क्या भारत को केवल हिन्दू सम्हाले हुए हैं?

Written by Ram Puniyani | Published on: February 22, 2025
आरएसएस की हिंदू राष्ट्र की विचारधारा के समर्थक भारत में धर्मों की विविधता की संकल्पना को खारिज और कमजोर करने में लगे हुए हैं. आरएसएस समर्थक हमारी मिली-जुली संस्कृति के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले सुंदर शब्द 'गंगा जमुनी तहजीब' को नापसंद करते हैं और जोर देकर कहते हैं कि यह शब्द हिंदू संस्कृति को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है. उनका दावा है कि हिन्दू संस्कृति यहाँ हमेशा से छाई रही है.


फाइल फोटो; साभार : पीटीआई

दि इंडियन एक्सप्रेस (मुंबई संस्करण) के 17 फरवरी 2025 के अंक में "हिंदू समुदाय देश का ज़िम्मेदार तबका" शीर्षक से प्रकाशित एक समाचार में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत को उदृत करते हुए कहा गया है कि "संघ हिंदू समुदाय को एकजुट करना चाहता है क्योंकि हिंदू समुदाय पर ही इस देश की जिम्मेदारी है."  ये बात भागवत ने पश्चिम बंगाल के बर्धमान में आरएसएस के स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए कही. इसके अलावा, उन्होंने यह भी कहा कि "हिंदू ही देश के गुणधर्मों का मूर्त रूप हैं और देश की विविधतापूर्ण जनता को एकता के सूत्र में बांधकर रखते हैं". भागवत पश्चिम बंगाल के दस दिवसीय दौरे पर थे.

यह निरूपण न केवल भारतीय संविधान के मूल्यों के विपरीत है, वरन्  इतिहास हमें जो बताता है उसके भी एकदम खिलाफ है. संविधान के अनुसार 'हम भारत के लोग' धर्मों से परे हैं. हमारा धर्म कोई भी हो हम सब इस देश के नागरिक हैं. आरएसएस के नजरिए के विपरीत, संविधान मानता है कि सभी भारतीयों के अधिकार और जिम्मेदारियां एक बराबर हैं.

आरएसएस की हिंदू राष्ट्र की विचारधारा के समर्थक भारत में धर्मों की विविधता की संकल्पना को खारिज और कमजोर करने में लगे हुए हैं. आरएसएस समर्थक हमारी मिली-जुली संस्कृति के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले सुंदर शब्द 'गंगा जमुनी तहजीब' को नापसंद करते हैं और जोर देकर कहते हैं कि यह शब्द हिंदू संस्कृति को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है. उनका दावा है कि हिन्दू संस्कृति यहाँ हमेशा से छाई रही है.

पहली बात तो यह है कि हिंदू शब्द को गढ़ा ही उन लोगों ने था जिन्होंने सदियों पहले सिंधु नदी को पार किया था. चूंकि वे 'स' का उच्चारण बहुत कम करते थे इसलिए उसकी जगह 'ह' शब्द ने ली और 'हिन्दू' शब्द बन गया. यह शब्द पहले एक विशिष्ट इलाके में रहने वालों के लिए प्रयुक्त हुआ और बाद में इसे उन सभी धर्मों के अनुयायियों के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा जो पैगम्बर-आधारित नहीं थे. 13वीं सदी में मिन्हाज़-ए-सिराज नामक एक फारसी इतिहासकार ने पहली बार इस शब्द का इस्तेमाल वर्तमान पंजाब, हरियाणा और गंगा व यमुना नदियों के बीच के क्षेत्र के लिए किया. राजनीतिक दृष्टि से इसका अर्थ था वह इलाका जिस पर दिल्ली सल्तनत का शासन था. 14वीं शताब्दी में निजामुद्दीन औलिया के शागिर्द अमीर खुसरो ने दक्षिण एशिया के लिए इसका इस्तेमाल कर इसका प्रचलन बढ़ाया.

सम्राट अशोक, जिन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था, और जो बहुत बड़े साम्राज्य के शासक थे, ने उस समय जितने भी धर्म अस्तित्व में थे - वैदिक (ब्राम्हणवादी), जैन, अजीविक और बौद्ध - के प्रति समानता की नीति अपनाई. उस समय बौद्ध धर्म बहुत बड़े इलाके में फैला और तब तक देश का प्रमुख धर्म बना रहा जब तक पुष्यमित्र शुंग ने अपने साम्राज्य से उसका उन्मूलन करने के लिए बड़े पैमाने पर हिंसा प्रारंभ नहीं की. उसके बाद नाथ, तंत्र, शैव, सिद्धांत और आगे चल कर भक्ति जैसी कई श्रमण परम्पराएं  फैलीं. लेकिन वैदिक ब्राम्हणवाद सबसे प्रबल बना रहा.

सन् 52 में सेंट थामस द्वारा मलाबार तट पर एक चर्च की स्थापना के साथ देश में ईसाई धर्म का प्रवेश हुआ और धीरे-धीरे यह फैलता गया. इस धर्म को मुख्यतः दलितों और आदिवासियों ने अपनाया. सातवीं सदी में अरब व्यापरियों के साथ इस्लाम आया और बाद में जातिप्रथा से पीड़ित बहुत से लोगों ने इसे अपनाया. 11वीं शताब्दी से एक के बाद एक कई मुस्लिम वंशों के राज का सिलसिला शुरू हुआ जिनकी राजधानी दिल्ली थी. ये थे गुलाम, खिलजी, लोदी और अंततः मुगल. इसके पहले शक और हूण भी यहां आए. विभिन्न संस्कृतियों  का मेलजोल इस काल की विशेषता थी और सबने एक-दूसरे पर प्रभाव डाला.

