RSS का दावा है कि भारत के मुसलमान ऐतिहासिक रूप से हिंदू थे. इसके अलावा भी अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर अनेक दावे होते रहते हैं. CJP ने हेट-बस्टर सीरीज़ में इन दावों का विश्लेषण करके सच को आपके सामने रखने की कोशिश की है.
हिंदुत्व प्रोजेक्ट हर संभव तरीक़े से राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से प्रभुत्व क़ायम करने के लिए लोगों को हिंदू धर्म के दायरे में लेने कोशिश करता रहता है. दोन्यी पोलो उपासकों (सूरज और चांद की पूजा करने वाले) को हिंदू की श्रेणी में शुमार करने की आदिवासी विरोधी कोशिशें भी इसी मुहिम का हिस्सा है. इसी तरह हिंदुस्तान के सभी निवासियों को इतिहास और वर्तमान की नज़र में हिंदू साबित करना और इतिहास लेखन में सभी विभिन्नताओं को मिटा देना भी इसी कड़ी का हिस्सा है. ऐसे दावे अक्सर RSS के शीर्ष पदाधिकारियों द्वारा भी किए जाते हैं. सबसे पहले इसका मक़सद ये साबित करना है कि इस्लाम और ईसाइयत जैसे धर्म भारतीय संस्कृति के लिए कोई एलियन जैसी अनोखी चीज़ हैं जिससे कि इन दो समुदायों के ख़िलाफ़ भेदभाव और हिंसा करना आसान हो जाए. ये दावा कि उपमहाद्वीप में सारे मुसलमान पहले हिंदू थे एक सवाल से अधिक एक आरोप है जिसका मक़सद साफ़ तौर पर राजनीतिक है.
दावा- सभी भारतीय मुसलमान धर्मपरिवर्तन को चुनने वाले हिंदू हैं.
हक़ीक़त- ये दावा आइंस्टीन के ओवर सिंप्लीकेशन टेस्ट में असफल ही है जिसके अनुसार-
‘हर चीज़ को जितना संभव को सरल होना चाहिए लेकिन अत्यधिक सरल भी नहीं.’
पूरी दुनिया में मानव जाति के इतिहास में धर्मपरिवर्तन या एक नया धर्म अपनाने की घटनाएं होती रही हैं. हिलाल अहमद का तर्क है- ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि दक्षिण एशियाई मुसलमानों ने अधिकतर धर्मपरिवर्तन किया है. लेकिन ये कोई अकाट्य तथ्य नहीं है क्योंकि इस तर्क के अनुसार तो मुहम्मद साहब के अलावा पूरी दुनिया के मुसलमानों ने धर्मपरिवर्तन किया है क्योंकि उनके पूर्वजों ने अलग एलग ऐतिहासिक परिस्थितियों में इस्लाम क़बूल किया था.’
The Indus Valley civilization flourished from 3500 BC to 1500 BC
[भारत में क़रीब 2000-1000 ईसा पूर्व आने वाले आर्यों ने भी सबसे पहले आदिवासी आबादी का सामना किया था, जिसमें हड़प्पा सभ्यता के लोग और अनेक दूसरे समुदाय भी शामिल थे जो उस समय अलग अलग समूहों और जनजातियों में रहते थे. (अध्ययन के मुताबिक़ हड़प्पा सभ्यता का ईरानी किसानों या स्तीपी पशुपालकों से कोई संबंध नहीं है.) ऋग्वेद में ऐसी अनेक घटनाओं का ज़िक्र है. फिर भी ये कहना अतिसरलीकरण ही होगा कि सारे हिंदू जनजाति आदिवासियों से ताल्लुक़ रखते थे और फिर उन्होंने धर्मपरिवर्तन किया.]
फिर क्यों संघ परिवार इस दावे को दोहराता रहता है? इसका क्या मक़सद है और आज समाज में इस सवाल की क्या प्रासंगिकता है? ये वो सवाल हैं जिसका हेट बस्टर सीरीज़ में हम उत्तर देने का प्रयास करेंगें जिससे कि इस कथित दावे का खंडन किया जा सके.
हिंदुत्ववादी नेताओं के मुताबिक़ इस दावे के मुताबिक़ भारतीय उपमहाद्वाप की धरती पर रह रहे सभी लोग जिन्हें हम आज जानते हैं, कभी हिंदू थे.
आज धर्म परिवर्तन का मुद्दा लगातार चर्चा में है और आज के भारत के लोग पुरातन भारतीयों से काफ़ी हद तक अनभिज्ञ ही हैं.
