सीएए के समर्थन में उतरे अपने बच्चों को दंगाई बनने से बचाइए

Written by संजय कुमार सिंह | Published on: February 25, 2020
आज के अखबारों में दो तस्वीरें प्रमुखता से हैं। एक लाल टी शर्ट, नीली जीन्स में पिस्टल ताने दाढ़ी वाले एक युवक की है जिसका धर्म तस्वीर देखने से पक्का नहीं होता है। हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर है कि वायरल वीडियो में दिख रहे इस युवक की पहचान नहीं हुई है (अगर तस्वीर और वीडियो वाला युवक एक ही है) पर कुछ दूसरे अखबारो में उसका नाम लिखा है, मोहल्ला और यह भी कि उसे गिरफ्तार कर लिया गया है। दूसरी तस्वीर 'कपड़ों से पहचाने जा सकने वाले' एक युवक की है जिसे लोग डंडों से मार रहे हैं। एक तीसरी तस्वीर और उससे संबंधित खबर भी प्रमुखता से छपी है जो कल के दंगे में मारे गए पुलिस वाले की है और उसका नाम भी है।



दंगे में शामिल युवक का नाम बताना पत्रकारीय नैतिकता के खिलाफ है। दो में से एक तस्वीर छापना दूसरे को महत्व नहीं देना है। दो तस्वीरें एक साथ उनके पूरे सौंदर्य (या न्यूज वैल्यू के लिए भी) नहीं छापी जा सकती हैं। जो नहीं छपेगी या अंदर के पन्ने पर छपेगी उसे जाहिर है कम महत्व मिला। ऐसे में संपादकीय विवेक काम आता है या ऐसे ही निर्णय से पता चलता है कि संपादकीय विवेक का क्या हाल है। है ही नहीं या उपयोग नहीं किया जा रहा है। टेलीग्राफ ने दोनों तस्वीरें दिल्ली के दंगे की खबर के साथ छापी है। एक पहले पन्ने पर और दूसरी खबर के टर्न के साथ। लगभग दोनों हिस्सा और दोनों फोटो बराबर है।

इस लिहाज से हिन्दी अखबारों का हाल बहुत ही बुरा है। सिर्फ नवभारत टाइम्स के मामले में कहा जा सकता है कि उसने संतुलन बनाने की कोशिश की है और दंगे की खबर के लगभग सभी पहलू खबर और फोटो के साथ खबरों के पहले पन्ने पर हैं। अखबार ने एक मृतक की भी पहचान बताई है। संयोग से आज इस पेज पर विज्ञापन नहीं है इसलिए भले ही यह काम आसान रहा हो पर यह संतुलन प्रयास करके बनाया गया लगता है। इसकी परवाह हिन्दी के दूसरे अखबारों ने नहीं की है। पिस्टल चला रहे युवका का नाम बताना और यह नहीं बताना कि वह सीएए के समर्थन में पिस्टल चला है या खिलाफ - एक उलझे हुए मामले को और उलझाना है जबकि अखबारों का काम है मामले को ठंडा करना, पानी डालना।

यह अजीब स्थिति है कि सीएए जैसा कानून बनाया गया, 72 घंटे में पास हो गया पर 70 दिन से ज्यादा के लगभग अंहिंसक विरोध पर कोई सुनवाई होने की बजाय सरकार की ओर से यही कहा गया है कि उसे वापस नहीं लिया जाएगा। इसके बाद, कायदे से इसे विरोधियों पर छोड़ दिया जाना चाहिए था कि वे कब तक विरोध कर पाते हैं। लेकिन सड़क बंद होने की मामूली सी बात को तूल देने के साथ धरना देने वाले एक बच्चे की मौत तक को मुद्दा बनाया गया और बनने दिया गया। सुप्रीम कोर्ट भी सक्रिय हुआ पर मूल मुद्दा सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता में भी नहीं आया। बात यहीं नहीं रुकी इसके समर्थन में लोग सड़क पर उतर आए।

मुझे लगता है कि विरोध की जरूरत हो या नहीं, समर्थन की जरूरत तो है ही नहीं। जब यह कानून सरकार ने बनाया है, वह कह चुकी है कि वापस नहीं लेगी, मामला सुप्रीम कोर्ट में है और विरोध में सिर्फ धरना चल रहा है (संयोग हो या प्रयोग) तो सीएए समर्थकों को परेशान होने का कोई मतलब नहीं है। पर वे भी मैदान में उतर आए हैं और अखबारों ने भले साफ -साफ नहीं लिखा हो पर हिसंक भी हैं। सरकारों और नेताओं तथा समर्थकों की फौज रखने वालों को आगे आने चाहिए और कहना चाहिए कि सीएए का समर्थन करने की जरूरत नहीं है। उसके लिए सरकार है और वह कहीं से किसी भी रूप में कमजोर नहीं है। पर सरकार या सरकारी नेताओं की तरफ से ऐसा कुछ कहा गया - सुनने में नहीं आया।



अखबारों में भी नहीं दिखा। दूसरे दल के लोग कहें कि सीएए का समर्थन करने की जरूरत नहीं है तो लगेगा कि वे विरोध को मजबूत करना चाहते हैं इसलिए "गोली मारो" की अपील करने वालों को ही सामाजिक शांति के लिए कहना चाहिए कि सीएए का समर्थन रहने दीजिए हम संभाल लेंगे और जब गोली मारने की जरूरत होगी तो बताएंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ है। ऐसी हालत में क्यों न माना जाए कि सरकार चाहती है कि दंगे हों। यह दिल्ली चुनाव हारने का सरकार और उसके समर्थकों का गुस्सा भी हो सकता है। पर गोली चलाने में कौन फंस रहा है, पीटा कौन जा रहा है। अखबारों की खबरों के अनुसार एक धर्म के लोग ही मार रहे हैं और मार भी खा रहे हैं और तमाशा देखने के लिए ड्यूटी पर लगाए गए पुलिसिए भी मर ही रहे हैं तो आप चुप बैठिए सब ठीक ही हो रहा है।

क्या आपको यह सब ठीक लग रहा है? अगर हां तो कोई बात ही नहीं है वरना अपने बच्चों, अपने प्रिय लोगों को संभालिए। अखबारों की खबरों पर भरोसा मत कीजिए। कुछ दिमाग भी चलाइए। एंटायर पॉलिटिकल साइंस समझने की कोशिश कीजिए। आज गोली चलाने वाले बच्चे क्या जीवन भर नौकरी कर पाएंगे? और कुछ कारोबार उनके वश का होगा? सीएए बांटो और राज करो से ज्यादा कुछ नहीं है। सरकार और सत्तारूढ़ दल की राजनीति है। इसलिए, सीएए के समर्थन में अपने बच्चों को दंगाई बनने से बचाइए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, अनुवादक व मीडिया समीक्षक हैं) 

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