आर्थिक रूप से सबसे निचले पायदान पर भारत के मुसलमान

Written by CJP Team | Published on: July 13, 2023
भारतीय मुसलमान शिक्षा और रोज़गार में सबसे पीछे होने के साथ ही संपत्ति की दौड़ और आर्थिक हालात में भी सबसे निचले पायदान पर हैं। सच्चर कमेटी के बाद अब AIDS और PLFS के आंकड़ों ने भी इस तबक़े की बदहाली की तस्वीर पेश की है।  


 
भारत में मुस्लिम समुदाय सबसे बड़ा अल्पसंख्यक तबक़ा है। दंगों की मार और सियासत की शिकारी चालों ने मुसलमान वर्ग को शुरूआत से कमज़ोर किया है। अरसे से वोट-बैंक के निशाने पर रहने के कारण भारतीय मुसलमान हिंदुत्ववादी भगवा राजनीति का भी निवाला बनते रहे हैं। हाल ही में The Hindustan times ने AIDIS (All India Debt & Investment) और PLFS (The Periodic Labour Force Survey) के ताज़ा आंकड़ों को सामने रखते हुए मुसलमानों के बदहाल आर्थिक हालात से पर्दा उठाया है। यह आंकड़ा गवाही पेश करता है कि मुस्लिम समुदाय के पास सबसे कम आर्थिक संसाधन हैं और विकास में हर लिहाज़ से ये समुदाय बनिस्बत दूसरी क़ौमों के कम आंका जा सकता है।इससे पहले भी रिपोर्ट्स और आंकड़ों के ज़रिए मुसलमानों के आर्थिक हालात उजागर होते रहे हैं लेकिन ताज़ा डाटा ने MPCE, संपत्ति, शिक्षा, और वर्कफ़ोर्स की बुनियाद पर विकास और पिछड़ेपन के हर बिंदु का गहरा मुआयना पेश किया है। ग़ौरतलब है कि भारत में परंपरागत जाति व्यवस्था के असर के एवज़ मुस्लिम क़ौम में भी किसी दूसरी भारतीय क़ौम की तरह ही अनेक जातियां हैं। इसका ज़ाहिरी तौर पर तो आर्थिक पिछड़ेपन से कोई लेना-देना नहीं है लेकिन ये निश्चित रूप से ज़िन्दगी की रफ़्तार तय करते हैं। 2006 में सच्चर कमेटी ने भी मुसलमानों की बदहाली का ख़ुलासा करके तत्कालीन सरकार से सुधार के लिए सिफ़रिशें की थीं। 

प्रति व्यक्ति मासिक ख़र्च में सबसे कम
MPCE (All India Debt & Investment) के तहत हर उपभोक्ता के मासिक ख़र्च के आंकड़े पेश किए जाते हैं। PLFS (The Periodic Labour Force Survey) की MPCE रिपोर्ट से साफ़ होता है कि जून 2021 से जून 2022 के बीच मुसलमान वर्ग MPCE और एसेट वैल्यू में 2,170 रूपये के आंकड़े के साथ सबसे पीछे रहा है जबकि इस आकलन में सिख समुदाय ने 3,620 रूपए का आंकड़ा दर्ज कर सभी समुदायों में बाज़ी मार ली है। वहीं दूसरी तरफ़ बहुसंख्यक हिंदू आबादी में ये प्रति उपभोक्ता मासिक ख़र्च थोड़े से फ़र्क़ के साथ 2,470 रूपए दर्ज किया गया है। इसका सीधा सा अर्थ है कि ग़रीबी की मार मुसलमानों पर सबसे गहरी है।

संपत्ति दौड़ में भी मुसलमान सबसे पीछे 
संपत्ति बेहतर हालात की निशानी और अचल पूंजी है लेकिन दर्ज ताज़ा आंकड़ों में मुसलमान संपत्ति की दौड़ में भी सबसे पीछे छूट गए हैं। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ प्रति परिवार औसत संपत्ति में मुसलमान समुदाय का हिस्सा अन्य दूसरे धर्मों के मुक़ाबले सबसे कम है। 30 जून, 2018 में जनरल श्रेणी के मुसलमान हिंदू OBC वर्ग के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा बदतर आर्थिक हालात में थे। इस समय मुसलमान के लिए औसत घरेलू संपत्ति का आंकड़ा क़रीब 1,557,630 रूपए तक था जबकि हिंदू क़ौम के लिए ये आंकड़ा 1,964,149 रूपए था। एसेट क्लास में औसत हाउसहोल्ड शेयर में भी मुसलमान तबक़ा सबसे पीछे है।

शिक्षा के हालात 
ग़रीबी और शिक्षा के अवसरों में कमी ख़राब होते आर्थिक हालात की ख़ास वजह है। तेज़ी से बढ़ती हुई बेरोज़गारी दर के साथ संगठित तरीक़े से मुसलमान क़ौम को पीछे धकेला जा रहा है। समूची मुसलमान क़ौम में सिर्फ़ 8.0 % वयस्क ही ऐसे हैं जो स्नातक तक पढ़ाई पूरी करने के बाद अब वर्क-फ़ोर्स में हिस्सेदार है, जबकि हिंदू समुदाय के लिए ये आंकड़ा केवल 15.9 %  है और अन्य धर्मों का साझा आंकड़ा 16.6% है। मुसलमान तबक़े में ST, SC, OBC सब मिलकर वर्क फ़ोर्स में सिर्फ़ 7.8% मौजूदगी दर्ज करते हैं जबकि हिंदू क़ौम में सिर्फ़ SC लिए ये आंकड़ा 9.1% है।

रोज़गार और बेहतर अवसरों की कमी 
PLFS ने अलग धार्मिक समुदायों में कामगारों और रोज़गार की क़िस्म पर भी कई स्तर पर डाटा पेश किया है जिससे ज़ाहिर होता है कि सरकारी नौकरियों और निजी संस्थानों में मुसलमानों की तादाद बेहद कम है। सरकारी नौकरी, लोकल बॉडी और PSU में मुसलमानों की कुल भागीदारी सिर्फ़ 3.9% है , जबकि सैलरी पाने वाले वालों और रोज़ाना पगार उठाने वालों की तादाद 19.3% है। ये आंकड़े चिंताजनक हैं। इससे साबित होता है कि मुस्लिम वर्ग अवसरों की कमी से जूझ रहा है और इस समुदाय को सही प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है। 

दक्षिणपंथी सियासत ने नफ़रती बयानों और फर्जी ख़बरों से मुस्लिम समुदाय के प्रति पूर्वाग्रहों को लगातार गहरा किया है। कहीं पर उनकी गोश्त की दुकानें बंद करवाई जाती हैं तो कहीं वो लिंचिंग का शिकार बनते हैं। कर्नाटक में हिजाब-विवाद ने मुसलमान लड़कियों की शिक्षा पर असर डाला है तो उत्तराखंड़ में कथित देवभूमि अभियान के एवज़ मुसलमान व्यापारी पलायन के लिए मजबूर किए गए हैं। इसके अलावा दंगों में जान-माल के नुक़सान की भी कोई भरपाई नहीं की जा सकती है। मुसलमान तबक़े के ख़राब आर्थिक हालात के पीछे इन वजहों के अलावा जागरूकता और सक्रियता की कमी भी ज़िम्मेदार है।

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