मोदी सरकार, अभी तक कागजी तौर पर खुदरा महंगाई के 2.96% के निम्नतर स्तर पर होने से, महंगाई के काबू में होने की दुहाई देते नहीं अघाती थी लेकिन, अब तो कागजों में भी महंगाई बढ़ गई। जी हां, खुदरा महंगाई दर तीन महीने के उच्चतम स्तर पर जा पहुंची है। इससे पहले मई में खुदरा महंगाई दर 4.31 फीसदी थी, जबकि खाद्य महंगाई दर 2.96 फीसदी थी। लेकिन मई की तुलना में जून में देश भर में अनाज, मांस और मछली, अंडे, दूध, हरी सब्जियों, दाल, मसाले, कपड़े और ईंधन समेत सभी तरह की वस्तुओं की कीमतों तेजी से बढ़ोतरी हुई। लेकिन वित्त मंत्री की तरह ही लगता है मोदी सरकार के आर्थिक सलाहकार भी कुछ दूसरी तरह ही सोचते हैं।
भारत की खुदरा मुद्रास्फीति, जिसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) द्वारा मापा जाता है, देश भर में खाद्य वस्तुओं की कीमतों में भारी बढ़ोतरी के कारण जून में बढ़कर 4.81 प्रतिशत पर पहुंच गई। जबकि बीते बुधवार को जारी आंकड़ों के मुताबिक, जून में खाद्य मुद्रास्फीति 4.49 फीसदी रही, जो तीन महीने का उच्चतम स्तर है। इससे पहले मई में खुदरा महंगाई दर 4.31 फीसदी थी, जबकि खाद्य महंगाई दर 2.96 फीसदी थी। देश में अनाज, मांस और मछली, अंडे, दूध, हरी सब्जियों, दाल, मसाले, कपड़े और ईंधन समेत हर तरह की वस्तुओं की कीमतें मई की तुलना में जून में तेजी से बढ़ी हैं।
सांख्यिकी मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में मई महीने के 4.31% के मुकाबले जून में खुदरा महंगाई दर 4.81 प्रतिशत पर पहुंच गई। जून महीने में शहरी महंगाई दर 4.33% से बढ़कर 4.96% जबकि ग्रामीण महंगाई दर 4.23% से बढ़कर 4.72% पर पहुंच गई है। इस महीने खाद्य महंगाई दर 2.96% से बढ़कर 4.49% रही।
खाद्य पदार्थों में करीब 3 फीसदी मुद्रास्फीति बढ़ी
खाद्य पदार्थों के लिए मुद्रास्फीति जून में 4.49 प्रतिशत थी, जो मई में 2.96 प्रतिशत से अधिक थी। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, खाद्य पदार्थ सीपीआई का लगभग आधा हिस्सा है। आपको बता दें कि 8 जून को हुए आरबीआई के मौद्रिक नीति समिति ने रेपो रेट को 6.5 प्रतिशत पर रखने का फैसला लिया था। बता दें कि पिछले एक महीने से जिस तरह से सब्जियों के दामों में बढ़ोतरी हुई है उसे देखते हुए इस महंगाई का सबसे बड़ा कारण भी सब्जियों को ही बताया जा रहा है। महंगाई में हुई इस वृद्धि को आंशिक रूप से पूरे भारत में टमाटर की कीमतों में मौजूदा उछाल के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। टमाटर की कीमतों में वृद्धि पूरे देश में दर्ज की गई है, न कि केवल किसी विशेष क्षेत्र या भूगोल तक सीमित है। प्रमुख शहरों में यह बढ़कर 250 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई।
हालांकि देश भर में टमाटर की कीमतों में तेज उछाल के बीच, केंद्र सरकार ने अपनी एजेंसियों– NAFED और NCCF को निर्देश दिया कि वे आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे प्रमुख उत्पादक राज्यों की मंडियों से इसे तुरंत खरीदें और यहां बेचें। लेकिन महाराष्ट्र की कोलार मंडी तक में टमाटर के रेट 200 रूपये तक जा पहुंचे हैं। यही नहीं, सब्जियों, मांस और मछली के अलावा; अंडे; दालें और उत्पाद; मसाला सूचकांकों में भी तेजी देखी गई है।
क्या है मुद्रास्फीति दर बढ़ने के मायने
मुद्रास्फीति एक निश्चित अवधि में कीमतों में वृद्धि की दर है। मुद्रास्फीति आमतौर पर एक व्यापक माप है, जैसे कि कीमतों में समग्र वृद्धि या किसी देश में रहने की लागत में वृद्धि। यानी जीना ही महंगा हो गया है लेकिन मोदी सरकार के नीति निर्धारकों को इसकी कोई खास फिक्र होती नहीं दिखती है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन का "मैं प्याज नहीं खाती" या महंगाई का असर अमीरों पर ज्यादा होता है, वाले बयान आपको याद ही होंगे। अब ऐसा ही कुछ आर्थिक सलाहकार परिषद अध्यक्ष कह रहे हैं। उनका कहना है कि देश में आर्थिक संपन्नता बढ़ी है और खुदरा महंगाई आंकने के लिए टमाटर आदि खाद्य पदार्थों के वेटेज में ही कटौती कर देनी चाहिए। आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य व डिजिटल सेवाओं को ज्यादा वेटेज देना चाहिए। सवाल है कि क्या आवास, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी सेवाओं में मंहगाई नहीं है?, जवाब आप जानते हैं।
जून में सब्जियां हुईं महंगी
खुदरा महंगाई बढ़ने का बड़ा कारण इस बार सब्जियों की कीमतों में इजाफा होना रहा है। सब्जियों के मामले में भी इस बार खुदरा महंगाई बढ़ी है। सब्जियों की महंगाई दर मासिक आधार पर -8.18% से बढ़कर -0.93% हो गई है। केयर रेटिंग्स की मुख्य अर्थशास्त्री रजनी सिन्हा ने कहा कि खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि मौसमी है, लेकिन सब्जियों जैसी कुछ चीजों के दाम में बढ़ोतरी मौसमी रुझान से इतर है। रजनी ने कहा, ‘खाने-पीने की बुनियादी चीजों जैसे चावल, दाल, सब्जियों और दूध के दाम में तेजी आई है। ऐसे में केंद्रीय बैंक परिवारों पर मुद्रास्फीति के प्रतिकूल प्रभाव के बारे में चिंतित होगा।
इक्रा की मुख्य अर्थशास्त्री अदिति नायर भी इससे सहमत हैं। उन्होंने कहा कि उत्तर भारत में अत्यधिक बारिश से सब्जियों जैसी जल्दी खराब होने वाली चीजों के दाम बढ़े हैं और इससे आगे खाद्य मुद्रास्फीति और बढ़ सकती है। उन्होंने कहा कि सब्जियों के दाम बढ़ने के कारण चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में खुदरा मुद्रास्फीति आरबीआई के 5.2 फीसदी के अनुमान से ज्यादा रह सकती है। मौद्रिक नीति समिति अगस्त की बैठक में रीपो दर को यथावत रख सकती है, जिसका मतलब होगा कि दर कटौती शुरू होने में अभी काफी देर है। वहीं, बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा कि ग्रामीण बाजारों में मांग में थोड़ा सुधार होने से मई में एफएमसीजी उत्पादन बढ़ा है मगर कंज्यूमर ड्यूरेबल क्षेत्र लगभग स्थिर बना हुआ है। उन्होंने कहा कि सरकारी खजाने से ज्यादा पूंजीगत व्यय होने के कारण पूंजीगत वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है मगर मॉनसून के दौरान इस क्षेत्र की गतिविधियों में कमी आ सकती है।
दालों आदि खाने की चीजों की कीमतें बढ़ी
अगर दालों की कीमत में बढ़ोतरी की बात की जाये तो पिछले हफ्ते में ही 5-10 रुपये की बढ़ोतरी देखी गई है। जानकारी के अनुसार उड़द की दाल 140-150 रुपये प्रति किलो तो अरहर की दाल 130-140 रुपये प्रति किलो बिक रही है। चने की दाल 70-80 रुपये प्रति किलो तो छोला 130-140 रुपये प्रति किलो मिल रही है। वहीं खुदरा मार्केट में मूंग छिलका और धुली हुई दाल 100-120 रुपये प्रति किलो बिक रही है। लाल मसूर और काली मसूर की दाल भी 80-100 रुपये प्रति किलो बिक रही है। वहीं राजमा की दाल 130-140 रुपये प्रति किलो के भाव बिक रही है। आप लोगों की जानकारी के लिए बता दें कि पिछले एक हफ्ते में इन सभी दालों की कीमत में 5 रुपये से लेकर 10 रुपये की बढ़ोतरी देखी गई है।
महंगाई ने छीनी रसोई की महक! लहसुन अदरक का तड़का भी हुआ महंगा
कम आपूर्ति के कारण अदरक और लहसुन की कीमत भी आसमान छू रही है। दो महीने पूर्व आवक ज्यादा होने के कारण अदरक केवल 30 से 40 रुपए प्रति किलो बिक रहा था। अचानक आवक कम होने से अदरक के दाम में 4 गुना बढ़कर दाम 140 से 160 रुपए प्रति किलो हो गए हैं। इसी तरह बाजार में लहसुन के दाम दो महीने पहले 60 से 70 रुपए प्रति किलो थे। जबकि अब 130 से 140 रू. प्रति किलो फुटकर और थोक में 100 से 120 रू प्रति किलो हो गए हैं। अदरक व लहसुन विक्रेता अहसान शाह ने बताया कि आपूर्ति कम होने के कारण अदरक और लहसुन के दाम अधिक हो गए हैं। जिससे लहसुन अदरक की महंगी पेस्ट से रसोई की महक कम हुई है।
छोटे कारोबारियों/कंपनियों पर भी पड़ता है महंगाई का असर?
