आदिवासियों के दमन, शोषण और अन्याय के खिलाफ सोमवार (22 जुलाई) को देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए। मध्य प्रदेश में नर्मदा बचाओ आन्दोलन के समर्थकों ने भी विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया। यह प्रदर्शन मुख्यतौर पर आदिवासी बहुल राज्यों सहित विभिन्न प्रदेशों में हुआ।
इस दौरान प्रदर्शन कारियों द्वारा विज्ञप्ति जारी कर कहा गया कि....
आदिवासी इस देश के एवं प्रदेश के मूल निवासी हैं। पीढ़ियों से हम अपने जल, जंगल, जमीन पर जीते आये है। हमने न जमीन बेचीं नहीं नदी बेचीं। हमने सादगी भरी जीवन प्रणाली के लिए इन प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग जरूर किया लेकिन जरूरत पूर्ति के लिए। हमारे गाँव में आज भी बचा हुआ जंगल, बहते नाले, नदियाँ इसकी गवाह है।
हम आदिवासियों पर जो अन्याय हुआ वह था, जिन संसाधनों के साथ हम जीते आये, उन संसाधनों पर हमारा अधिकार कागजातों में दर्ज न होने का। इसी ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना सुनिश्चित हुआ, जब देशभर के जनसंगठनों ने अपनी आवाज उठायी और उस वक्त की केंद्र सरकार ने, जो कांग्रेस यूपीए की थी, संगठनों के साथ संवाद करते हुए वनअधिकार कानून, 2006 पारित किया। सभी राजनीतिक दलों ने इसका समर्थन ही किया।
1894 की नीति व 1927 से अंग्रेज सरकार की ओर से लाये गये वन कानून के तहत तथा उसके बाद भी आदिवासियों पर अन्याय, अत्याचार होते गये। अंग्रेज सरकारों के साथ, आजादी के लिए लडे भीमा नाईक, खाज्या नाईक, सीतू किराड़ या बिहार में बिरसा मुंडा जैसे आदिवासी नेताओं ने संघर्ष का नेतृत्व किया। इसीलिए आदिवासी स्वशासन भी बचा और प्राकृतिक संसाधन भी बचे। हमारी देवेदानी भी गाँवदेव, वाघदेव, करहण (नया अनाज) और भूमि, नदी, पहाड़ में, वृक्षवेली में ही बसती आयी, पूजती गयी।
बाजार से हटकर, खरीदी बिक्री टालकर हमने अपनी जमीन, जंगल और नदी भी बचायी। लेकिन आज तक हमें हमारा इन संसाधनों पर अधिकार प्राप्त नहीं हुआ है। हमें विस्थापित करने के पहले 2006 के कानून का पूर्ण पालन होना था, जो नहीं हुआ है। हमारे गाँव-गाँव को सामूहिक वन अधिकार मिलना आज भी बाकी है। वैयक्तिक दावों पर न तो पूरी सुनवाई हुई है, ना ही निर्णय होकर सभी को पट्टे प्राप्त हुए हैं। पिछले 15 सालों में म.प्र. की शासन ने इस पर जनसंगठनों से न चर्चा की, ना ही अमल की योजना राज्य स्तर पर बनायीं। पुनर्वास में भी भ्रष्टाचार ही पलता रहा है। वनाधिकार किसी न किसी कारण से नकारा गया है। वनाधिकार न देते हुए कई विस्थापितों का पुनर्वास का हक भी नामंजूर हुआ है जबकि हम सब आदिवासी खेती पर ही निर्भर हैं, अन्य किसी रोजगार पर नहीं।
इस स्थिति में सुप्रीम कोर्ट में कुछ उच्च वर्ग की नजरिये से देखने वाले पर्यावरणवादियों ने जो याचिका दाखिल की, उसमें आज की केंद्र शासन की ओर से कोई अधिवक्ता/वकील खड़े नहीं हुए और आदिवासियों का पक्ष नहीं रखा गया। इसी कारण, राज्य शासनों से पूरी, सही जानकारी न पाकर जो निर्णय सर्वोच्च न्यायालय से दिया गया, वह अन्यायपूर्ण था। इसका विरोध देशभर होते हुए आखिर सर्वोच्च अदालत ने अपना फैसला मौकूफ रखा।
मध्य प्रदेश शासन ने भी इसमें हस्तक्षेप और विरोध/अपील की भूमिका ली, इसका स्वागत करते हुए हमारा आग्रह है कि –
1) सर्वोच्च आदालत में इस फैसले का यानी म.प्र. के 3 लाख से अधिक और देशभर में 11 लाख आदिवासी परिवारों को उजाड़ने का पुरजोर विरोध मध्य प्रदेश शासन करे। हम भी विरोध करते हैं। विस्थापन का फैसला वापस लिया जाए!
