रांची: देश के 17 राज्यों के 10 लाख से ज्यादा आदिवासी और वन-निवास वाले परिवारों को बेदखल करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देशभर में आदिवासी समूहों द्वारा विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश में आदिवासियों को 27 जुलाई, 2019 को अगली सुनवाई से पहले हटाने का आदेश दिया है। इस आदेश के बाद माना जा रहा है कि करीब 11 लाख आदिवासी बेघर होंगे लेकिन असल स्थिति इसके करीब दोगुनी बताई जा रही है।
फोरेस्ट एंड लैंड राइस्ट्स (MFLR) द्वारा जंगल जमीन अधिकार पदयात्रा 20 फरवरी से जारी है जो सात दिन तक चलेगी। झारखंड के आदिवासी रांची में जल, जंगल और ज़मीन के साथ-साथ अपनी पैतृक संपत्ति के अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं। क्योंकि सरकार ने उनकी मांगों की उपेक्षा की है, इसलिए उन्होंने अब सड़कों पर अभियान चलाने का फैसला किया है।
विरोध प्रदर्शन के पहले दिन हजारीबाग के सेंट कोलंबस कॉलेज, न्यू हजारीबाग स्टेडियम में भूमिहीन किसानों और जनजातीय समुदायों के लोगों का भारी जत्था एकत्र हुआ। अपने जंगल और पैतृक भूमि के मूल अधिकारों की मांग करने के लिए लगभग 20,000 आदिवासी इकट्ठा हुए। आदिवासी अपने खाने पीने का सामान भी साथ लिए हुए थे। प्रत्येक व्यक्ति को 5 किलोग्राम चावल, 2 किग्रा आलू, चीनी, नमक और दाल से भरा एक बैग ले जाना आवश्यक था ताकि जरूरत के समय वे खाना बनाकर खा सकें।
आदिवासी मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार नवंबर 2018 तक खारिज किए गए दावेदारों की कुल संख्या 18.29 लाख है। इस फैसले ने उन लोगों में दहशत पैदा कर दी है जिनके अधिकार वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत संरक्षित हैं।
वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करने में भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की विफलता के कारण 10 लाख से ज्यादा आदिवासी परिवार उनके पारंपरिक इलाकों से हटा दिए जाएंगे।
कोर्ट के इस फैसले से आदिवासी बहुल मध्यप्रदेश के सबसे ज्यादा आदिवासी परिवार प्रभावित होंगे। यह कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार का बड़ा महत्वकांक्षी कानून था। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ को पत्र लिखकर कहा है, ‘‘आदिवासी मामलों के मंत्रालय के अनुसार 45 फीसदी से भी कम व्यक्तिगत दावे और 50 फीसदी से भी कम सामुदायिक दावे मान्य किए गए हैं।
मंत्रालय ने यह इंगित किया है कि वन अमले के बेतुके आपत्ति के कारण दावे निरस्त हुए हैं। ...बड़े स्तर पर कार्रवाई करने से पहले यह जरूरी है कि पुनर्विचार याचिका दायर की जाए, या जो आप उचित समझें। उन्होंने यह भी कहा कि आदिवासियों के लिए जल, जंगल और जमीन उनके जीवन का हिस्सा है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कमलनाथ को इस मसले पर पत्र लिखकर कहा कि भाजपा प्रशासन में आदिवासियों के बहुत सारे आावेदन को किसी न किसी कारण मान्यता नहीं दी जाती थी। भाजपा की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार ने भी कोर्ट के सामने मजबूत दलीलें नहीं पेश की। इनकी लापरवाहियों का नुकसान आदिवासियों को नहीं भुगतना चाहिए, इसलिए उन्हें अपनी जमीन और घर से उजड़ने से बचाने के लिए हर संभव कोशिश की जाए।