महंगाई यानी जीवन जीने की लागत का बढ़ना। इस बात पर तक़रीबन सबकी सहमति है कि जब जीवन जीने की लागत बढ़ती है तो सबसे अधिक असर आम लोगों पर पड़ता है। लेकिन इस पर कम सहमति है कि आम लोगों की ही तरह, महंगाई का असर छोटे कारोबारियों पर भी पड़ता है या नहीं? चूंकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक बार कहा था कि महंगाई का असर ग़रीबों से ज़्यादा अमीरों पर पड़ता है। लेकिन देंखे और समझें तो यह कोई रॉकेट साइंस की बात नहीं है। जिसकी आमदनी अधिक होती है उस पर महंगाई की मार कम पड़ती है और जिसकी आमदनी कम होती है उसे महंगाई का बोझ ज़्यादा सहना पड़ता है। उसके महीने का पूरा हिसाब किताब बिगड़ जाता है।
अब हक़ीक़त यह है कि भारत जैसे देश में जहां पर 90% लोगों की आमदनी 25,000 रुपये प्रति महीने से कम है। नाबार्ड की साल 2018 की रिपोर्ट बताती है कि भारत के तक़रीबन 70% ग्रामीण परिवारों की आमदनी महीने में 8,333 रुपये से कम की होती है। कहने का मतलब यह है कि महंगाई बहुत लंबे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था में बनी हुई है और बहुत लंबे समय से भारत की बहुत बड़ी आबादी महंगाई की मार से जूझ रही है। चूंकि अर्थव्यवस्था की गतिविधियों को आम आदमी नहीं समझता इसलिए आप यह भी कह सकते हैं कि भारत का आम आदमी महंगाई में जीने के लिए अभिशप्त है। उसे पता भी नहीं चल रहा है और सरकार की ग़लत नीतियों का परिणाम उसकी पीठ पर हर दिन कोड़े बरसा रहा है।
यह बात जगज़ाहिर है। मगर इसके बावजूद ढेर सारे लोगों के मन में यह धारणा बनी रहती है कि महंगाई की मार कारोबारियों पर नहीं पड़ती होगी। तो चलिए इसी धारणा की जांच पड़ताल करते हैं कि क्या वाकई महंगाई की मार कंपनियों/ छोटे कारोबारियों पर पड़ती है या नहीं?
फ्रंटलाइन के वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार वी श्रीधर कहते हैं कि जब हम कंपनी की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में सीधे अंबानी-अडानी का ख़्याल आता है। यह धारणा इतनी मज़बूत है कि कंपनी की पहचान केवल बड़ी कंपनियों से बनने लगती है। अर्थव्यवस्था में बड़ी कंपनियां भी हैं, मझोली कंपनियां भी हैं, छोटी कंपनियां भी हैं और शुरुआती दौर की कंपनियां भी हैं। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि भारत का तक़रीबन 80 फ़ीसदी से अधिक कामगार अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। इस तरह के खांचों में बांटकर देखें तो बात अच्छे से समझ में आयेगी।
पिछले अक्टूबर में न्यूज क्लिक पर अजय कुमार के छपे एक विश्लेषण के अनुसार, जब महंगाई बढ़ती है तो सामान और सेवाओं की क़ीमत बढ़ती है। सामान और सेवाओं की क़ीमत बढ़ती है तो इसका मतलब है कि किसी कंपनी के लिए कच्चे माल की लागत बढ़ती है। कंपनी में काम करने वाले कर्मचारी और मज़दूर के लिए उसके जीवन की लागत बढ़ती है। महंगाई बढ़ने के दौर में ऐसा तो होता नहीं कि कर्मचारियों और मज़दूरों का वेतन बढ़े। वेतन और मज़दूरी तो जस की तस रहती है। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो आम लोगों की ख़रीदारी की क्षमता नहीं बढ़ती है। इसलिए बहुत लंबे समय की महंगाई की वजह से सामान और सेवाएं भी कम बिकने लगती है। भारत की अर्थव्यवस्था में हाल-फिलहाल यही हो रहा है। इस तरह की स्थिति का मतलब है कि चाहे बड़ी कंपनी हो या छोटी कंपनी अगर बहुत लंबे समय तक महंगाई बनी रहेगी तो उनके प्रॉफिट मार्जिन में पहले के वित्त वर्ष के मुक़ाबले कमी आती है।
हालांकि यह बात सही है कि एक कंपनी के पास एक व्यक्ति के मुक़ाबले अथाह पैसा होता है। कंपनी के पास इतने अधिकार होते हैं कि वह अपना मुनाफ़ा बनाए रखने के लिए अपने कर्मचारियों की छंटनी कर सकती है। वेतन और मज़दूरी कम कर सकती है। मगर यह सब हथकंडे महज़ एक सीमा तक अपनाए जा सकते हैं। उसके बाद कंपनी के मुनाफ़े में कमी होने लगती है। कहने का मतलब यह है कि बहुत लंबे समय तक की महंगाई का असर कंपनियों पर पड़ता है।
तकरीबन 1940 कंपनियों पर किए गए एक विश्लेषण के मुताबिक़ महंगाई की वजह से वित्त वर्ष 2022 - 23 के जून तिमाही में हुए कंपनियों का प्रॉफिट मार्जिन वित्त वर्ष 2021-22 के जून तिमाही के मुक़ाबले घट गया। प्रॉफिट मार्जिन 7.9% से घटकर 6% पर पहुंच गया। मोटे तौर पर कहा जाए तो लंबे समय की महंगाई की वजह से कंपनियों पर असर पड़ता है। मज़बूत कंपनियों के बैलेंस शीट पर भी असर पड़ता है मगर उनका पहले का प्रॉफिट इतना ज़्यादा होता है कि उन्हें ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता। लेकिन छोटी कंपनियां और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों का दिवाला निकल जाता है।
मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से जुड़े कल- कारखाने के बुक ऑर्डर और इन्वेंट्री का सर्वे कर रिज़र्व बैंक ने जो आंकड़ा पेश किया है उस पर भी ग़ौर करना चाहिए। यह आंकड़ा बताता है मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की कितनी क्षमता का दोहन हो रहा है? इस आंकड़े के मुताबिक़ मार्च 2022 तक कंपनियों ने अपनी कुल क्षमता का महज 75 प्रतिशत इस्तेमाल किया। मतलब पहले से ही 25 प्रतिशत सामान बिक नहीं रहे हैं। इसका मतलब है कि लोगों की जेब में पैसा नहीं है। लोग ख़रीदारी नहीं कर रहे हैं। ऊपर से महंगाई है। इसीलिए भले यह लगेगी कंपनियों के पास अपने मुनाफ़े को बनाए रखने के कई तरीक़े हैं मगर फिर भी उनका मुनाफ़ा सामान बिकने पर ही होता है। महंगाई और कम कमाई की वजह से जब सामान नहीं बिकेगा तो कंपनियों पर असर पड़ेगा ही पड़ेगा। हालात तो अब ऐसे हो गए है कि ढेर सारे कारोबारी कुछ नया शुरू करने से इसलिए घबरा रहे हैं कि उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं कि आगे महंगाई कितनी होगी? सामान के लिए वह कौन सा क़ीमत तय करेंगे ताकि उन्हें मुनाफ़ा मिल पाए। इन सबके अलावा अगर आर्थिक उद्यमों में काम करने वाले मज़दूरों को ध्यान में रखकर सोचें तो यह दिखता है कि ज़्यादातर आर्थिक उद्यम शहरी क्षेत्रों में मौजूद हैं। महंगाई बढ़ने की वजह से जब जीवन की लागत बढ़ती है तो लेबर भी शहरी क्षेत्रों में आने से कतराता है। इसका असर यह पड़ता है कि मज़दूरों की आमदनी नहीं होती है और अर्थव्यवस्था में डिमांड की कमी बनी रहती है।
