राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत शायद इस देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति हैं. समय-समय पर वे विभिन्न मुद्दों पर संघ की नीतियों और उसकी ‘विश्व दृष्टि’ का खुलासा करते आए हैं. जो वे कहते हैं, उसी राह पर पूरा संघ परिवार, जिसमें भाजपा शामिल है, चलता है. लिंचिंग के संबंध में अपनी सोच को स्पष्ट करने के बाद, हाल में, संघ प्रमुख ने फरमाया कि दुनिया के जिन विभिन्न देशों में मुसलमान रहते हैं, उनमें से भारत के मुसलमान सबसे सुखी और प्रसन्न हैं और इसका कारण है भारत के हिन्दू. भागवत, मुसलमानों की प्रसन्नता के संबंध में अपने निष्कर्ष पर किन आधारों पर पहुंचे, उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया है. क्या वे भारतीय मुसलमानों की तुलना इंडोनेशिया के मुसलमानों से कर रहे हैं या मलेशिया के मुसलमानों से? वे तुर्की के मुसलमानों की बात कर रहे हैं या सूडान के मुसलमानों की? या फिर पश्चिमी देशों में रहने वाले मुसलमानों की? पूरी दुनिया के विभिन्न देशों में मुसलमानों की स्थिति एक-सी नहीं है. सामान्यतः, किसी भी समुदाय की स्थिति का आंकलन, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक आधारों पर किया जाता है.
यहां यह कहना समीचीन होगा कि भारत में भी सभी मुसलमानों, बल्कि सभी भारतीयों, की स्थिति एक-सी नहीं है. हमारा समाज अत्यंत असमान है. परंतु मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं की स्थिति अन्य वर्गों की तुलना में खराब ही है. भागवत शायद भारत के मुसलमानों की तुलना, पाकिस्तान और पश्चिम एशिया के मुसलमानों से करना चाह रहे होंगे. हमारे पड़ोसी बांग्लादेश, जो कि एक मुस्लिम-बहुल देश है, वहां के नागरिकों की स्थिति में बहुत सुधार आया है. कई मानव विकास सूचकांकों पर बांग्लादेश की स्थिति भारत से बेहतर है. परंतु यह भी सच है कि भारत में मुस्लिम नागरिकों की स्थिति अलग-अलग होने के बावजूद, उन सभी को कई समस्याओं का सामना उनकी धार्मिक पहचान के कारण करना पड़ता है. आर्थिक दृष्टि से उनका हाशियाकरण हो रहा है, वे अपने मोहल्लों और क्षेत्रों में सिकुड़ते जा रहे हैं और देश की प्रजातांत्रिक संस्थाओं में उन्हें अपेक्षित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है.
देश के विभाजन के बाद, जिन मुसलमानों ने अपनी इच्छा से या किन्हीं मजबूरियों के चलते, भारत में रहने का विकल्प स्वीकार किया, उन्हें ही भारत के विभाजन के लिए दोषी ठहराया जाता है. जिन राजनैतिक दलों को मुसलमानों पर लगाए जा रहे इस बेजा आरोप से उन्हें मुक्त कराने का प्रयास करना था, उन्होंने इस डर से ऐसा नहीं किया कि उन पर मुसलमानों का तुष्टिकरण करने का आरोप लगेगा. विभाजन के बाद, देश में भयावह साम्प्रदायिक हिंसा हुई. इसके पश्चात लगभग एक दशक तक देश में फिरकापरस्ती का दौर कुछ थम सा गया. सन् 1960 के दशक से साम्प्रदायिक ताकतों ने फिर अपना वीभत्स सिर उठाना शुरू कर दिया. राममंदिर आंदोलन ने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा को हवा दी. इस सबके चलते वे आर्थिक दृष्टि से कमजोर, और कमजोर, होते चले गए. मुसलमानों में अपने मोहल्लों में सिमटने की प्रवृत्ति भी तेजी से बढ़ी जिसका इस समुदाय की सामाजिक और राजनैतिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा.
मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आंकलन करने के लिए रंगनाथ मिश्र आयोग और फिर सच्चर समिति की नियुक्ति की गई. इन दोनों की रपटों ने कई नए खुलासे किए और इस धारणा को पुष्ट किया कि देश में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में लगातार गिरावट आती जा रही है. यह भी पता चला कि स्वतंत्रता के तुरंत बाद की तुलना में उनकी स्थिति बहुत खराब हुई है. श्री भागवत और उनके साथियों ने, जैसा कि अपेक्षित था, इन रपटों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया. जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि समाज के वंचित वर्गों का देश के संसाधनों पर पहला अधिकार होना चाहिए तब संघ परिवार उन पर टूट पड़ा. भागवत और उनके विचारधारात्मक साथियों ने डॉ. मनमोहन सिंह के इस वक्तव्य को तोड़-मरोड़कर इस रूप में प्रस्तुत किया कि कांग्रेस चाहती है कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का हो. संघ और भाजपा का प्रचारतंत्र इतना शक्तिशाली और कार्यकुशल है कि उसके द्वारा इस मुददे पर मचाए गए जबरदस्त शोर में कांग्रेस का यह तर्क लोगों को सुनाई ही नहीं पड़ा कि वह किसी विशिष्ट धार्मिक समुदाय की नहीं बल्कि सभी वंचित वर्गों की बात कर रही है.
पहले से ही साम्प्रदायिक घृणा और हिंसा के शिकार मुसलमानों को लव जिहाद, घर वापसी और गौरक्षा के मुद्दों को लेकर नए सिरे से निशाना बनाया जाने लगा. इन मुद्दों ने समाज की विभाजक रेखाओं को और गहरा किया और मुसलमानों के हालात बद से बदतर होते चले गए.
इस पृष्ठभूमि में हम संघ प्रमुख के इस दावे को भला किस रूप में देखें कि भारत में मुसलमान सबसे सुखी और प्रसन्न हैं. यह दावा भी किया जा रहा है कि चूंकि भारत हिन्दू राष्ट्र रहा है इसलिए उसने उनके देशों में प्रताड़ित किए जा रहे लोगों को अपने यहां शरण दी. यह दावा केवल यहूदियों और पारसियों के बारे में कुछ हद तक सही कहा जा सकता है परंतु ये दोनों समुदाय भारत की कुल आबादी का कितना छोटा हिस्सा हैं, यह बताने की ज़रुरत नहीं है. यह दावा इस बेबुनियाद अवधारणा पर आधारित है कि भारत हमेशा से हिन्दू राष्ट्र रहा है. हम सब जानते हैं कि प्राचीन भारत में अनेकानेक राजा थे जिनकी अपनी-अपनी नीतियां थीं और इनके लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते रहते थे. भारत में यदि अनेक देशों से प्रवासी आए तो इसका कारण देश की भौगोलिक स्थिति थी. ताजा अध्ययनों से पता चला है कि भारत में आर्य, फारस से लगभग 3500 वर्ष पूर्व आए थे और यह भी कि भारतीय उपमहाद्वीप में मनुष्यों का बसना सबसे पहले लगभग 70 हजार वर्ष पूर्व शुरू हुआ था और उस समय जो लोग भारत आए थे वे अफ्रीका से यहां पहुंचे थे.
आज दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और कई पश्चिमी राष्ट्रों में भारतीय मूल के हिन्दुओं की खासी आबादी है. लोग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में प्रवास करते रहे हैं और उनमें से अधिकांश ने उन देशों को, जिनमें वे बसे, अपने घर के रूप में स्वीकार किया है. भागवत का यह दावा कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों की सोच से एकदम भिन्न है. गांधीजी, मौलाना आजाद, भगतसिंह, अंबेडकर, सरदार पटेल और नेहरू, भारत को एक ऐसे बनते हुए राष्ट्र के रूप में देखते थे जिसमें धार्मिक व अन्य विविधताओं के लिए पर्याप्त स्थान था. उनके विचार हमारे संविधान का हिस्सा हैं. हमारा संविधान इन शब्दों से शुरू होता है, “हम भारत के लोग...”. यह अत्यंत डरावना है कि श्री भागवत और उनके साथी चाहते हैं कि हम यह मान लें कि भारत हमेशा से हिन्दू राष्ट्र रहा है.
हिन्दू राष्ट्र के पेरौकार भागवत एक तरफ तो भारत के सभी निवासियों को हिन्दू बताते नहीं थकते तो दूसरी ओर आरएसएस अब ‘विविधता’ जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगा है. दरअसल यह सब एक धोखा है. संघ की विचारधारा का असली चेहरा हमें उसके घर वापसी, गौरक्षा और लव जिहाद जैसे अभियानों में दिखता है. ये सभी अभियान समाज को धार्मिक आधार पर विभाजित करने वाले हैं. हिन्दुत्व के एजेंडे के तहत जिन मुद्दों को लगातार उछाला जा रहा है उनके पीड़ितों में दलित भी शामिल हैं.
