सैमसंग के कर्मचारियों ने हड़ताल खत्म की, लेकिन यूनियनों को मान्यता देने का अहम मुद्दा बरकरार

Written by A Legal Researcher | Published on: November 5, 2024
करीब 1,500 कर्मचारियों ने 9 सितंबर को हड़ताल शुरू की थी। वे उच्च वेतन, बेहतर कार्य स्थितियों और अपने नवगठित संघ, सैमसंग इंडिया लेबर वेलफेयर यूनियन (SILWU) को मान्यता देने की मांग कर रहे थे।


फोटो साभार : पीटीआई

तमिलनाडु श्रम विभाग की मध्यस्थता में चेन्नई के श्री पेरामबदुर में सैमसंग की फैक्ट्री के कर्मचारियों ने कंपनी के साथ समझौता करने के बाद एक महीने से चल रही हड़ताल खत्म कर दी। करीब 1,500 कर्मचारियों ने 9 सितंबर को हड़ताल शुरू की थी। वे उच्च वेतन, बेहतर कार्य स्थितियों और अपने नवगठित संघ, सैमसंग इंडिया लेबर वेलफेयर यूनियन (SILWU) को मान्यता देने की मांग कर रहे थे। औसतन 25,000 रुपये प्रति माह कमाने वाले कर्मचारियों ने तीन वर्षों में धीरे-धीरे 36,000 रुपये तक वेतन बढ़ाने की मांग की। कई लोगों ने यह भी बताया कि उन्हें बिना उचित ओवरटाइम वेतन के नौ घंटे से अधिक काम करने के लिए मजबूर किया गया और उन्हें छुट्टी नहीं दी गई। हालांकि सैमसंग ने आधिकारिक तौर पर यूनियन को मान्यता नहीं दी, लेकिन कंपनी कर्मचारियों द्वारा उठाए गए अन्य मामलों को दुरुस्त करने के लिए सहमत हो गई, जिसके बाद हड़ताल समाप्त हो गई। इस समझौते के हिस्से के रूप में राज्य के उद्योग मंत्री ने पुष्टि की कि हड़ताल में भाग लेने के लिए किसी भी कर्मचारी को प्रतिशोध का सामना नहीं करना पड़ेगा; और कर्मचारी भी प्रबंधन के हितों को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों से दूर रहने के लिए सहमत हुए। सैमसंग ने बाद में यही बात दोहराई और चेन्नई स्थित अपने कारखाने को ‘काम करने के लिए एक बेहतरीन स्थान’ बनाने की अपनी प्रतिबद्धता को स्वीकार किया। सैमसंग के इतिहास में हाल के दिनों में ये सबसे बड़ी हड़ताल रही। इस हड़ताल ने एक ऐसे मुद्दे को उजागर किया जिस पर वामपंथी दलों के अलावा किसी भी राजनीतिक दल ने ध्यान नहीं दिया है वह है श्रम बाजार का उदारीकरण। 2023 की पहली छमाही में तमिलनाडु विधानसभा ने एक विधेयक पारित किया था जो कर्मचारियों द्वारा एक सप्ताह में चार दिवसीय कार्य अपनाने की स्थिति में दिन में 12 घंटे काम करने की अनुमति देता है। यह एक ऐसा कदम है जिसका कई कारखानों में असंगठित ठेका श्रमिकों के लिए विनाशकारी परिणाम हो सकते थे। श्रमिक संघों के दबाव के कारण इसे रोक दिया गया।