2) वन अधिकार कानून, 2006 का पूर्ण पालन करें, समयपत्रक बनायें। अलीराजपुर तहसील की वनभूमि पर या किनारे बसे विस्थापित परिवारों को इस कानून के तहत हक देने में प्राथमिकता हो।
3) वन अधिकार कानून, 2006 के पालन में सामूहिक वन अधिकार हर गाँव का मंजूर है ही – उसका पट्टा प्रथम दिया जाए। व्यक्तिगत दावों पर भी ग्रामसभा के ठराव व सूची आधारित सुनवाई होकर त्वरित निर्णय किया जाये।
4) वनरक्षा, वनीकरण, वनोपज पर आधारित छोटे ग्राम – उद्योगों की योजना म.प्र. शासन हमारे साथ तत्काल बनाये।
5) सरदार सरोवर व जोबट बांध के विस्थापितों का पुनर्वास आज भी बाकी है। गुजरात में बसाये तथा धार तहसील में भूमि आबंटित किये परिवार गंभीर तकलीफ में हैं। जिनके घर जबरन 2017 में तुडवाये उनका पुनर्वास भी बाकी है। यह कार्य गांववार शिविर लगाकर, वही निर्णय लेकर पूरा किया जाये।
6) सम्पूर्ण पुनर्वास के लिए पुनर्वास स्थल पर सभी सुविधाएँ होना जरूरी हैं। बिना पुनर्वास सरदार सरोवर में 122 मी. से अधिक ऊंचाई तक पानी नहीं भरा जाए।
7) म.प्र. शासन इस पर जो भूमिका ले रही है, उसका स्वागत है। न बिजली, न कोई लाभ, न पुनर्वास ऐसी स्थिति में सरदार सरोवर में पानी भरना म.प्र. सरकार मंजूर न करे।
पुनर्वास के लिए गुजरात से पूरे बजट के साथ वित्तीय सहायता की मांग तत्काल करें। अस्थायी नहीं, स्थायी पुनर्वास दें।
8) भ्रष्ट कर्मचारी– अधिकारियों को त्वरित हटा दिया जाए।
9) जोबट के विस्थापितों को पुनर्वास का कोई हक नहीं दिया गया है। शिकायत निवारण प्राधिकरण के आदेशों का भी पालन नहीं हुआ है। इन विस्थापितों के मुद्दों पर क्षेत्र में अधिकारी भेजकर व्यक्तिगत व सामूहिक सुनवाई, जाँच व निर्णय करे।
10) जोबट के विस्थापितों को मत्स्य व्यवसाय का अधिकार आजतक नहीं मिला है। किसी फर्जी समिति का पंजीयन रद्द करके यह अधिकार सही विस्थापितों की प्रस्तावित समिति को दिया जाए!
इन तमाम मांगों पर अमल हो और हर मांग पूरी हो, इसके लिए म.प्र. शासन की भूमिका एवं समयबद्ध योजना हमें जरूर बतायी जाये!
इस दौरान प्रदर्शन कारियों द्वारा विज्ञप्ति जारी कर कहा गया कि....
आदिवासी इस देश के एवं प्रदेश के मूल निवासी हैं। पीढ़ियों से हम अपने जल, जंगल, जमीन पर जीते आये है। हमने न जमीन बेचीं नहीं नदी बेचीं। हमने सादगी भरी जीवन प्रणाली के लिए इन प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग जरूर किया लेकिन जरूरत पूर्ति के लिए। हमारे गाँव में आज भी बचा हुआ जंगल, बहते नाले, नदियाँ इसकी गवाह है।
हम आदिवासियों पर जो अन्याय हुआ वह था, जिन संसाधनों के साथ हम जीते आये, उन संसाधनों पर हमारा अधिकार कागजातों में दर्ज न होने का। इसी ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना सुनिश्चित हुआ, जब देशभर के जनसंगठनों ने अपनी आवाज उठायी और उस वक्त की केंद्र सरकार ने, जो कांग्रेस यूपीए की थी, संगठनों के साथ संवाद करते हुए वनअधिकार कानून, 2006 पारित किया। सभी राजनीतिक दलों ने इसका समर्थन ही किया।
1894 की नीति व 1927 से अंग्रेज सरकार की ओर से लाये गये वन कानून के तहत तथा उसके बाद भी आदिवासियों पर अन्याय, अत्याचार होते गये। अंग्रेज सरकारों के साथ, आजादी के लिए लडे भीमा नाईक, खाज्या नाईक, सीतू किराड़ या बिहार में बिरसा मुंडा जैसे आदिवासी नेताओं ने संघर्ष का नेतृत्व किया। इसीलिए आदिवासी स्वशासन भी बचा और प्राकृतिक संसाधन भी बचे। हमारी देवेदानी भी गाँवदेव, वाघदेव, करहण (नया अनाज) और भूमि, नदी, पहाड़ में, वृक्षवेली में ही बसती आयी, पूजती गयी।