हिंदुत्व प्रोजेक्ट इस बात पर बल देता रहा है कि भारतीय उपमाहाद्वीप में सभी लोगों का मूल धर्म हिंदुत्व है. भारत में अनेक समुदाय हज़ारों साल तक आस्था के सवाल पर उलझते रहे हैं. स्थानीय विशेषताओं और लोक परिवेश के मुताबिक़ धर्म में बदलाव होने से उसके अनेक रूप प्रकाश में आए हैं. इन स्वरूपों से अनेक धर्म विकसित हुए हैं जिन्हें हम आज भारतीय संदर्भ में हिंदू या मुसलमान कहते हैं. जैसा कि अनेक इतिहासकारों ने तर्क दिया है भारतीय इतिहास को हिंदू और मुसलमान काल में बांटना एक उपनिवेशवादी चाल है जिसे जेम्स मिल ने हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया नामी प्रभावशाली किताब में प्रकाशित किया है. इसी आधार पर अंग्रेज़ों ने बाद में विभाजन की चिंगारी को हवा दी जिससे भारत में दो प्रतिद्न्दी ताक़तों को बल मिला, टू-नेशन थ्योरी वजूद में आई और अंत में देश का विभाजन हो गया.
Mill and his History of British India
भारत में एक धर्म का सिद्दांत उपनिवेशवाद के साथ ही आया था. रोमिला थापर अपनी किताब में कहती हैं- ‘औपनिवेशिक इतिहास ने विविधता को समेटने की कोशिश की है. इस कोशिश ने धर्मों की विविधताओं के आपसी तानेबाने पर सवाल उठाकर नहीं वरन भारत के सभी धर्मों को एकात्मक धर्मों के रूप में प्रदर्शित करके इस कोशिश को अंजाम दिया है.’
उनके मुताबिक़ प्रारंभिक भारत में दो धार्मिक समूह थे. इनमें से पहले ब्राम्हणवाद के सहयोगी धर्म थे जिनका सामाजिक व्यवस्था, जाति व्यवस्था, दो उच्च जातियों और प्रार्थना की परंपराओं में विश्वास था वो श्रमण धर्म की परंपरा से दूर थे. इस परंपरा के बारे में वह कहती हैं.-
‘ये एक धारणा थी जो बौद्ध धर्म, जैन धर्म, अजीविका और अन्य पंथों से जुड़ी थी और जिसने वैदिक श्रुति और स्मृति जैसे ब्राम्हणवादी सिद्धांतों को नकार दिया था. इसमें धार्मिक विश्वास और हिंसा दोनों ही आधार पर जानवरों की बलि देने का भी विरोध किया गया था.’
अशोक के 12वें शिलालेख में कलिंग युद्ध के समय ब्राम्हण और श्रमण दोनों वर्ग पर हुई हिंसा पर दुख जताया गया है.
ये पहली सहस्त्राब्दी में ब्राम्हणवाद को राजनीतिक सहयोग हासिल था और इसका बढ़ते हुए विस्तार के कारण ही-
‘बाद में इसने श्रमणवाद का स्थान ले लिया. स्थानीय संप्रदायों से जुड़े नए समाजिक समूहों के कारण एक पौराणिक धर्म की ज़रूरत को बल मिला. वैदिक भगवान या तो ख़ारिज कर दिए गए या अधीनस्थ हो गए. अब विष्णु और शिव को भगवान के रूप में अधिक महत्व दिया जाने लगा. पौराणिक धर्मों की ओर झुकाव एक तरह से बदलाव की प्रक्रिया में था. अनेक समुदायों की भीड़, पंथ और जातियों ने सामाजिक और धार्मिक पिरामिड बनाने में मदद की.’
‘हिंदुत्ववाद’ शब्द के प्रयोग का श्रेय राजा राममेहन रॉय को जाता है जबकि ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग 14वीं शताब्दी में सांस्कृतिक अंतर को चिन्हित करने के लिए शुरू किया गया था.
एक धर्म की अवधारणा हमने हज़ारों साल के ख़तरनाक सरलीकरण के नतीजे में हासिल की है जिसे अभी तक बदला नहीं जा सका है. करोड़ों लोगों की हिंदू के तौर पर शिनाख्त करके अब सर्वश्रेष्ठता क़ायम करने के मामले में इसकी इस्लाम से जंग आधुनिक है. एक इतिहासकार के लिए ज़रूरी है कि वर्तमान को भूतकाल पर नहीं थोपा जाए और ज्ञात हो सके कि इतिहास समय के अलग-अलग मोड़ पर अपनी छवि को कैसे पहचानता है.
