डीयू : यूजी एडमिशन फॉर्म में ‘मुस्लिम’ को मातृभाषा बताने पर बढ़ा विवाद, शिक्षकों ने कड़ी आपत्ति जताई

Written by sabrang india | Published on: June 23, 2025
डीयू के यूजी एडमिशन फॉर्म में मातृभाषा के कॉलम में भाषाओं के बजाय मुस्लिम, ‘देहाती’ और जातिसूचक व आपत्तिजनक शब्द शामिल करने की वजह से विवाद तेज हो गया। विवाद बढ़ने के बाद बाद यूनिवर्सिटी ने इसे ‘क्लेरिकल एरर’ बताया।


फोटो साभार : इंडियन एक्सप्रेस

दिल्ली यूनिवर्सिटी (डीयू) के यूजी एडमिशन के फॉर्म को लेकर विवाद तब खड़ा हो गया जब रजिस्ट्रेशन फॉर्म में मातृभाषा के विकल्प के तहत 'उर्दू', 'मैथिली', 'भोजपुरी' और 'मगही' जैसी भाषाओं की बजाय कुछ आपत्तिजनक और अनुचित शब्द जैसे 'मुस्लिम', 'बिहारी', 'चमा...', 'मजदूर', 'देहाती', 'मोची', 'कुर्मी' आदि जातिसूचक शब्द सूचीबद्ध पाए गए। यह मामला सामने आते ही तीखी प्रतिक्रियाएं शुरू हो गईं।

हालांकि, सोशल मीडिया और कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में खास तौर से इस बात को लेकर जोर देखा गया कि फॉर्म में ‘उर्दू’ को पूरी तरह से हटा दिया गया, जबकि ‘मुस्लिम’ को एक भाषा के रूप में शामिल कर दिया गया। वहीं दूसरी तरफ, कथित रूप से ‘मैथिली’, ‘भोजपुरी’, ‘मगही’ के साथ-साथ ‘बांग्ला’ जैसी भाषाएं भी भाषा के विकल्पों की सूची से गायब थीं।

इस मामले को लेकर सबसे पहले प्रतिक्रिया देते हुए डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट (DTF) की सचिव प्रो. आभा देव हबीब ने कड़े शब्दों में इसकी निंदा की। उन्होंने इसे ‘इस्लामोफोबिक’ और ‘सांप्रदायिक मानसिकता’ का उदाहरण बताया। वहीं, अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच ने सवाल पूछा कि क्या अब हमें यह मान लेना चाहिए कि आने वाले समय में ‘हिंदू’ को भी एक भाषा के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा और वह हिंदी की जगह ले लेगा?

अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच ने इस घटना को ‘अज्ञानता’ और ‘सांप्रदायिक सोच’ का परिणाम बताते हुए विश्वविद्यालय से सार्वजनिक रूप से माफी की मांग की है।

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में कांग्रेस ने इस घटनाक्रम को एक सोची-समझी साजिश करार दिया है, जबकि भाजपा ने इसे एक मानवीय त्रुटि बताया है।

इस पूरे विवाद के बीच, विरोध और आलोचना के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने इसे एक ‘लिपिकीय त्रुटि’ बताते हुए सफाई देने की कोशिश की। उसने कहा कि यह गलती अनजाने में हुई थी और इसे तुरंत सुधार लिया गया है।

इस मामले में द वायर से बात करते हुए डीयू में उर्दू विभागाध्यक्ष प्रो. अबू बकर अब्बाद ने भी विश्वविद्यालय के ‘लिपिकीय त्रुटि’ वाले स्पष्टीकरण को दोहराया। उन्होंने कहा, ‘उर्दू के अलावा एक-दो अन्य भाषाओं के साथ भी ग़लत प्रविष्टियां हो गईं थीं, अब इसे ठीक कर दिया गया है।’

उन्होंने इस मामले पर कुछ और कहने से गुरेज़ किया, वहीं कुछ अन्य शिक्षकों ने नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर बताया कि असल में ये सोच समझकर किया गया एक ‘प्रयोग’ था, जिसे ढंग से अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। मामला लोगों के संज्ञान में आ गया, वर्ना बेजा तौर पर सत्ता को खुश करने की चिंता में डूबे लोगों की मंशा पूरी हो जाती।

मंशा के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि, सत्ता की नजर में बने रहने की कोशिश ही इनकी मंशा होती है, ये अलग बात है कि वो कई बार अपनी मूर्खता के कारण इसमें सफल नहीं हो पाते।

दिल्ली यूनिवर्सिटी में उर्दू की प्रोफेसर और प्रख्यात आलोचक अर्जुमंद आरा ने भी इस तथाकथित ‘त्रुटि’ पर संदेह जताया है। उन्होंने कहा, “इस तरह की ऊलजलूल हरकतें पहले भी देखी गई हैं। इसे किसी भी दृष्टिकोण से ‘एरर’ नहीं कहा जा सकता, और यह केवल ‘उर्दू’ तक सीमित नहीं है कि इसे ‘मुस्लिम’ से बदल दिया गया।” वे सवाल उठाती हैं, “आखिर किस तरह के लोग यहां नियुक्त किए गए हैं, जो ‘बिहारी’ को भाषा के रूप में सूचीबद्ध कर रहे हैं?”