प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि यह कारोबार और कारोबारी के उत्पाद पर निर्भर करता है कि उस पर महंगाई का असर कैसे पड़ेगा? मान लीजिये कि कारोबारी ऐसा प्रोडक्ट या उत्पाद बेचता है, जिस पर उसका एकाधिकार या मोनोपॉली है तब वह महंगाई बढ़ने पर भी अपने उत्पादों की क़ीमत कम करने को तैयार नहीं होता है। लेकिन ऐसा उत्पाद है जिसके कई कारोबारी है जिसे बेचने वाले ज़्यादा है तब वहां पर महंगाई के दौर में प्रतिस्पर्धा होने लगती है। इसलिए कारोबारी माल बिकवाने के लिए डिस्काउंट देने लगते हैं। बड़े कारोबारियों के द्वारा डिस्काउंट देने के बाद भी उन पर असर कम पड़ता है लेकिन छोटे कारोबारियों पर इसका असर ज़्यादा पड़ता है। उनका प्रॉफिट मार्जिन बहुत कम हो जाता है, अधिकतर छोटे कारोबारियों पर इसका बहुत बुरा असर पड़ता है। कई बार कारोबार पूरी तरह से ढ़ह जाता है।
अरुण कुमार कहते हैं कि महंगाई से जब कच्चे माल की लागत बढ़ती है तो कंपनियां उसे अपने लागत में जोड़ लेती है। लागत में जोड़ने के बाद ही अपने सामान की क़ीमत तय करती हैं। आने वाले समय का अनुमान लगाकर ही क़ीमत तय करती हैं। इसलिए महंगाई के दौर में कंपनियों को ज़्यादातर नुक़सान इसलिए नहीं होता क्योंकि उनकी लागत बढ़ गयी है बल्कि इसलिए होती है क्योंकि महंगाई बढ़ने से लोग सामान ख़रीद नहीं रहे हैं। लोगों की ख़रीदारी कम हो गयी है।
अब कुछ आंकड़े देखिये। फ़ास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स को लीजिये। इनसे जुड़े रोज़ाना के सामानों का इस्तेमाल सभी करते हैं। इससे जुड़ी कंपनियों के मुनाफ़े में अप्रैल से जून की तिमाही में कमी दर्ज की गयी है। महंगे होते सामानों की वजह से डाबर, हिंदुस्तान लिवर, आईटीसी जैसी कंपनियों के प्रॉफिट मार्जिन पर असर पड़ा है। ब्रिटानिया के प्रॉफिट मार्जिन में अप्रैल से जून की तिमाही में महंगाई की वजह से तक़रीबन 13 फ़ीसदी की कमी हुई। गोदरेज के प्रॉफिट मार्जिन में तक़रीबन 16 फ़ीसदी की कमी। ऑटो सेक्टर को देखिए। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में इसका हिस्सा तक़रीबन 49 फ़ीसदी का है। साल 2021-22 में केवल 1 करोड़ 75 लाख कार बिकी। यह साल 2012-13 के बाद अब तक बिकी सबसे कम कारों की संख्या है। छोटे और मझोले उद्योगों को दिया गया 6 में से 1 क़र्ज़ एनपीए बन गया है। इसमें ज़्यादातर वह शामिल है जिनका कारोबार 20 लाख से कम का था। वह इकाइयां जहां 5 या 5 से कम लोग काम करते हैं, जिनकी संख्या तक़रीबन 98 फ़ीसदी के आसपास है। कहने का मतलब यह है कि महंगाई की वजह से उद्यमों और कारोबारों पर असर पड़ता है लेकिन सबसे ज़्यादा उनपर जो छोटे कारोबार हैं। वे ऐसे काम करते हैं जो जीवन में रोज़मर्रा के तौर पर इस्तेमाल करने वाले सामानों को बनाने में लगी हैं।
मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष के हिसाब से टमाटर के दामों में लगी आग का कोई अर्थ नहीं
“सावन के अंधे को हर तरफ हरा ही हरा नजर आता है”- यह कहावत भले ही आपने अपने स्कूली जीवन में पढ़ रखी हो, लेकिन इसकी बानगी हम आज भी जीवन के हर क्षेत्र में देख सकते हैं। आंकड़े कहते हैं कि देश में 8,000-15,000 रुपये मूल्य के रेफ्रिजरेटर की बिक्री में भारी गिरावट देखी जा रही है, लेकिन 1-1.50 लाख रुपये मूल्य के फ्रिज की बिक्री रिकॉर्ड स्तर पर देखने को मिल रही है। कल ही अखबार की सुर्ख़ियों में मर्सिडीज की हाई-एंड मॉडल के बारे में सूचना थी कि 1.5 करोड़ रुपये और ऊपर की लक्जरी गाड़ियों के मामले में भारत में मांग सबसे अधिक बनी हुई है। जर्मनी की मर्सिडीज बेंज कार की बिक्री इस साल देश में पहली छमाही में 8,523 की संख्या तक पहुंच गई है। पिछले वर्ष की तुलना में यह 13% अधिक है और आज तक किसी भी छमाही में कंपनी को ऐसा उछाल देखने को नहीं मिला। पिछले साल कंपनी ने इसी अवधि में 7,573 कारें बेची थीं।
लेकिन सबसे बड़ा कमाल 1.5 करोड़ रुपये से अधिक मूल्य के हाई-एंड ब्रांड में देखने को मिला है। मर्सिडीज बेंज को इस रेंज में 54% का उछाल मिला है, और जनवरी-जून में कंपनी 2,000 लक्ज़री कार बेच चुकी है। दूसरी ओर, मोदी सरकार 80 करोड़ लोगों को 5 किलो राशन देने का दावा भी जोर-शोर से करती है। लेकिन कोई विपक्षी राज्य की सरकार इसी काम को करे तो उसकी मनाही है। हाल ही में कर्नाटक की राज्य सरकार ने 5 किलो अतिरिक्त अनाज देने के लिए केंद्र के भारतीय खाद्य निगम से मांग की थी, जिसे सरकार ने ठुकरा दिया। ये वे लोग हैं जो न तो फ्रिज खरीद सकते हैं और न ही कार। लेकिन सबसे दुखद तथ्य यह है कि चावल और गेहूं से इंसान सिर्फ जिंदा रह सकता है, लेकिन मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ्य बने रहने के लिए कार्बोहाइड्रेट के अलावा मनुष्य को उचित मात्रा में विटामिन, मिनरल और प्रोटीन तत्वों की भी उतनी ही जरूरत होती है।
बात टमाटर की ही करें तो टमाटर भी उसी में से एक है। आम भारतीय परिवारों में टमाटर का उपयोग अधिकांश सब्जियों, दाल सहित सलाद में प्रयुक्त होता है। लेकिन टमाटर के दाम पिछले दो सप्ताह से आसमान छू रहे हैं। 10 दिन पहले उपभोक्ता मामलों के विभाग की ओर से सफाई दी गई थी कि 100 रुपये किलो का भाव सप्लाई चैन में व्यवधान की वजह से है। अगले 4-5 दिनों में स्थिति सामान्य हो जाएगी। लेकिन गुरुवार को टमाटर के दाम 100 रुपये प्रति किलो से वापस 20-30 रुपये किलो होने के बजाय 200-250 रुपये किलो तक जा चुके हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में 90% परिवार 25,000 रुपये मासिक आय या इससे कम पर गुजारा कर रहे हैं। इसका अर्थ है 90% परिवार टमाटर खरीदने की स्थिति में ही नहीं हैं।
तमिलनाडु सरकार ने पिछले सप्ताह रियायती दरों पर टमाटर की सार्वजनिक बिक्री की घोषणा की थी। दो दिन पहले केंद्र सरकार ने भी शुक्रवार तक देश के चुनिंदा शहरों में इसी प्रकार की घोषणा की है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार में अपने लेख के माध्यम से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) को लेकर जैसी विवेचना प्रस्तुत की है, वह पूरी तरह से मर्सिडीज बेंज के हाई-एंड मॉडल के ग्राहकों के हिसाब से लिखी गई है।
वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र पटवाल, जनचौक में छपे अपने लेख में कहते है। कि देबरॉय साहब अपने लेख की शुरुआत में ही एक अनोखी मिसाल पेश करते हैं और लेख का अंत भी उसी से करते हैं। वे हमें एक ऐसे बक्से की सैर कराते हैं जिसमें पुराने कैसेट्स और रेडिओ सेट पड़े हैं, जिनका आज कोई मोल नहीं है, भले ही आज से 30 वर्ष पहले इनका काफी मोल था। इसे नजीर बनाते हुए देबरॉय साहब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में मुद्रास्फीति के निर्धारण के लिए कुछ वस्तुओं पर आज भी जरूरत से ज्यादा महत्व देने को एक भूल के रूप में साबित करने लगते हैं।