आज हिंदुत्ववादियों के इस दावे की सच्चाई को परखना ज़रूरी है कि जिसके अनुसार माना जाता रहा है कि इस्लाम तलवार के बल पर फैला है. इश तरह हमें प्रतिशोध के औचित्य भी साबित करना होगा.
सहस्त्राब्दी के दूसरे हिस्से में अनेक नई धार्मिक अभिव्यक्तियों के कारण अनेक नए धार्मिक पंथों का उदय हुआ. वो शैव और वैष्णव नामी पौराणिक पंथों से नाता रखते थे और जो श्रमण पंथ से भी ताल्लुक़ रखते थे. इनमें से कुछ ने ब्राम्हणवादी श्रुति और स्मृति को अपनाया जबकि अन्य ने इसका कठोरता से बहिष्कार किया. ये आज तक एक विवादास्पद विषय है. भारत में इस्लाम के आगमन के साथ इनमें से कुछ ने इस्लाम से भी विचार ग्रहण किए.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मंदिरों को यहूदी धर्म से समर्थक ताक़तों द्वारा तोड़ा जा रहा था लेकिन जैसा कि प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब एक इंटरव्यू में कहते हैं.-
‘जब हज्जाज इब्न यूसुफ़ ने मोहम्म्द बिन क़ासिम को सिंध भेजा [8वीं शताब्दी में] तो उन्होंने हिंदूओं के लिए वैसा ही रवैय्या अख़्तियार करने को कहा जैसा कि रवैय्या वो ईसाई और पारसी धर्मों के साथ कर रहे थे. जिसका अर्थ था कि वो सहिष्णु बने रहें. अब मैं कह सकता हूं कि हज्जाज की नीति किसी धार्मिक सहिष्णुता की भावना से नहीं वरन सहज व्यवहारिकता से प्रेरित थी. औरंगज़ेब का पहला वित्त मंत्री एक हिंदू था. अंबर (जयपुर) के अधिकारी महाराज जय सिंह उनके सबसे महान अधिकारियों में से एक थे जिन्हें दक्खन का वॉइसराय घोषित किया गया था. हालंकि मुग़ल लोकतांत्रिक नहीं थे लेकिन उन्होंने बलपूर्वक धर्म परिवर्तन की कोशिश नहीं की थी. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि मंदिर तोड़े जा रहे थे. कोई भी औरंगज़ेब के भेदभावपूर्ण पैमानों और रवैय्यों से इंकार नहीं करता है.’
ऐतिहासिक रूप से लोगों ने अनेक वजहों से धर्म परिवर्तन किया है. उदाहरण के तौर पर बंगाल में इस्लाम के प्रसार पर काम करने वाले जाने-माने इतिहासकार रिचर्ड इटन धर्मांतरण के पीछे किसी एक वजह को ज़िम्मेदार मानने के बजाय ये मानते हैं कि भारत में धर्मांतरण की अनेक वजहें हैं जिसमें सामाजिक मुक्ति और सहयोग सहित अनेक बलों की भूमिका है.
इटन का मानना है कि दक्षिण और पूर्वी बंगाल का वो हिस्सा जहां ब्राम्हण शर्णार्थियों का अपेक्षाकृत कम दख़ल रहा है वहां लोगों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया है. ये हिस्सा आज बंग्लादेश में शुमार होता है.
[ इसी तर्ज़ पर UNESCO वर्ल्ड हेरीटेज साइट के अनुसार सोमपुर महाविहार को पाल वंश के दूसरे पाल राजा धर्मपाल (781–821 के क़रीब) ने बनवाया था. कहा जाता है कि यहां मध्यकालीन बौद्ध धर्म की मशहूर हस्ती अतिसा दीपंकर सृजन का वास था.]
इसी तरह केरल में इस्लाम समंदर और व्यापार के रास्ते पहुंचा. केरल में इस्लाम धर्म को अपनाने के सबसे पुरानी कहानियां हैं जिनका इब्नबतूता ने अपने यात्रा वृत्तांत में भी ज़िक्र किया है.
स्टीफ़न एफ़ डेल के मुताबिक़ केरल के मूल शासक रेवेन्यू के लिए टैक्स ड्यूटी पर निर्भर करते थे इसलिए वो आने वाले मुसलमानों, ईसाईयों और यहूदियों का स्वागत करते थे. ईसाइयत के शुरूआती दौर में यहूदी और ईसाई समुदायों ने इस क्षेत्र में पनाह ली और बाद में जब मुसलमानों ने वैश्विक व्यापार में जगह बना ली तो इस हिस्से में मुसलमानों का भी स्वागत किया गया.
