दि मैं आपसे पूछूँ कि बताइये! भारत मे कोरोना से लड़ने वाली मुख्य नोडल एजेंसी कौन है ? तो आप कहेंगे ICMR है।
अगर मैं कहूँ कि ICMR ने फरवरी में ही सरकार को सलाह दे दी थी कि कोरोना से लड़ने के लिए हमे सबसे ज्यादा अपनी टेस्टिंग क्षमताओ को बढ़ाना होगा! देश मे उपलब्ध मेडिकल सुविधाओं पर तुरन्त काम करने की जरूरत है!, लॉक डाउन सिर्फ अमीरों को बचा पाएगा गरीबो को नही वगैरह वगैरह, तो क्या आप मानेंगे ?
आप नही मानेंगे न!।लेकिन यह सच है जब 23 जनवरी को चीन का वुहान लॉक डाउन हुआ तो सब देशों की घण्टी बज गयी, भारत मे 30 जनवरी को पहला मामला आ गया तो भारत मे भी सोचना शुरू हुआ कि यदि यह वायरस भारत में बड़े पैमाने पर आया तो हम इसका सामना कैसे करेंगे?
ICMR के कुछ वैज्ञानिकों ने अन्य संगठनों को सहयोगी बनाकर, साथ मिलकर कोविड 19 महामारी की संभावित भारतीय प्रतिक्रिया का आंकलन करना शुरू कर दिया था फरवरी के अंतिम सप्ताह तक, इन सब वैज्ञानिको डॉक्टरों की टीम ने ICMR के महानिदेशक बलराम भार्गव की अध्यक्षता में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में दो पेपर, एक समीक्षा और एक अन्य मॉडलिंग अभ्यास का परिणाम प्रकाशित कर दिए।
पहले रिसर्च पेपर का नाम था “The 2019 novel coronavirus disease (COVID-19) pandemic: A review of the current evidence”, इसे स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के प्रणब चटर्जी, अनूप अग्रवाल और स्वरूप सरकार द्वारा लिखा गया इसमे कुछ सह-लेखक ओर भी थे, वे थे मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज की नाजिया नेगी; ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के भबतोष दास; डब्ल्यूएचओ के सायतन बनर्जी और आईसीएमआर की निवेदिता गुप्ता और रमन आर।
लंबा रिसर्च पेपर है इसमे भारत में चीन की तरह लॉकडाउन के खिलाफ चेतावनी देते हुए एक जगह कहा गया था '“Instead of coercive top-down quarantine approaches, which are driven by the authorities, community and civil-society led self-quarantine and self-monitoring could emerge as more sustainable and implementable strategies in a protracted pandemic like COVID-19।”
साफ है कि फरवरी में इन वैज्ञानिकों ने अपनी रिसर्च के आधार पर लॉकडाइन के बजाय “समाज और सिविल सोसाइटी की अगुआई में सेल्फ क्वारंटीन और सेल्फ मॉनिटरिंग’ की सलाह दी थी।”
दूसरे पेपर का नाम है “Prudent public health intervention strategies to control the coronavirus disease 2019 transmission in India: A mathematical model-based approach” इस पेपर में भारत के चार मेगा-शहरों: दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई और बेंगलुरु में संक्रमण के संभावित प्रसार का मॉडल प्रस्तुत किया गया।
आईसीएमआर के वैज्ञानिक जो आपको स्वास्थ्य विभाग की नियमित ब्रीफिंग में दिखाई देते है वो इन रिसर्च पेपर्स से भली भांति अवगत थे यही लोग आज 21 सदस्यीय राष्ट्रीय टास्क फोर्स का हिस्सा हैं।
इन्हीं रिसर्च पेपर के लेखकों में से एक बताया कि "भारतीय परिस्थितियों में इस तरह के लॉकडाउन केवल अमीर के लिए ही है यह उन्हें ही सोशल डिस्टेंसिंग रखने में मदद करते हैं जो कम घने इलाको में रहते हैं यया हाई राइज सोसायटी में रहते हैं," कुछ हद तक यह वायरस वहाँ फैलने से बचा रह सकता है।"लेकिन, गरीबों के लिए, डोर-टू-डोर स्क्रीनिंग के बिना लॉकडाउन केवल वायरस को इंट्रा-कम्युनिटी फैलाने में मदद करेगा,"
वैज्ञानिक ने कहा, 'घने शहरी इलाकों में गरीब बहुत कम भौतिक स्थान साझा करते हैं, वे जिस प्रकार से पास पास रहते है कॉमन सार्वजनिक सुविधाओं जैसे सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करते हैं। उनके लिए यह बड़े संकट का बायस बन सकता है। कल्पना कीजिए कि अगर कोई COVID पॉजिटिव व्यक्ति सैकड़ों के साथ एक सामुदायिक शौचालय साझा कर रहा है, तो यह कितना खतरनाक साबित हो सकता है।
साफ है कि मोदी सरकार को बड़ी डीप स्टडी कर सारी परिस्थितियों के बारे में पहले से ही चेता दिया गया था उसके बावजूद सरकार ने इसे हल्के में लिया और जब आग लग गयी तो कुआँ खोदने की कोशिश में लगी रही।
अगर मैं कहूँ कि ICMR ने फरवरी में ही सरकार को सलाह दे दी थी कि कोरोना से लड़ने के लिए हमे सबसे ज्यादा अपनी टेस्टिंग क्षमताओ को बढ़ाना होगा! देश मे उपलब्ध मेडिकल सुविधाओं पर तुरन्त काम करने की जरूरत है!, लॉक डाउन सिर्फ अमीरों को बचा पाएगा गरीबो को नही वगैरह वगैरह, तो क्या आप मानेंगे ?