अपने सवाल का जवाब देते हुए प्रो. अर्जुमंद आरा आगे कहती हैं, “सरकार ने विश्वविद्यालय में ऐसे लोगों की भरती की है जो अज्ञानता में डूबे हुए हैं। इनकी एकमात्र ‘योग्यता’ संघ की विचारधारा है। विश्वविद्यालय के भीतर एक अजीब तरह का नेक्सस काम कर रहा है जो सत्ता और भारतीय जनता पार्टी के प्रति पूरी तरह नतमस्तक है।”

प्रो. अर्जुमंद आरा इस पूरे मामले को किसी भी तरह से ‘लिपिकीय त्रुटि’ मानने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना है, “क्लर्क आमतौर पर कहीं ज्यादा सावधानी से काम करते हैं। उन्हें अच्छी तरह मालूम होता है कि क्या करना है।”

ऐसे में प्रो. अर्जुमंद आरा इसे तिकड़मबाज़ी में लगे खुशामदी लोगों का कारनामा मानती हैं। उनका कहना है, “जैसे गौ-रक्षक समूह होते हैं, वैसे ही ये लोग सिस्टम पर कब्जा करना चाहते हैं। उन्हें हर तरह की जानकारी चाहिए। पिछले साल भी एक प्रयोग किया गया था जिसमें परीक्षा में बैठने वाले छात्रों का ऑनलाइन सीटिंग प्लान जानने के लिए पूरी ताकत लगाई गई। यह जानकारी इतनी बारीकी से लेने की कोशिश की गई कि किस कमरे में किस सीट पर कौन बैठा है, इसके लिए इनकी टीम ने छह महीने लगाए। इसमें शिक्षकों को भी शामिल करने की कोशिश की गई। हालांकि यह प्रयास सफल नहीं हो पाया। फिर भी इनकी कोशिश है कि हर चीज पर उनकी निगरानी रहे और सब कुछ उनके हाथ में हो। यह सब कहीं न कहीं उसी सत्तावादी स्वभाव का हिस्सा है। इनकी सारी ताकत काबू में करने में लग रही है। और जो सरकार का सत्तावादी स्वभाव है वही यहां भी नज़र आने लगा है। सब डिक्टेटर बन गए हैं। इन सब बातों को समझने की कोशिश कीजिए तो समझ में आ जाएगा कि ये कोई ‘क्लेरिकल एरर’ नहीं संघी एजेंडा है।”

अर्जुमंद का मानना है कि यह लोग सचमुच कुछ जानकारी इकट्ठा करना चाहते थे, लेकिन उनके पास इसके लिए आवश्यक कौशल या महारत नहीं थी, जिससे सारी प्रक्रिया गड़बड़ हो गई। अब ‘लिपिकीय त्रुटि’ कहकर इस मसले को हल्का करने की कोशिश की जा रही है।

डीयू की ओर से दी गई सफाई पर प्रतिक्रिया देते हुए प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं, “न तो कोई शर्मिंदगी है, न कोई माफी! क्या दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में ऐसी लापरवाही को बर्दाश्त किया जा सकता है? लेकिन अब तो शर्मिंदगी भी अतीत की बात हो गई है।”

उन्होंने भी द वायर से बातचीत में जातियों और भाषाओं के लिए दर्ज किए गए विशेषण और नाम को ‘क्लेरिकल एरर’ के तौर पर ख़ारिज करते हुए ‘बड़ी ग़लती’ बताया। उन्होंने कहा, ‘दिल्ली विश्वविद्यालय जो शिक्षा का केंद्र है वहां ऐसी ग़लती की जाए तो फिर उसके बारे में सोचने की ज़रुरत है। ये जो दावा है संस्थान का कि वो अव्वल दर्जे की तालीम देता है वो इतना ज्यादा लापरवाह है, अगर हम उसी की बात मान लें कि इसमें कोई और मंशा नहीं थी तो भी ये पर्ले दर्जे की लापरवाही है।’