चारू गुप्ता दलितों में धर्म परिवर्तन के बारे में कहती हैं कि मध्यकाल में उत्तर भारत की निचली जातियां अनेक माध्यमों से इस्लाम से जुड़ती गईं. इससे निश्चित तौर पर आधुनिक काल में आर्य समाज के लोगों के बीच चिंता और प्रतिस्पर्धा पैदा होती है जिसके एवज़ शुद्धी आंदोलन का जन्म हुआ.
ऐसे बल आम तौर पर वंचित तबकों और कम शक्तिशाली व्यव्स्थाओं को खोजते हैं. RSS और उससे जुड़े संगठन अक्सर आर्यों के गुण और सर्वश्रेष्ठता पर बल देते हैं. वो नाज़ियों की सराहना करते हैं और भारत को आर्यों की भूमि घोषित करते हैं. हालांकि दूसरी प्रतिस्पर्धी धारणाओं और सबूतों से इन दावों का खंडन होता है. भारत के जनजातीय समूहों में भी नस्लीय अवधारणा से जुड़े कई सारे सवाल और पेंच हैं. RSS ने जनजातियों के स्वतंत्र इतिहास और पहचान को ख़ारिज करते हुए जनजातियों को हिंदुत्व के घेरे में रखने की कोशिश की है. जबकि भारतीय आदिवासी लंबे समय से इसके ख़िलाफ़ संघर्षरत हैं. इस समय RSS के ऐसे अनेक संगठन सक्रिय हैं. इसी कड़ी में वाराणसी कल्याण संगठन भी शामिल है जिसकी आधिकारिक वेबसाईट के अनुसार उनका मक़सद ‘वनवासियों’ में धर्मपरिवर्तन को रोकना है. RSS जानजातिय समुदायों के कड़े विरोध के बावजूद ‘आदिवासी’ की जगह ‘वनवासी’ शब्द का इस्तेमाल करती रही है. हिंदू धार्मिक ग्रंथों में जंगल में रहने वालों के लिए वनवासी शब्द का इस्तेमाल किया गया है जो कि आदिवासियों को भारत का मूल निवासी मानने से इंकार करता है और RSS द्वारा पेश किए जा रहे इतिहास और भविष्य की अवधारणाओं पर पूरी तरह फ़िट बैठता है. हालांकि जनजातियों और वंचित तबक़ों ने RSS के एकाधिकार और उनके द्वारा केवल एक संस्कृति थोपने का लागातार विरोध किया है.
एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया का मानना है कि भारतीय मूल रूप से प्रवासी रहे हैं. कलाकार, किसान और जनजातियां सदियों से संस्कृति, कला और व्यापारिक कौशल के साथ एक जगह से दूसरी जगह जाती रही हैं. इससे संस्कृति के प्रसार और बहुलवाद को बल मिलता है. भारत में अलग-अलग मान्यताओं और परंपराओं को लेकर संवाद होता रहा है, इसमें से हर एक संवाद एकाधिकार के प्रयासों को चुनौती देता है. रोमिला थापर के अनुसार ऐसे ‘विद्रोही विचार’ लगातार मौजूद रहे हैं.
इसी तरह एक रिसर्च के अनुसार हिंदू और मुसलमान क़ौमों के बीच में नस्लीय समानता है. निचली और ऊंची जातियों में भी काफ़ी समानता है. इकोनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली के अनुसार इस आंकड़े ने समाजशास्त्र के मुखिया एम. एन. श्रीनिवास को ये कहने को मजबूर किया है कि वो भारत के लोगों में भाषाई और सांस्कृतिक भेदों के बावजूद शानदार एकता को देखकर हैरान हैं.
इस तरह हिंदुत्व विचारकों का ‘मूल’ होने का दावा एक नए तरह के इतिहास का आविष्कार है जो कि मुसलमान, ईसाई और वंचित तबक़ों को कमतर और दोयम दर्जे का नागरिक मानने पर आधारित है. इतिहास ने इससे सचेत करते हुए सांस्कृतिक लचीलेपन और अनेकता में एकता की दुहाई दी है. एकता को नष्ट करने की तमाम कोशिशों के बावजूद एकता और विविधता अभी भी इस देश का आधार हैं.
तो क्या सारे मुसलमान हिंदू थे? नहीं.