श्रमिकों के मांगों की प्रतिक्रिया में बदलाव

न्यायाधीश बनने से पहले यूनियनिस्ट और पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति चंद्रू ने द न्यूज मिनट के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि पिछले दशकों में तमिलनाडु में श्रम संबंधों में काफी बदलाव आया है। उन्होंने याद किया कि कैसे 1968 में सी.एन. अन्नादुरई के नेतृत्व में डीएमके सरकार श्रम विवादों में तटस्थ रही और पुलिस को हस्तक्षेप न करने का निर्देश दिया। हालांकि, अन्नादुरई की मृत्यु के बाद एम. करुणानिधि के नेतृत्व में डीएमके अपनी स्वयं की श्रमिक शाखा के साथ जुड़कर और ज्यादा इनवॉल्व हो गई। उन्होंने कहा कि बाद की सरकारों, जिनमें एमजीआर और जयललिता की सरकारें भी शामिल हैं, ने हड़तालों पर प्रतिबंध लगाने और श्रमिकों के खिलाफ पुलिस बल का इस्तेमाल करने जैसे सख्त दमनकारी उपाय अपनाए। न्यायमूर्ति चंद्रू ने कहा कि सरकार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच समझौता के कारण श्रम कानूनों का क्रियान्वयन ढीला हो गया है। उन्होंने एक उदाहरण का हवाला देते हुए कहा कि एक कोरियाई कंपनी से वादा किया गया था कि उसके कारखाने में किसी भी यूनियन को अनुमति नहीं दी जाएगी। उन्होंने सैमसंग के हड़ताल से निपटने के लिए वर्तमान तमिलनाडु सरकार की आलोचना की और कहा कि वैचारिक विरोध के बावजूद उनका दृष्टिकोण भाजपा के दृष्टिकोण जैसा ही है। इसके अलावा, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सामूहिक सौदेबाजी, जो कभी श्रमिकों का एक मजबूत अधिकार हुआ करता था, अब "सामूहिक भीख" बनकर रह गई है जिसमें श्रम विवाद अक्सर अदालतों में लंबित रहते हैं जिससे श्रमिकों को समय पर न्याय नहीं मिल पाता।

‘पंजीकरण लेकिन मान्यता नहीं’ से ‘न पंजीकरण न मान्यता’ तक

ट्रेड यूनियनों को ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 के तहत पंजीकृत होना चाहिए और श्रमिकों ने आरोप लगाया था कि यूनियन को पंजीकृत करने में जानबूझकर देरी की गई है। आमतौर पर, ऐसे मामले होते हैं कि पंजीकृत ट्रेड यूनियन को सौदेबाजी प्रक्रिया के लिए प्रबंधन द्वारा मान्यता नहीं दी जाती है, लेकिन सैमसंग का मामला यूनियनों के लिए एक और रुकावट पेश करता है।

सैमसंग फैक्ट्री हड़ताल में श्रमिकों की मुख्य मांगों में से एक सैमसंग इंडिया लेबर वेलफेयर यूनियन (SILWU) की औपचारिक मान्यता थी, जिसे कंपनी ने मानने से इनकार कर दिया। यूनियन की मान्यता एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसका प्रबंधन अक्सर श्रमिकों की मांगों को दबाने के लिए इस्तेमाल करता है, क्योंकि कंपनियां गैर-मान्यता प्राप्त यूनियनों को श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने के अधिकार से वंचित कर सकती हैं, जिससे सामूहिक रूप से सौदेबाजी करने की उनकी क्षमता कमजोर हो जाती है।

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 अनुचित श्रम प्रथाओं को प्रतिबंधित करता है। अधिनियम की धारा 25T में कहा गया है कि कोई भी नियोक्ता या कर्मचारी या ट्रेड यूनियन चाहे वह ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 के तहत पंजीकृत हो या नहीं, अनुचित श्रम व्यवहार नहीं करेगा। अधिनियम की धारा 25U के उल्लंघन के लिए दंड का प्रावधान है। ये दंड 6 महीने तक की कैद या 1,000 रुपये तक जुर्माना या दोनों हो सकता है। इस अधिनियम की पांचवीं अनुसूची में अनुचित श्रम व्यवहारों की सूची दी गई है और इसके अंतर्गत मान्यता प्राप्त ट्रेड यूनियनों के साथ सद्भावनापूर्वक सामूहिक सौदेबाजी करने से इनकार करना भी शामिल है। इसलिए, यदि कंपनियां किसी यूनियन को मान्यता देती हैं, तो उन्हें उसके साथ सौदेबाजी करनी होगी और ऐसा न करने पर दंडनीय अपराध माना जाएगा।