बाजार से हटकर, खरीदी बिक्री टालकर हमने अपनी जमीन, जंगल और नदी भी बचायी। लेकिन आज तक हमें हमारा इन संसाधनों पर अधिकार प्राप्त नहीं हुआ है। हमें विस्थापित करने के पहले 2006 के कानून का पूर्ण पालन होना था, जो नहीं हुआ है। हमारे गाँव-गाँव को सामूहिक वन अधिकार मिलना आज भी बाकी है। वैयक्तिक दावों पर न तो पूरी सुनवाई हुई है, ना ही निर्णय होकर सभी को पट्टे प्राप्त हुए हैं। पिछले 15 सालों में म.प्र. की शासन ने इस पर जनसंगठनों से न चर्चा की, ना ही अमल की योजना राज्य स्तर पर बनायीं। पुनर्वास में भी भ्रष्टाचार ही पलता रहा है। वनाधिकार किसी न किसी कारण से नकारा गया है। वनाधिकार न देते हुए कई विस्थापितों का पुनर्वास का हक भी नामंजूर हुआ है जबकि हम सब आदिवासी खेती पर ही निर्भर हैं, अन्य किसी रोजगार पर नहीं।
इस स्थिति में सुप्रीम कोर्ट में कुछ उच्च वर्ग की नजरिये से देखने वाले पर्यावरणवादियों ने जो याचिका दाखिल की, उसमें आज की केंद्र शासन की ओर से कोई अधिवक्ता/वकील खड़े नहीं हुए और आदिवासियों का पक्ष नहीं रखा गया। इसी कारण, राज्य शासनों से पूरी, सही जानकारी न पाकर जो निर्णय सर्वोच्च न्यायालय से दिया गया, वह अन्यायपूर्ण था। इसका विरोध देशभर होते हुए आखिर सर्वोच्च अदालत ने अपना फैसला मौकूफ रखा।
मध्य प्रदेश शासन ने भी इसमें हस्तक्षेप और विरोध/अपील की भूमिका ली, इसका स्वागत करते हुए हमारा आग्रह है कि –
1) सर्वोच्च आदालत में इस फैसले का यानी म.प्र. के 3 लाख से अधिक और देशभर में 11 लाख आदिवासी परिवारों को उजाड़ने का पुरजोर विरोध मध्य प्रदेश शासन करे। हम भी विरोध करते हैं। विस्थापन का फैसला वापस लिया जाए!
2) वन अधिकार कानून, 2006 का पूर्ण पालन करें, समयपत्रक बनायें। अलीराजपुर तहसील की वनभूमि पर या किनारे बसे विस्थापित परिवारों को इस कानून के तहत हक देने में प्राथमिकता हो।
3) वन अधिकार कानून, 2006 के पालन में सामूहिक वन अधिकार हर गाँव का मंजूर है ही – उसका पट्टा प्रथम दिया जाए। व्यक्तिगत दावों पर भी ग्रामसभा के ठराव व सूची आधारित सुनवाई होकर त्वरित निर्णय किया जाये।
4) वनरक्षा, वनीकरण, वनोपज पर आधारित छोटे ग्राम – उद्योगों की योजना म.प्र. शासन हमारे साथ तत्काल बनाये।
5) सरदार सरोवर व जोबट बांध के विस्थापितों का पुनर्वास आज भी बाकी है। गुजरात में बसाये तथा धार तहसील में भूमि आबंटित किये परिवार गंभीर तकलीफ में हैं। जिनके घर जबरन 2017 में तुडवाये उनका पुनर्वास भी बाकी है। यह कार्य गांववार शिविर लगाकर, वही निर्णय लेकर पूरा किया जाये।
6) सम्पूर्ण पुनर्वास के लिए पुनर्वास स्थल पर सभी सुविधाएँ होना जरूरी हैं। बिना पुनर्वास सरदार सरोवर में 122 मी. से अधिक ऊंचाई तक पानी नहीं भरा जाए।
7) म.प्र. शासन इस पर जो भूमिका ले रही है, उसका स्वागत है। न बिजली, न कोई लाभ, न पुनर्वास ऐसी स्थिति में सरदार सरोवर में पानी भरना म.प्र. सरकार मंजूर न करे।
पुनर्वास के लिए गुजरात से पूरे बजट के साथ वित्तीय सहायता की मांग तत्काल करें। अस्थायी नहीं, स्थायी पुनर्वास दें।
8) भ्रष्ट कर्मचारी– अधिकारियों को त्वरित हटा दिया जाए।
9) जोबट के विस्थापितों को पुनर्वास का कोई हक नहीं दिया गया है। शिकायत निवारण प्राधिकरण के आदेशों का भी पालन नहीं हुआ है। इन विस्थापितों के मुद्दों पर क्षेत्र में अधिकारी भेजकर व्यक्तिगत व सामूहिक सुनवाई, जाँच व निर्णय करे।
10) जोबट के विस्थापितों को मत्स्य व्यवसाय का अधिकार आजतक नहीं मिला है। किसी फर्जी समिति का पंजीयन रद्द करके यह अधिकार सही विस्थापितों की प्रस्तावित समिति को दिया जाए!
इन तमाम मांगों पर अमल हो और हर मांग पूरी हो, इसके लिए म.प्र. शासन की भूमिका एवं समयबद्ध योजना हमें जरूर बतायी जाये!