जो सरकार मणिपुर हिंसा पर चुप है, वह गाजापट्टी में युद्धविराम क्यों चाहेगी- सिद्धार्थ वरदराजन

Written by sabrang india | Published on: November 3, 2023
वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन ने 1 नवंबर 2023 को जालंधर के ग़दरी बाबा मेले में एक कार्यक्रम में उपरोक्त पंक्तियों के साथ इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष को लेकर भारत सरकार की नीति पर अपनी बात रखी। 

मेरी ख्वाहिश है कि बच्चे कभी ना मरें 
मेरी ख्वाहिश है कि जंग छिड़ते ही उनको आसमान में पहुँचाया जाय 
और जब महफ़ूज़ वो घर लौटे और माँ बाप पूछें की तुम कहाँ थे  
उनका जवाब होगा कि हम बादलों में खेल रहे थे 


दरअसल, गाजा पट्टी में ‘विस्तारित’ जमीनी अभियानों की इजरायल की घोषणा के साथ ही भारी हवाई हमलों और इजरायली सेना द्वारा मारे गए फिलिस्तीनियों की संख्या 7,000 से अधिक होने के बाद भी भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा मानवीय संघर्ष विराम के लिए लाए गए एक प्रस्ताव से खुद को दूर कर लिया और हिंसा पर तत्काल रोक लगाने की अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मांग का समर्थन न करने का विकल्प चुना। इसे लेकर वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन ने मोदी सरकार की निंदा की है। 

सिद्धार्थ वरदराजन ने कहा, ''दुनियाभर के मजलूम लोगों को साथ लेकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ी गई। इस दौरान यह ख्याल रखा गया कि यह लड़ाई इस बात को ध्यान में रखकर लड़ी गई थी कि हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई उस समाज के लिए है जो दुनियाभर में इंसाफ के लिए लड़ रहा है। और मुझे लगता है कि फिलिस्तीन के बारे में उनका मत बहुत स्पष्ट रहता अगर वो हमारे बीच मौजूद रहते, लेकिन कितने अफसोस की बात है कि हिंदुस्तान की हुकूमत (मोदी सरकार) आज एक छोटे से सवाल पर कि क्या गाजापट्टी में जो जंग चल रही है उसपर एक विराम होना चाहिए, युद्ध विराम होना चाहिए, नरसंहार रुकना चाहिए, बच्चों का कत्लेआम रुकना चाहिए, उसपर चुप्पी साध रही है। एक ओर दुनिया के 120 देश और दूसरी ओर अमेरिका, इजरायल और उसके कुछ चुनिंदा दोस्त देश और मोदी सरकार ने रिपब्लिकन ऑफ इंडिया के 70-80 साल के इतिहास को दरकिनार करते हुए यह ऐलान किया कि हिंदुस्तान युद्ध विराम के पक्ष में नहीं हैं, यह बड़े शर्म की बात है। लेकिन यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए, जो सरकार पांच छह महीने से मणिपुर के नरसंहार को देख रही है, और उसको रोकने की कोशिश नहीं कर रही है, जिस प्रधानमंत्री ने 2002 में गुजरात के अंदर बेकसूर लोगों का जो कत्लेआम हुआ उसे रोकने की कोशिश नहीं की, वो गजापट्टी में क्या युद्धविराम के पक्ष में रहेंगे। दोस्तो हकीकत यह है कि आज हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जहां हिंसा, चाहे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो या देश के अंदर, सत्ताधारियों के लिए एक हथियार बन चुकी है और खुलेआम हिंसा का प्रयोग किया जा रहा है। इसकी बहुत सारी मिशाल दुनियाभर में आपको मिलेंगी, हिंदुस्तान में आपको मिलेंगी। लेकिन हिंसा अकेले एक हथियार नहीं है इनके हाथों में। आज अगर देखा जाए तो हिंदुस्तान की डेमोक्रेसी पे, हिंदुस्तान के संविधान पर अलग-अलग हथियारों से हमला किया जा रहा है। ऐसा शायद कोई मूल अधिकार नहीं है जिसको कुचलने की कोशिश न की जा रही हो। 

