सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष राजनीती की चुनौतिया

Written by विद्या भूषण रावत | Published on: July 27, 2017
नितीश कुमार ने धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की राजनीती को अलविदा कह बहुत बड़ा अहसान किया है . उनके इस कदम से ये भी साबित होता है के हालाँकि उन्होंने तेजस्वी यादव के बहाने पर गठबंधन तोडा लेकिन हकीकत यह है के भाजपा के साथ वह बहुत दिनों से बातचीत कर रहे थे और ब्रेक पॉइंट के लिए सही वक़्त का इंतज़ार कर रहे थे . लालू यादव सोच रहे थे के नितीश के पास तेजस्वी को बर्खास्त करने के ताकत नहीं है क्योंकि उनके सभी विधायक सरकार से बाहर आ जायेंगे . नितीश राजनीती के शातिर खिलाडी है उन्होंने तेजस्वी को हटा कर उन्हें बलिदानी होने का अवसर नहीं दिया और खुद ही 'महात्मा' बनकर संघ के 'संतो' की शरण में चले गए. आखिर नितीश के इस्तीफा देने के तुरंत बाद ही भाजपा संसदीय दल की बैठक होती है और उन्हें समर्थन का फैसला होता है. प्रधानमंत्री जी उनकी ईमानदारी और 'भ्रष्टाचार' के विरुद्ध लड़ाई में नितीश जी का समर्थन करते हैं, भाजपा के मंत्री कहते है के गेंद नितीश जी के पाले में हैं और एक घंटे में ही खबर आती है के नितीश जी आज सुबह शपथ ग्रहण करने वाले हैं. नितीश ने कुछ नहीं किया केवल महागठबंधन तोडा और मेरे विचार से वो अच्छा है क्योंकि अब लड़ाई आर पार की होगी .

Nitish Kumar
Image: PTI

नितीश की राजनीती को जो जानते हैं वो ये भी मानते होंगे के वह एक प्रकार से कुंठित राजनेता है क्योंकि जनता में उनकी छवि ऐसी नहीं जैसी ममता, लालू या मायावती की है इसलिए ऐसा होना ही था. नितीश कभी भी सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की राजनीती में खुद को सहज नहीं महसूस करते . उनका प्रयास था के नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध विपक्ष के महागठबंधन का वह नेतृत्व करेंगे हालाँकि धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के प्रश्न पर उनका कद लालू यादव के समकक्ष कही नहीं ठहरता. पिछले चुनावो में दुबारा सत्ता में आने का भी श्रेय लालू यादव को ही जाता है जिनकी लोकप्रियता उनसे बहुत आगे है . राजनीतीक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए लालू ने बड़ी पार्टी होने के बावजूद भी नितीश को समर्थन दिया हालाँकि उनका भी अपना पुत्रमोह कुछ ज्यादा था इसलिए उन्होंने राजनीती में नौसिखिये अपने पुत्रो को महत्र्पूर्ण मत्रालय और उपमुख्यमंत्री का पद दिलवा दिया. लालू के राज को बिहार में ख़त्म करने में उनके सालो का बहुत योगदान था तब कुछ समय बाद लालू की समझ आये लेकिन फिर राबरी, मीसा भारती, रोहिणी आचार्य, तेजस्वी और तेज प्रताप सभी को महत्वपूर्ण जगह देकर लालू मानो अपने परम मित्र मुलायम सिंह यादव से कम्पटीशन कर रहे हों ? ये भी सच है के नितीश के बाद ऑपरेशन मुलायम होने वाला है. ये पक्का है के अमित शाह और नरेन्द्र मोदी बचे खुचे विपक्ष को पुर्णतः समाप्त कर देना चाहते है जो भारतीय लोकतंत्र, धर्म निरपेक्षता और सामाजिक न्याय के लिए बहुत खतरनाक है .

इसीलिये मैंने कहा के नितीश ने सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष ताकतों के साथ धोखा किया है, हालाँकि मुझे इसमें कोई आश्चर्य नहीं नज़र आ रहा क्योंकि अगर हमारी राजनीती इस प्रकार के अवसरवादी गठजोड़ो को नहीं समझ पाती और मात्र चुनाव तक सीमित है तो हम कभी संघ का मुकाबला नहीं कर सकते. जहाँ सभी मध्यमार्गी दल अपने को जोड़ तोड़ की राजनीती में लगाकर सत्ता तक पहुचना चाहते है वही संघ १९२५ के ब्राह्मणवादी मनुवादी हिन्दू राष्ट्र के अपने सपने को साकार करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है और इस समय दलित बहुजन राजनीती को अपने निशाने पर रखा है जिसकी सबसे कमजोर कड़ी नेताओं की बर्चास्व्वादी राजनीती, परिवारवाद, मनुवादी मीडिया और जातिवादी ब्यूरोक्रेसी है जिसके सहारे ये सभी नेता शासन चलाना जानते हैं. ये ही शातिर लोग इनहे गलत राय देते हैं और जब फंस जाते है तो चुपचाप कन्नी काटकर खबरे लीक कराकर और फिर सी बी आई का खौफ दिखाकर उनकी राजनीती को नियंत्रित करते हैं .