झारखंड मुक्ति मोर्चा के महिला विंग की अध्यक्ष महुआ मांझी ने न्यूजक्लिक से बात करते हुए कहा, “हम वनवासियों के मामले का बचाव नहीं करने के लिए केंद्र सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया क्योंकि केंद्र ने इस मुद्दे पर अपनी चुप्पी बनाए रखी। हम केंद्र सरकार से आदिवासियों को बेदखली से बचाने के लिए एक समीक्षा याचिका दायर करने का आग्रह कर रहे हैं। देखिए, झारखंड के नाम में ही झार शब्द शामिल है जिसका अर्थ है जंगल। यहां लाखों वनवासी निवास करते हैं। ”
राजस्थान में, आदिवासी समूहों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अस्वीकार कर दिया है और इसे "उत्तेजक" करार दिया है। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, "राजस्थान में 37,000 के करीब ऐसे परिवार हैं, जो दावा करते हैं कि पैतृक अधिकारों को FRA के तहत खारिज कर दिया गया है। इनमें अकेले बांसवाड़ा के 16,000 परिवार शामिल हैं, जिन्हें अब बेदखली का खतरा है।”
उड़ीसा में नियामगिरि पहाड़ियों में डोंगरिया कोंध समुदाय के 8,000 से ज्यादा लोगों का घर है। यह एक आदिवासी समूह है जो राज्य-सरकार की खनन परियोजना के खिलाफ लड़े थे। अब ये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से हिल गए हैं। आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन नीमगिरी समिति के संयोजक लिंगराज आजाद ने द टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा, "यदि यह आदेश लागू किया जाता है, तो पीढ़ियों से वन भूमि में रहने वाले सैकड़ों आदिवासियों को अपना मूल निवास खाली करना होगा ... हम अपने अधिकार के लिए एक आंदोलन शुरू करेंगे।”
वनवासियों की दुर्दशा को उजागर करने के लिए 2 मार्च को विभिन्न आदिवासी समूहों द्वारा सामूहिक रूप से बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाया जाएगा। न्यूज़क्लिक के साथ बात करते हुए, आदिवासी के लिए राष्ट्रीय अभियान के संयोजक अभय Xaxa ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट का निर्णय एक कठोर आदेश है और केंद्र को आदिवासियों की दुर्दशा के प्रति उदासीन होने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में पिछली तीन सुनवाई में, भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का कोई वकील इस मामले का प्रतिनिधित्व करने के लिए नहीं था। अब, वे 4 महीनों में 20 लाख से अधिक आदिवासियों को बाहर निकालना चाहते हैं। क्या आप इस पर विश्वास करोगे? हम 2 मार्च और 8 को बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू करने जा रहे हैं। भारत में काम कर रहे सभी आदिवासी और वन अधिकार समूह समन्वय कर रहे हैं और यह एक बड़ा आंदोलन बनने जा रहा है। ”
आदिवासी युवाओं, छात्रों, महिलाओं और बुजुर्गों सहित लगभग 10,000 लोगों ने आदिवासियों के विरोध मार्च में हिस्सा लिया। उनकी प्राथमिक मांगों में निम्नलिखित शामिल हैं:
1) उन मामलों को वापस लिया जाए जो वन विभाग द्वारा गलत तरीके से आदिवासियों के खिलाफ दायर किए गए हैं।
2) सरकार को किसी भी तरह से भूमि अधिग्रहण से पहले ग्रामीणों से अनुमति लेनी होगी।
3) एक ऐसा आदिवासी निकाय बनाया जाए जो आदिवासी अधिकारों को लागू करे।
4) वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत व्यक्तिगत और सामुदायिक भूमि अधिकारों के बारे में 6 महीने के भीतर इंश्योर किया जाए।
5) गैर-लकड़ी वन उपज का मौजूदा न्यूनतम समर्थन मूल्य नियमित किया जाना चाहिए ताकि पारंपरिक वन आवास समुदाय ग्राम पंचायत के माध्यम से एनटीएफपी का लाभ उठा सकें और उनका निपटान कर सकें।
6) सीएनटी एक्ट (छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट) और एसपीटी एक्ट (संथाल परगना टेनेंसी एक्ट) को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।
7) सामूहिक भूमि को भूमि बैंक की पकड़ से मुक्त किया जाना चाहिए।
8) भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 को तत्काल लागू किया जाए।
यूथ की आवाज़ से इनपुट्स के साथ
फोरेस्ट एंड लैंड राइस्ट्स (MFLR) द्वारा जंगल जमीन अधिकार पदयात्रा 20 फरवरी से जारी है जो सात दिन तक चलेगी। झारखंड के आदिवासी रांची में जल, जंगल और ज़मीन के साथ-साथ अपनी पैतृक संपत्ति के अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं। क्योंकि सरकार ने उनकी मांगों की उपेक्षा की है, इसलिए उन्होंने अब सड़कों पर अभियान चलाने का फैसला किया है।
विरोध प्रदर्शन के पहले दिन हजारीबाग के सेंट कोलंबस कॉलेज, न्यू हजारीबाग स्टेडियम में भूमिहीन किसानों और जनजातीय समुदायों के लोगों का भारी जत्था एकत्र हुआ। अपने जंगल और पैतृक भूमि के मूल अधिकारों की मांग करने के लिए लगभग 20,000 आदिवासी इकट्ठा हुए। आदिवासी अपने खाने पीने का सामान भी साथ लिए हुए थे। प्रत्येक व्यक्ति को 5 किलोग्राम चावल, 2 किग्रा आलू, चीनी, नमक और दाल से भरा एक बैग ले जाना आवश्यक था ताकि जरूरत के समय वे खाना बनाकर खा सकें।
आदिवासी मामलों के मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार नवंबर 2018 तक खारिज किए गए दावेदारों की कुल संख्या 18.29 लाख है। इस फैसले ने उन लोगों में दहशत पैदा कर दी है जिनके अधिकार वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत संरक्षित हैं।
वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करने में भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की विफलता के कारण 10 लाख से ज्यादा आदिवासी परिवार उनके पारंपरिक इलाकों से हटा दिए जाएंगे।
कोर्ट के इस फैसले से आदिवासी बहुल मध्यप्रदेश के सबसे ज्यादा आदिवासी परिवार प्रभावित होंगे। यह कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार का बड़ा महत्वकांक्षी कानून था। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ को पत्र लिखकर कहा है, ‘‘आदिवासी मामलों के मंत्रालय के अनुसार 45 फीसदी से भी कम व्यक्तिगत दावे और 50 फीसदी से भी कम सामुदायिक दावे मान्य किए गए हैं।
मंत्रालय ने यह इंगित किया है कि वन अमले के बेतुके आपत्ति के कारण दावे निरस्त हुए हैं। ...बड़े स्तर पर कार्रवाई करने से पहले यह जरूरी है कि पुनर्विचार याचिका दायर की जाए, या जो आप उचित समझें। उन्होंने यह भी कहा कि आदिवासियों के लिए जल, जंगल और जमीन उनके जीवन का हिस्सा है।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कमलनाथ को इस मसले पर पत्र लिखकर कहा कि भाजपा प्रशासन में आदिवासियों के बहुत सारे आावेदन को किसी न किसी कारण मान्यता नहीं दी जाती थी। भाजपा की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार ने भी कोर्ट के सामने मजबूत दलीलें नहीं पेश की। इनकी लापरवाहियों का नुकसान आदिवासियों को नहीं भुगतना चाहिए, इसलिए उन्हें अपनी जमीन और घर से उजड़ने से बचाने के लिए हर संभव कोशिश की जाए।
झारखंड मुक्ति मोर्चा के महिला विंग की अध्यक्ष महुआ मांझी ने न्यूजक्लिक से बात करते हुए कहा, “हम वनवासियों के मामले का बचाव नहीं करने के लिए केंद्र सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया क्योंकि केंद्र ने इस मुद्दे पर अपनी चुप्पी बनाए रखी। हम केंद्र सरकार से आदिवासियों को बेदखली से बचाने के लिए एक समीक्षा याचिका दायर करने का आग्रह कर रहे हैं। देखिए, झारखंड के नाम में ही झार शब्द शामिल है जिसका अर्थ है जंगल। यहां लाखों वनवासी निवास करते हैं। ”