आप नही मानेंगे न!।लेकिन यह सच है जब 23 जनवरी को चीन का वुहान लॉक डाउन हुआ तो सब देशों की घण्टी बज गयी, भारत मे 30 जनवरी को पहला मामला आ गया तो भारत मे भी सोचना शुरू हुआ कि यदि यह वायरस भारत में बड़े पैमाने पर आया तो हम इसका सामना कैसे करेंगे?
ICMR के कुछ वैज्ञानिकों ने अन्य संगठनों को सहयोगी बनाकर, साथ मिलकर कोविड 19 महामारी की संभावित भारतीय प्रतिक्रिया का आंकलन करना शुरू कर दिया था फरवरी के अंतिम सप्ताह तक, इन सब वैज्ञानिको डॉक्टरों की टीम ने ICMR के महानिदेशक बलराम भार्गव की अध्यक्षता में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में दो पेपर, एक समीक्षा और एक अन्य मॉडलिंग अभ्यास का परिणाम प्रकाशित कर दिए।
पहले रिसर्च पेपर का नाम था “The 2019 novel coronavirus disease (COVID-19) pandemic: A review of the current evidence”, इसे स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के प्रणब चटर्जी, अनूप अग्रवाल और स्वरूप सरकार द्वारा लिखा गया इसमे कुछ सह-लेखक ओर भी थे, वे थे मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज की नाजिया नेगी; ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के भबतोष दास; डब्ल्यूएचओ के सायतन बनर्जी और आईसीएमआर की निवेदिता गुप्ता और रमन आर।
लंबा रिसर्च पेपर है इसमे भारत में चीन की तरह लॉकडाउन के खिलाफ चेतावनी देते हुए एक जगह कहा गया था '“Instead of coercive top-down quarantine approaches, which are driven by the authorities, community and civil-society led self-quarantine and self-monitoring could emerge as more sustainable and implementable strategies in a protracted pandemic like COVID-19।”
साफ है कि फरवरी में इन वैज्ञानिकों ने अपनी रिसर्च के आधार पर लॉकडाइन के बजाय “समाज और सिविल सोसाइटी की अगुआई में सेल्फ क्वारंटीन और सेल्फ मॉनिटरिंग’ की सलाह दी थी।”
दूसरे पेपर का नाम है “Prudent public health intervention strategies to control the coronavirus disease 2019 transmission in India: A mathematical model-based approach” इस पेपर में भारत के चार मेगा-शहरों: दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई और बेंगलुरु में संक्रमण के संभावित प्रसार का मॉडल प्रस्तुत किया गया।
आईसीएमआर के वैज्ञानिक जो आपको स्वास्थ्य विभाग की नियमित ब्रीफिंग में दिखाई देते है वो इन रिसर्च पेपर्स से भली भांति अवगत थे यही लोग आज 21 सदस्यीय राष्ट्रीय टास्क फोर्स का हिस्सा हैं।
इन्हीं रिसर्च पेपर के लेखकों में से एक बताया कि "भारतीय परिस्थितियों में इस तरह के लॉकडाउन केवल अमीर के लिए ही है यह उन्हें ही सोशल डिस्टेंसिंग रखने में मदद करते हैं जो कम घने इलाको में रहते हैं यया हाई राइज सोसायटी में रहते हैं," कुछ हद तक यह वायरस वहाँ फैलने से बचा रह सकता है।"लेकिन, गरीबों के लिए, डोर-टू-डोर स्क्रीनिंग के बिना लॉकडाउन केवल वायरस को इंट्रा-कम्युनिटी फैलाने में मदद करेगा,"
वैज्ञानिक ने कहा, 'घने शहरी इलाकों में गरीब बहुत कम भौतिक स्थान साझा करते हैं, वे जिस प्रकार से पास पास रहते है कॉमन सार्वजनिक सुविधाओं जैसे सार्वजनिक शौचालयों का उपयोग करते हैं। उनके लिए यह बड़े संकट का बायस बन सकता है। कल्पना कीजिए कि अगर कोई COVID पॉजिटिव व्यक्ति सैकड़ों के साथ एक सामुदायिक शौचालय साझा कर रहा है, तो यह कितना खतरनाक साबित हो सकता है।
साफ है कि मोदी सरकार को बड़ी डीप स्टडी कर सारी परिस्थितियों के बारे में पहले से ही चेता दिया गया था उसके बावजूद सरकार ने इसे हल्के में लिया और जब आग लग गयी तो कुआँ खोदने की कोशिश में लगी रही।