भारत में यूनियन मान्यता से जुड़ी जटिलताएं देश के कानूनी ढांचे में गहराई से निहित हैं। जबकि संविधान का अनुच्छेद 19(1) (सी) एसोसिएशन या यूनियन बनाने के अधिकार की गारंटी देता है। नियोक्ताओं द्वारा ट्रेड यूनियनों को औपचारिक मान्यता देने के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं है। मान्यता एक महत्वपूर्ण कदम है जो यूनियनों को सामूहिक सौदेबाजी में शामिल होने की अनुमति देता है जिससे वे श्रमिकों के हितों के लिए प्रभावी ढंग से बातचीत कर सकते हैं और स्थिर औद्योगिक संबंध बनाए रख सकते हैं।

हालांकि, पंजीकरण और मान्यता के बीच एक स्पष्ट अंतर मौजूद है। ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 ट्रेड यूनियनों के पंजीकरण के लिए एक प्रक्रिया की रूपरेखा तैयार करता है, जिससे उन्हें कानूनी दर्जा और कुछ सुरक्षा मिलती है। इसके बावजूद, पंजीकरण से नियोक्ताओं द्वारा स्वचालित रूप से मान्यता नहीं मिलती है। मान्यता, जब तक कि विशिष्ट राज्य कानूनों द्वारा अनिवार्य न हो, आम तौर पर नियोक्ताओं के विवेक पर छोड़ दी जाती है, जिससे एक खंडित प्रणाली बनती है जो प्रबंधन को प्रक्रिया को प्रभावित करने और देरी करने की अनुमति देती है जिससे यूनियनों की सौदेबाजी की शक्ति और कम हो जाती है।

महाराष्ट्र जैसे कुछ राज्यों ने महाराष्ट्र ट्रेड यूनियनों की मान्यता और अनुचित श्रम व्यवहार रोकथाम अधिनियम, 1971 जैसे कानूनों के साथ इस मुद्दे को सुलझाने का प्रयास किया है जो यूनियन मान्यता को नियंत्रित करता है और श्रमिकों को अनुचित श्रम प्रथाओं से बचाने का लक्ष्य रखता है। पश्चिम बंगाल, केरल और ओडिशा सहित अन्य राज्यों ने यूनियन मान्यता के लिए प्रक्रियाएं स्थापित की हैं, जिसमें गुप्त मतदान या सदस्यता सत्यापन शामिल हो सकता है। इनमें से कुछ विधानों (लेजिसलेशन) में आवेदक ट्रेड यूनियनों के पास प्रतिष्ठान की सदस्यता का कम से कम 30% होना चाहिए और औद्योगिक न्यायालय द्वारा मान्यता के लिए आवेदन करना चाहिए।

यूनियन का प्रतिनिधित्व निर्धारित करने के लिए विभिन्न तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है, जैसे चेक-ऑफ सिस्टम (जहां कर्मचारी से प्राधिकरण के माध्यम से श्रमिकों के वेतन से यूनियन शुल्क काटा जाता है) और गुप्त मतदान (जैसा कि भारतीय खाद्य निगम कर्मचारी संघ बनाम भारतीय खाद्य निगम, 1995 AIR SCW 1288 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समर्थित है)। हालांकि, एक समान राष्ट्रीय कानून की अनुपस्थिति मान्यता को हेरफेर के लिए असुरक्षित बनाती है, जिससे नियोक्ताओं को इस प्रक्रिया में काफी लाभ मिलता है। 1958 में अपनाई गई अनुशासन संहिता, औद्योगिक अनुशासन बनाए रखने के लिए दिशानिर्देशों के एक स्वैच्छिक सेट के रूप में कार्य करती है। संहिता में यूनियन की मान्यता के लिए मानदंड शामिल हैं, लेकिन यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है।

कानूनी ढांचे में स्पष्टता और निरंतरता की कमी यूनियनों के लिए चुनौतियां पैदा करती है, जिससे वे अपने सदस्यों के हितों का पूरी तरह से प्रतिनिधित्व करने में असमर्थ हो जाते हैं जिससे उनका प्रभाव कमज़ोर हो जाता है और श्रमिकों की प्रभावी ढंग से संगठित होने की क्षमता कम हो जाती है।

निष्कर्ष

सैमसंग के श्रमिकों के मामले में सरकार ने कथित तौर पर ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 के तहत पहले स्थान पर यूनियन के पंजीकरण में देरी की जिससे विरोध करने वाले श्रमिकों का गुस्सा भड़क उठा।