राजस्थान में, आदिवासी समूहों ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अस्वीकार कर दिया है और इसे "उत्तेजक" करार दिया है। टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, "राजस्थान में 37,000 के करीब ऐसे परिवार हैं, जो दावा करते हैं कि पैतृक अधिकारों को FRA के तहत खारिज कर दिया गया है। इनमें अकेले बांसवाड़ा के 16,000 परिवार शामिल हैं, जिन्हें अब बेदखली का खतरा है।”
उड़ीसा में नियामगिरि पहाड़ियों में डोंगरिया कोंध समुदाय के 8,000 से ज्यादा लोगों का घर है। यह एक आदिवासी समूह है जो राज्य-सरकार की खनन परियोजना के खिलाफ लड़े थे। अब ये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से हिल गए हैं। आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन नीमगिरी समिति के संयोजक लिंगराज आजाद ने द टाइम्स ऑफ इंडिया से कहा, "यदि यह आदेश लागू किया जाता है, तो पीढ़ियों से वन भूमि में रहने वाले सैकड़ों आदिवासियों को अपना मूल निवास खाली करना होगा ... हम अपने अधिकार के लिए एक आंदोलन शुरू करेंगे।”
वनवासियों की दुर्दशा को उजागर करने के लिए 2 मार्च को विभिन्न आदिवासी समूहों द्वारा सामूहिक रूप से बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाया जाएगा। न्यूज़क्लिक के साथ बात करते हुए, आदिवासी के लिए राष्ट्रीय अभियान के संयोजक अभय Xaxa ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट का निर्णय एक कठोर आदेश है और केंद्र को आदिवासियों की दुर्दशा के प्रति उदासीन होने के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में पिछली तीन सुनवाई में, भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार का कोई वकील इस मामले का प्रतिनिधित्व करने के लिए नहीं था। अब, वे 4 महीनों में 20 लाख से अधिक आदिवासियों को बाहर निकालना चाहते हैं। क्या आप इस पर विश्वास करोगे? हम 2 मार्च और 8 को बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू करने जा रहे हैं। भारत में काम कर रहे सभी आदिवासी और वन अधिकार समूह समन्वय कर रहे हैं और यह एक बड़ा आंदोलन बनने जा रहा है। ”
आदिवासी युवाओं, छात्रों, महिलाओं और बुजुर्गों सहित लगभग 10,000 लोगों ने आदिवासियों के विरोध मार्च में हिस्सा लिया। उनकी प्राथमिक मांगों में निम्नलिखित शामिल हैं:
1) उन मामलों को वापस लिया जाए जो वन विभाग द्वारा गलत तरीके से आदिवासियों के खिलाफ दायर किए गए हैं।
2) सरकार को किसी भी तरह से भूमि अधिग्रहण से पहले ग्रामीणों से अनुमति लेनी होगी।
3) एक ऐसा आदिवासी निकाय बनाया जाए जो आदिवासी अधिकारों को लागू करे।
4) वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत व्यक्तिगत और सामुदायिक भूमि अधिकारों के बारे में 6 महीने के भीतर इंश्योर किया जाए।
5) गैर-लकड़ी वन उपज का मौजूदा न्यूनतम समर्थन मूल्य नियमित किया जाना चाहिए ताकि पारंपरिक वन आवास समुदाय ग्राम पंचायत के माध्यम से एनटीएफपी का लाभ उठा सकें और उनका निपटान कर सकें।
6) सीएनटी एक्ट (छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट) और एसपीटी एक्ट (संथाल परगना टेनेंसी एक्ट) को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।
7) सामूहिक भूमि को भूमि बैंक की पकड़ से मुक्त किया जाना चाहिए।
8) भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 को तत्काल लागू किया जाए।
यूथ की आवाज़ से इनपुट्स के साथ