वो पप्पू है, ये फेंकू है...मतलब हम सब 'Agenda Setting Syndrome' से ग्रसित हो चुके हैं

Written by Shashi Shekhar | Published on: October 6, 2018
गांव के सबसे किनारे वाले पीपल पर भूत रहता है. हममें से कइयों ने अपने माता-पिता से बचपन में ये सुना होगा. वो इसलिए ऐसा बोलते थे कि देर शाम तक हम उधर खेलने न जाए. लेकिन, आज भी उस पीपल के पेड से गुजरते वक्त अचानक बचपन की वो बात याद आ जाती है. ये यादें 20वीं सदी की है.



अब, इक्कीसवीं सदी में हम आ गए है. आज क्या हो रहा है? जॉर्ज जर्बनर हंगरी के रहने वाले कम्युनिकेशन के प्रोफेसर थे. 1976 में उन्होंने एक थ्योरी दी. कल्टीवेशन थ्योरी. मतलब, उन्होंने इस बात की जांच की कि जो लोग अधिक टीवी देखते है और खास कर हिंसा से जुडी खबरें, उनकी सोच में क्या परिवर्तन आता है? टीवी कैसे उनके आइडिया और पर्सेप्शन को प्रभावित करता है. निष्कर्ष ये निकला कि जो लोग बहुत अधिक टीवी न्यूज देखते है और उस पर भरोसा करते है कि वह सच्ची बात है, तो वे Mean World Syndrome के शिकार हो जाते है, उन्हें ये दुनिया पहले के मुकाबले कहीं अधिक खतरनाक जगह मालूम पडती है. कल्टीवेशन थ्योरी का दीर्घकालिक प्रभाव ये होता है कि दर्शक (आम आदमी) एक हद तक अपने विचार पर स्वनियंत्रण नहीं रख पाता. वो मीडिया से अति प्रभावित हो जाता है.

इसका नतीजा मतदाताओं के अवधारणा निर्माण पर भी पडता है. जैसे, आज भारत के काफी पढे-लिखे लोग भी पप्पू-फेंकू जैसे टर्मिनोलॉजी में यकीन करने लगे है. आज मतदाता अपने नेता की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, मौजूदा कार्यप्रणाली, उसकी नीतियों आदि पर ध्यान नहीं देता, बल्कि वो मीडिया (सोशल मीडिया समेत) की बनाई अवधारणा के आधार पर निर्णय लेने लगा है. मतलब, सीधे शब्दों में कहा जाए तो मौजूदा दौर में हम सब “Agenda Setting Syndrome” से ग्रसित हो चुके है. मीडिया का अंतिम और महत्वपूर्ण काम है “Agenda Setting”. ये जरूरी भी है. लेकिन, सवाल है कि किसका “Agenda”?

मसलन, एंटी नेशनल, अर्बन नक्सल, विकास विरोधी, दिल्ली आ कर दिल्ली को बर्बाद करने वाले किसान, ये ऐसी शब्दावलियां है, जो मीडिया की कोख से उपजे है. अब ये उपज कितना जायज है, कितना नाजायज, इसकी जांच कौन करेगा? वो, जो “Agenda Setting Syndrome” से ग्रस्त है? कभी नहीं. क्योंकि, वो दर्शक मीडिया से इतना प्रभावित है कि एक क्षण ठहर कर ये सोचने की जहमत भी नहीं उठाना चाहता कि क्या सचमुच कौव्वा कान ले गया?

वैसे भी हम भारतीय दर्शक/पाठक लिखे शब्द और दिखे तस्वीर को ब्रह्मवाक्य मानते है. इसका नतीजा ये हुआ कि नए दौर में बिना नियंत्रण वाले और सरकारी/गैर सरकारी/राजनीतिक/अराजनीतिक समर्थन से चलने वाले हजारों-लाखों न्यूज मीडियम पनपते चले गए. बिना जिम्मेवारी के न्यूज को प्रोड्क्ट बना कर बेचने वाले पत्रकार आ गए. जिनके लिए पूंजी पाने का आसान तरीका ये रह गया कि वे किसी भी तरह सत्ता या कॉरपोरेट पोषित हो जाए. अब सत्ता या कॉरपोरेट का सीधा संबंध तो गर्भ-नाल का होता है. कॉरपोरेट वहां, सत्ता जहां या जहां से सत्ता पर कॉरपोरेट नियंत्रण स्थापित करने का मौका मिले. तभी तो एक न्यूज चैनल जो कभी कांग्रेस का गुणगान करता है, सत्ता बदलते ही या सत्ता बदलने की संभावना देखते ही, पाला बदल लेता है. फिर सत्ता की प्रकृति भी महत्वपूर्ण है कि सत्ता मीडिया पर कितना नियंत्रण चाहती है. जितना अधिक नियंत्रण, मीडिया उतना अधिक “Agenda Setting” कार्यक्रम चलाएगा. जितना अधिक “Agenda Setting” कार्यक्रम चलेगा, जनता उतना अधिक “Agenda Setting Syndrome” से ग्रसित होगी.

उदाहरण के लिए, न तो हमने बचपन में ये जांचने की कोशिश की कि पीपल के पेड पर भूत था या नहीं, वैसे ही हम आज भी ये जांचने की कोशिश नहीं करते कि कोई वाकई पप्पू है या फेंकू? या फिर सचमुच हमारा नेता कोई अवतारी पुरुष है या मेरे जैसा ही आम इंसान. हम न तो लोकतांत्रिक मान्यताओं में यकीन रख पाए कि लोकतंत्र में कोई भी नेता कितना महान क्यों न हो, उसके महान होने का भ्रम समय-समय पर तोडते रहना चाहिए. कम से कम वर्तमान में. भले इतिहास उसे देवता का दर्जा दे दे.

जाहिर है, हम ऐसा इसलिए नहीं कर पाते कि हम सचमुच “Agenda Setting Syndrome” से ग्रस्त हो गए है. हम बीमार हो गए है. हमारी बीमारी ही हमारे नेताओं के लिए दवा है, दुआ है....

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