मुसलमान इस देश के दूसरे दर्जे के नागरिक बना दिए गए हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि मुस्लिम-बहुल जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370 को हटाने से पहले वहां के निवासियों की राय जानने तक का प्रयास नहीं किया गया. इस निर्णय को भाजपा अपनी एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत कर रही है. किसी भी देश का प्रजातंत्र कितना स्वस्थ है, इसका माप उस देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति से किया जा सकता है. वर्तमान परिस्थितियों में यह दावा करना कि भारत के मुसलमान दुनिया में सबसे सुखी हैं, एक क्रूर मजाक के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है.
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)
यहां यह कहना समीचीन होगा कि भारत में भी सभी मुसलमानों, बल्कि सभी भारतीयों, की स्थिति एक-सी नहीं है. हमारा समाज अत्यंत असमान है. परंतु मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं की स्थिति अन्य वर्गों की तुलना में खराब ही है. भागवत शायद भारत के मुसलमानों की तुलना, पाकिस्तान और पश्चिम एशिया के मुसलमानों से करना चाह रहे होंगे. हमारे पड़ोसी बांग्लादेश, जो कि एक मुस्लिम-बहुल देश है, वहां के नागरिकों की स्थिति में बहुत सुधार आया है. कई मानव विकास सूचकांकों पर बांग्लादेश की स्थिति भारत से बेहतर है. परंतु यह भी सच है कि भारत में मुस्लिम नागरिकों की स्थिति अलग-अलग होने के बावजूद, उन सभी को कई समस्याओं का सामना उनकी धार्मिक पहचान के कारण करना पड़ता है. आर्थिक दृष्टि से उनका हाशियाकरण हो रहा है, वे अपने मोहल्लों और क्षेत्रों में सिकुड़ते जा रहे हैं और देश की प्रजातांत्रिक संस्थाओं में उन्हें अपेक्षित प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है.
देश के विभाजन के बाद, जिन मुसलमानों ने अपनी इच्छा से या किन्हीं मजबूरियों के चलते, भारत में रहने का विकल्प स्वीकार किया, उन्हें ही भारत के विभाजन के लिए दोषी ठहराया जाता है. जिन राजनैतिक दलों को मुसलमानों पर लगाए जा रहे इस बेजा आरोप से उन्हें मुक्त कराने का प्रयास करना था, उन्होंने इस डर से ऐसा नहीं किया कि उन पर मुसलमानों का तुष्टिकरण करने का आरोप लगेगा. विभाजन के बाद, देश में भयावह साम्प्रदायिक हिंसा हुई. इसके पश्चात लगभग एक दशक तक देश में फिरकापरस्ती का दौर कुछ थम सा गया. सन् 1960 के दशक से साम्प्रदायिक ताकतों ने फिर अपना वीभत्स सिर उठाना शुरू कर दिया. राममंदिर आंदोलन ने मुसलमानों के खिलाफ हिंसा को हवा दी. इस सबके चलते वे आर्थिक दृष्टि से कमजोर, और कमजोर, होते चले गए. मुसलमानों में अपने मोहल्लों में सिमटने की प्रवृत्ति भी तेजी से बढ़ी जिसका इस समुदाय की सामाजिक और राजनैतिक स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा.
मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आंकलन करने के लिए रंगनाथ मिश्र आयोग और फिर सच्चर समिति की नियुक्ति की गई. इन दोनों की रपटों ने कई नए खुलासे किए और इस धारणा को पुष्ट किया कि देश में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में लगातार गिरावट आती जा रही है. यह भी पता चला कि स्वतंत्रता के तुरंत बाद की तुलना में उनकी स्थिति बहुत खराब हुई है. श्री भागवत और उनके साथियों ने, जैसा कि अपेक्षित था, इन रपटों को पूरी तरह से नजरअंदाज किया. जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि समाज के वंचित वर्गों का देश के संसाधनों पर पहला अधिकार होना चाहिए तब संघ परिवार उन पर टूट पड़ा. भागवत और उनके विचारधारात्मक साथियों ने डॉ. मनमोहन सिंह के इस वक्तव्य को तोड़-मरोड़कर इस रूप में प्रस्तुत किया कि कांग्रेस चाहती है कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का हो. संघ और भाजपा का प्रचारतंत्र इतना शक्तिशाली और कार्यकुशल है कि उसके द्वारा इस मुददे पर मचाए गए जबरदस्त शोर में कांग्रेस का यह तर्क लोगों को सुनाई ही नहीं पड़ा कि वह किसी विशिष्ट धार्मिक समुदाय की नहीं बल्कि सभी वंचित वर्गों की बात कर रही है.