उनके अनुसार (बेस ईयर) 2012 से सीपीआई में खाद्य एवं पेय वस्तुओं पर (45.86) वेटेज वर्तमान स्थिति से मेल नहीं खाता। इसके लिए वे खुदरा महंगाई के लिए खाद्य वस्तुओं पर 1960 में 60.9, 1982 में घटाकर 57.0 और 2001 में 46.2 का उदाहरण पेश करते हैं। देबरॉय मानते हैं कि भारत में आर्थिक संपन्नता बढ़ी है और जैसे-जैसे इसमें वृद्धि होती है, खान-पान पर लोगों को कम खर्च करना पड़ता है। इसी को आधार बनाते हुए आपका तर्क है कि खुदरा महंगाई को आंकने के लिए खाद्य-पेय वस्तुओं के वेटेज में कटौती करनी चाहिए, और इसके स्थान पर आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, डिजिटल सेवाओं को ज्यादा वेटेज दिया जाना चाहिए। उन्हें तो सबसे अधिक आश्चर्य अनाज पर 9.69 वेटेज दिए जाने पर है, क्योंकि उनके हिसाब से मोदी सरकार ने तो बड़ी आबादी को पहले ही मुफ्त अनाज के दायरे में ला दिया है।
उन्हें इंतजार है घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (सीईएस) के आंकड़ों का, यह सर्वेक्षण दो किश्तों में किया जाता है। इसकी एक किश्त जुलाई 2023 में और दूसरी एक साल बाद होनी है। उन्हें अफ़सोस है कि मंत्रालय भी इस पर 3-4 महीने लगाकर दिसंबर 2024 तक जारी करेगा। इसके आधार पर ही सीपीआई में शामिल 260 वस्तुओं के वेटेज में बदलाव संभव हो सकेगा। इसका आशय क्या यह लगाना सही नहीं होगा कि यदि आज उन्हें यह मौका मिल जाये तो वे टमाटर जैसे खाद्य वस्तु को निहायत ही गैर जरूरी वस्तु के रूप में दोयम वेटेज की श्रेणी में नहीं डाल देने वाले हैं? क्या इसे देश के सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक नीति-निर्धारक की चोटी से बैठकर काफी नीचे देखने की समझ न माना जाये?
इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह तो यह है कि चूंकि आज देश उत्तरोत्तर नव-उदारवादी अर्थनीति की गिरफ्त में जा चुका है, और पिछले सात वर्षों से मोदी सरकार की नीतियां बार-बार आपूर्ति पक्ष की अर्थव्यस्था को मजबूती देने की कोशिश में PLI जैसी योजनाओं, कॉर्पोरेट टैक्स में छूट सहित विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए श्रम कानूनों में व्यापक बदलाव की दिशा में आगे बढ़ती जा रही हैं, ऐसे में उनके पास देश की 90% आबादी के लिए 5 किलो अनाज से अधिक कुछ नहीं है।
ऐसा लगता है सरकार, कॉर्पोरेट और नौकरशाही ने इस बात को गहराई से आत्मसात कर लिया है कि अब 5 ट्रिलियन डॉलर से लेकर 30 ट्रिलियन डॉलर इकॉनोमी का सफर वास्तव में देश के चंद करोड़ लोगों और विदेशी पूंजी और तकनीक के सहारे ही करना है। 95% आबादी वैसे भी नाकारा है, उसे देश के बहुमूल्य संपदा, जमीन, खनिज-संपदा से क्या लेना-देना? इनकी जितनी बड़े पैमाने पर लूट होगी, भारत उतनी ही तेजी से विश्वगुरु की दहलीज पर बढ़ने की दिशा में प्रस्थान कर सकता है। ऐसे में खुदरा महंगाई जैसी चीज वास्तव में 2 लाख या 2 करोड़ रुपये प्रति माह कमाने वाले वर्ग के लिए कोई खास मायने भी नहीं रखती है।
अब आते हैं मौजूदा परिदृश्य पर, जिससे देश की 90% आबादी जूझ रही है। 15 जून, 7 जुलाई और 12 जुलाई को सब्जियों के दाम में आये बदलाव के बारे में आंकड़े प्रस्तुत किये गये हैं। 15 जून तक टमाटर 30-40 रुपये किलो बिक रहा था, 7 जुलाई को 120-140 रुपये किलो और 12 जुलाई तक इसके दाम 250 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गये हैं। फूलगोभी भी 50, 140 से 12 जुलाई तक 280 रुपये किलो जा चुकी है। बीन्स पहले भी महंगे दाम में बिक रहा था, लेकिन इसमें भी 15 जून के 120 रुपये प्रति किलो से भारी उछाल देखा जा रहा है, और 275 रुपये प्रति किलो भाव है।
अदरक भी इस सीजन काफी ऊंचाई पर था, लेकिन इसमें भी 100% की मूल्य वृद्धि पिछले एक माह में देखने को मिली है। 200 रुपये प्रति किलो की जगह आज बाजार भाव 400 रुपये प्रति किलो चल रहा है। 3 महीने पहले तक शिमला मिर्च दिल्ली में 20 रुपये किलो बिक रहा था, क्योंकि पंजाब में किसानों ने इसकी बंपर पैदावार की थी, और 1-2 रुपये किलो के भाव पर भारी घाटा उठाकर वे इसे बेचने के लिए मजबूर थे। लेकिन 15 जून तक दिल्ली में शिमला मिर्च 80 रुपये किलो बिक रहा था, वहीं 7 जुलाई तक 175 और 12 जुलाई को 280 रुपये प्रति किलो बिक रहा है। पत्ता गोभी 30 फिर 50 और अब 100 रुपये किलो छू चुकी है। मूली ही सबसे सस्ती है जो 50, 70 और अब 80 रुपये किलो बिक रही है। बैंगन भी 100 रुपये किलो के भाव को छू रहा है।
देबरॉय साहब शायद 120 करोड़ भारतीयों को अपनी गिनती में ही नहीं रखते हैं। उन्हें अहसास होता तो वे इस बात को जानते कि आज देश की 80% आबादी ने टमाटर, अदरक खाना ही बंद कर रखा है। इसी तरह चावल, आटा खाने के लिए, दाल के चुनाव में भी उसे बड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। अरहर थाली से बाहर का आइटम हो चुका है। विटामिन और प्रोटीन के अभाव में देश कुपोषित और बीमार हो रहा है।
बीमार और अपाहिज भारत को आप चीन से प्रतिस्पर्धा में खड़ा करने के सपने देखने के लिए स्वतंत्र हैं। आपका सावन आपको मुबारक हो, लेकिन 2024 के अंत तक आप खुदरा महंगाई को निर्धारित करने के लिए देश के नागरिकों की थाली को ही गायब कर देंगे, देश ऐसी अपेक्षा वर्तमान सरकार से नहीं करता है, क्योंकि उसे आपकी तरह उच्च शिखर से देखने की अभी भी आदत नहीं बन पाई है। समय-समय पर उसे खुद को अधिकार-संपन्न करने के लिए जनता की अदालत में आने की अनिवार्यता अभी भी बनी हुई है।
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भारत की खुदरा मुद्रास्फीति, जिसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) द्वारा मापा जाता है, देश भर में खाद्य वस्तुओं की कीमतों में भारी बढ़ोतरी के कारण जून में बढ़कर 4.81 प्रतिशत पर पहुंच गई। जबकि बीते बुधवार को जारी आंकड़ों के मुताबिक, जून में खाद्य मुद्रास्फीति 4.49 फीसदी रही, जो तीन महीने का उच्चतम स्तर है। इससे पहले मई में खुदरा महंगाई दर 4.31 फीसदी थी, जबकि खाद्य महंगाई दर 2.96 फीसदी थी। देश में अनाज, मांस और मछली, अंडे, दूध, हरी सब्जियों, दाल, मसाले, कपड़े और ईंधन समेत हर तरह की वस्तुओं की कीमतें मई की तुलना में जून में तेजी से बढ़ी हैं।
