रवीश कुमार की सलाह: चैनल देखना बंद कर दें, ये चुनाव के नाम पर टाइम काट रहे हैं

Written by Ravish Kumar | Published on: February 12, 2019
मैं एक सामान्य दर्शक की तरह नहीं सोच पाता हूं। नहीं समझ पाता कि एक दर्शक का सामान्य होना क्या होता है। क्यों वह सतही और घटिया कंटेंट देखता है? क्या टीवी ने आपको इतना सामान्य बना दिया है कि आपको इस टीवी के कारण आपके भीतर और लोकतंत्र के भीतर आ रहे संकटों का अहसास ही नहीं होता है? आपके भीतर का ख़ालीपन और खोखलापन ही लोकत्तंत्र का ख़ालीपन और खोखलापन है।

क्या आप कभी महसूस कर पाते हैं कि न्यूज़ चैनल किस तरह आपको सूचना विहीन बनाते जा रहे हैं। एक ही तरह के दृश्य बार-बार दिखाकर आपको दृश्यविहीन बनाते जा रहे हैं। दृश्यों के प्रति संवेदनहीन बनाते जा रहे हैं। आप भाव शून्य होकर देखे जा रहे हैं। भले देखने का कुछ भी मतलब नहीं निकल रहा है फिर भी आप देखे जा रहे हैं। न्यूज़ चैनलों के आस-पास का लोकतंत्र मनोरोग से ग्रसित लोकतंत्र नज़र आता है। चैनल आपके नागरिक बोध को सुन्न कर रहे हैं।

न्यूज़ चैनलों के पास कोई कंटेंट नहीं हैं। सबके पास ईवेंट हैं। ईवेंट एक बहाना है। ईवेंट न हो तो असली ख़बरें दिखाने, उन पर मेहनत करने और एडिट करने में उनकी सांस फूल जाएगी। इसलिए जब ईवेंट नहीं होता है तो बेमतलब का स्पीड न्यूज़ भड़भड़ाते हुए दौड़ता रहता है। रिपोर्टिंग का तंत्र ध्वस्त कर दिया गया है। जो थोड़ा बहुत बचा है वो ईवेंट के आस-पास ही सीमित है। आप खुद से ये बातें किसी भी चैनल को देखते हुए महसूस कर सकते हैं।

अगर आपको अपनी नागरिकता बचानी है, उसका बोध बचाना है तो चैनल देखने को लेकर ख़ुद के साथ सख़्ती कीजिए। जब किसी नेता का पांच मिनट से ज्यादा का भाषण आए तो बंद कर दीजिए। जब किसी चैनल पर फालतू सर्वे आए तो खोलते ही बंद कर दीजिए। ये सब इसलिए होता है कि वाकई इनके पास रिसर्च करने की हिम्मत नहीं बची है। रिसर्च करेंगे तो सूचनाएं आ जाएंगी, फिर सरकार की पोल खुल जाएगी। फिर सरकार गर्दन दबा देगी। तो अच्छा है महीनों सर्वे दिखाते रहो। पांच फालतू एक्सपर्ट बुलाकर, जिन्हें दिल्ली में शाम को कोई काम नही रहता, उनके साथ चर्चा करते रहो। चैनल वाले अपना टाइम काटते रहते हैं, आप क्यों अपना टाइम काटते हैं?

आज न्यूज़ चैनलों के लिए ईवेंट ही कंटेंट हो गया है। कभी कुंभ, कभी मोदी की रैली तो कभी प्रियंका का रोड शो तो कभी हफ्तों पदमावती फिल्म पर कवरेज। ऐसे कंटेंट-विहीन चैनल संसार में कोई दर्शक दिन रात टहलते हुए क्या पाता होगा।

राष्ट्रवादी बहसों के नाम पर सांप्रदायिकता परोसी गई। अब वह सांप्रदायिकता रोज़ नया खुराक मांग रही है। दो महीने तक चैनलों पर राम मंदिर का मुद्दा चला। बेरोज़गारी और मंदी से परेशान जनता ने जब भाव नहीं दिया तो अचानक मंदिर मंदिर करने वालों को ख़्याल आया कि अरे इलेक्शन आ रहा है। चैनलों ने इस मुद्दे को छोड़ दिया। उनसे पूछा नहीं कि हर बार चुनाव में ही राम मंदिर याद करते थे अबकी बार क्या ऐसा हो गया।

जब सुप्रीम कोर्ट ने असम में नेशनल रजिस्टर पूरा करने का आदेश दिया तो अमित शाह चिल्लाने लगे कि एक एक घुसपैठियों को बाहर करेंगे। मसला असम का लेकिन दहाड़ रहे हैं राजस्थान में। आज किसी को पूछने की हिम्मत नहीं है कि घुसपैठियों को लेकर इतनी ही गंभीरता थी तो फिर सुप्रीम कोर्ट को क्यों डांट लगानी पड़ी कि आप नेशनल रजिस्टर पूरा करने का काम ठीक से नहीं कर रहे हैं। सरकार को दिख गया कि भले अमित शाह पचास साल राज कर लें मगर जनता पांच मिनट में अपने सवालों को देख लेती है।