तो क्या एक दूसरे के संपर्क में आने पर विविध समुदायों के लोग धर्मों को और देश की वर्तमान तस्वीर को बनाते हैं? हां.
Related:
हिंदुत्व प्रोजेक्ट हर संभव तरीक़े से राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से प्रभुत्व क़ायम करने के लिए लोगों को हिंदू धर्म के दायरे में लेने कोशिश करता रहता है. दोन्यी पोलो उपासकों (सूरज और चांद की पूजा करने वाले) को हिंदू की श्रेणी में शुमार करने की आदिवासी विरोधी कोशिशें भी इसी मुहिम का हिस्सा है. इसी तरह हिंदुस्तान के सभी निवासियों को इतिहास और वर्तमान की नज़र में हिंदू साबित करना और इतिहास लेखन में सभी विभिन्नताओं को मिटा देना भी इसी कड़ी का हिस्सा है. ऐसे दावे अक्सर RSS के शीर्ष पदाधिकारियों द्वारा भी किए जाते हैं. सबसे पहले इसका मक़सद ये साबित करना है कि इस्लाम और ईसाइयत जैसे धर्म भारतीय संस्कृति के लिए कोई एलियन जैसी अनोखी चीज़ हैं जिससे कि इन दो समुदायों के ख़िलाफ़ भेदभाव और हिंसा करना आसान हो जाए. ये दावा कि उपमहाद्वीप में सारे मुसलमान पहले हिंदू थे एक सवाल से अधिक एक आरोप है जिसका मक़सद साफ़ तौर पर राजनीतिक है.
दावा- सभी भारतीय मुसलमान धर्मपरिवर्तन को चुनने वाले हिंदू हैं.
हक़ीक़त- ये दावा आइंस्टीन के ओवर सिंप्लीकेशन टेस्ट में असफल ही है जिसके अनुसार-
‘हर चीज़ को जितना संभव को सरल होना चाहिए लेकिन अत्यधिक सरल भी नहीं.’
पूरी दुनिया में मानव जाति के इतिहास में धर्मपरिवर्तन या एक नया धर्म अपनाने की घटनाएं होती रही हैं. हिलाल अहमद का तर्क है- ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि दक्षिण एशियाई मुसलमानों ने अधिकतर धर्मपरिवर्तन किया है. लेकिन ये कोई अकाट्य तथ्य नहीं है क्योंकि इस तर्क के अनुसार तो मुहम्मद साहब के अलावा पूरी दुनिया के मुसलमानों ने धर्मपरिवर्तन किया है क्योंकि उनके पूर्वजों ने अलग एलग ऐतिहासिक परिस्थितियों में इस्लाम क़बूल किया था.’
The Indus Valley civilization flourished from 3500 BC to 1500 BC
[भारत में क़रीब 2000-1000 ईसा पूर्व आने वाले आर्यों ने भी सबसे पहले आदिवासी आबादी का सामना किया था, जिसमें हड़प्पा सभ्यता के लोग और अनेक दूसरे समुदाय भी शामिल थे जो उस समय अलग अलग समूहों और जनजातियों में रहते थे. (अध्ययन के मुताबिक़ हड़प्पा सभ्यता का ईरानी किसानों या स्तीपी पशुपालकों से कोई संबंध नहीं है.) ऋग्वेद में ऐसी अनेक घटनाओं का ज़िक्र है. फिर भी ये कहना अतिसरलीकरण ही होगा कि सारे हिंदू जनजाति आदिवासियों से ताल्लुक़ रखते थे और फिर उन्होंने धर्मपरिवर्तन किया.]
फिर क्यों संघ परिवार इस दावे को दोहराता रहता है? इसका क्या मक़सद है और आज समाज में इस सवाल की क्या प्रासंगिकता है? ये वो सवाल हैं जिसका हेट बस्टर सीरीज़ में हम उत्तर देने का प्रयास करेंगें जिससे कि इस कथित दावे का खंडन किया जा सके.
हिंदुत्ववादी नेताओं के मुताबिक़ इस दावे के मुताबिक़ भारतीय उपमहाद्वाप की धरती पर रह रहे सभी लोग जिन्हें हम आज जानते हैं, कभी हिंदू थे.
आज धर्म परिवर्तन का मुद्दा लगातार चर्चा में है और आज के भारत के लोग पुरातन भारतीयों से काफ़ी हद तक अनभिज्ञ ही हैं.