सांख्यिकी मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में मई महीने के 4.31% के मुकाबले जून में खुदरा महंगाई दर 4.81 प्रतिशत पर पहुंच गई। जून महीने में शहरी महंगाई दर 4.33% से बढ़कर 4.96% जबकि ग्रामीण महंगाई दर 4.23% से बढ़कर 4.72% पर पहुंच गई है। इस महीने खाद्य महंगाई दर 2.96% से बढ़कर 4.49% रही।
खाद्य पदार्थों में करीब 3 फीसदी मुद्रास्फीति बढ़ी
खाद्य पदार्थों के लिए मुद्रास्फीति जून में 4.49 प्रतिशत थी, जो मई में 2.96 प्रतिशत से अधिक थी। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, खाद्य पदार्थ सीपीआई का लगभग आधा हिस्सा है। आपको बता दें कि 8 जून को हुए आरबीआई के मौद्रिक नीति समिति ने रेपो रेट को 6.5 प्रतिशत पर रखने का फैसला लिया था। बता दें कि पिछले एक महीने से जिस तरह से सब्जियों के दामों में बढ़ोतरी हुई है उसे देखते हुए इस महंगाई का सबसे बड़ा कारण भी सब्जियों को ही बताया जा रहा है। महंगाई में हुई इस वृद्धि को आंशिक रूप से पूरे भारत में टमाटर की कीमतों में मौजूदा उछाल के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। टमाटर की कीमतों में वृद्धि पूरे देश में दर्ज की गई है, न कि केवल किसी विशेष क्षेत्र या भूगोल तक सीमित है। प्रमुख शहरों में यह बढ़कर 250 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई।
हालांकि देश भर में टमाटर की कीमतों में तेज उछाल के बीच, केंद्र सरकार ने अपनी एजेंसियों– NAFED और NCCF को निर्देश दिया कि वे आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे प्रमुख उत्पादक राज्यों की मंडियों से इसे तुरंत खरीदें और यहां बेचें। लेकिन महाराष्ट्र की कोलार मंडी तक में टमाटर के रेट 200 रूपये तक जा पहुंचे हैं। यही नहीं, सब्जियों, मांस और मछली के अलावा; अंडे; दालें और उत्पाद; मसाला सूचकांकों में भी तेजी देखी गई है।
क्या है मुद्रास्फीति दर बढ़ने के मायने
मुद्रास्फीति एक निश्चित अवधि में कीमतों में वृद्धि की दर है। मुद्रास्फीति आमतौर पर एक व्यापक माप है, जैसे कि कीमतों में समग्र वृद्धि या किसी देश में रहने की लागत में वृद्धि। यानी जीना ही महंगा हो गया है लेकिन मोदी सरकार के नीति निर्धारकों को इसकी कोई खास फिक्र होती नहीं दिखती है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन का "मैं प्याज नहीं खाती" या महंगाई का असर अमीरों पर ज्यादा होता है, वाले बयान आपको याद ही होंगे। अब ऐसा ही कुछ आर्थिक सलाहकार परिषद अध्यक्ष कह रहे हैं। उनका कहना है कि देश में आर्थिक संपन्नता बढ़ी है और खुदरा महंगाई आंकने के लिए टमाटर आदि खाद्य पदार्थों के वेटेज में ही कटौती कर देनी चाहिए। आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य व डिजिटल सेवाओं को ज्यादा वेटेज देना चाहिए। सवाल है कि क्या आवास, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसी सेवाओं में मंहगाई नहीं है?, जवाब आप जानते हैं।
जून में सब्जियां हुईं महंगी
खुदरा महंगाई बढ़ने का बड़ा कारण इस बार सब्जियों की कीमतों में इजाफा होना रहा है। सब्जियों के मामले में भी इस बार खुदरा महंगाई बढ़ी है। सब्जियों की महंगाई दर मासिक आधार पर -8.18% से बढ़कर -0.93% हो गई है। केयर रेटिंग्स की मुख्य अर्थशास्त्री रजनी सिन्हा ने कहा कि खाद्य पदार्थों की कीमतों में वृद्धि मौसमी है, लेकिन सब्जियों जैसी कुछ चीजों के दाम में बढ़ोतरी मौसमी रुझान से इतर है। रजनी ने कहा, ‘खाने-पीने की बुनियादी चीजों जैसे चावल, दाल, सब्जियों और दूध के दाम में तेजी आई है। ऐसे में केंद्रीय बैंक परिवारों पर मुद्रास्फीति के प्रतिकूल प्रभाव के बारे में चिंतित होगा।
इक्रा की मुख्य अर्थशास्त्री अदिति नायर भी इससे सहमत हैं। उन्होंने कहा कि उत्तर भारत में अत्यधिक बारिश से सब्जियों जैसी जल्दी खराब होने वाली चीजों के दाम बढ़े हैं और इससे आगे खाद्य मुद्रास्फीति और बढ़ सकती है। उन्होंने कहा कि सब्जियों के दाम बढ़ने के कारण चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में खुदरा मुद्रास्फीति आरबीआई के 5.2 फीसदी के अनुमान से ज्यादा रह सकती है। मौद्रिक नीति समिति अगस्त की बैठक में रीपो दर को यथावत रख सकती है, जिसका मतलब होगा कि दर कटौती शुरू होने में अभी काफी देर है। वहीं, बैंक ऑफ बड़ौदा के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस ने कहा कि ग्रामीण बाजारों में मांग में थोड़ा सुधार होने से मई में एफएमसीजी उत्पादन बढ़ा है मगर कंज्यूमर ड्यूरेबल क्षेत्र लगभग स्थिर बना हुआ है। उन्होंने कहा कि सरकारी खजाने से ज्यादा पूंजीगत व्यय होने के कारण पूंजीगत वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है मगर मॉनसून के दौरान इस क्षेत्र की गतिविधियों में कमी आ सकती है।
दालों आदि खाने की चीजों की कीमतें बढ़ी
अगर दालों की कीमत में बढ़ोतरी की बात की जाये तो पिछले हफ्ते में ही 5-10 रुपये की बढ़ोतरी देखी गई है। जानकारी के अनुसार उड़द की दाल 140-150 रुपये प्रति किलो तो अरहर की दाल 130-140 रुपये प्रति किलो बिक रही है। चने की दाल 70-80 रुपये प्रति किलो तो छोला 130-140 रुपये प्रति किलो मिल रही है। वहीं खुदरा मार्केट में मूंग छिलका और धुली हुई दाल 100-120 रुपये प्रति किलो बिक रही है। लाल मसूर और काली मसूर की दाल भी 80-100 रुपये प्रति किलो बिक रही है। वहीं राजमा की दाल 130-140 रुपये प्रति किलो के भाव बिक रही है। आप लोगों की जानकारी के लिए बता दें कि पिछले एक हफ्ते में इन सभी दालों की कीमत में 5 रुपये से लेकर 10 रुपये की बढ़ोतरी देखी गई है।
महंगाई ने छीनी रसोई की महक! लहसुन अदरक का तड़का भी हुआ महंगा
कम आपूर्ति के कारण अदरक और लहसुन की कीमत भी आसमान छू रही है। दो महीने पूर्व आवक ज्यादा होने के कारण अदरक केवल 30 से 40 रुपए प्रति किलो बिक रहा था। अचानक आवक कम होने से अदरक के दाम में 4 गुना बढ़कर दाम 140 से 160 रुपए प्रति किलो हो गए हैं। इसी तरह बाजार में लहसुन के दाम दो महीने पहले 60 से 70 रुपए प्रति किलो थे। जबकि अब 130 से 140 रू. प्रति किलो फुटकर और थोक में 100 से 120 रू प्रति किलो हो गए हैं। अदरक व लहसुन विक्रेता अहसान शाह ने बताया कि आपूर्ति कम होने के कारण अदरक और लहसुन के दाम अधिक हो गए हैं। जिससे लहसुन अदरक की महंगी पेस्ट से रसोई की महक कम हुई है।
छोटे कारोबारियों/कंपनियों पर भी पड़ता है महंगाई का असर?