असम में जब सिटिजन अमेंडमेंट बिल का विरोध शुरू हुआ तो सरकार राज्य सभा में किनारा कर गई। असम की जनता इस समस्या को घुसपैठ को हिन्दू मुस्लिम में बांट कर नहीं देखना चाहती थी। दिल्ली की राजनीति ने उसे हिन्दू मुस्लिम में बांटा क्योंकि उसे यूपी और बिहार में लोगों को हिन्दू मुस्लिम में बांटना था। पहले कश्मीर को खुराक बनाया गया फिर असम को बनाने की कोशिश की। नतीजा क्या हुआ। भूपेन हज़ारिका के बेटे ने भारत रत्न ही ठुकरा दिया।

आप खुद एक बार अपने आप को दर्शक की तरह रखकर सोचिए। क्या आपको किसी भी चैनल से कोई कंटेंट मिल रहा है? प्रियंका गांधी को लेकर आप टीवी के कवरेज़ देखिए। खुद यू ट्यूब में जाकर दोबारा सुनिए। देखें कि क्या इससे राजनीतिक समझ में कोई ख़ास इज़ाफ़ा होता है। ऐसा क्या आज नया बोला गया जो उनके राजनीति में आने के एलान के दिन नहीं बोला गया था।

बिल्कुल प्रियंका गांधी का कवरेज़ होना चाहिए। मगर अनवरत और दिन भर? क्या न्यूज़ चैनल अपने अपराध बोध से निकलना चाहते हैं कि मोदी मोदी बहुत कर लिया। प्रियंका का दिखाकर रखो ताकि बाद में कोई पूछे तो कह दिया जाए कि हमने तो प्रियंका का रोड शो घंटो कवर किया था। इससे अच्छा था सारे चैनल रफाल मामले में हिन्दू की रिपोर्ट पर एक बहस कर लेते। अगर हुज़ूर इजाज़त दे देते तो।

मैं यह क्यों कह रहा हूं। आए दिन लाखों लोग चैनलों से संपर्क कर रहे हैं। पंजाब के शिक्षकों पर अजीब तरह के कांट्रेक्ट की शर्तें लाद दी गईं हैं। उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री की सौभाग्य योजना से जुड़े 2000 इंजीनियरों को हटा दिया गया है। मोदी राज में अस्पताल और भी कंडम हो गए। अस्पतालों में बीमार आदमी के साथ जो अमानवीय बर्ताव हो रहा है, वह अक्षम्य है। एक परीक्षा ढंग से नहीं हो पाती है, नेता हैं कि महान ही हो गए हैं।

अब न्यूज़ चैनल कबाड़ ही रहेंगे। दस सालों से न्यूज़ चैनलों के कंटेंट की गिरावट की सक्रिय आलोचना हो रही है, फिर भी गिरावट बढ़ती ही जा रही है। दस साल पहले अपने ब्लॉग क़स्बा पर एक कविता लिखी थी, टीवी साला गोबर का पहाड़ है। कुछ नहीं बदला और न अब कुछ बदलेगा।

जनता को सतही सूचना दी जा रही है ताकि उसके भीतर नागरिकता का बोध न जागे। उसे इतना ही बताया जा रहा है कि कोई नेता उसे भीड़ और भगदड़ में बहा ले जाएं। चुनावों में आप सर्वे देखिए। फिर राय सुनिए। फिर सर्वे देखिए। फिर राय सुनिए। फिर सर्वे देखिए। फिर राय सुनिए। अस्पताल में डाक्टर न हो, कालेज में टीचर न हो तो गाय पालिए।

एक बार आप दर्शक ही ख़ुद को बदल कर देखिए। दिल्ली की हवा सांस लेने लायक नहीं रही। कोई दिल्ली छोड़ कर नहीं गया। कोई टीवी छोड़ कर नहीं जाएगा। मैं कहता रहा हूँ कि टीवी मत देखिए। कई लेख लिखें। चुनाव तक टीवी देखना बंद कर दें। बस ये कह रहा हूँ कि एक दर्शक के तौर पर ख़ुद से ज़्यादा मांगा कीजिए, मैं भी आपसे ज्यादा मांग रहा हूं। समझा कीजिए कि जो चैनल दे रहे हैं वो कबाड़ है। इतना ही पूछ लें कि आप कबाड़ क्यों देख रहे हैं ? बाकी आप जैसा ठीक समझें ।

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