राजनितिक दलों को ये सोचना पड़ेगा के मनुवादी फासीवाद के विरुद्ध उनकी लड़ाई केवल घिसे-पिटे नेताओं का कुनबा इकठ्ठा कर नहीं लड़ी जा सकती. किसी भी प्रकार की गलत फहमी से निकल कर सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता को लेकर अपने मुद्दे साफ़ करने की जरुरत है. एक कॉमन मिनिमम कार्यक्रम बनाने की जरुरत है जिसमे स्वस्थ्य, शिक्षा, भूमि सुधार, दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्प संख्यको के लिए क्या कार्यक्रम है रखे जाएँ. इतने वर्षो में क्या हमारे नेताओं ने आम जनता में इन प्रश्नों पर कुछ बात रखी. आज देश में हिंदुत्व का संप्रदायीक स्वरुप उफान पर है , जगह जगह पर विषैली भीड़ गाय, राष्ट्रवाद, वन्दे मातरम, बीफ के नाम पर इकठ्ठा होकर, अफवाह फैलाकर लोगो को मार रही है लेकिन विपक्ष चुप है . उसके राजनैतिक कार्यकर्त्ता कुछ नहीं करते अपितु बहुतो के कार्यकर्त्ता तो खुश हैं के उनका काम संघी कार्यकर्त्ता कर रहे हैं . ये जो बेईमान दोस्त है धर्मनिरपेक्ष खेमे में पहले उन्हें बाहर करने की जरुरत है . संघ से थोडा सा भी सहानुभूति रखने वाला व्यक्ति इस तरफ नहीं हो सकता लेकिन वे कहते हैं के राजनीती में एडजस्टमेंट होता है क्योंकि वह व्यावहारिक होती है, पर मैं समझता हूँ एडजस्टमेंट का मतलब अवसरवादिता नहीं होता . आज धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के नाम पर एक ही बिरादरी या एक ही परिवार की राजनैतिक खेमेबंदी को संघ ने बहुत अच्छे से इस्तेमाल किया है . हम चाहे कुछ भी कहें, अगले चुनाव में मोदी, नितीश कुमार की 'ईमानदारी' के सहारे अपनी वैतरणी पार लगाना चाहते है और उसके लिए प्रतीक के तौर पर उन्हें 'लालू यादव' दिखाई देंगे . किसी जाति को अपमानित करने के लिए और उसके विरुद्ध दूसरो को लामबंद करने की जो तिकड़म शाह और संघ ने उत्तर प्रदेश में की उसका ही प्रयोग बिहार में होगा . बिहार की 'अस्मिता' के नाम पर नितीश कुमार पुनः सवर्णों के कंधे पर रखकर अपनी ईमानदार छवि को और मजबूत करेंगे लेकिन उनके कुरते की चमक नरेन्द्र मोदी और अमित शाह से कम होगी.

ईमानदारी की बात कहे तो बठानी टोला, शंकर बिगहां और लक्ष्मनपुर बाठे के गरीब, भूमिहीन दलित या महादलित उनसे पूछ रहे हैं के उनके साथ न्याय कब होगा. जिन महादलितो को लेकर उन्होंने गठबंधन बनाया ताकि दलितों के बीच में दरार पड़े, उनके लिए बनाये गए बंदोपाध्याय कमीशन की रिपोर्ट का क्या हुआ ? क्या महादलितो के मुद्दे उनके अजेंडे में हैं या नहीं ? क्या भूमि सुधार का कानून बिहार में लागू होगा ? ४ बार मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कोई अगर शिकायत करे के काम नहीं करने दिया जा रहा है तो उनसे झूठा कोई हो नहीं सकता .