मध्यकाल में मेलजोल की यह प्रक्रिया और तेज हुई. दोनों प्रमुख समुदायों, हिंदू और मुस्लिम, ने संस्कृति के कई पहलुओं को अपनाया. लेकिन ऐसा नहीं था कि कोई एक धार्मिक समुदाय केन्द्रीय या प्राथमिक था और दूसरा उसके मातहत था या गौण भूमिका में था. फारसी और अवधी के मिलन से उर्दू भाषा बनी. एक दिलचस्प बात यह है कि हिंदू धर्म की महान परंपरा कुंभ, जिसमें पवित्र नदियों, मुख्यतः गंगा में डुबकी लगाई जाती है, के एक प्रमुख अवसर को शाही स्नान कहा जाता है. अब हिंदू राष्ट्रवादी सरकार के दौर में इसका नाम बदलकर अमृत स्नान कर दिया गया है.

लोग एक दूसरे के पर्वों और उत्सवों में उत्साह से भाग लेते थे. होली और मोहर्रम समाज के बड़े तबके के लिए सांझे आयोजन बन गए. मुगल दरबार में दीपावली 'जश्न-ए-चिराग' और होली 'जश्न-ए-गुलाबी' के रूप में मनाई जाती थी. इसका शिखर था भक्ति और सूफी धार्मिक परंपराएं. भक्ति संतों, खासकर कबीर, के अनुयायियों में हिंदू और मुस्लिम दोनों थे. सूफी संतों की दरगाहों पर हिंदू और मुस्लिम दोनों जाते थे. वेलनकिनी चर्च में सभी धर्मों के अनुयायी जाते हैं. संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव कोफी अन्नान द्वारा गठित 'सभ्यताओं का गठजोड़' संबंधी उच्चस्तरीय समिति ने कहा  कि हमारी संस्कृतियां और सभ्यताएं एक-दूसरे से समृद्ध हुई हैं और विभिन्न धर्मों ने एक दूसरे को सकारत्मक रूप से प्रभावित किया है.

अंग्रेजों की गुलामी के खिलाफ हुए स्वतंत्रता संघर्ष, जिसमें भागवत और उनके जैसों की जरा सी भी भागीदारी नहीं थी, विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच मेलजोल का शिखर था. हम भगत सिंह और अशफाक उल्लाह की चर्चा एक सांस में करते हैं. यह आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में हुआ और बदरूद्दीन तैयबजी, आर एम सयानी और मौलाना अबुल कलाम आदि ने अत्यंत उत्साह और उमंग से कांग्रेस के अध्यक्ष का पद संभाला. इससे भी बड़ी बात यह है कि सभी धर्मों के लोगों ने इस संघर्ष में भागीदारी की. केवल मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और आरएसएस उस आंदोलन के प्रति उदासीन रहे जिसने हमें एक राष्ट्र बनाया. एक ओर भगत सिंह तो दूसरी ओर बाबासाहेब अंबेडकर ने  'राष्ट्र बनते भारत' को समावेशी बनाने में भूमिका अदा की. अब आरएसएस के विचारक 'राष्ट्र बनते भारत' की  अवधारणा को खारिज कर रहे हैं.

स्वाधीनता संघर्ष ने न सिर्फ विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच एकता के बंधनों को मजबूत किया वरन् मिली-जुली संस्कृति को सशक्त करने में भी योगदान दिया. मुस्लिम लीग और आरएसएस जैसे संगठनों की दृष्टि में राष्ट्रवाद, धार्मिक पहचान पर आधारित होता है. गांधीजी और अन्य नेताओं ने आधुनिक भारत के निर्माण में योगदान दिया. आजादी के आंदोलन के मूल्य हमारे संविधान का हिस्सा हैं, जिसमें धर्मों और भाषाओं की सीमाओं के परे विविधता और बहुलता का समावेश है. भागवत केवल हिंदू समुदाय की आंतरिक विविधता की बात करते हैं और मानते हैं कि केवल हिंदुओं पर ही इस देश की जिम्मेदारी है.

भागवत की 'केवल हिंदू' वाली यह विचारधारा देश की उन्नति में बड़ी बाधा है. वे वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा के समर्थक होने का दावा करते हैं. लेकिन उनके क्रियाकलाप -  जैसे शाखाओं में दिया जाने वाला प्रशिक्षण, उनके द्वारा उठाए जाने वाले मुद्दे जैसे राम मंदिर, घर वापिसी, लव जिहाद, गौ माता आदि - अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा उत्पन्न करते हैं और उसके चलते समाज के बड़े तबके में भय फैलता है और उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है.

भारत सहित पूरा विश्व एक विशाल बगीचा है जिसमे कई रंगों के फूल खिले हैं. केवल हिन्दुओं को देश के प्रति ज़िम्मेदार  बताना लोगों को बांटेगा. हम सभी भारतीयों के समान अधिकार हैं और देश के प्रति समान उत्तरदायित्व हैं भले ही हम किसी भी धर्म के अनुयायी हों.  

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)

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