पहले से ही साम्प्रदायिक घृणा और हिंसा के शिकार मुसलमानों को लव जिहाद, घर वापसी और गौरक्षा के मुद्दों को लेकर नए सिरे से निशाना बनाया जाने लगा. इन मुद्दों ने समाज की विभाजक रेखाओं को और गहरा किया और मुसलमानों के हालात बद से बदतर होते चले गए.
इस पृष्ठभूमि में हम संघ प्रमुख के इस दावे को भला किस रूप में देखें कि भारत में मुसलमान सबसे सुखी और प्रसन्न हैं. यह दावा भी किया जा रहा है कि चूंकि भारत हिन्दू राष्ट्र रहा है इसलिए उसने उनके देशों में प्रताड़ित किए जा रहे लोगों को अपने यहां शरण दी. यह दावा केवल यहूदियों और पारसियों के बारे में कुछ हद तक सही कहा जा सकता है परंतु ये दोनों समुदाय भारत की कुल आबादी का कितना छोटा हिस्सा हैं, यह बताने की ज़रुरत नहीं है. यह दावा इस बेबुनियाद अवधारणा पर आधारित है कि भारत हमेशा से हिन्दू राष्ट्र रहा है. हम सब जानते हैं कि प्राचीन भारत में अनेकानेक राजा थे जिनकी अपनी-अपनी नीतियां थीं और इनके लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में जाते रहते थे. भारत में यदि अनेक देशों से प्रवासी आए तो इसका कारण देश की भौगोलिक स्थिति थी. ताजा अध्ययनों से पता चला है कि भारत में आर्य, फारस से लगभग 3500 वर्ष पूर्व आए थे और यह भी कि भारतीय उपमहाद्वीप में मनुष्यों का बसना सबसे पहले लगभग 70 हजार वर्ष पूर्व शुरू हुआ था और उस समय जो लोग भारत आए थे वे अफ्रीका से यहां पहुंचे थे.
आज दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों और कई पश्चिमी राष्ट्रों में भारतीय मूल के हिन्दुओं की खासी आबादी है. लोग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में प्रवास करते रहे हैं और उनमें से अधिकांश ने उन देशों को, जिनमें वे बसे, अपने घर के रूप में स्वीकार किया है. भागवत का यह दावा कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, हमारे स्वाधीनता संग्राम सेनानियों की सोच से एकदम भिन्न है. गांधीजी, मौलाना आजाद, भगतसिंह, अंबेडकर, सरदार पटेल और नेहरू, भारत को एक ऐसे बनते हुए राष्ट्र के रूप में देखते थे जिसमें धार्मिक व अन्य विविधताओं के लिए पर्याप्त स्थान था. उनके विचार हमारे संविधान का हिस्सा हैं. हमारा संविधान इन शब्दों से शुरू होता है, “हम भारत के लोग...”. यह अत्यंत डरावना है कि श्री भागवत और उनके साथी चाहते हैं कि हम यह मान लें कि भारत हमेशा से हिन्दू राष्ट्र रहा है.
हिन्दू राष्ट्र के पेरौकार भागवत एक तरफ तो भारत के सभी निवासियों को हिन्दू बताते नहीं थकते तो दूसरी ओर आरएसएस अब ‘विविधता’ जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगा है. दरअसल यह सब एक धोखा है. संघ की विचारधारा का असली चेहरा हमें उसके घर वापसी, गौरक्षा और लव जिहाद जैसे अभियानों में दिखता है. ये सभी अभियान समाज को धार्मिक आधार पर विभाजित करने वाले हैं. हिन्दुत्व के एजेंडे के तहत जिन मुद्दों को लगातार उछाला जा रहा है उनके पीड़ितों में दलित भी शामिल हैं.
मुसलमान इस देश के दूसरे दर्जे के नागरिक बना दिए गए हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि मुस्लिम-बहुल जम्मू-कश्मीर में लागू अनुच्छेद 370 को हटाने से पहले वहां के निवासियों की राय जानने तक का प्रयास नहीं किया गया. इस निर्णय को भाजपा अपनी एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत कर रही है. किसी भी देश का प्रजातंत्र कितना स्वस्थ है, इसका माप उस देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति से किया जा सकता है. वर्तमान परिस्थितियों में यह दावा करना कि भारत के मुसलमान दुनिया में सबसे सुखी हैं, एक क्रूर मजाक के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है.
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)