ज्रेलों में प्रतिशत अपनी आबादी के अनुपात से ज्यादा है। इसी तरह सरेआम पीटने वाली घटनाओं में भी पीड़ित ज्यादातर निर्दोष थे व यदि दोषी थे भी तो उन्हें देश के कानून के हिसाब से जो सजा हो सकती थी उससे कहीं ज्यादा सजा दी गई, जो पीड़ितों के साथ सरासर अन्याय हुआ।
आखिरी बात, उन्हें सक्रिय राजनीतिक भागीदारी से विधायिका में अपना राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ाना होगा। इसके लिए कोई अभियान या आंदोलन भी छेड़ना पड़ सकता है। भारतीय नागरिक के रूप में बराबरी के अधिकार को हासिल कर इस देश के कार्यकलापों में हिस्सेदारी करनी होगी क्योंकि संविधान के ’हम भारत के लोग’ में मुस्लिम भी शामिल हैं।
अब मुसलमानों को सुना जाना चाहिए। उन्हें भी अपनी ’मन की बात’ कहने का अधिकार है।
लेखकः बसंत रावत, कौसरअली सैयद, संदीप पाण्डेय