वो आगे कहते हैं, ‘प्रशासन ने कोई माफी नहीं मांगी, अफसोस जाहिर नहीं किया सिर्फ ये कह दिया कि ‘क्लेरिकल एरर’ है। इससे भी पता चलता है कि वो मसले की गंभीरता को नहीं समझ रहे हैं। मसले की गंभीरता ये है कि इस दर्जे की ग़लतियां कैसे हो सकती हैं। इसकी जांच होनी चाहिए और ज़िम्मेदारी तय की जानी चाहिए।’

वो सवाल करते हैं, ‘उर्दू’ को ‘मुस्लिम’ कैसे किया जा सकता है या किसी भाषा को ‘बिहारी’ कैसे किया जा सकता है।

उनकी मानें तो ये इरादतन किया गया है। वो दलील देते हैं, ‘ये गैर-इरादतन नहीं है, क्यूंकि जब आप मैथिली और मगही को बिहारी कर देते हैं तो ये मानना बहुत मुश्किल है कि ये कोई ‘क्लेरिकल एरर’ है। ये एक तरह की शैतानी है।‘एरर’ तो ये हो सकता है कि ‘उर्दू’ की स्पेलिंग ग़लत लिख दी जाए या मैथिली को ‘मिथिला’ लिख दिया जाए, लेकिन आप ‘मुस्लिम’ और ‘बिहारी’ लिखते हैं तो इसका मतलब है कि आप जानबूझकर कर रहे हैं, या फिर दिल्ली विश्वविद्यालय में योग्य लोग नहीं हैं।’

वो इसे और ज्यादा चिंता का विषय मानते हैं, और जातिसूचक शब्दों के संदर्भ में उस जातीय कुंठा, विभाजन और भेदभाव की ओर भी इशारा करते हैं जो मौका मिलते ही किसी न किसी रूप में जाहिर होना चाहती है।

वहीं राजद के राज्यसभा सांसद मनोज कुमार झा ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए कहा कि मैं ये मानने को तैयार नहीं हूं कि यह कोई ‘लिपिकीय त्रुटि’ थी।

अपने विश्वविद्यालय के अनुभव का हवाला देते हुए प्रोफेसर अपूर्वानंद कहते हैं, “मैं जानता हूं कि किसी भी फॉर्मेट को तैयार करने में कितना कुछ लगता है। इसलिए, मैं इस तरह के स्पष्टीकरण को कतई स्वीकार नहीं कर सकता।”

इस बीच, गृह मंत्री के एक हालिया बयान पर चिंता जताते हुए, प्रोफेसर अपूर्वानंद ने द वायर से बातचीत में कहा, “आख़िर हम कहां पहुंच गए हैं? माननीय गृह मंत्री का जो बयान है, अगर आप उसे ध्यान से पढ़ें तो उसमें एक खास तरह का संबंध साफ दिखाई देता है।”

ज्ञात हो कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने गुरुवार 19 जून, 2025 को कहा था कि भारत में अंग्रेजी बोलने वाले लोग जल्द ही शर्म महसूस करेंगे और ऐसा समाज बनने में अब ज्यादा समय नहीं बचा है।

यही वह दिन था जब दिल्ली विश्वविद्यालय का दाखिला फॉर्म लाइव किया गया था। इस संदर्भ में झा कहते हैं, ‘भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा को कभी भी समुदाय के साथ नहीं जोड़ा जाता. और इस बहुभाषी देश में किसी भी एकल भाषा का प्रभुत्व उसके लोकतांत्रिक और सांस्कृतिक ताने-बाने के लिए ठीक नहीं है. ये भाषाई विविधता का देश है, मैंने कई बार कहा है कि ये कोई समस्या नहीं जिसे हल करना है, बल्कि एक विरासत है जिसका जश्न मनाया जाना चाहिए.’

वो पूछते हैं, ‘क्या ये वही विश्वविद्यालय प्रणाली है जिसके बारे में हम सोचते आए हैं। मुझे बहुत दुख होता है कि हमें हमारे सार्वजनिक जीवन में इस तरह के मुद्दों पर प्रतिक्रिया देना पड़ता है।’

दूसरी तरफ़ डीयू के ही एक शिक्षक ने बिहार की भाषाओं को ‘बिहारी’ कहने के सवाल पर बताया कि, ‘ये ग़लती सबसे पहले औपनिवेशिक काल में की गई थी, जब जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने ऐसा कहने की कोशिश की थी। हालांकि ग्रियर्सन ने कहा था कि उन्होंने बस सैद्धांतिक तौर पर ये बात लिखी है। जबकि बिहारी कोई भाषा नहीं है।’

अब ये बड़ा सवाल है कि क्या विश्वविद्यालय मामले में जांच कर कार्रवाई करने की हिम्मत जुटाएगी।

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