महंगाई यानी जीवन जीने की लागत का बढ़ना। इस बात पर तक़रीबन सबकी सहमति है कि जब जीवन जीने की लागत बढ़ती है तो सबसे अधिक असर आम लोगों पर पड़ता है। लेकिन इस पर कम सहमति है कि आम लोगों की ही तरह, महंगाई का असर छोटे कारोबारियों पर भी पड़ता है या नहीं? चूंकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक बार कहा था कि महंगाई का असर ग़रीबों से ज़्यादा अमीरों पर पड़ता है। लेकिन देंखे और समझें तो यह कोई रॉकेट साइंस की बात नहीं है। जिसकी आमदनी अधिक होती है उस पर महंगाई की मार कम पड़ती है और जिसकी आमदनी कम होती है उसे महंगाई का बोझ ज़्यादा सहना पड़ता है। उसके महीने का पूरा हिसाब किताब बिगड़ जाता है।
अब हक़ीक़त यह है कि भारत जैसे देश में जहां पर 90% लोगों की आमदनी 25,000 रुपये प्रति महीने से कम है। नाबार्ड की साल 2018 की रिपोर्ट बताती है कि भारत के तक़रीबन 70% ग्रामीण परिवारों की आमदनी महीने में 8,333 रुपये से कम की होती है। कहने का मतलब यह है कि महंगाई बहुत लंबे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था में बनी हुई है और बहुत लंबे समय से भारत की बहुत बड़ी आबादी महंगाई की मार से जूझ रही है। चूंकि अर्थव्यवस्था की गतिविधियों को आम आदमी नहीं समझता इसलिए आप यह भी कह सकते हैं कि भारत का आम आदमी महंगाई में जीने के लिए अभिशप्त है। उसे पता भी नहीं चल रहा है और सरकार की ग़लत नीतियों का परिणाम उसकी पीठ पर हर दिन कोड़े बरसा रहा है।
यह बात जगज़ाहिर है। मगर इसके बावजूद ढेर सारे लोगों के मन में यह धारणा बनी रहती है कि महंगाई की मार कारोबारियों पर नहीं पड़ती होगी। तो चलिए इसी धारणा की जांच पड़ताल करते हैं कि क्या वाकई महंगाई की मार कंपनियों/ छोटे कारोबारियों पर पड़ती है या नहीं?
फ्रंटलाइन के वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार वी श्रीधर कहते हैं कि जब हम कंपनी की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में सीधे अंबानी-अडानी का ख़्याल आता है। यह धारणा इतनी मज़बूत है कि कंपनी की पहचान केवल बड़ी कंपनियों से बनने लगती है। अर्थव्यवस्था में बड़ी कंपनियां भी हैं, मझोली कंपनियां भी हैं, छोटी कंपनियां भी हैं और शुरुआती दौर की कंपनियां भी हैं। इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि भारत का तक़रीबन 80 फ़ीसदी से अधिक कामगार अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। इस तरह के खांचों में बांटकर देखें तो बात अच्छे से समझ में आयेगी।
पिछले अक्टूबर में न्यूज क्लिक पर अजय कुमार के छपे एक विश्लेषण के अनुसार, जब महंगाई बढ़ती है तो सामान और सेवाओं की क़ीमत बढ़ती है। सामान और सेवाओं की क़ीमत बढ़ती है तो इसका मतलब है कि किसी कंपनी के लिए कच्चे माल की लागत बढ़ती है। कंपनी में काम करने वाले कर्मचारी और मज़दूर के लिए उसके जीवन की लागत बढ़ती है। महंगाई बढ़ने के दौर में ऐसा तो होता नहीं कि कर्मचारियों और मज़दूरों का वेतन बढ़े। वेतन और मज़दूरी तो जस की तस रहती है। सामान्य शब्दों में कहा जाए तो आम लोगों की ख़रीदारी की क्षमता नहीं बढ़ती है। इसलिए बहुत लंबे समय की महंगाई की वजह से सामान और सेवाएं भी कम बिकने लगती है। भारत की अर्थव्यवस्था में हाल-फिलहाल यही हो रहा है। इस तरह की स्थिति का मतलब है कि चाहे बड़ी कंपनी हो या छोटी कंपनी अगर बहुत लंबे समय तक महंगाई बनी रहेगी तो उनके प्रॉफिट मार्जिन में पहले के वित्त वर्ष के मुक़ाबले कमी आती है।
हालांकि यह बात सही है कि एक कंपनी के पास एक व्यक्ति के मुक़ाबले अथाह पैसा होता है। कंपनी के पास इतने अधिकार होते हैं कि वह अपना मुनाफ़ा बनाए रखने के लिए अपने कर्मचारियों की छंटनी कर सकती है। वेतन और मज़दूरी कम कर सकती है। मगर यह सब हथकंडे महज़ एक सीमा तक अपनाए जा सकते हैं। उसके बाद कंपनी के मुनाफ़े में कमी होने लगती है। कहने का मतलब यह है कि बहुत लंबे समय तक की महंगाई का असर कंपनियों पर पड़ता है।
तकरीबन 1940 कंपनियों पर किए गए एक विश्लेषण के मुताबिक़ महंगाई की वजह से वित्त वर्ष 2022 - 23 के जून तिमाही में हुए कंपनियों का प्रॉफिट मार्जिन वित्त वर्ष 2021-22 के जून तिमाही के मुक़ाबले घट गया। प्रॉफिट मार्जिन 7.9% से घटकर 6% पर पहुंच गया। मोटे तौर पर कहा जाए तो लंबे समय की महंगाई की वजह से कंपनियों पर असर पड़ता है। मज़बूत कंपनियों के बैलेंस शीट पर भी असर पड़ता है मगर उनका पहले का प्रॉफिट इतना ज़्यादा होता है कि उन्हें ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता। लेकिन छोटी कंपनियां और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली कंपनियों का दिवाला निकल जाता है।
मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से जुड़े कल- कारखाने के बुक ऑर्डर और इन्वेंट्री का सर्वे कर रिज़र्व बैंक ने जो आंकड़ा पेश किया है उस पर भी ग़ौर करना चाहिए। यह आंकड़ा बताता है मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की कितनी क्षमता का दोहन हो रहा है? इस आंकड़े के मुताबिक़ मार्च 2022 तक कंपनियों ने अपनी कुल क्षमता का महज 75 प्रतिशत इस्तेमाल किया। मतलब पहले से ही 25 प्रतिशत सामान बिक नहीं रहे हैं। इसका मतलब है कि लोगों की जेब में पैसा नहीं है। लोग ख़रीदारी नहीं कर रहे हैं। ऊपर से महंगाई है। इसीलिए भले यह लगेगी कंपनियों के पास अपने मुनाफ़े को बनाए रखने के कई तरीक़े हैं मगर फिर भी उनका मुनाफ़ा सामान बिकने पर ही होता है। महंगाई और कम कमाई की वजह से जब सामान नहीं बिकेगा तो कंपनियों पर असर पड़ेगा ही पड़ेगा। हालात तो अब ऐसे हो गए है कि ढेर सारे कारोबारी कुछ नया शुरू करने से इसलिए घबरा रहे हैं कि उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं कि आगे महंगाई कितनी होगी? सामान के लिए वह कौन सा क़ीमत तय करेंगे ताकि उन्हें मुनाफ़ा मिल पाए। इन सबके अलावा अगर आर्थिक उद्यमों में काम करने वाले मज़दूरों को ध्यान में रखकर सोचें तो यह दिखता है कि ज़्यादातर आर्थिक उद्यम शहरी क्षेत्रों में मौजूद हैं। महंगाई बढ़ने की वजह से जब जीवन की लागत बढ़ती है तो लेबर भी शहरी क्षेत्रों में आने से कतराता है। इसका असर यह पड़ता है कि मज़दूरों की आमदनी नहीं होती है और अर्थव्यवस्था में डिमांड की कमी बनी रहती है।