हिंदुत्व प्रोजेक्ट इस बात पर बल देता रहा है कि भारतीय उपमाहाद्वीप में सभी लोगों का मूल धर्म हिंदुत्व है. भारत में अनेक समुदाय हज़ारों साल तक आस्था के सवाल पर उलझते रहे हैं. स्थानीय विशेषताओं और लोक परिवेश के मुताबिक़ धर्म में बदलाव होने से उसके अनेक रूप प्रकाश में आए हैं. इन स्वरूपों से अनेक धर्म विकसित हुए हैं जिन्हें हम आज भारतीय संदर्भ में हिंदू या मुसलमान कहते हैं. जैसा कि अनेक इतिहासकारों ने तर्क दिया है भारतीय इतिहास को हिंदू और मुसलमान काल में बांटना एक उपनिवेशवादी चाल है जिसे जेम्स मिल ने हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया नामी प्रभावशाली किताब में प्रकाशित किया है. इसी आधार पर अंग्रेज़ों ने बाद में विभाजन की चिंगारी को हवा दी जिससे भारत में दो प्रतिद्न्दी ताक़तों को बल मिला, टू-नेशन थ्योरी वजूद में आई और अंत में देश का विभाजन हो गया.
Mill and his History of British India
भारत में एक धर्म का सिद्दांत उपनिवेशवाद के साथ ही आया था. रोमिला थापर अपनी किताब में कहती हैं- ‘औपनिवेशिक इतिहास ने विविधता को समेटने की कोशिश की है. इस कोशिश ने धर्मों की विविधताओं के आपसी तानेबाने पर सवाल उठाकर नहीं वरन भारत के सभी धर्मों को एकात्मक धर्मों के रूप में प्रदर्शित करके इस कोशिश को अंजाम दिया है.’
उनके मुताबिक़ प्रारंभिक भारत में दो धार्मिक समूह थे. इनमें से पहले ब्राम्हणवाद के सहयोगी धर्म थे जिनका सामाजिक व्यवस्था, जाति व्यवस्था, दो उच्च जातियों और प्रार्थना की परंपराओं में विश्वास था वो श्रमण धर्म की परंपरा से दूर थे. इस परंपरा के बारे में वह कहती हैं.-
‘ये एक धारणा थी जो बौद्ध धर्म, जैन धर्म, अजीविका और अन्य पंथों से जुड़ी थी और जिसने वैदिक श्रुति और स्मृति जैसे ब्राम्हणवादी सिद्धांतों को नकार दिया था. इसमें धार्मिक विश्वास और हिंसा दोनों ही आधार पर जानवरों की बलि देने का भी विरोध किया गया था.’
अशोक के 12वें शिलालेख में कलिंग युद्ध के समय ब्राम्हण और श्रमण दोनों वर्ग पर हुई हिंसा पर दुख जताया गया है.
ये पहली सहस्त्राब्दी में ब्राम्हणवाद को राजनीतिक सहयोग हासिल था और इसका बढ़ते हुए विस्तार के कारण ही-
‘बाद में इसने श्रमणवाद का स्थान ले लिया. स्थानीय संप्रदायों से जुड़े नए समाजिक समूहों के कारण एक पौराणिक धर्म की ज़रूरत को बल मिला. वैदिक भगवान या तो ख़ारिज कर दिए गए या अधीनस्थ हो गए. अब विष्णु और शिव को भगवान के रूप में अधिक महत्व दिया जाने लगा. पौराणिक धर्मों की ओर झुकाव एक तरह से बदलाव की प्रक्रिया में था. अनेक समुदायों की भीड़, पंथ और जातियों ने सामाजिक और धार्मिक पिरामिड बनाने में मदद की.’
‘हिंदुत्ववाद’ शब्द के प्रयोग का श्रेय राजा राममेहन रॉय को जाता है जबकि ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग 14वीं शताब्दी में सांस्कृतिक अंतर को चिन्हित करने के लिए शुरू किया गया था.
एक धर्म की अवधारणा हमने हज़ारों साल के ख़तरनाक सरलीकरण के नतीजे में हासिल की है जिसे अभी तक बदला नहीं जा सका है. करोड़ों लोगों की हिंदू के तौर पर शिनाख्त करके अब सर्वश्रेष्ठता क़ायम करने के मामले में इसकी इस्लाम से जंग आधुनिक है. एक इतिहासकार के लिए ज़रूरी है कि वर्तमान को भूतकाल पर नहीं थोपा जाए और ज्ञात हो सके कि इतिहास समय के अलग-अलग मोड़ पर अपनी छवि को कैसे पहचानता है.
