गर्भवती महिलाओं की नियुक्ति नहीं: आधी आबादी पर सत्ता के पितृसत्तात्मक पूंजीवादी चरित्र की गाज

Written by Dr. Amrita Pathak | Published on: January 28, 2022
SBI ने भर्ती नियमों में किया बदलाव, 3 महीने से अधिक गर्भवती महिलाओं को नहीं करेंगे नियुक्त, विकलांगों के लिए भी नहीं बदले नियम


 
वर्तमान भारत में सरकार की संवेदना शून्य हो चुकी है. बेरोजगारी का आलम यह है कि लोग कोरोना और सर्दी से बेफिक्र होकर जान की परवाह न करते हुए सड़कों पर उतर रहे हैं. रोजगार पेट से जुड़ा मसला है जो प्रत्येक व्यक्ति से जुड़ा हुआ है और जिस पर सरकार का प्रहार लगातार जारी है. उनके एक और प्रहार में गर्भवती महिलाओं के रोजगारी नियुक्ति सम्बन्धी मामला शामिल है. पितृसत्तात्मक पूंजीवादी समाज तभी फलित हो सकता है जब महिलाओं के आर्थिक निर्भरता को कम किया जा सके. SBI की रोजगार नियुक्ति में बदलाव इसकी एक कड़ी है. 

एसबीआई ने रोजगार नियुक्ति में गर्भावस्था संबंधी संशोधन कर इसके पहले के दिशानिर्देश में एक बड़ा बदलाव किया है. पहले किसी भी जटिलता के अभाव में 6 महीने तक की गर्भवती महिला उम्मीदवारों को नियुक्त किया जा सकता था.  भारतीय स्टेट बैंक के रोजगार के लिए संशोधित दिशानिर्देश, 12 जनवरी, 2022 को लाया गया है जिसमें कहा गया है कि एक महिला उम्मीदवार जो तीन महीने से अधिक की गर्भवती है, को अस्थायी रूप से अयोग्य माना जाएगा और उसे बच्चे के जन्म के चार महीने के भीतर शामिल होने की अनुमति दी जा सकती है. इसके अतिरिक्त, भर्ती के ये दिशानिर्देश विकलांग लोगों के साथ भी समान रूप से लागू होगा.

गर्भावस्था से संबंधित संशोधन बैंक के पहले के दिशानिर्देश में एक बड़ा बदलाव है जिसमें कहा गया है कि महिला उम्मीदवारों को गर्भावस्था के छह महीने तक बैंक में नियुक्त किया जा सकता है, बशर्ते उम्मीदवार ने विशेषज्ञ स्त्री रोग विशेषज्ञ से प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया हो कि वह उस स्तर पर बैंक का रोजगार ले रही है. किसी भी तरह से उसकी गर्भावस्था या भ्रूण के सामान्य विकास में हस्तक्षेप करने की संभावना नहीं है, या उसके गर्भपात का कारण बनने या अन्यथा उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालने की संभावना नहीं है.

गर्भवती महिलाओं की भर्ती के लिए दिशानिर्देश अक्टूबर 2009 में जारी किए गए थे, जब देश के सबसे बड़े राष्ट्रीय बैंक ने 30 साल पुराने भेदभावपूर्ण मानदंड को वापस ले लिया था. निर्देशों में (पत्र संख्या सीडीओ/आईआर/एसपीएल/289 दिनांक 16.09.2009), बैंक ने कहा था कि गर्भावस्था को अब तत्काल नियुक्ति या पदोन्नति के लिए विकलांगता के रूप में नहीं माना जाना चाहिए.
 
यह निर्देश केरल में महिला संगठनों के सार्वजनिक आक्रोश, स्टेट बैंक स्टाफ यूनियन (एसबीएसयू) के प्रयासों और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तत्कालीन केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन द्वारा संबोधित एक पत्र के बाद आया था. 

हालाँकि, दशकों की प्रगति पर से वापस लौटते हुए, SBI ने अब गर्भवती महिला उम्मीदवारों को आवेदन करने से प्रभावी रूप से प्रतिबंधित करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए हैं.

ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक वूमेन्स एसोसिएशन की पूर्व महासचिव जगमती सांगवान ने कहा, "यह प्रथा महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण है और महिलाओं के लिए हानिकारक होगी."

महिलाओं के लिए मौजूदा अधिकारों में से कई गंभीर संघर्षों के बाद आए हैं. AIDWA ने रेखांकित किया कि यह संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन है और उन्होंने इन महिला विरोधी दिशानिर्देशों को तत्काल वापस लेने की मांग की है.

एसबीआई द्वारा महिलाओं के लिए दी गए यह दिशा निर्देश काफी भेदभाव पूर्ण और अतार्किक है. सवाल यह है कि तीन महीने या उससे अधिक की गर्भवती महिला को सेवा कार्य के भर्ती के लिए अयोग्य माना जाएगा, तो उन महिलाओं के बारे में क्या होगा जो पहले से ही एसबीआई में कार्यरत हैं, जो गर्भवती हो जाएंगी या वर्तमान में तीन महीने की गर्भवती हैं? 3 महीने की गर्भावस्था के बाद क्या उन्हें भी सेवा के लिए अयोग्य माना जाएगा?

एसबीएसयू ने बताया कि एक महिला कर्मचारी को प्रसव के बाद चार महीने के भीतर शामिल होने के लिए प्रस्तावित संशोधन बैंक की महिला कर्मचारियों के लिए मौजूदा छह महीने की मातृत्व अवकाश सुविधा के खिलाफ है.