प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि यह कारोबार और कारोबारी के उत्पाद पर निर्भर करता है कि उस पर महंगाई का असर कैसे पड़ेगा? मान लीजिये कि कारोबारी ऐसा प्रोडक्ट या उत्पाद बेचता है, जिस पर उसका एकाधिकार या मोनोपॉली है तब वह महंगाई बढ़ने पर भी अपने उत्पादों की क़ीमत कम करने को तैयार नहीं होता है। लेकिन ऐसा उत्पाद है जिसके कई कारोबारी है जिसे बेचने वाले ज़्यादा है तब वहां पर महंगाई के दौर में प्रतिस्पर्धा होने लगती है। इसलिए कारोबारी माल बिकवाने के लिए डिस्काउंट देने लगते हैं। बड़े कारोबारियों के द्वारा डिस्काउंट देने के बाद भी उन पर असर कम पड़ता है लेकिन छोटे कारोबारियों पर इसका असर ज़्यादा पड़ता है। उनका प्रॉफिट मार्जिन बहुत कम हो जाता है, अधिकतर छोटे कारोबारियों पर इसका बहुत बुरा असर पड़ता है। कई बार कारोबार पूरी तरह से ढ़ह जाता है।
अरुण कुमार कहते हैं कि महंगाई से जब कच्चे माल की लागत बढ़ती है तो कंपनियां उसे अपने लागत में जोड़ लेती है। लागत में जोड़ने के बाद ही अपने सामान की क़ीमत तय करती हैं। आने वाले समय का अनुमान लगाकर ही क़ीमत तय करती हैं। इसलिए महंगाई के दौर में कंपनियों को ज़्यादातर नुक़सान इसलिए नहीं होता क्योंकि उनकी लागत बढ़ गयी है बल्कि इसलिए होती है क्योंकि महंगाई बढ़ने से लोग सामान ख़रीद नहीं रहे हैं। लोगों की ख़रीदारी कम हो गयी है।
अब कुछ आंकड़े देखिये। फ़ास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स को लीजिये। इनसे जुड़े रोज़ाना के सामानों का इस्तेमाल सभी करते हैं। इससे जुड़ी कंपनियों के मुनाफ़े में अप्रैल से जून की तिमाही में कमी दर्ज की गयी है। महंगे होते सामानों की वजह से डाबर, हिंदुस्तान लिवर, आईटीसी जैसी कंपनियों के प्रॉफिट मार्जिन पर असर पड़ा है। ब्रिटानिया के प्रॉफिट मार्जिन में अप्रैल से जून की तिमाही में महंगाई की वजह से तक़रीबन 13 फ़ीसदी की कमी हुई। गोदरेज के प्रॉफिट मार्जिन में तक़रीबन 16 फ़ीसदी की कमी। ऑटो सेक्टर को देखिए। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में इसका हिस्सा तक़रीबन 49 फ़ीसदी का है। साल 2021-22 में केवल 1 करोड़ 75 लाख कार बिकी। यह साल 2012-13 के बाद अब तक बिकी सबसे कम कारों की संख्या है। छोटे और मझोले उद्योगों को दिया गया 6 में से 1 क़र्ज़ एनपीए बन गया है। इसमें ज़्यादातर वह शामिल है जिनका कारोबार 20 लाख से कम का था। वह इकाइयां जहां 5 या 5 से कम लोग काम करते हैं, जिनकी संख्या तक़रीबन 98 फ़ीसदी के आसपास है। कहने का मतलब यह है कि महंगाई की वजह से उद्यमों और कारोबारों पर असर पड़ता है लेकिन सबसे ज़्यादा उनपर जो छोटे कारोबार हैं। वे ऐसे काम करते हैं जो जीवन में रोज़मर्रा के तौर पर इस्तेमाल करने वाले सामानों को बनाने में लगी हैं।
मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष के हिसाब से टमाटर के दामों में लगी आग का कोई अर्थ नहीं
“सावन के अंधे को हर तरफ हरा ही हरा नजर आता है”- यह कहावत भले ही आपने अपने स्कूली जीवन में पढ़ रखी हो, लेकिन इसकी बानगी हम आज भी जीवन के हर क्षेत्र में देख सकते हैं। आंकड़े कहते हैं कि देश में 8,000-15,000 रुपये मूल्य के रेफ्रिजरेटर की बिक्री में भारी गिरावट देखी जा रही है, लेकिन 1-1.50 लाख रुपये मूल्य के फ्रिज की बिक्री रिकॉर्ड स्तर पर देखने को मिल रही है। कल ही अखबार की सुर्ख़ियों में मर्सिडीज की हाई-एंड मॉडल के बारे में सूचना थी कि 1.5 करोड़ रुपये और ऊपर की लक्जरी गाड़ियों के मामले में भारत में मांग सबसे अधिक बनी हुई है। जर्मनी की मर्सिडीज बेंज कार की बिक्री इस साल देश में पहली छमाही में 8,523 की संख्या तक पहुंच गई है। पिछले वर्ष की तुलना में यह 13% अधिक है और आज तक किसी भी छमाही में कंपनी को ऐसा उछाल देखने को नहीं मिला। पिछले साल कंपनी ने इसी अवधि में 7,573 कारें बेची थीं।
लेकिन सबसे बड़ा कमाल 1.5 करोड़ रुपये से अधिक मूल्य के हाई-एंड ब्रांड में देखने को मिला है। मर्सिडीज बेंज को इस रेंज में 54% का उछाल मिला है, और जनवरी-जून में कंपनी 2,000 लक्ज़री कार बेच चुकी है। दूसरी ओर, मोदी सरकार 80 करोड़ लोगों को 5 किलो राशन देने का दावा भी जोर-शोर से करती है। लेकिन कोई विपक्षी राज्य की सरकार इसी काम को करे तो उसकी मनाही है। हाल ही में कर्नाटक की राज्य सरकार ने 5 किलो अतिरिक्त अनाज देने के लिए केंद्र के भारतीय खाद्य निगम से मांग की थी, जिसे सरकार ने ठुकरा दिया। ये वे लोग हैं जो न तो फ्रिज खरीद सकते हैं और न ही कार। लेकिन सबसे दुखद तथ्य यह है कि चावल और गेहूं से इंसान सिर्फ जिंदा रह सकता है, लेकिन मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ्य बने रहने के लिए कार्बोहाइड्रेट के अलावा मनुष्य को उचित मात्रा में विटामिन, मिनरल और प्रोटीन तत्वों की भी उतनी ही जरूरत होती है।
बात टमाटर की ही करें तो टमाटर भी उसी में से एक है। आम भारतीय परिवारों में टमाटर का उपयोग अधिकांश सब्जियों, दाल सहित सलाद में प्रयुक्त होता है। लेकिन टमाटर के दाम पिछले दो सप्ताह से आसमान छू रहे हैं। 10 दिन पहले उपभोक्ता मामलों के विभाग की ओर से सफाई दी गई थी कि 100 रुपये किलो का भाव सप्लाई चैन में व्यवधान की वजह से है। अगले 4-5 दिनों में स्थिति सामान्य हो जाएगी। लेकिन गुरुवार को टमाटर के दाम 100 रुपये प्रति किलो से वापस 20-30 रुपये किलो होने के बजाय 200-250 रुपये किलो तक जा चुके हैं। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में 90% परिवार 25,000 रुपये मासिक आय या इससे कम पर गुजारा कर रहे हैं। इसका अर्थ है 90% परिवार टमाटर खरीदने की स्थिति में ही नहीं हैं।
तमिलनाडु सरकार ने पिछले सप्ताह रियायती दरों पर टमाटर की सार्वजनिक बिक्री की घोषणा की थी। दो दिन पहले केंद्र सरकार ने भी शुक्रवार तक देश के चुनिंदा शहरों में इसी प्रकार की घोषणा की है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबरॉय ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार में अपने लेख के माध्यम से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) को लेकर जैसी विवेचना प्रस्तुत की है, वह पूरी तरह से मर्सिडीज बेंज के हाई-एंड मॉडल के ग्राहकों के हिसाब से लिखी गई है।