आज हिंदुत्ववादियों के इस दावे की सच्चाई को परखना ज़रूरी है कि जिसके अनुसार माना जाता रहा है कि इस्लाम तलवार के बल पर फैला है. इश तरह हमें प्रतिशोध के औचित्य भी साबित करना होगा.
सहस्त्राब्दी के दूसरे हिस्से में अनेक नई धार्मिक अभिव्यक्तियों के कारण अनेक नए धार्मिक पंथों का उदय हुआ. वो शैव और वैष्णव नामी पौराणिक पंथों से नाता रखते थे और जो श्रमण पंथ से भी ताल्लुक़ रखते थे. इनमें से कुछ ने ब्राम्हणवादी श्रुति और स्मृति को अपनाया जबकि अन्य ने इसका कठोरता से बहिष्कार किया. ये आज तक एक विवादास्पद विषय है. भारत में इस्लाम के आगमन के साथ इनमें से कुछ ने इस्लाम से भी विचार ग्रहण किए.
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मंदिरों को यहूदी धर्म से समर्थक ताक़तों द्वारा तोड़ा जा रहा था लेकिन जैसा कि प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब एक इंटरव्यू में कहते हैं.-
‘जब हज्जाज इब्न यूसुफ़ ने मोहम्म्द बिन क़ासिम को सिंध भेजा [8वीं शताब्दी में] तो उन्होंने हिंदूओं के लिए वैसा ही रवैय्या अख़्तियार करने को कहा जैसा कि रवैय्या वो ईसाई और पारसी धर्मों के साथ कर रहे थे. जिसका अर्थ था कि वो सहिष्णु बने रहें. अब मैं कह सकता हूं कि हज्जाज की नीति किसी धार्मिक सहिष्णुता की भावना से नहीं वरन सहज व्यवहारिकता से प्रेरित थी. औरंगज़ेब का पहला वित्त मंत्री एक हिंदू था. अंबर (जयपुर) के अधिकारी महाराज जय सिंह उनके सबसे महान अधिकारियों में से एक थे जिन्हें दक्खन का वॉइसराय घोषित किया गया था. हालंकि मुग़ल लोकतांत्रिक नहीं थे लेकिन उन्होंने बलपूर्वक धर्म परिवर्तन की कोशिश नहीं की थी. इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि मंदिर तोड़े जा रहे थे. कोई भी औरंगज़ेब के भेदभावपूर्ण पैमानों और रवैय्यों से इंकार नहीं करता है.’
ऐतिहासिक रूप से लोगों ने अनेक वजहों से धर्म परिवर्तन किया है. उदाहरण के तौर पर बंगाल में इस्लाम के प्रसार पर काम करने वाले जाने-माने इतिहासकार रिचर्ड इटन धर्मांतरण के पीछे किसी एक वजह को ज़िम्मेदार मानने के बजाय ये मानते हैं कि भारत में धर्मांतरण की अनेक वजहें हैं जिसमें सामाजिक मुक्ति और सहयोग सहित अनेक बलों की भूमिका है.
इटन का मानना है कि दक्षिण और पूर्वी बंगाल का वो हिस्सा जहां ब्राम्हण शर्णार्थियों का अपेक्षाकृत कम दख़ल रहा है वहां लोगों ने इस्लाम ग्रहण कर लिया है. ये हिस्सा आज बंग्लादेश में शुमार होता है.
[ इसी तर्ज़ पर UNESCO वर्ल्ड हेरीटेज साइट के अनुसार सोमपुर महाविहार को पाल वंश के दूसरे पाल राजा धर्मपाल (781–821 के क़रीब) ने बनवाया था. कहा जाता है कि यहां मध्यकालीन बौद्ध धर्म की मशहूर हस्ती अतिसा दीपंकर सृजन का वास था.]
इसी तरह केरल में इस्लाम समंदर और व्यापार के रास्ते पहुंचा. केरल में इस्लाम धर्म को अपनाने के सबसे पुरानी कहानियां हैं जिनका इब्नबतूता ने अपने यात्रा वृत्तांत में भी ज़िक्र किया है.
स्टीफ़न एफ़ डेल के मुताबिक़ केरल के मूल शासक रेवेन्यू के लिए टैक्स ड्यूटी पर निर्भर करते थे इसलिए वो आने वाले मुसलमानों, ईसाईयों और यहूदियों का स्वागत करते थे. ईसाइयत के शुरूआती दौर में यहूदी और ईसाई समुदायों ने इस क्षेत्र में पनाह ली और बाद में जब मुसलमानों ने वैश्विक व्यापार में जगह बना ली तो इस हिस्से में मुसलमानों का भी स्वागत किया गया.