नतीजे के तौर पर भारत में हड़ताल करने का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है, न ही ट्रेड यूनियनों की मान्यता के लिए कोई स्पष्ट कानूनी गारंटी है। दोनों ही काफी हद तक नियोक्ताओं के विवेक पर निर्भर रहते हैं, जिससे प्रबंधन को श्रमिकों की सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति को दबाने का मौक़ा मिलता है। मान्यता की यह कमी श्रमिकों को अपनी चिंताओं को प्रभावी ढंग से व्यक्त करने या बेहतर शर्तों पर बातचीत करने से रोक सकती है।

ऐसे कानूनों की सख्त ज़रूरत है जो ट्रेड यूनियनों की अनिवार्य मान्यता के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश स्थापित करें। वर्तमान में, जबकि ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 यूनियनों के पंजीकरण का प्रावधान करता है, यह नियोक्ताओं द्वारा उनकी मान्यता सुनिश्चित नहीं करता है। यूनियनों को मान्यता देने के लिए कानूनी बाध्यता के बिना नियोक्ताओं के पास अक्सर प्रतिनिधित्व से इनकार करने के लिए पर्याप्त छूट होती है जैसा कि सैमसंग जैसे मामलों में देखा गया है। औद्योगिक संबंध संहिता, 2020 के रूप में एक राष्ट्रीय रूपरेखा प्रस्तावित की गई है, जिसमें केंद्र सरकार को यूनियन की मान्यता के लिए नियम बनाने की शक्तियां थीं लेकिन इस अधिनियम को अभी तक लागू नहीं किया गया है। इसका समाधान महाराष्ट्र ट्रेड यूनियनों की मान्यता और अनुचित श्रम व्यवहार निवारण अधिनियम, 1971 जैसे राज्य-स्तरीय अधिनियमों के समान कानून लाना भी हो सकता है जो पूरे भारत में एक समान दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है जिससे नियोक्ताओं की मान्यता की कमी का फायदा उठाने की क्षमता कम हो सकती है।

हालांकि, इन मुद्दों को राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) के संदर्भ में समझा जाना चाहिए जो अदालत में लागू नहीं होने के बावजूद सरकार के लिए एक मार्गदर्शक रूपरेखा प्रदान करते हैं। DPSP के अनुच्छेद 39 और 43 संसाधनों के उचित वितरण और श्रमिकों के लिए मजदूरी सुनिश्चित करने पर जोर देते हैं जो हड़ताल के अधिकार सहित श्रमिकों के अधिकारों का समर्थन करने वाले तंत्रों की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं।

अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ बनाम राष्ट्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण (1962 एआईआर 17) में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यूनियन बनाने का अधिकार अनुच्छेद 19 (1) (सी) के तहत यूनियन बनाने के अधिकार के दायरे में आता है। न्यायिक व्याख्या के उदाहरण भी हैं, जैसे कि कामेश्वर प्रसाद बनाम बिहार राज्य (1962 एआईआर 1166), जहां विरोध करने के अधिकार की रक्षा की गई थी लेकिन न्यायालय ने हड़ताल के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित करने से इनकार कर दिया। इससे पता चलता है कि सामूहिक प्रदर्शन के रूप में हड़तालों को संवैधानिक सुरक्षा में अभिव्यक्ति और सभा की स्वतंत्रता के लिए अप्रत्यक्ष समर्थन मिल सकता है, लेकिन प्रत्यक्ष समर्थन नहीं मिल सकता।

अंततः, यूनियन मान्यता के लिए मजबूत कानूनी गारंटी के बिना श्रमिकों को अपने अधिकारों की वकालत करने में बाधाओं का सामना करना पड़ेगा। श्रम कानूनों को डीपीएसपी में निर्धारित सिद्धांतों के साथ जोड़ने से श्रमिकों को अधिक सुरक्षा मिलेगी और संगठित होने की उनकी क्षमता मजबूत होगी, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि वे न केवल यूनियन बना सकते हैं बल्कि नियोक्ताओं द्वारा उन यूनियनों को मान्यता और सम्मान भी दिलाया जा सकता है।

(लेखक संगठन की कानूनी शोध टीम का हिस्सा हैं)

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