नितीश कुमार ने जो किया वो उनको देर सवेर करना ही है लेकिन देश में हिंदुत्व के संघी अजेंडे के विरुद्ध जो जनमत बन रहा है, जो युवा खड़े हो रहे हैं उनकी ताकत को एक करना होगा . सभी को एक मंच पर ला कर प्रयास करने होंगे . क्या होई ऐसा नेता है जो अपने परिवार, खानदान, जाति के पूर्वाग्रहों से ऊपर उठकर एक स्टेट्समैन का रोल निभाये और पूर्व, पश्छिम, उत्तर, दक्षिण में कड़ी हो रही बदलाव की आवाजो को एक जगह लाये . क्या ये प्रयास अभी से नहीं शुरू हो जाने चाहिए . सबसे बड़ी आवश्यकता है बसपा कांग्रेस- सपा(अखिलेश) तृणमूल-डीएमके-जनता दल सेक्युलर और अन्य छोटी मोटी पार्टियों और सामाजिक आन्दोलनों के साथ आने की. जब तक उनमे मूल विचार पर एकता नहीं होगी और ईमानदारी से वे धर्मनिरपेक्ष नहीं होते तो ये सब लड़ाई झूटी होगी.

पिछले बीस वर्षो से मैं एक बात लगातार कहता आ रहा हूँ.. अपने विरोधियो को तो हम अच्छे से जानते हैं, हर वक़्त उनका विश्लेषण करते हैं लेकिन कभी अपने दोस्तों को ठीक से समझा नहीं . ईमानदार दुश्मन बेईमान दोस्त से बहुत बेहतरीन होता है . नितीश कुमार ने साबित किया के अभी भी सेक्युलर कैंप में बहुत से लोग हैं जिनकी सहानुभूति और लार अमित शाह के फोन पर लगी पड़ी है . शंकर सिंह वाघेला चले गए हैं एन वक्त पर लेकिन और भी कई लोग होंगे जो इसके इंतज़ार में हैं लेकिन इन्ही झटको से हम लोग सीख भी सकते हैं.

क्या नितीश कुमार के जाने के बाद २०१९ एन डी ए के लिए एक वॉक ओवर होगा ? मैं ये मानता हूँ, ऐसा नहीं होना चाहिए . अब समय आ गया है के सभी राजनैतिक दलों को साथ बैठकर ईमानदारी और बौधिक ईमानदारी क्योंकि वो बहुत जरुरी है, के साथ ये निर्णय लेना पड़ेगा के एक बड़े अलायन्स के बिना कुछ भी असंभव है और उसकी शुरुआत अभी से करनी पड़ेगी . धर्मनिरपेक्ष विपक्ष का एक प्रेसिडियम हो जिसमे न केवल सभी प्रमुख नेता शामिल हों अपितु नए युवाओं, छात्र नेताओं, बुद्धिजीवियों, और सामाजिक कार्यकरताओं को भी शामिल किया जाए और देश के हर हिस्से में उस अभियान को गति दी जाए . इस बात का ध्यान रखें के विकल्प कोई जरुरी नहीं की राजनैतिक दल ही दे पाते हैं , वो परिस्थितयो और घटनाक्रम से भी बनता है .आज देश का जो परिस्थितिया बन रही हैं उसमे जनांदोलनो से ही विकल्प बनेगा लेकिन राजनैतिक दलों को उनको समझना पड़ेगा और दोनों को साथ आना पड़ेगा.

विकलपहीनता की राजनीती बहुत खतरनाक है जो अधिनायकवाद और फासीवाद के और ले जाती है इसलिए ये समय लोकतंत्रा, संविधान और सामाजिक न्याय को बचाने का भी और हमें उम्मीद है की जितनी परिस्तिथिया गंभीर होंगी, लड़ाई भी उतनी मज़बूत होगी और फिर नए विचारशील लोग ही उस राजनीती का प्रतिनिधत्व करेंगे . मध्यमार्गी दलों और नेताओं को अब अवसरवादिता से ऊपर सोचना पड़ेगा क्योंकि उनकी बदोलत भाजपाआज सत्ता के शीर्ष पर पहुंची है. नितीश इतिहास से सीख ले के जहाँ पर भी भाजपा ने सहयोगियों के साथ सरकार बनाई उसी के कब्र खोदी और अंत में स्वयं उस प्रदेश की मुख्य पार्टी बन गयी . नितीश का बचा खुची जनता दल २०२५ तक जिन्दा भी रहेगा या नहीं ये तो वक़्त ही बताएगा लेकिन उन्होंने तो अपने गुरु जॉर्ज फर्नांडिस की परंपरा को ही बढाया है इसलिए बहुत सोच कर रोने से समय ख़राब होगा और कुछ हासिल नहीं होने वाला. जरुरत है मज़बूत वैचारिक राजनैतिक नेत्रित्व की जिसकी सामाजिक न्याय, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता में अटूट आस्था हो ताकि मनुवादी वर्णवादी राजनैतिक व्यवस्था के पोषको के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई जीती जा सके .
 

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