वरिष्ठ पत्रकार रविंद्र पटवाल, जनचौक में छपे अपने लेख में कहते है। कि देबरॉय साहब अपने लेख की शुरुआत में ही एक अनोखी मिसाल पेश करते हैं और लेख का अंत भी उसी से करते हैं। वे हमें एक ऐसे बक्से की सैर कराते हैं जिसमें पुराने कैसेट्स और रेडिओ सेट पड़े हैं, जिनका आज कोई मोल नहीं है, भले ही आज से 30 वर्ष पहले इनका काफी मोल था। इसे नजीर बनाते हुए देबरॉय साहब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में मुद्रास्फीति के निर्धारण के लिए कुछ वस्तुओं पर आज भी जरूरत से ज्यादा महत्व देने को एक भूल के रूप में साबित करने लगते हैं।
उनके अनुसार (बेस ईयर) 2012 से सीपीआई में खाद्य एवं पेय वस्तुओं पर (45.86) वेटेज वर्तमान स्थिति से मेल नहीं खाता। इसके लिए वे खुदरा महंगाई के लिए खाद्य वस्तुओं पर 1960 में 60.9, 1982 में घटाकर 57.0 और 2001 में 46.2 का उदाहरण पेश करते हैं। देबरॉय मानते हैं कि भारत में आर्थिक संपन्नता बढ़ी है और जैसे-जैसे इसमें वृद्धि होती है, खान-पान पर लोगों को कम खर्च करना पड़ता है। इसी को आधार बनाते हुए आपका तर्क है कि खुदरा महंगाई को आंकने के लिए खाद्य-पेय वस्तुओं के वेटेज में कटौती करनी चाहिए, और इसके स्थान पर आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, डिजिटल सेवाओं को ज्यादा वेटेज दिया जाना चाहिए। उन्हें तो सबसे अधिक आश्चर्य अनाज पर 9.69 वेटेज दिए जाने पर है, क्योंकि उनके हिसाब से मोदी सरकार ने तो बड़ी आबादी को पहले ही मुफ्त अनाज के दायरे में ला दिया है।
उन्हें इंतजार है घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (सीईएस) के आंकड़ों का, यह सर्वेक्षण दो किश्तों में किया जाता है। इसकी एक किश्त जुलाई 2023 में और दूसरी एक साल बाद होनी है। उन्हें अफ़सोस है कि मंत्रालय भी इस पर 3-4 महीने लगाकर दिसंबर 2024 तक जारी करेगा। इसके आधार पर ही सीपीआई में शामिल 260 वस्तुओं के वेटेज में बदलाव संभव हो सकेगा। इसका आशय क्या यह लगाना सही नहीं होगा कि यदि आज उन्हें यह मौका मिल जाये तो वे टमाटर जैसे खाद्य वस्तु को निहायत ही गैर जरूरी वस्तु के रूप में दोयम वेटेज की श्रेणी में नहीं डाल देने वाले हैं? क्या इसे देश के सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक नीति-निर्धारक की चोटी से बैठकर काफी नीचे देखने की समझ न माना जाये?
इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह तो यह है कि चूंकि आज देश उत्तरोत्तर नव-उदारवादी अर्थनीति की गिरफ्त में जा चुका है, और पिछले सात वर्षों से मोदी सरकार की नीतियां बार-बार आपूर्ति पक्ष की अर्थव्यस्था को मजबूती देने की कोशिश में PLI जैसी योजनाओं, कॉर्पोरेट टैक्स में छूट सहित विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए श्रम कानूनों में व्यापक बदलाव की दिशा में आगे बढ़ती जा रही हैं, ऐसे में उनके पास देश की 90% आबादी के लिए 5 किलो अनाज से अधिक कुछ नहीं है।
ऐसा लगता है सरकार, कॉर्पोरेट और नौकरशाही ने इस बात को गहराई से आत्मसात कर लिया है कि अब 5 ट्रिलियन डॉलर से लेकर 30 ट्रिलियन डॉलर इकॉनोमी का सफर वास्तव में देश के चंद करोड़ लोगों और विदेशी पूंजी और तकनीक के सहारे ही करना है। 95% आबादी वैसे भी नाकारा है, उसे देश के बहुमूल्य संपदा, जमीन, खनिज-संपदा से क्या लेना-देना? इनकी जितनी बड़े पैमाने पर लूट होगी, भारत उतनी ही तेजी से विश्वगुरु की दहलीज पर बढ़ने की दिशा में प्रस्थान कर सकता है। ऐसे में खुदरा महंगाई जैसी चीज वास्तव में 2 लाख या 2 करोड़ रुपये प्रति माह कमाने वाले वर्ग के लिए कोई खास मायने भी नहीं रखती है।
अब आते हैं मौजूदा परिदृश्य पर, जिससे देश की 90% आबादी जूझ रही है। 15 जून, 7 जुलाई और 12 जुलाई को सब्जियों के दाम में आये बदलाव के बारे में आंकड़े प्रस्तुत किये गये हैं। 15 जून तक टमाटर 30-40 रुपये किलो बिक रहा था, 7 जुलाई को 120-140 रुपये किलो और 12 जुलाई तक इसके दाम 250 रुपये प्रति किलो तक पहुंच गये हैं। फूलगोभी भी 50, 140 से 12 जुलाई तक 280 रुपये किलो जा चुकी है। बीन्स पहले भी महंगे दाम में बिक रहा था, लेकिन इसमें भी 15 जून के 120 रुपये प्रति किलो से भारी उछाल देखा जा रहा है, और 275 रुपये प्रति किलो भाव है।
अदरक भी इस सीजन काफी ऊंचाई पर था, लेकिन इसमें भी 100% की मूल्य वृद्धि पिछले एक माह में देखने को मिली है। 200 रुपये प्रति किलो की जगह आज बाजार भाव 400 रुपये प्रति किलो चल रहा है। 3 महीने पहले तक शिमला मिर्च दिल्ली में 20 रुपये किलो बिक रहा था, क्योंकि पंजाब में किसानों ने इसकी बंपर पैदावार की थी, और 1-2 रुपये किलो के भाव पर भारी घाटा उठाकर वे इसे बेचने के लिए मजबूर थे। लेकिन 15 जून तक दिल्ली में शिमला मिर्च 80 रुपये किलो बिक रहा था, वहीं 7 जुलाई तक 175 और 12 जुलाई को 280 रुपये प्रति किलो बिक रहा है। पत्ता गोभी 30 फिर 50 और अब 100 रुपये किलो छू चुकी है। मूली ही सबसे सस्ती है जो 50, 70 और अब 80 रुपये किलो बिक रही है। बैंगन भी 100 रुपये किलो के भाव को छू रहा है।
देबरॉय साहब शायद 120 करोड़ भारतीयों को अपनी गिनती में ही नहीं रखते हैं। उन्हें अहसास होता तो वे इस बात को जानते कि आज देश की 80% आबादी ने टमाटर, अदरक खाना ही बंद कर रखा है। इसी तरह चावल, आटा खाने के लिए, दाल के चुनाव में भी उसे बड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है। अरहर थाली से बाहर का आइटम हो चुका है। विटामिन और प्रोटीन के अभाव में देश कुपोषित और बीमार हो रहा है।
बीमार और अपाहिज भारत को आप चीन से प्रतिस्पर्धा में खड़ा करने के सपने देखने के लिए स्वतंत्र हैं। आपका सावन आपको मुबारक हो, लेकिन 2024 के अंत तक आप खुदरा महंगाई को निर्धारित करने के लिए देश के नागरिकों की थाली को ही गायब कर देंगे, देश ऐसी अपेक्षा वर्तमान सरकार से नहीं करता है, क्योंकि उसे आपकी तरह उच्च शिखर से देखने की अभी भी आदत नहीं बन पाई है। समय-समय पर उसे खुद को अधिकार-संपन्न करने के लिए जनता की अदालत में आने की अनिवार्यता अभी भी बनी हुई है।
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