पत्रकारों और पत्रकारिता के बारे में बात रखते हुए उन्होंने कहा कि मैं एक पत्रकार हूं और मेरा जो अनुभव रहा है कि पत्रकारों का काम सिर्फ एक बुनियाद पर चलता है और वो है जिसे अंग्रेजी में कहते हैं ''फ्रीडम ऑफ स्पीच'', बोलने का हक, ये हक, ये अधिकार हर किसी को दिया जाता है हिंदुस्तान में, और इस अधिकार को इस्तेमाल करके पत्रकारों का किरदार हिंदुस्तान में ये है कि वे आम शहरी, आम जनता को देश के हालात के बारे में अवगत कराएं, देश के बारे में जनता को खबरें दें। समाज और देश के सामने जो समस्याएं हैं उनको उजागर करे, देश के जो शासक हैं जो डेमोक्रेसी के तहत हर पांच साल में चुनके आते हैं, लेकिन डेमोक्रेसी में हर नागरिक का फर्ज यही नहीं है कि वो पांच साल में जाकर सिर्फ उनको वोट दें, नागरिक को अपना हक हर रोज इस्तेमाल करना चाहिए। शासकों से सवाल करना चाहिए और उनपर दवाब बनाने का एक जरिया है मीडिया। 

आज, संविधान के तहत बोलने का हक तो है, लेकिन क्या बोलने के बाद आप आजाद रहेंगे? ये सवाल आज हिंदुस्तान के हर कोने में है। पत्रकार आज खुद से पूछ रहा है, सिर्फ पत्रकार ही नहीं, छात्र, अध्यापक, फिल्म कलाकार, आर्टिस्ट सब ये पूछ रहे हैं। साथियों, आपने अक्सर सुना होगा, ये विवाद, ये डिबेट कि आज के मौजूदा हिंदुस्तान के हालात की आप आपातकाल से तुलना कर सकते हैं। जो इंदिरा गांधी ने जो इमरजेंसी लागू की वह औपचारिक थी लेकिन हिंदुस्तान में आज अनौपचारिक इमरजेंसी चल रही है। इसके बदले में बहुत सारे ऐसे लोग हैं सरकार के अंदर, सरकार से ताल्लुक रखने वाले, जिनको रवीश कुमार ने एक नाम दिया गोदी मीडिया। उनका कहना है कि हिंदुस्तान में हालात खराब नहीं है। यह मीटिंग चल रही है, जिसमें मैं बोल रहा हूं, और इंदिरा गांधी के आपातकाल में यह मीटिंग नहीं हो पाती, यह हकीकत है। इसीलिए उनका (गोदी मीडिया) कहना है कि भाई हिंदुस्तान में जो तुम कर रहे हो वह गलत है। और आपातकाल की बातें आप छोड़ दो। और इसके बदले में मैं  एक नाम आपको बताना चाहूंगा और वो नाम है प्रबीर पुरकायस्थ। आपने ये नाम सुना होगा, पढ़ा होगा। प्रबीर पुरकायस्थ एक पत्रकार हैं, एक वैज्ञानिक हैं जो एक वेवपोर्टल न्यूजक्लिक के संस्थापक संपादक रहे हैं और 1975 में प्रबीर पुरकायस्थ जब जेएनयू के छात्र थे, और इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी का ऐलान किया तब पुलिस जेएनयू पहुंची वहां से बहुत सारी गिरफ्तारियां हुईं।  प्रबीर पुरकायस्थ को भी वहां से गिरफ्तार किया गया और तिहाड़ जेल में उनको पहुंचाया गया। 

इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में बहुत सारे लोगों की गिरफ्तारियां हुईं। भाजपा वाले कहते हैं और वे झूठ नहीं बोल रहे, कि उनके नेताओं को भी जेल भेजा गया तो आप कह सकते हैं कि  प्रबीर पुरकायस्थ की गिरफ्तारी कौन सी बड़ी बात है। बड़ी बात यह है कि इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में गिरफ्तार किए गए पुरकायस्थ को नरेंद्र मोदी की अघोषित इमरजेंसी में दोबारा गिरफ्तार किया जाता है। और मेरी जानकारी में कम से कम प्रबीर ऐसे शख्स हैं जिनको इंदिरा गांधी ने निशाना बनाया, अपनी इमरजेंसी के दौरान और अब नरेंद्र मोदी निशाना बना रहे हैं अपनी अघोषित  इमरजेंसी के दौरान। और इल्जाम जो लगाया गया है उनपर दहशतगर्दी का केस दर्ज किया गया है। इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में लोगों के फंडामेंटल राइट्स रद्द कर दिये गए थे लेकिन इसे हटने के बाद जो लोग गिरफ्तार किये गए थे उन्हें छोड़ दिया गया। लेकिन मैं कहता हूं कि अघोषित इमरजेंसी ज्यादा खतरनाक है। प्रबीर पर जो यूएपीए लगाया गया है, उसमें गिरफ्तारी से सुरक्षा नहीं है। इसलिए हुकमरान भी जानते हैं कि उनके आरोप टिकने वाले नहीं हैं लेकिन वे इस कानून के तहत उन्हें जेल में डाल पाए हैं। कौन सा जज इस बात की पुष्टि करेगा कि प्रबीर पुरकायस्थ एक आतंकवादी हैं। लेकिन इल्जाम उनपर इसलिए लगाया गया है कि इस कानून के डिजायन के मुताबिक, मुकदमा चलने से पहले ही आपको एक लंबी सजा काटनी पड़ती है। 

केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन का उदाहरण देख लीजिए। वो दिल्ली से हाथरस स्टोरी कवर करने के लिए जाने की कोशिश कर रहे थे, जहां एक दलित किशोरी का सामूहिक बलात्कार हुआ था, उनको हाथरस से पहले रोका गया और यूएपीए के तहत एक झूठा इल्जाम लगाया गया और वो करीब दो साल तक जेल में सड़ते रहे। पत्रकारों से हटकर हम सोशल एक्टिविस्ट की बात करें तो भीमा कोरेगांव का नाम आपने सुना होगा। इस मामले में लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, प्रोफेसर, वकील आदि चार पांच साल से सजा काट रहे हैं, उनको बेल नहीं मिलती। फादर स्टेन स्वामी जिन्होंने पूरी जिंदगी हिंदुस्तान के आदिवासियों के हकों के लिए लड़ी, जेल के अंदर उनका इंतकाल हुआ। आखिरी दम तक वे कहते रहे कि वे बेकसूर हैं। लेकिन कोर्ट ने और सरकार ने उनकी बात नहीं सुनी। और ये जो केस फाइल करने का तरीका है, जो हम बात कर रहे हैं बोलने की आजादी और बोलने के बाद की आजादी, तो ये आज लगभग तय है कि हिंदुस्तान की पुलिस को अधिकार दिया दिया गया है यह तय करने के लिए कि कहां तक वो सीमाएं तय करेगी। कहां तक बोलना जायज है, यदि आप इससे आगे बोलेंगे तो आप खतरे में पड़ सकते हैं। 

मणिपुर में जो नरसंहार हुआ है। उसकी जांच करने एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की टीम वहां गई, कई वरिष्ठ पत्रकार उसके सदस्य थे, उन्होंने तीन चार दिन रुककर एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें मणिपुर सरकार की आलोचना की गई और कुछ नस्लवाद किस्म की जो रिपोर्टिंग है, उसकी आलोचना की। दिल्ली आकर उन्हें पता चला कि मणिपुर की पुलिस ने उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज कर दिया। अभी तक हमने सुना कि पत्रकार महफूज नहीं हैं, रिपोर्टर के खिलाफ आसानी से केस दर्ज हो सकता है और हो भी रहा है हिंदुस्तान के हर कोने में। लेकिन अब एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के वरिष्ठ जो एडिटर्स हैं, वो तफ्तीश के लिए एक इलाके में जाते हैं अब उनको भी खतरे में डाला जा रहा है। मैंने प्रबीर पुरकायस्थ की बात की उनपर दहशतगर्दी का आरोप तो लगा दिया गया, आप जानते हैं कि न्यूजक्लिक से जुड़े पत्रकारों-लेखकों से किस तरह के सवाल किये गए कि किसान आंदोलन को आप किस तरह से देखते हैं? आपने किसान आंदोलन की कवरेज की या नहीं की? एक और पत्रकार हैं उनसे पूछा गया कि आपने कश्मीर पर किताब क्यों लिखी?  एक और पत्रकार से नागरिकता कानून के शांतिपूर्ण प्रदर्शनों की कवरेज के बारे में पूछा गया। इल्जाम लगा रहे हैं दहशतगर्दी का लेकिन पत्रकारों से पूछ रहे हैं कि आपने किसान आंदोलन की खबर क्यों लगाई। क्या ताल्लुक है इन दोनों के बीच में। क्या सरकार ये कहना चाह रही है कि किसानों ने अपने हक के लिए जो एक आंदोलन चलाया जिसमें सैकड़ों किसान शहीद भी हुए, ठंड में, गर्मी में, बरसात में, एक्सीडेंट में, क्या सरकार का मानना है कि इस मूवमेंट को कवर करना दहशतगर्दी का केस बन सकता है, और ये हकीकत है। 

सिद्धार्थ वरदराजन की पूरी स्पीच यहां क्लिक कर सुन सकते हैं।

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