30 साल पुराने सेक्सिस्ट मानदंडों के तहत, जो 2009 तक अस्तित्व में था, जो एसबीआई महिला उम्मीदवारों और सेवारत महिलाओं को भर्ती/पदोन्नति के समय चिकित्सा परीक्षा से गुजरने पर जोर देता था ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि वे गर्भवती हैं. उनका विवरण भी लिए जाने की भी बात है ताकि गर्भावस्था के दौरान पदोन्नति तक को स्थगित किया जा सके.
महिला उम्मीदवारों को अपने मासिक धर्म के इतिहास की जानकारी देने और गर्भावस्था के किसी भी सबूत और गर्भाशय, गर्भाशय ग्रीवा, अंडाशय या स्तनों के किसी भी रोग के इतिहास पर एक अंडरटेकिंग देने की भी आवश्यकता थी.

नवीनतम एसबीआई भर्ती दिशानिर्देशों में दूसरा मुद्दा विकलांग व्यक्तियों की श्रेणी के साथ है. मौजूदा दिशानिर्देशों में कहा गया है कि लिपिक संवर्ग में केवल शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्तियों की निम्नलिखित श्रेणियों की भर्ती की जाएगी: एक हाथ का नुकसान, बशर्ते उम्मीदवार दूसरे हाथ से लिख और काम कर सके; पैर (पैरों) का नुकसान, बशर्ते उम्मीदवार कृत्रिम पैर, बैसाखी, व्हीलचेयर के साथ आगे बढ़ सके.

हालांकि, ये भर्ती दिशानिर्देश विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 के उल्लंघन का हैं, जिसमें कहा गया है कि निर्दिष्ट श्रेणियों में उनका सरकारी रोजगार प्रतिष्ठानों में रिक्तियों की कुल संख्या का कम से कम 4% (और कुछ अन्य में 1%) आरक्षित होना चाहिए.

शारीरिक अक्षमताओं को उन लोगों के रूप में परिभाषित किया गया है जो अंधेपन या कम दृष्टि, बधिर या सुनने में कठिन और लोकोमोटिव विकलांगता के अंतर्गत आते हैं, जिनमें सेरेब्रल पाल्सी, चंगा कुष्ठ, एसिड अटैक पीड़ित, बौनापन और मस्कुलर डिस्ट्रॉफी, ऑटिज्म और मल्टीपल डिसेबिलिटी शामिल हैं.

क़ानूनी स्तर पर भी अगर देखा जाए तो, "अगर कोई इस मामले को अदालत में ले जाता है, तो अदालत द्वारा इन दिशानिर्देशों को असंगत और विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 की धारा 35 (1) का स्पष्ट उल्लंघन के रूप में खारिज करने की प्रबल संभावना है." गर्भवती महिलाओं से संबंधित संशोधित दिशानिर्देश भी उच्च न्यायालयों में चुनौती देने के लिए खुले हैं क्योंकि वे संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हैं जो कानून के समक्ष सभी व्यक्तियों के समानता और समान उपचार के अधिकार की गारंटी देता है.

नेशनल हेराल्ड के अनुसार, “एसबीआई का निर्देश गर्भवती महिलाओं के लिए कार्यबल में प्रवेश करना और कठिन बना देगा. 2020 के बाद से, भारत की महिला कार्यबल की स्थिति केवल खराब हुई है. साल 2021 जेंडर गैप इंडेक्स में महिलाओं की आर्थिक भागीदारी और राजनीतिक सशक्तिकरण के स्तर के आधार पर देश 28 स्थानों से गिरा और 156 देशों में से 140 वें स्थान पर था. नवीनतम एसबीआई 2022 निर्देश ऐसे समय में आया है जब मोदी सरकार की अपनी रिपोर्ट में कहा गया था कि जुलाई-सितंबर 2020 तिमाही के दौरान भारत में महिला श्रम भागीदारी दर गिरकर 16.1% हो गई.”

इसके अतिरिक्त, अप्रैल-जून 2020 तिमाही के दौरान श्रम बल में महिलाओं का प्रतिशत गिरकर 15.5 प्रतिशत के रिकॉर्ड निचले स्तर पर आ गया था. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी(CMII) के अनुसार, 2019-20 में कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी 10.7% थी, लेकिन महामारी के कारण लॉकडाउन के पहले महीने, अप्रैल 2020 में 13.9% नौकरी छूट गई.

नवंबर 2020 तक, पुरुषों ने अपनी खोई हुई अधिकांश नौकरी वापस पा ली, लेकिन महिलाओं के साथ ऐसा न हो सका. नवंबर तक कम से कम 49% नौकरी के नुकसान महिलाओं के थे. सीएमआईई के सीईओ महेश व्यास ने कहा कि रिकवरी से सभी को फायदा हुआ है लेकिन इससे महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम फायदा हुआ है. नवंबर 2020 में सीएमआईई के एक और गंभीर आंकड़े में कहा गया है कि शहरी पुरुषों के लिए 2.8% की तुलना में शहरी महिलाओं में श्रम बल संकुचन बढ़कर 27.2% हो गया. शहरी महिलाओं के लिए, नवंबर 2019 और 2020 के बीच भारत में कुल रोजगार में भी 22.83% की कमी आई है. 

विश्व बैंक के अनुमानों के अनुसार, 2005 से 2019 तक, महिला श्रम भागीदारी 2005 में 31.79 से घटकर 20.79 हो गई.

सरकार के अन्य नीतिगत बदलाव की तरह ही यह जनविरोधी बदलाव भी विफल सभीत होगी. यह महिलाओं के बहिष्कार को बढ़ेगी और अधिकारों को कम करेगी. महिलाऐं आर्थिक मंदी सरीखे किसी भी विपरीत परिस्थिति में सामाजिक, आर्थिक, व् पारिवारिक रूप से सबसे अधिक कीमत चुकाती है. 

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