द कास्ट रश: जातिगत भेदभाव पर चल रहे बहस के बीच एक नई डॉक्यूमेंट्री ने उठाए सवाल

Written by sabrang india | Published on: April 26, 2025
अमेरिकी संगठन की डॉक्यूमेंट्री ‘द कास्ट रश’ जातिगत भेदभाव को लेकर कायम वैश्विक नैरेटिव को चुनौती देती है।



विपक्षी नेता राहुल गांधी जहां देश और विदेश में जातीय असमानता के मुद्दे को बार-बार उठाते रहे हैं, वहीं अमेरिका के एक संगठन — जिसकी स्थापना आरएसएस के पूर्व सदस्य ने की थी — ने एक नई डॉक्यूमेंट्री के जरिए भारत में जाति आधारित भेदभाव के दावों को "बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया” बता रहा है।

द मूकनायक की रिपोर्ट के अनुसार, 'द कास्ट रश' नामक यह डॉक्यूमेंट्री शुक्रवार को दिल्ली में रिलीज हो रही है। इसका निर्माण इंडिक डायलॉग नामक संगठन द्वारा किया गया है और इसे राष्ट्रीय राजधानी में सेंटर फॉर सोशल डेवलपमेंट (सीएसडी) द्वारा प्रमोट किया जा रहा है। सीएसडी दलित और आदिवासी शिक्षाविदों द्वारा संचालित संगठन है जिसका नेतृत्व भाजपा नेता राजकुमार फालवरिया कर रहे हैं।

भारत में जातिगत भेदभाव पर जारी बहस को यह डॉक्यूमेंट्री चुनौती देती है और मंदिरों के पुजारियों के अनुभवों के जरिए यह दर्शाने की कोशिश करती है कि जाति को लेकर फैलाया गया नैरेटिव कितना सही है। फिल्म निर्माताओं का दावा है कि विदेशों में इस विषय को गलत तरीके से पेश किया गया है।

पिछले कुछ वर्षों में आरएसएस ने ‘सामाजिक समरसता’ को लेकर एक व्यापक अभियान चलाया है, जिसमें दलितों को मंदिरों और सार्वजनिक संसाधनों तक पहुंच दिलाने की पहल की गई है। यह अभियान हिंदू एकता को सार्वजनिक विमर्श में स्थापित करने का प्रयास भी है।

इंडिक डायलॉग की स्थापना विजय सिम्हा ने की थी और इसे अमेरिका में बसे भारतीयों द्वारा फंडिंग मिलती है। ये संगठन हिंदुत्ववादी विचारधारा से जुड़े कार्यक्रमों और डॉक्यूमेंट्रीज़ का आयोजन करता है। सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के विरोध के दौरान इस संगठन ने पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू प्रवासियों की समस्याओं पर एक डॉक्यूमेंट्री जारी की थी। इसके कार्यक्रमों में आरएसएस नेता राम माधव और वकील जे. साई दीपक जैसे नाम शामिल रहे हैं।

सीएसडी की स्थापना 2014 में फालवरिया ने की थी। ये भाजपा के प्रवक्ता भी हैं और 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में मदनपुर सीट से उम्मीदवार रह चुके हैं। उनका दावा है कि संगठन के 90% सदस्य दिल्ली विश्वविद्यालय के दलित और आदिवासी प्रोफेसर हैं। उनका कहना है कि संस्था का उद्देश्य वंचित वर्गों को "राष्ट्रवादी तरीके से" मुख्यधारा में लाना है।

डॉक्यूमेंट्री के निर्देशक निखिल सिंह हैं। ये आईआईटी के पूर्व छात्र हैं और अमेरिका से फिल्म निर्माण की पढ़ाई कर चुके हैं। वह फिलहाल मुंबई में एक विज्ञापन निर्माण कंपनी का संचालन कर रहे हैं। सिंह का कहना है कि 2021 में न्यू जर्सी स्थित स्वामीनारायण मंदिर में मजदूरों के शोषण को लेकर उठे विवाद और अमेरिका में मीडिया द्वारा जाति भेदभाव को लेकर बनाई जा रही छवि ने उन्हें यह डॉक्यूमेंट्री बनाने को प्रेरित किया।

सिंह ने कहा कि, “अमेरिकी मीडिया जिस तरह भारत में जातिगत भेदभाव को दिखा रही थी, उसने मुझे झकझोर दिया। दावा किया गया कि दलित मंदिर बनाते हैं लेकिन उन्हें प्रवेश नहीं मिलता। लेकिन हमारे अनुभव इससे अलग थे। सभी पुजारी ब्राह्मण नहीं होते और कई मंदिर आज पहले से ज्यादा समावेशी हो चुके हैं।”

उन्होंने कहा कि इस डॉक्यूमेंट्री के लिए ओडिशा, हैदराबाद, कोयंबटूर और राजस्थान समेत देशभर के मंदिरों में जाकर पुजारियों से बातचीत की गई।

फालवरिया के हवाले से मूकनायक ने लिखा, “भारत में जाति व्यवस्था जैसी कोई चीज़ नहीं है। यह एक कृत्रिम नैरेटिव है जिसे समाज को तोड़ने के लिए गढ़ा गया है। भारत में पश्चिमी देशों की तरह नस्लवाद नहीं है। अब इस नैरेटिव को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने का प्रयास हो रहा है, जिसे हम बेनकाब करना चाहते हैं।”

अमेरिका में हाल के दिनों में जातिगत भेदभाव का मुद्दा विश्वविद्यालयों और कॉर्पोरेट जगत में उठा है। फरवरी 2023 में सिएटल पहला ऐसा अमेरिकी शहर बना जिसने जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने का कानून पास किया। अक्टूबर में कैलिफोर्निया राज्य ने भी ऐसा ही बिल पास किया, लेकिन गवर्नर ने बाद में इसे वीटो कर दिया। इससे पहले 2020 में, कैलिफोर्निया स्थित सिस्को कंपनी के दो इंजीनियरों पर एक दलित सहकर्मी के साथ भेदभाव का आरोप लगा था।

न्यू जर्सी का स्वामीनारायण मंदिर 2021 में उस समय विवादों में घिर गया था जब उस पर मजदूरों से जबरन काम करवाने, उन्हें कम पैसे देने और खराब कामकाजी परिस्थितियों में काम कराने के आरोप लगे। इसमें खासतौर पर दलित श्रमिकों को निशाना बनाए जाने की बात कही गई थी।

गत वर्ष सितंबर महीने में अमेरिका दौरे के दौरान राहुल गांधी ने जातिगत असमानता की चर्चा करते हुए कहा था, “भारत की 90% आबादी यानी ओबीसी, दलित और आदिवासी को खेल में शामिल ही नहीं किया गया…। भारत की शीर्ष 200 कंपनियों में इन वर्गों की कोई हिस्सेदारी नहीं है। न्यायपालिका में भी इनकी भागीदारी लगभग न के बराबर है। मीडिया में भी निचली जातियों की भागीदारी नहीं के बराबर है।”

ज्ञात हो कि द कास्ट रश डॉक्यूमेंट्री की रिलीज ऐसे समय में हो रही है जब देश और विदेश दोनों ही स्तरों पर जाति को लेकर बहस तेज है। यह फिल्म जाति को लेकर प्रचलित धारणाओं को चुनौती देने की कोशिश करती है, जबकि इसके विरोध में सामाजिक न्याय के पक्षधर इसे दबाने की कोशिश मानते हैं।

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