रात के 8 बज चुके थे। पर दुकान अभी खुली थी या यूं कहें बन्द करने की तैयारी चल रही थी। नियम के मुताबिक इसे 7 बजे तक बंद हो जाना चाहिए था। पर दिनभर की बारिश और बची हुई सब्जियों के बिक जाने के लालच साथ ही पुलिस के भय के बावजूद यह अबतक मैंने खोल रखी थी।
अब इससे देर करना भारी पड़ सकता था इसलिए मैंने बन्द करने के लिए प्लास्टिक का तिरपाल इसपर बिछाकर लपेट देना चाहा। तिरपाल दुकान पर डाला ही था कि पीछे से आवाज आई- ब्रो, प्याज मिलेगी क्या दो तीन ?
मैंने पीछे देखा। एक ठीक सा अपर क्लास का युवक ढंग के कपड़े पहने स्पोर्ट शू में मेरे पीछे खड़ा था।
मैंने ना में सिर हिला दिया और तिरपाल बिछाते हुए कहा- सर आप लेट हो गए हैं। कोई पुलिस वाला देख लेगा तो चिल्लायेगा। गालियां भी दे सकता है, फाइन भी मार सकता है।
उसने मेरी बात सुनी। वह उदास भी न हुआ। उसने फिर कहा- दे दो न ब्रो। कुछ न होगा। खाने के लिए चाहिए।
मैंने सड़क के दोनों तरफ निगाह दौड़ाई। कुछ गाड़ियां आ जा रही थी। पुलिस की गाड़ी दूर तक कहीं न दिखी। मैंने उससे कहा- मैं दे देता हूँ आप बगल में हो जाइए ताकि ऐसा न लगे कि आप ग्राहक हो और मैं सामान आपको बेच रहा हूँ।
मेरे इतना कहते ही वह बगल में आ गया। मैंने कांटा ठीक किया। हाथ में कुछ प्याज उठाते हुए मैंने पूछा- कितने किलो करने हैं ?
उसने कहा- बस दो तीन ही, नरम वाले।
मैंने फिर पूछा- मतलब कितने का ? दस का, पांच का या बीस का ?
उसने कहा- पैसे नहीं हैं मेरे पास।
यह वाक्य उसने बस कह दिया- पैसे नहीं हैं मेरे पास।
उसके इस वाक्य के कह देने में बड़ी सहजता थी। जरा भी झिझक नहीं, संकोच नहीं , डर नहीं, बेइज्जत होने का भाव नहीं, कुछ नहीं। बस उसने कहा दिया था। जैसे कोई कह देता है- एक किलो प्याज देना, दस के नींबू देना। ठीक वैसे ही उसने कहा दिया सहजता से- पैसे नहीं हैं मेरे पास।
ऐसी सहजता वाली घटनाएं बहुत कम देखी हैं मैंने जहां बेइज्जती, भय, डर की बात होती है पर फिर भी व्यक्ति सहज रहता है।
मुझे कार्टर रोड पर हुई एक बात याद आ गई। आसिफा रेप मर्डर को लेकर प्रदर्शन चल रहा था। मैं लेट पहुँचा तो सड़क के पास पीछे खड़ा था। बगल से एक कार निकल रही थी। ट्रैफिक स्लो था तो कार भी रेंगने की चाल में चल रही थी। कार में पीछे बैठे युवक ने सामने बैठे व्यक्ति से कहा- मैं भी इन्हें जॉइन कर रहा हूँ।
यह सहज आवाज थी। बिलकुल नार्मल। इसमें भी पुलिस से पिटने या विपरीत विचारधारा वालों के टूट जाने का भय नहीं था। बस कह दिया गया था- मैं भी इन्हें जॉइन कर रहा हूँ।
मैंने पीछे मुड़कर देखा था तो सामने की कार में कोई बॉस नुमा व्यक्ति बैठा था और जिसने यह कहा था कि मैं भी जॉइन कर रहा हूँ वह देखने से बॉस नुमा व्यक्ति के अंडर में काम करने वाला लगता था। शायद रसोइयां हो, शायद हाउस कीपर हो।
पीछे बैठे युवक ने जॉइन वाले वाक्य को कहकर कार कार का दरवाजा खोल दिया और बाहर आ गया था। सामने बैठे व्यक्ति ने हिचकिचाहट भरे स्वर में कहा था- ठीक है। बस खाना बनाने के वक्त आ जाना टाइम पर।
शायद यह कहने के अलावा उसके पास ऑप्शन न था।
दूसरे ही क्षण वह युवक मुर्दाबाद और शेम शेम के नारों के साथ भीड़ में खो गया।
सहज तो बलात्कारियों के समर्थन में रैली निकालने वाले भी थे। पर उनकी सहजता के पीछे सत्त्ता की ताकत थी। उस सहजता और नारे लगाते युवक की सहजता में फर्क था।
एक और घटना याद आ गई। शायद 12 मार्च 2018 की रात थी। नाशिक से चलकर जब किसान मुम्बई में अपनी मांगों को पूरा करवाने के उद्देश्य से विधानसभा का घेराव करने वाले थे। रात को वे सुमैया ग्राउंड के ठहरे थे। उनके समर्थन में लोगों ने उनसे जुड़कर आवाज उठाने के लिए लोग सुमैया ग्राउंड तक गए थे। कोई कवि था कोई लेखक कोई नाटककार। कोई फ़िल्म क्षेत्र से जुड़ा तो कोई आम आदमी। जिन्हें भी किसानों के पैर के फटे छालों से दर्द हुआ वे उनके साथ होने को वहां पहुंचने लगे।
करीब 12 बजे यह हुआ कि अब थके हुए किसान भाई बहन सोने जा रहे हैं तो लोगों की भीड़ और कविताओं जनवादी गीतों का स्वर कम होता गया और जिन्हें लौटना था वे अपने घर लौटने लगे।
हम अपने कुछ मित्रों के साथ चुना भट्टी से आकर कुर्ला के रेलवे स्टेशन पर खड़े थे। रात के करीब एक बजे रहे थे। आपस में कविताओं पर बातचीत जारी थी। मुझे याद है उस समय अशोक कुमार पांडेय जी की कविता मित्र रमणीक सिंह पढ़ रहे थे। ट्रेन को आने में अब भी वक्त था। इतने में दो लड़के भेल खाते हुए आगे से गुजरे। रमणीक ने आगे बढ़ उनसे भेल मांग ली और दो मुट्ठी पुरी के साथ खा लिया। रमणीक एकदम नार्मल थे जैसे जैसे वह अपने मित्र के साथ बाट कर खा रहे हों। ऐसे सहज जैसे मुझसे प्याज मांगने वाला युवक अभी बगल में खड़ा है। वे दोनों लड़के थोड़ा असहज हुए। उनमे से एक ने कहा था- सर आपको और खाना है ? क्या मैं आपके लिए और कुछ लाऊं ? मेरी नाईट ड्यूटी है। मेरी बैग में चपाती सब्जी है आप खाएंगे ?
रमणीक बोले- मुझे बस टेस्ट करना था।
वे दोनों लड़के आगे बढ़ गए। मेरे साथ के मित्र शायद रमणीक की इस क्रिया से असहज हुए थे पर सहज दिखने का प्रयास कर रहे थे। मैं असहज था। मेरे लिए यह नया अनुभव था। रमणीक आकर फिर से कविताएं पढ़ने लगे।
यह सब महज कुछ सेकंड में हो गया। पर मेरे लिए अविस्मरणीय हो गया। ऐसी सहजता न दिखी फिर। शायद कभी दिखी हो पर नोटिस करने जैसी न हो।
युवक जिसने सहज भाषा मे कह दिया था कि पैसे नहीं हैं मेरे पास वह मुझे देख रहा था। ऐसे देख रहा था जैसे उसने मुझे पैसे दे दिए हों और बस प्याज हाथ मे आने का इंतजार कर रहा हो। उसने एक दो बार सड़क पर दोनों तरफ देखकर पुष्टि भी कर दी कि कोई नहीं है तुम मुझे प्याज दे दो।
मेरे जेहन में कई सवाल उभरे। क्या यह बेरोजगार है,गरीब है, जॉबलेस है क्या है ? पर एक भी न पूछे जा सके।
महज तीन प्याज के लिए यह सब सवाल नहीं उठने चाहिए। मैंने कहा- थैली है ?
युवक ने कहा- जेब मे रख लेंगे।
मेरी निगाह उसकी जीन्स पर गई। जो किसी बड़े ब्राण्ड की ही लगती थी। वह युवक उस ब्रांड की जीन्स में प्याज रखने में सहज था।
उसकी सहजता मुझे असमंजस में डाल रही थी। मैंने उसे प्याज पकड़ा दी। वह प्याज को जेब मे ठूसते हुए थैंक यू भैया कहकर आगे बढ़ा।
मैं तिरपाल फिर से ठीक करता सोच रहा हूँ- क्या वह इतना ही सहज है ? या फिर इस लॉक डाउन में वह ऐसा हो गया होगा। यदि परिस्थिति ने उसे इतना सहज बनाया है तो क्या और सब ऐसे ही नहीं हो सकते अपने स्तर पर ?
मैं सोचता हूँ-
क्या किसी देश का प्रधानमंत्री भी ऐसे ही सहज हो सकता है जो अपनी गलत नीतियों से हुए नुकसान को जनता के सामने स्वीकार ले और दुरुस्त करने के सुझाव मांगे ?
रिपोर्टर अपनी गलत रिपोर्टिंग को सहजता से स्वीकार ले।
एक रेस्त्रां का कुक अपनी बनाई डिश में कमी होने को लेकर खाने वाले कि शिकायत से पहले सहजता से आकर चर्चा कर ले।
वोटर अपने चुने हुए कैंडिडेट के उम्मीदों पर खरे न उतरने पर लोगों से सहज होकर चर्चा कर ले।
यह शायद ही हो। पर यह सहजता समाज को बेहतर बनाने में मदद जरूर करेंगी।
अब इससे देर करना भारी पड़ सकता था इसलिए मैंने बन्द करने के लिए प्लास्टिक का तिरपाल इसपर बिछाकर लपेट देना चाहा। तिरपाल दुकान पर डाला ही था कि पीछे से आवाज आई- ब्रो, प्याज मिलेगी क्या दो तीन ?
मैंने पीछे देखा। एक ठीक सा अपर क्लास का युवक ढंग के कपड़े पहने स्पोर्ट शू में मेरे पीछे खड़ा था।
मैंने ना में सिर हिला दिया और तिरपाल बिछाते हुए कहा- सर आप लेट हो गए हैं। कोई पुलिस वाला देख लेगा तो चिल्लायेगा। गालियां भी दे सकता है, फाइन भी मार सकता है।
उसने मेरी बात सुनी। वह उदास भी न हुआ। उसने फिर कहा- दे दो न ब्रो। कुछ न होगा। खाने के लिए चाहिए।
मैंने सड़क के दोनों तरफ निगाह दौड़ाई। कुछ गाड़ियां आ जा रही थी। पुलिस की गाड़ी दूर तक कहीं न दिखी। मैंने उससे कहा- मैं दे देता हूँ आप बगल में हो जाइए ताकि ऐसा न लगे कि आप ग्राहक हो और मैं सामान आपको बेच रहा हूँ।
मेरे इतना कहते ही वह बगल में आ गया। मैंने कांटा ठीक किया। हाथ में कुछ प्याज उठाते हुए मैंने पूछा- कितने किलो करने हैं ?
उसने कहा- बस दो तीन ही, नरम वाले।
मैंने फिर पूछा- मतलब कितने का ? दस का, पांच का या बीस का ?
उसने कहा- पैसे नहीं हैं मेरे पास।
यह वाक्य उसने बस कह दिया- पैसे नहीं हैं मेरे पास।
उसके इस वाक्य के कह देने में बड़ी सहजता थी। जरा भी झिझक नहीं, संकोच नहीं , डर नहीं, बेइज्जत होने का भाव नहीं, कुछ नहीं। बस उसने कहा दिया था। जैसे कोई कह देता है- एक किलो प्याज देना, दस के नींबू देना। ठीक वैसे ही उसने कहा दिया सहजता से- पैसे नहीं हैं मेरे पास।
ऐसी सहजता वाली घटनाएं बहुत कम देखी हैं मैंने जहां बेइज्जती, भय, डर की बात होती है पर फिर भी व्यक्ति सहज रहता है।
मुझे कार्टर रोड पर हुई एक बात याद आ गई। आसिफा रेप मर्डर को लेकर प्रदर्शन चल रहा था। मैं लेट पहुँचा तो सड़क के पास पीछे खड़ा था। बगल से एक कार निकल रही थी। ट्रैफिक स्लो था तो कार भी रेंगने की चाल में चल रही थी। कार में पीछे बैठे युवक ने सामने बैठे व्यक्ति से कहा- मैं भी इन्हें जॉइन कर रहा हूँ।
यह सहज आवाज थी। बिलकुल नार्मल। इसमें भी पुलिस से पिटने या विपरीत विचारधारा वालों के टूट जाने का भय नहीं था। बस कह दिया गया था- मैं भी इन्हें जॉइन कर रहा हूँ।
मैंने पीछे मुड़कर देखा था तो सामने की कार में कोई बॉस नुमा व्यक्ति बैठा था और जिसने यह कहा था कि मैं भी जॉइन कर रहा हूँ वह देखने से बॉस नुमा व्यक्ति के अंडर में काम करने वाला लगता था। शायद रसोइयां हो, शायद हाउस कीपर हो।
पीछे बैठे युवक ने जॉइन वाले वाक्य को कहकर कार कार का दरवाजा खोल दिया और बाहर आ गया था। सामने बैठे व्यक्ति ने हिचकिचाहट भरे स्वर में कहा था- ठीक है। बस खाना बनाने के वक्त आ जाना टाइम पर।
शायद यह कहने के अलावा उसके पास ऑप्शन न था।
दूसरे ही क्षण वह युवक मुर्दाबाद और शेम शेम के नारों के साथ भीड़ में खो गया।
सहज तो बलात्कारियों के समर्थन में रैली निकालने वाले भी थे। पर उनकी सहजता के पीछे सत्त्ता की ताकत थी। उस सहजता और नारे लगाते युवक की सहजता में फर्क था।
एक और घटना याद आ गई। शायद 12 मार्च 2018 की रात थी। नाशिक से चलकर जब किसान मुम्बई में अपनी मांगों को पूरा करवाने के उद्देश्य से विधानसभा का घेराव करने वाले थे। रात को वे सुमैया ग्राउंड के ठहरे थे। उनके समर्थन में लोगों ने उनसे जुड़कर आवाज उठाने के लिए लोग सुमैया ग्राउंड तक गए थे। कोई कवि था कोई लेखक कोई नाटककार। कोई फ़िल्म क्षेत्र से जुड़ा तो कोई आम आदमी। जिन्हें भी किसानों के पैर के फटे छालों से दर्द हुआ वे उनके साथ होने को वहां पहुंचने लगे।
करीब 12 बजे यह हुआ कि अब थके हुए किसान भाई बहन सोने जा रहे हैं तो लोगों की भीड़ और कविताओं जनवादी गीतों का स्वर कम होता गया और जिन्हें लौटना था वे अपने घर लौटने लगे।
हम अपने कुछ मित्रों के साथ चुना भट्टी से आकर कुर्ला के रेलवे स्टेशन पर खड़े थे। रात के करीब एक बजे रहे थे। आपस में कविताओं पर बातचीत जारी थी। मुझे याद है उस समय अशोक कुमार पांडेय जी की कविता मित्र रमणीक सिंह पढ़ रहे थे। ट्रेन को आने में अब भी वक्त था। इतने में दो लड़के भेल खाते हुए आगे से गुजरे। रमणीक ने आगे बढ़ उनसे भेल मांग ली और दो मुट्ठी पुरी के साथ खा लिया। रमणीक एकदम नार्मल थे जैसे जैसे वह अपने मित्र के साथ बाट कर खा रहे हों। ऐसे सहज जैसे मुझसे प्याज मांगने वाला युवक अभी बगल में खड़ा है। वे दोनों लड़के थोड़ा असहज हुए। उनमे से एक ने कहा था- सर आपको और खाना है ? क्या मैं आपके लिए और कुछ लाऊं ? मेरी नाईट ड्यूटी है। मेरी बैग में चपाती सब्जी है आप खाएंगे ?
रमणीक बोले- मुझे बस टेस्ट करना था।
वे दोनों लड़के आगे बढ़ गए। मेरे साथ के मित्र शायद रमणीक की इस क्रिया से असहज हुए थे पर सहज दिखने का प्रयास कर रहे थे। मैं असहज था। मेरे लिए यह नया अनुभव था। रमणीक आकर फिर से कविताएं पढ़ने लगे।
यह सब महज कुछ सेकंड में हो गया। पर मेरे लिए अविस्मरणीय हो गया। ऐसी सहजता न दिखी फिर। शायद कभी दिखी हो पर नोटिस करने जैसी न हो।
युवक जिसने सहज भाषा मे कह दिया था कि पैसे नहीं हैं मेरे पास वह मुझे देख रहा था। ऐसे देख रहा था जैसे उसने मुझे पैसे दे दिए हों और बस प्याज हाथ मे आने का इंतजार कर रहा हो। उसने एक दो बार सड़क पर दोनों तरफ देखकर पुष्टि भी कर दी कि कोई नहीं है तुम मुझे प्याज दे दो।
मेरे जेहन में कई सवाल उभरे। क्या यह बेरोजगार है,गरीब है, जॉबलेस है क्या है ? पर एक भी न पूछे जा सके।
महज तीन प्याज के लिए यह सब सवाल नहीं उठने चाहिए। मैंने कहा- थैली है ?
युवक ने कहा- जेब मे रख लेंगे।
मेरी निगाह उसकी जीन्स पर गई। जो किसी बड़े ब्राण्ड की ही लगती थी। वह युवक उस ब्रांड की जीन्स में प्याज रखने में सहज था।
उसकी सहजता मुझे असमंजस में डाल रही थी। मैंने उसे प्याज पकड़ा दी। वह प्याज को जेब मे ठूसते हुए थैंक यू भैया कहकर आगे बढ़ा।
मैं तिरपाल फिर से ठीक करता सोच रहा हूँ- क्या वह इतना ही सहज है ? या फिर इस लॉक डाउन में वह ऐसा हो गया होगा। यदि परिस्थिति ने उसे इतना सहज बनाया है तो क्या और सब ऐसे ही नहीं हो सकते अपने स्तर पर ?
मैं सोचता हूँ-
क्या किसी देश का प्रधानमंत्री भी ऐसे ही सहज हो सकता है जो अपनी गलत नीतियों से हुए नुकसान को जनता के सामने स्वीकार ले और दुरुस्त करने के सुझाव मांगे ?
रिपोर्टर अपनी गलत रिपोर्टिंग को सहजता से स्वीकार ले।
एक रेस्त्रां का कुक अपनी बनाई डिश में कमी होने को लेकर खाने वाले कि शिकायत से पहले सहजता से आकर चर्चा कर ले।
वोटर अपने चुने हुए कैंडिडेट के उम्मीदों पर खरे न उतरने पर लोगों से सहज होकर चर्चा कर ले।
यह शायद ही हो। पर यह सहजता समाज को बेहतर बनाने में मदद जरूर करेंगी।