जब पुलिस वाला बलात्कारी हो, क्या सब बलात्कार समान हैं और AFSPA?

Written by संजय कुमार सिंह | Published on: December 4, 2019
बलात्कार पर अचानक उद्वेलित हो जाने वालों के लिए Samar Anarya ने लिखा है, “आज पुरी, उड़ीसा में एक महिला के पुलिस थाने में बलात्कार की खबर है! एक आरोपी खुद पुलिसवाला है। किसी को आक्रोशित होते देखा? आरोपियों को टांगने की मांग करते देखा? नहीं न? क्यों? क्योंकि स्त्री ज़िंदा बच गई? आरोपी किसी खास धर्म के नहीं थे जिससे आपकी घटिया राजनीति को मदद मिले? या स्त्री मध्यवर्गीय नहीं थी, सुन्दर नहीं थी कि आपकी भावनाएं जुड़ सकें? या इसलिए कि विजुअल्स नहीं थे- बलात्कार घर के अंदर हुआ- सो टीआरपी के काम आने लायक वीडियो/तस्वीरें नहीं हैं!



इसीलिए आक्रोश धंधेबाज समस्या का हिस्सा हैं, समाधान नहीं हैं! इसीलिए मार्शल आर्ट्स, आत्मसुरक्षा आदि आदि बकवास करने वाले भी समस्या का ही हिस्सा हैं- समाधान का नहीं! जो लड़की खुद सीखना चाहे वह ज़रूर सीखे, अच्छा ही है- पर समाज की, पुलिस की ज़िम्मेदारी आप किसी लड़की पर कैसे थोप सकते हैं? और फिर वह लड़की 5 साल की हो तो? अशक्त हो तो? किसी भी वजह से- मानसिक अवस्था, शारीरिक- कुछ भी की वजह से अपनी सुरक्षा कर पाने में असमर्थ हो? या बलात्कारी के पास हथियार हों तो? या इनमें से कुछ भी न हो- वह बस फ्रीज़ हो जाए- सन्न रह जाये- तमाम मामलों में ऐसा होता है- बलात्कार ही नहीं- अन्य हमलों में भी आप पहले वार के बाद काफी देर कुछ समझ ही नहीं पाते!

इसीलिए चुनिंदा मामलों में आक्रोश नहीं- हर मामले में न्याय की लड़ाई की ज़रूरत है! चुनिंदा मामलों में आक्रोश असल में बाकी औरतों के लिए न्याय की संभावना कम करता है! आक्रोश बस बलात्कारों को सामान्य बना देता है- होते रहते हैं टाइप मामला बना देता है- फिर आप जब तक बेहद वीभत्स न हो खुद ही रजिस्टर नहीं करते!” और लड़की बलात्कारी से क्यों निपटे, भीड़ क्यों निपटे, हम क्यों निपटे – शासन-प्रशासन, कोर्ट पुलिस किसलिए है। ऐसा नहीं है कि बलात्कार वही होते हैं जो आपको बताए जाते हैं, या जिसका पता आपको चलता है। बहुत सारे बलात्कार के मामले की रिपोर्ट नहीं होती, दर्ज नहीं होते। कार्रवाई तो बहुत दूर और ऐसे ही मामलों में है सुरक्षा बलों द्वारा बलात्कार।

इस सिलसिले में सशस्त्र सेना को विशेष अधिकार दिए गए हैं। पूर्वोत्तर राज्यों में लागू सशस्त्र बल विशेष शक्तियां अधिनियम, 1958 (एएफएसपीए) को हटाने की मांग पर मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला (जन्म:14 मार्च 1972) ने लगभग 16 वर्षों तक (4 नवम्बर 2000 से 9 अगस्त 2016 तक) भूख हड़ताल पर रहीं। वे जिन्दा इसीलिए हैं कि सरकार ने उनका पूरा ध्यान रखा पर उनकी मांग पूरी नहीं हुई। इसीलिए लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में सत्ता में आने पर इसमें संशोधन और देशद्रोह कानून खत्म करने पर विचार करने का वादा किया था। पर कांग्रेस की सरकार आई नहीं और हम बलात्कार को लेकर वैसे ही उद्वेलित होते रहते हैं। इसपर साथी Ajit Sahi की यह पोस्ट पढ़ने लायक है। मूल पोस्ट अंग्रेजी में है आपके लिए मैंने अनुवाद कर दिया है।

एक दशक पहले एक पत्रकार के रूप में मैं छत्तीसगढ़ के दांतेवाड़ा जिले में गया था और कई आदिवासी महिलाओं से मिला जिनके साथ भारतीय पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवानों ने लगातार हफ्तों, महीनों और वर्षों बलात्कार किया था। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने मामले की जांच करने का निर्णय किया था। पर वह एक दिखावा था क्योंकि एनएचआरसी ने उन्हीं पुलिस अधिकारियों को जांच के लिए भेजा जिनके जवानों पर आरोप था। स्पष्ट है कि एनएचआरसी अपनी जिम्मेदारी निभाने में नाकाम रही थी।

मैंने इन महिलाओं की आपबीती लिखी और तहलका ने इसे कवर स्टोरी के रूप में छापा। मैंने समझा था कि यह किसी अन्य खबर से अलग,पाठकों को चौंकाएगा, कम से कम महिलाएं प्रतिक्रिया करेंगी – महिला एक्टिविस्ट तो जरूर। मैं गलत था। बमुश्किल किसी में कोई प्रतिक्रिया हुई। मेरे संपादक भी मेरी ही तरह चकित थे। वैसे भी, लड़ाई वाली जगह पर सुरक्षा कर्मचारियों द्वारा सामूहिक बलात्कार ना सिर्फ सभ्यता के खिलाफ हैं बल्कि भारत और अंतरराष्ट्रीय न्यायशास्त्र के साथ-साथ जीनिवा समझौते के भी खिलाफ है।

इसलिए मेरे संपादकों में से एक ने भारत की जानी-मानी महिला पत्रकार से बात करने का निर्णय किया। उस समय वे भारत के जाने-माने टेलीविजन चैनल में थी और जोरदार पत्रकारिता के लिए जानी जाती थीं। उस पत्रिका ने इस रिपोर्ट को अपनी एक सहकर्मी को दिया। वह भी महिला हैं। काफी दिन गुजर गए। कुछ नहीं हुआ। मैंने अपनी सहकर्मी से कहा कि उस टेलीविजन चैनल से पूछा जाए कि वे सब इस मामले में कुछ कर रही थीं कि नहीं। उस चैनल की महिला पत्रकार का कहना था, "हम यह खबर (अंग्रेजी में स्टोरी कहते हैं) नहीं करेंगे क्योंकि हम माओवादियों के समर्थन में स्टोरी नहीं करते हैं।"

मैं उन पीड़ित दुखी महिलाओं से हिमांशु कुमार की सहायता से मिला था। उस समय वे एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में दांतेवाड़ा में रहते थे। आदिवासियों के बीच अपनी पहुंच के चलते हिमांशु भाई पहले ही जिला प्रशासन के लिए मुश्किल बने हुए थे और मेरी रिपोर्ट ने उनकी मुश्किलों को बढ़ा दिया। खबर छपने के कुछ ही हफ्ते में पुलिस हिमांशु भाई के आश्रम को तहस नहस कर दिया जहां वे कोई 17 साल से रह रहे थे और गरीबों के बीच काम कर रहे थे। हिमांशु भाई को छत्तीसगढ़ से बाहर कर दिया गया। यह मुमकिन है कि मेरी रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद छत्तीसगढ़ में सैकड़ों अन्य महिलाओं से बलात्कार किया गाया हो।

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