चारू गुप्ता दलितों में धर्म परिवर्तन के बारे में कहती हैं कि मध्यकाल में उत्तर भारत की निचली जातियां अनेक माध्यमों से इस्लाम से जुड़ती गईं. इससे निश्चित तौर पर आधुनिक काल में आर्य समाज के लोगों के बीच चिंता और प्रतिस्पर्धा पैदा होती है जिसके एवज़ शुद्धी आंदोलन का जन्म हुआ.
ऐसे बल आम तौर पर वंचित तबकों और कम शक्तिशाली व्यव्स्थाओं को खोजते हैं. RSS और उससे जुड़े संगठन अक्सर आर्यों के गुण और सर्वश्रेष्ठता पर बल देते हैं. वो नाज़ियों की सराहना करते हैं और भारत को आर्यों की भूमि घोषित करते हैं. हालांकि दूसरी प्रतिस्पर्धी धारणाओं और सबूतों से इन दावों का खंडन होता है. भारत के जनजातीय समूहों में भी नस्लीय अवधारणा से जुड़े कई सारे सवाल और पेंच हैं. RSS ने जनजातियों के स्वतंत्र इतिहास और पहचान को ख़ारिज करते हुए जनजातियों को हिंदुत्व के घेरे में रखने की कोशिश की है. जबकि भारतीय आदिवासी लंबे समय से इसके ख़िलाफ़ संघर्षरत हैं. इस समय RSS के ऐसे अनेक संगठन सक्रिय हैं. इसी कड़ी में वाराणसी कल्याण संगठन भी शामिल है जिसकी आधिकारिक वेबसाईट के अनुसार उनका मक़सद ‘वनवासियों’ में धर्मपरिवर्तन को रोकना है. RSS जानजातिय समुदायों के कड़े विरोध के बावजूद ‘आदिवासी’ की जगह ‘वनवासी’ शब्द का इस्तेमाल करती रही है. हिंदू धार्मिक ग्रंथों में जंगल में रहने वालों के लिए वनवासी शब्द का इस्तेमाल किया गया है जो कि आदिवासियों को भारत का मूल निवासी मानने से इंकार करता है और RSS द्वारा पेश किए जा रहे इतिहास और भविष्य की अवधारणाओं पर पूरी तरह फ़िट बैठता है. हालांकि जनजातियों और वंचित तबक़ों ने RSS के एकाधिकार और उनके द्वारा केवल एक संस्कृति थोपने का लागातार विरोध किया है.
एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया का मानना है कि भारतीय मूल रूप से प्रवासी रहे हैं. कलाकार, किसान और जनजातियां सदियों से संस्कृति, कला और व्यापारिक कौशल के साथ एक जगह से दूसरी जगह जाती रही हैं. इससे संस्कृति के प्रसार और बहुलवाद को बल मिलता है. भारत में अलग-अलग मान्यताओं और परंपराओं को लेकर संवाद होता रहा है, इसमें से हर एक संवाद एकाधिकार के प्रयासों को चुनौती देता है. रोमिला थापर के अनुसार ऐसे ‘विद्रोही विचार’ लगातार मौजूद रहे हैं.
इसी तरह एक रिसर्च के अनुसार हिंदू और मुसलमान क़ौमों के बीच में नस्लीय समानता है. निचली और ऊंची जातियों में भी काफ़ी समानता है. इकोनॉमिक एण्ड पॉलिटिकल वीकली के अनुसार इस आंकड़े ने समाजशास्त्र के मुखिया एम. एन. श्रीनिवास को ये कहने को मजबूर किया है कि वो भारत के लोगों में भाषाई और सांस्कृतिक भेदों के बावजूद शानदार एकता को देखकर हैरान हैं.
इस तरह हिंदुत्व विचारकों का ‘मूल’ होने का दावा एक नए तरह के इतिहास का आविष्कार है जो कि मुसलमान, ईसाई और वंचित तबक़ों को कमतर और दोयम दर्जे का नागरिक मानने पर आधारित है. इतिहास ने इससे सचेत करते हुए सांस्कृतिक लचीलेपन और अनेकता में एकता की दुहाई दी है. एकता को नष्ट करने की तमाम कोशिशों के बावजूद एकता और विविधता अभी भी इस देश का आधार हैं.
तो क्या सारे मुसलमान हिंदू थे? नहीं.
तो क्या एक दूसरे के संपर्क में आने पर विविध समुदायों के लोग धर्मों को और देश की वर्तमान तस्वीर को बनाते हैं? हां.
Related: