रजनी तिलक जी का अचानक चले जाना अम्बेडकरवादी महिलावादी आन्दोलन के लिए गहन धक्का है क्योंकि उन्होंने जीवन प्रयत्न इन सवालों पर कोई समझौता नहीं किया और महिलाओं के अधिकारों के लिए वह संघर्षरत रही. आज ये कठिन दौर में साम्प्रदायिकता और जातिवाद के विरुद्ध सीधे खड़े होने के लिए बहुत वैचारिक निष्ठां चाहिए होती है. रजनी तिलक उन गिने चुने लोगो में थीं जो बिना किसी ईगो के ऐसे किसी भी प्लेटफार्म पर जाने के लिए तैयार रहती थीं जहा जनता के प्रश्नों पर लोग लड़ रहे थे.
इसलिए दिल्ली के जंतर मंतर पर हम उन्हें भगाना उत्पीडित लोगो के साथ खड़े देखते थे तो निर्भया आन्दोलन के वक्त भी उन्होंने औरों के साथ जुड़ने में कोताही नहीं की लेकिन समय समय पर लोगो को चेताते रहना के दलित महिलाओं के उत्पीडन के प्रश्नों पर तथाकथित प्रगतिशील और जनवादी लोगो को उतना ही बेचेन दिखना पड़ेगा जैसे वो निर्भया के लिए कर रहे थे लेकिन उनकी उन लोगो से कोई हमदर्दी नहीं थीं जो इन आंदोलनों में न शामिल होने के लिए अलग अलग तर्क गढ़ रहे थे. वह कहती थीं के बदलाव और न्याय के लिए संघर्ष करना जरुरी है और मात्र सोशल मीडिया में ही क्रांति करने से बदलाव नहीं आएगा जब तक हम अपने प्रश्नों के लिए जन संवाद नहीं करेंगे और संघर्षरत लोगो के साथ नहीं जुड़ेंगे.
रजनी तिलक जोड़ने वाली महिला थींं. वो ऐसी अम्बेडकरवादी संघर्षशील महिला थीं जो किसी भी संघर्ष में तत्पर थीं. वैचारिक रूप से सशक्त अम्बेडकरवादी होने के बावजूद संघर्षो में उन्होंने बहुत ही व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाया. इस समय भी उनका यही कहना था के हिंदुत्व की कट्टरपंथीं ताकतों को हराने के लिए हमें सभी प्रगतिशील शक्तियों के साथ आना पड़ेगा. यही कारण था वह हर जगह मौजूद रहती ताकि कोई ये न कहे के अम्बेडकरवादी अन्य आन्दोलनों और मुद्दों पर दूसरो के साथ खड़े नहीं होते. उन्होंने वामपंथीं साथियो के साथ भी अपने को जोड़े रखा लेकिन जाति के प्रश्नों को गौण करने के लिए उनकी आलोचना भी की.
समाज के लिए काम करने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ वह आसानी से जुड़ जाती थींं. रजनी जी को मै पिछले 20 से अधिक वर्षो से जानता था और हमने कई प्रश्नों पर साथ साथ कार्य किया. दरअसल दलित महिलाओं के प्रश्नों पर वह ग्रामीण क्षेत्रो की महिलाओं को वैचारिक दृष्टि से मजबूत करने के लिए साथ साथ कई बातों पर विचार कर रही थींं. इतने वर्षो में उनको समझने के बाद ही मेरा उनके प्रति सम्मान बहुत गहरा था क्योंकि उन्होने सुलझे हुए साथियो को आगे बढाया और केवल जुमले बाजी की राजनीति नहीं की. वह एक नयी पौध को तैयार कर रही थीं और शायद यही बात उन्होंने मुझमें देखी के उत्तर प्रदेश के अलग अलग इलाको में हमने कैसे अम्बेदार्वादी नौजवानों को राईट बेस्ड काम करने से जोड़ा.
रजनी जी के लेखन में उनके संघर्षो का प्रभाव है. उनका लेखन केवल किताबी पाठशाला का ज्ञान नहीं था जो उनके जीवन संघर्षो और आन्दोलनों में भाग लेने के बाद पैनी हुई समझ से बनता है. हालाँकि एक कवियित्री और लेखिका के तौर पर वह अच्छे से स्थापित हो चुकी थीं लेकिन उन्होंने कभी इस बात का पाखंड नहीं किया और हमेशा से संघरशील साथियो के साथ ही जुडी रही. क्योंकि वह सामाजिक आन्दोलनों से जुडी रही और नैक्डोर और कदम जैसी संगठनों के साथ लगकर काम कर रही थीं तो बहुत से लोगो को नाराज भी की लेकिन उनकी निष्ठां काम में थीं इसलिए उन्होंने इसकी परवाह नहीं की कोई क्या कहता है. हालाँकि ये भी हकीकत है के वह अपने को अन्दोलानात्मक संगठनो से जोड़े रखना चाहती थीं और पिछले दो वर्षो से उन्होंने राष्ट्रीय दलित महिला आन्दोलन को मजबूत करने का प्रयास किया और इस सिलसिले में वह देश के विभिन्न भागो में दलित महिलाओं के प्रश्नों पर नए युवा साथियो को जोड़ रही थीं और उन्हें अम्बेडकरवादी विचारधारा, सावित्रीबाई फुले और ज्योति बा फुले के संघर्षो से भी रूबरू करा रही थीं.
संघर्ष के पथ पर कार्यकरते कई युवा साथियो के व्यक्तिगत प्रश्नों को भी बहुत ध्यान और गंभीरता से उन्होंने देखा. मुझे ऐसे कई मौको पर उनके साथ जाने और सीखने का मौका मिला जब साथीं अपने रिश्तो के कारण परेशान होते है, जब समाज में अपने ही लोग आपके साथ नहीं होते. वो बहुत मुश्किल क्षण होते है. हकीकत ये है के हम सभी जो समाज बदलाव की लड़ाई लड़ते है तो व्यक्तिगत जिन्दगी में अक्सर स्वयम से भी संघर्ष कर रहे होते है. ऐसे वक़्त में बहुत की कम लोग होते है जो साथ खड़े होते है. मनुवाद या ब्राह्मणवाद को फेसबुक या किताबो में लेख लिखकर ख़त्म करदेना तो बहुत आसान होता है लेकिन ये हमारे अन्दर से निकलना तब तक नहीं हो सकता जब तक स्त्री पुरुष संबंधो पर हमारा नजरिया खुला हुआ न हो और यदि हम वैयक्तिक स्वतंत्रता का समर्थक न हो तो हमारा मनुवाद विरोधी भाषण मात्र जुमला रहेगा. बाबा साहेब आंबेडकर ने एक बार एक इंटरव्यू में कहा था कि हमारा समाज अभी समाज ही नहीं बना क्योंकि यहाँ वैयक्तिक रिश्तो का कोई सम्मान नहीं है. रजनी जी दूसरो की तो पूरी मदद की लेकिन स्वयं की जिंदगी में वह इन संघर्षो से झूझती रही. कई बार अपने विषय में सुनी सुनाई बातो का अपमान भी झेला लेकिन इसके बावजूद भी उनके चेहरे पे हमेशा मुस्कान होना और फिर भी समाज के लिए सोचना उनकी असीमित ताकत को दर्शाता है.
वह ग्रामीण महिलाओं के संघर्षो की कहानी लिखना चाहिती थीं. पिछले बीस वर्षो में मैंने जैसे जैसे अम्बेद्कर्वादियो के अनुभवों को विडियो रिकॉर्ड किया और लिपिबद्ध किया उससे वह बहुत प्रभावित थीं और बार बार मुझे लोगो के पास जाने के लिए कहती. आर पी आई के सबसे पुराने साथीं ब्रह्मदेव जी के साक्षात्कार के लिए वह मुझे शाहदरा में उनके निवास स्थान के ले के गयी. उनका कहना था के ये सभी आन्दोलनों के लोग है जिन्होंने अपनी जिंदगी बाबा साहेब के मिशन के लिए लगा दी इसलिए उनके जीवन के अंशो को जानना जरुरी है. उन्होंने स्वयं एक छोटी से पुस्तिका ब्रह्मदेव जी के ऊपर भी लिखी. फिर उन्होंने श्री महरोल जी से बातचीत की व्यवस्था की और वजीराबाद स्थित उनके निवास स्थान पर ही इसकी व्यवस्था की. दोनों की स्थानों पर मेरे पास कोई कैमरा हैंडल करने वाला नहीं था और उन्होंने ही इसे हैंडल किया ताकि मै आराम से इंटरव्यू कर सकूं.
नागपुर में कुमुद पावडे जी से उन्होंने मेरा संपर्क करवाया और नतीजा यह हुआ के अम्बेडकरी आन्दोलन की एक महत्वपूर्ण महिला से हमने साक्षात्कार किया. हमारे लिए संतुष्टि के बात ये होती है के उनके जीवन के बेहद महत्वपूर्ण सवाल लोगो के सामने आते हैं. महिलाओं के अपने संघर्षो की कहानियां और फिर बाबा साहेब का उनके जीवन में प्रभाव भी समाज में चेतना जगाने के लिए जरुरी है इसलिए के ये पहले की पीढ़ी है जिसके पास अपने को व्यक्त करने के लिए सोशल मीडिया नहीं था, न ही खुद को प्रमोट करने वाली बाते. उन्होंने संघर्ष किया और समाज के साथ जुडी रही इसलिए हमारे लिए ये आवश्यक है ऐसे लोगो की कहानियो को कलमबद्ध किया जाए या उनको विडियो रिकॉर्ड किया जाए.
रजनी जी इस सन्दर्भ में मुझसे बिलकुल सहमत थीं और इसलिए उन्होंने इतने प्रयास किये. मेरे जीवन में ये दर्द हमेशा रहेगा के सबके इंटरव्यू करते वक़्त उनकी बाते रिकॉर्ड नहीं कर पाया. इसका कारण यही था के वह हमेशा टालती रही के पहले बुजुर्ग लोगो के इंटरव्यू कर लो, हमारा तो हो जाएगा. जिंदगी कितनी अनिश्चित है ये साफ जाहिर हो जाता है. दिसंबर के महीने में मैंने एक प्रश्नावली भेजी थीं जो उनकी नयी पुस्तक सावित्री बाई फुले रचना समग्र के बारे मे और अम्बेदारकरवाड़ी आन्दोलन के समक्ष चुनातियो के लेकर था लेकिन उसके उत्तर नहीं आ पाए हालाँकि लगभग दो हफ्ते पूर्व जब मैंने उनसे बात की थीं तो उनका कहना था के उन्होंने उस पर काम कर लिया है और और वह उसे भेज देंगी क्योंकि वह टाइप करने की स्थिति में नहीं थीं. मार्च आखिर में उन्होंने अम्बेद्कर्वादियो के साथ मेरे साक्षात्कारो पर आधारित पुस्तक पर परिचर्चा करने की बात कही. अकसर वह मुझसे कहती के हिंदी में लिखो ज्यादा लोगो तक पहुंचोगे.. मैंने कहा मै समय समय पर हिंदी में लिख भी रहा हूँ और अब ज्यादा लिखूंगा.
रजनी जी के साहित्य को मैंने पढ़ा. उनकी कविताओं के पहली पुस्तक पदचाप की कई प्रतियों के मैंने नौजवान साथियो में वितरित भी किया और उनकी कई कविताओं के हमने अपने आन्दोलन में महिलाओं को प्रेरित करने के लिए बैनर पर भी छपवाया. आज भी उन बैनरों को हम अपने विभिन्न कार्यक्रमों में इस्तेमाल करते है. उनकी आत्मकथा ‘अपनी जमी अपना आसमा’ की पहली प्रति उन्होंने मुझे दी. पिछले वर्ष तीन जनवरी को हम दोनों सावित्री बाई फुले के जन्मदिवस से सम्बंधित कार्यक्रम में भाग लेने हरियाणा राज्य के मेवात क्षेत्र में स्थित स्थान नुहू गए थे और वहा से लौटने पर जब हम स्वराज प्रकाशन में गए तो पता चला के पुस्तक आ चुकी है. उनके चहरे की मुस्कराहट दिखा रही थीं के उन्हें इसका इतना इंतज़ार था लेकिन उन्होंने कहा के ये तो भाग १ है और अभी अन्य भागो की तैय्यारी कर रही थीं. इस भाग में उनके जीवन सघर्ष की वह कहानी थीं जिसमे परिवार में साधारणतः होता है के महिलाओं को पारंपरिक कार्यो में ही उत्तम समझा जाता है. उनकी जीवटता को सलाम करना पड़ेगा के कैसे उन्होंने इतने संघर्ष किये और अपनी शर्तो पर जिन्दगी जी जो बेहद मुश्किल काम है क्योंकि अधिकांशतः छोटी सुविधाओं की खातिर, संघर्षो से डरकर हम समझौता कर लेते हैं.
उनकी पुस्तक ‘बेस्ट ऑफ़ करवाचौथ’ में उन्होंने हमारे समाज में व्याप्त दोगलेपन का पर्दाफाश किया है. मुझे उन छोटी छोटी कहानियों को पढने में इतना मज़ा आया कि पुस्तक शीघ्र ख़त्म कर मैंने तुरंत उसका रिव्यु भी लिख दिया जिसका शीर्षक मैंने ‘कामरेड का करवाचौथ’ दिया क्योंकि कहानियां दिखा रही थीं कि कैसे बड़े बड़े कामरेड भी समय पड़ने पर अपनी पत्नियों से करवाचौथ की अपेक्षा रखते हैं. ब्राह्मणवाद की यही बड़ी ताकत है कि उसके सामने बड़े बड़े विचारशील और क्रन्तिकारी लोग भी घुटने टेक देते हैं. शायद ब्राह्मणवाद में जो पित्र-सत्ता है उसको कोई सुविधाभोगी नहीं छोड़ना चाहता चाहे वह राजनैतिक तौर पर कोई भी विचारधारा की बात कहता हो.
रजनी जी के जाने की ये उम्र नहीं थीं क्योंकि बहुत से कार्यो के लिए वह स्वयं को तैयार कर रही थीं. जिस फुर्ती से उन्होंने पिछले एक वर्षो में सामाजिक कार्यो के अलावा साहित्य सृजन किया वह बेहद महत्वपूर्ण है और मेरा सर इस बात के लिए उनके समक्ष झुकेगा. आज उनकी और शेकर पवार जी की मेहनत के कारण सावित्री बाई फुले रचना समग्र निकालने में कामयाब हुई जो इस दौर के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक है. मै तो सामाजिक संघर्षो के सभी अम्बेडकरवादी, बहुजन साथियो से अनुरोध करूँगा के वे इस पुस्तक को जरुर पढ़े और इमानदारी से अगर वे चले तो सामाजिक बदलाव अवश्यम्भावी है. बदलाव तो होना ही है लेकिन वो कैसा हो इसे समझने के लिए माँ सवित्ग्री बाई फुले के संघर्षो को और उनकी कविताओं, भाषणों और ज्योति बा को लिखी उनकी चिट्ठियों को पढ़ लेंगे तो पता चल जाएगा के हमारी सामाजिक सरकार कैसे होने चाहिए. ज्योति बा और सावित्री बाई इस सन्दर्भ में एक क्रांतिकारी युगल है जिनसे इस समाज के सोचने की दिशा बदल सकती है.
एक सन्दर्भ में रजनी जी भी सावित्री बाई के सच्ची उत्तराधिकारी थीं क्योंकि उनकी साहित्य सृजन में कोई दंभ नहीं था. भाषा बिलकुल आप बोलचाल वाली और संघर्षो से निकले अनुभव की थीं. वह सावित्री बाई के साहित्य को मराठी से निकालकर हिंदी की विशाल जनता के समक्ष लाने वाली महिला थीं और कम से कम उन गिने चुने लोगो में थीं जिन्होंने ३ जनवरी को सावित्री बाई फुले के जन्मदिन को शिक्षक दिवस में मनाने वाली परंपरा का निर्वहन लगातार किया. ये कैसा अजीब संयोग के उनकी मेरी अंतिम मुलाकात आन्ध्र भवन में सावित्रीबाई फुले रचना समग्र के विमोचन के समय पर 27 जनवरी को हुई. हालाँकि फ़ोन पर उनसे लगातार बात होती रही.
मुझे दुःख है कि पूरे मार्च में दिल्ली से बहुत दूर था और 29 मार्च को शाम जब में सिलीगुड़ी दार्जीलिंग क्षेत्र में था तब अनीता भारती जी की फेसबुक पोस्ट से पता चला कि उनकी तबियत बिगड़ गयी है. मुझे रात भर नींद नहीं आई क्योंकि एक भय सा मन में आ गया. लगभग तीन बजे रात मेरी नींद खुले तो अपने मोबाइल पर फेसबुक अपडेट जानने लगा तो शबनम हाश्मी जी की पोस्ट से इस दुखद खबर की जानकारी मिली. यकीं नहीं हुआ, बहुत कोशिश की भरोसा न करने की. ये ऐसी घटना थीं जिसने एक प्रकार से तोड़ के रख दिया क्योंकि रजनी जी के साथ जिसने भी काम किया उसे उन पर भरोषा था, वो हमारी एक मज़बूत स्तम्भ थीं जो हर जगह हर उस व्यक्ति का साथ देने के लिए तैयार खड़ी थीं जो समाज के लिए लड़ रहा था या जिसके अधिकारों का हनन हुआ हो.
दिल्ली की विषाक्त हवा में बहुत की कम ऐसे साथीं है जिनसे मिलकर आपको ताकत मिलती हो और मेरा ये मानना है के रजनी जी वो शक्शियत थीं जिसने आपको गलती पर डांटने में कोई परहेज नहीं किया लेकिन आपकी जरूरतों के समय पर वह मजबूती के साथ खड़ी रहीं.
रजनी तिलक के असमय जाने से सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे अम्बेडकरवादी साथियो का तो बहुत बड़ा नुक्सान हुआ है. मेरे लिए यह एक व्यक्तिगत क्षति है क्योंकि मैं तो उनसे लगातार बात करता रहता था और बहुत सी बातो में उनकी आवश्यकता महसूस होती थीं तो वह हमेशा मदद के लिए तैयार रहतीं. उनके निधन पर जिस प्रकार से देश भर से अम्बेडकरवादी, मानवाधिकारवाड़ी, महिलावादियों और वामपंथीं साथींयो के शोक सन्देश आये है उससे जाहिर होता है के उनका दायरा कितना विस्तृत था और किस प्रकार इन संपर्को को उन्होंने सींचा. मुझे उम्मीद है के रजनी तिलक जी के संघर्ष और उनके विचारों को सभी साथीं लोग आगे बढ़ाएंगे. ख़ुशी की बात यह है के वह अपने जीवन से हम सबको प्रेरणा देकर गयी है, वह लड़ी तो एक योद्धा बनकर. उनका साहित्य और उनके समर्पित सामाजिक कार्य हमेशा हमें मजबूती प्रदान करते रहेंगे.
इसलिए दिल्ली के जंतर मंतर पर हम उन्हें भगाना उत्पीडित लोगो के साथ खड़े देखते थे तो निर्भया आन्दोलन के वक्त भी उन्होंने औरों के साथ जुड़ने में कोताही नहीं की लेकिन समय समय पर लोगो को चेताते रहना के दलित महिलाओं के उत्पीडन के प्रश्नों पर तथाकथित प्रगतिशील और जनवादी लोगो को उतना ही बेचेन दिखना पड़ेगा जैसे वो निर्भया के लिए कर रहे थे लेकिन उनकी उन लोगो से कोई हमदर्दी नहीं थीं जो इन आंदोलनों में न शामिल होने के लिए अलग अलग तर्क गढ़ रहे थे. वह कहती थीं के बदलाव और न्याय के लिए संघर्ष करना जरुरी है और मात्र सोशल मीडिया में ही क्रांति करने से बदलाव नहीं आएगा जब तक हम अपने प्रश्नों के लिए जन संवाद नहीं करेंगे और संघर्षरत लोगो के साथ नहीं जुड़ेंगे.
रजनी तिलक जोड़ने वाली महिला थींं. वो ऐसी अम्बेडकरवादी संघर्षशील महिला थीं जो किसी भी संघर्ष में तत्पर थीं. वैचारिक रूप से सशक्त अम्बेडकरवादी होने के बावजूद संघर्षो में उन्होंने बहुत ही व्यवहारिक दृष्टिकोण अपनाया. इस समय भी उनका यही कहना था के हिंदुत्व की कट्टरपंथीं ताकतों को हराने के लिए हमें सभी प्रगतिशील शक्तियों के साथ आना पड़ेगा. यही कारण था वह हर जगह मौजूद रहती ताकि कोई ये न कहे के अम्बेडकरवादी अन्य आन्दोलनों और मुद्दों पर दूसरो के साथ खड़े नहीं होते. उन्होंने वामपंथीं साथियो के साथ भी अपने को जोड़े रखा लेकिन जाति के प्रश्नों को गौण करने के लिए उनकी आलोचना भी की.
समाज के लिए काम करने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ वह आसानी से जुड़ जाती थींं. रजनी जी को मै पिछले 20 से अधिक वर्षो से जानता था और हमने कई प्रश्नों पर साथ साथ कार्य किया. दरअसल दलित महिलाओं के प्रश्नों पर वह ग्रामीण क्षेत्रो की महिलाओं को वैचारिक दृष्टि से मजबूत करने के लिए साथ साथ कई बातों पर विचार कर रही थींं. इतने वर्षो में उनको समझने के बाद ही मेरा उनके प्रति सम्मान बहुत गहरा था क्योंकि उन्होने सुलझे हुए साथियो को आगे बढाया और केवल जुमले बाजी की राजनीति नहीं की. वह एक नयी पौध को तैयार कर रही थीं और शायद यही बात उन्होंने मुझमें देखी के उत्तर प्रदेश के अलग अलग इलाको में हमने कैसे अम्बेदार्वादी नौजवानों को राईट बेस्ड काम करने से जोड़ा.
रजनी जी के लेखन में उनके संघर्षो का प्रभाव है. उनका लेखन केवल किताबी पाठशाला का ज्ञान नहीं था जो उनके जीवन संघर्षो और आन्दोलनों में भाग लेने के बाद पैनी हुई समझ से बनता है. हालाँकि एक कवियित्री और लेखिका के तौर पर वह अच्छे से स्थापित हो चुकी थीं लेकिन उन्होंने कभी इस बात का पाखंड नहीं किया और हमेशा से संघरशील साथियो के साथ ही जुडी रही. क्योंकि वह सामाजिक आन्दोलनों से जुडी रही और नैक्डोर और कदम जैसी संगठनों के साथ लगकर काम कर रही थीं तो बहुत से लोगो को नाराज भी की लेकिन उनकी निष्ठां काम में थीं इसलिए उन्होंने इसकी परवाह नहीं की कोई क्या कहता है. हालाँकि ये भी हकीकत है के वह अपने को अन्दोलानात्मक संगठनो से जोड़े रखना चाहती थीं और पिछले दो वर्षो से उन्होंने राष्ट्रीय दलित महिला आन्दोलन को मजबूत करने का प्रयास किया और इस सिलसिले में वह देश के विभिन्न भागो में दलित महिलाओं के प्रश्नों पर नए युवा साथियो को जोड़ रही थीं और उन्हें अम्बेडकरवादी विचारधारा, सावित्रीबाई फुले और ज्योति बा फुले के संघर्षो से भी रूबरू करा रही थीं.
संघर्ष के पथ पर कार्यकरते कई युवा साथियो के व्यक्तिगत प्रश्नों को भी बहुत ध्यान और गंभीरता से उन्होंने देखा. मुझे ऐसे कई मौको पर उनके साथ जाने और सीखने का मौका मिला जब साथीं अपने रिश्तो के कारण परेशान होते है, जब समाज में अपने ही लोग आपके साथ नहीं होते. वो बहुत मुश्किल क्षण होते है. हकीकत ये है के हम सभी जो समाज बदलाव की लड़ाई लड़ते है तो व्यक्तिगत जिन्दगी में अक्सर स्वयम से भी संघर्ष कर रहे होते है. ऐसे वक़्त में बहुत की कम लोग होते है जो साथ खड़े होते है. मनुवाद या ब्राह्मणवाद को फेसबुक या किताबो में लेख लिखकर ख़त्म करदेना तो बहुत आसान होता है लेकिन ये हमारे अन्दर से निकलना तब तक नहीं हो सकता जब तक स्त्री पुरुष संबंधो पर हमारा नजरिया खुला हुआ न हो और यदि हम वैयक्तिक स्वतंत्रता का समर्थक न हो तो हमारा मनुवाद विरोधी भाषण मात्र जुमला रहेगा. बाबा साहेब आंबेडकर ने एक बार एक इंटरव्यू में कहा था कि हमारा समाज अभी समाज ही नहीं बना क्योंकि यहाँ वैयक्तिक रिश्तो का कोई सम्मान नहीं है. रजनी जी दूसरो की तो पूरी मदद की लेकिन स्वयं की जिंदगी में वह इन संघर्षो से झूझती रही. कई बार अपने विषय में सुनी सुनाई बातो का अपमान भी झेला लेकिन इसके बावजूद भी उनके चेहरे पे हमेशा मुस्कान होना और फिर भी समाज के लिए सोचना उनकी असीमित ताकत को दर्शाता है.
वह ग्रामीण महिलाओं के संघर्षो की कहानी लिखना चाहिती थीं. पिछले बीस वर्षो में मैंने जैसे जैसे अम्बेद्कर्वादियो के अनुभवों को विडियो रिकॉर्ड किया और लिपिबद्ध किया उससे वह बहुत प्रभावित थीं और बार बार मुझे लोगो के पास जाने के लिए कहती. आर पी आई के सबसे पुराने साथीं ब्रह्मदेव जी के साक्षात्कार के लिए वह मुझे शाहदरा में उनके निवास स्थान के ले के गयी. उनका कहना था के ये सभी आन्दोलनों के लोग है जिन्होंने अपनी जिंदगी बाबा साहेब के मिशन के लिए लगा दी इसलिए उनके जीवन के अंशो को जानना जरुरी है. उन्होंने स्वयं एक छोटी से पुस्तिका ब्रह्मदेव जी के ऊपर भी लिखी. फिर उन्होंने श्री महरोल जी से बातचीत की व्यवस्था की और वजीराबाद स्थित उनके निवास स्थान पर ही इसकी व्यवस्था की. दोनों की स्थानों पर मेरे पास कोई कैमरा हैंडल करने वाला नहीं था और उन्होंने ही इसे हैंडल किया ताकि मै आराम से इंटरव्यू कर सकूं.
नागपुर में कुमुद पावडे जी से उन्होंने मेरा संपर्क करवाया और नतीजा यह हुआ के अम्बेडकरी आन्दोलन की एक महत्वपूर्ण महिला से हमने साक्षात्कार किया. हमारे लिए संतुष्टि के बात ये होती है के उनके जीवन के बेहद महत्वपूर्ण सवाल लोगो के सामने आते हैं. महिलाओं के अपने संघर्षो की कहानियां और फिर बाबा साहेब का उनके जीवन में प्रभाव भी समाज में चेतना जगाने के लिए जरुरी है इसलिए के ये पहले की पीढ़ी है जिसके पास अपने को व्यक्त करने के लिए सोशल मीडिया नहीं था, न ही खुद को प्रमोट करने वाली बाते. उन्होंने संघर्ष किया और समाज के साथ जुडी रही इसलिए हमारे लिए ये आवश्यक है ऐसे लोगो की कहानियो को कलमबद्ध किया जाए या उनको विडियो रिकॉर्ड किया जाए.
रजनी जी इस सन्दर्भ में मुझसे बिलकुल सहमत थीं और इसलिए उन्होंने इतने प्रयास किये. मेरे जीवन में ये दर्द हमेशा रहेगा के सबके इंटरव्यू करते वक़्त उनकी बाते रिकॉर्ड नहीं कर पाया. इसका कारण यही था के वह हमेशा टालती रही के पहले बुजुर्ग लोगो के इंटरव्यू कर लो, हमारा तो हो जाएगा. जिंदगी कितनी अनिश्चित है ये साफ जाहिर हो जाता है. दिसंबर के महीने में मैंने एक प्रश्नावली भेजी थीं जो उनकी नयी पुस्तक सावित्री बाई फुले रचना समग्र के बारे मे और अम्बेदारकरवाड़ी आन्दोलन के समक्ष चुनातियो के लेकर था लेकिन उसके उत्तर नहीं आ पाए हालाँकि लगभग दो हफ्ते पूर्व जब मैंने उनसे बात की थीं तो उनका कहना था के उन्होंने उस पर काम कर लिया है और और वह उसे भेज देंगी क्योंकि वह टाइप करने की स्थिति में नहीं थीं. मार्च आखिर में उन्होंने अम्बेद्कर्वादियो के साथ मेरे साक्षात्कारो पर आधारित पुस्तक पर परिचर्चा करने की बात कही. अकसर वह मुझसे कहती के हिंदी में लिखो ज्यादा लोगो तक पहुंचोगे.. मैंने कहा मै समय समय पर हिंदी में लिख भी रहा हूँ और अब ज्यादा लिखूंगा.
रजनी जी के साहित्य को मैंने पढ़ा. उनकी कविताओं के पहली पुस्तक पदचाप की कई प्रतियों के मैंने नौजवान साथियो में वितरित भी किया और उनकी कई कविताओं के हमने अपने आन्दोलन में महिलाओं को प्रेरित करने के लिए बैनर पर भी छपवाया. आज भी उन बैनरों को हम अपने विभिन्न कार्यक्रमों में इस्तेमाल करते है. उनकी आत्मकथा ‘अपनी जमी अपना आसमा’ की पहली प्रति उन्होंने मुझे दी. पिछले वर्ष तीन जनवरी को हम दोनों सावित्री बाई फुले के जन्मदिवस से सम्बंधित कार्यक्रम में भाग लेने हरियाणा राज्य के मेवात क्षेत्र में स्थित स्थान नुहू गए थे और वहा से लौटने पर जब हम स्वराज प्रकाशन में गए तो पता चला के पुस्तक आ चुकी है. उनके चहरे की मुस्कराहट दिखा रही थीं के उन्हें इसका इतना इंतज़ार था लेकिन उन्होंने कहा के ये तो भाग १ है और अभी अन्य भागो की तैय्यारी कर रही थीं. इस भाग में उनके जीवन सघर्ष की वह कहानी थीं जिसमे परिवार में साधारणतः होता है के महिलाओं को पारंपरिक कार्यो में ही उत्तम समझा जाता है. उनकी जीवटता को सलाम करना पड़ेगा के कैसे उन्होंने इतने संघर्ष किये और अपनी शर्तो पर जिन्दगी जी जो बेहद मुश्किल काम है क्योंकि अधिकांशतः छोटी सुविधाओं की खातिर, संघर्षो से डरकर हम समझौता कर लेते हैं.
उनकी पुस्तक ‘बेस्ट ऑफ़ करवाचौथ’ में उन्होंने हमारे समाज में व्याप्त दोगलेपन का पर्दाफाश किया है. मुझे उन छोटी छोटी कहानियों को पढने में इतना मज़ा आया कि पुस्तक शीघ्र ख़त्म कर मैंने तुरंत उसका रिव्यु भी लिख दिया जिसका शीर्षक मैंने ‘कामरेड का करवाचौथ’ दिया क्योंकि कहानियां दिखा रही थीं कि कैसे बड़े बड़े कामरेड भी समय पड़ने पर अपनी पत्नियों से करवाचौथ की अपेक्षा रखते हैं. ब्राह्मणवाद की यही बड़ी ताकत है कि उसके सामने बड़े बड़े विचारशील और क्रन्तिकारी लोग भी घुटने टेक देते हैं. शायद ब्राह्मणवाद में जो पित्र-सत्ता है उसको कोई सुविधाभोगी नहीं छोड़ना चाहता चाहे वह राजनैतिक तौर पर कोई भी विचारधारा की बात कहता हो.
रजनी जी के जाने की ये उम्र नहीं थीं क्योंकि बहुत से कार्यो के लिए वह स्वयं को तैयार कर रही थीं. जिस फुर्ती से उन्होंने पिछले एक वर्षो में सामाजिक कार्यो के अलावा साहित्य सृजन किया वह बेहद महत्वपूर्ण है और मेरा सर इस बात के लिए उनके समक्ष झुकेगा. आज उनकी और शेकर पवार जी की मेहनत के कारण सावित्री बाई फुले रचना समग्र निकालने में कामयाब हुई जो इस दौर के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण पुस्तक है. मै तो सामाजिक संघर्षो के सभी अम्बेडकरवादी, बहुजन साथियो से अनुरोध करूँगा के वे इस पुस्तक को जरुर पढ़े और इमानदारी से अगर वे चले तो सामाजिक बदलाव अवश्यम्भावी है. बदलाव तो होना ही है लेकिन वो कैसा हो इसे समझने के लिए माँ सवित्ग्री बाई फुले के संघर्षो को और उनकी कविताओं, भाषणों और ज्योति बा को लिखी उनकी चिट्ठियों को पढ़ लेंगे तो पता चल जाएगा के हमारी सामाजिक सरकार कैसे होने चाहिए. ज्योति बा और सावित्री बाई इस सन्दर्भ में एक क्रांतिकारी युगल है जिनसे इस समाज के सोचने की दिशा बदल सकती है.
एक सन्दर्भ में रजनी जी भी सावित्री बाई के सच्ची उत्तराधिकारी थीं क्योंकि उनकी साहित्य सृजन में कोई दंभ नहीं था. भाषा बिलकुल आप बोलचाल वाली और संघर्षो से निकले अनुभव की थीं. वह सावित्री बाई के साहित्य को मराठी से निकालकर हिंदी की विशाल जनता के समक्ष लाने वाली महिला थीं और कम से कम उन गिने चुने लोगो में थीं जिन्होंने ३ जनवरी को सावित्री बाई फुले के जन्मदिन को शिक्षक दिवस में मनाने वाली परंपरा का निर्वहन लगातार किया. ये कैसा अजीब संयोग के उनकी मेरी अंतिम मुलाकात आन्ध्र भवन में सावित्रीबाई फुले रचना समग्र के विमोचन के समय पर 27 जनवरी को हुई. हालाँकि फ़ोन पर उनसे लगातार बात होती रही.
मुझे दुःख है कि पूरे मार्च में दिल्ली से बहुत दूर था और 29 मार्च को शाम जब में सिलीगुड़ी दार्जीलिंग क्षेत्र में था तब अनीता भारती जी की फेसबुक पोस्ट से पता चला कि उनकी तबियत बिगड़ गयी है. मुझे रात भर नींद नहीं आई क्योंकि एक भय सा मन में आ गया. लगभग तीन बजे रात मेरी नींद खुले तो अपने मोबाइल पर फेसबुक अपडेट जानने लगा तो शबनम हाश्मी जी की पोस्ट से इस दुखद खबर की जानकारी मिली. यकीं नहीं हुआ, बहुत कोशिश की भरोसा न करने की. ये ऐसी घटना थीं जिसने एक प्रकार से तोड़ के रख दिया क्योंकि रजनी जी के साथ जिसने भी काम किया उसे उन पर भरोषा था, वो हमारी एक मज़बूत स्तम्भ थीं जो हर जगह हर उस व्यक्ति का साथ देने के लिए तैयार खड़ी थीं जो समाज के लिए लड़ रहा था या जिसके अधिकारों का हनन हुआ हो.
दिल्ली की विषाक्त हवा में बहुत की कम ऐसे साथीं है जिनसे मिलकर आपको ताकत मिलती हो और मेरा ये मानना है के रजनी जी वो शक्शियत थीं जिसने आपको गलती पर डांटने में कोई परहेज नहीं किया लेकिन आपकी जरूरतों के समय पर वह मजबूती के साथ खड़ी रहीं.
रजनी तिलक के असमय जाने से सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे अम्बेडकरवादी साथियो का तो बहुत बड़ा नुक्सान हुआ है. मेरे लिए यह एक व्यक्तिगत क्षति है क्योंकि मैं तो उनसे लगातार बात करता रहता था और बहुत सी बातो में उनकी आवश्यकता महसूस होती थीं तो वह हमेशा मदद के लिए तैयार रहतीं. उनके निधन पर जिस प्रकार से देश भर से अम्बेडकरवादी, मानवाधिकारवाड़ी, महिलावादियों और वामपंथीं साथींयो के शोक सन्देश आये है उससे जाहिर होता है के उनका दायरा कितना विस्तृत था और किस प्रकार इन संपर्को को उन्होंने सींचा. मुझे उम्मीद है के रजनी तिलक जी के संघर्ष और उनके विचारों को सभी साथीं लोग आगे बढ़ाएंगे. ख़ुशी की बात यह है के वह अपने जीवन से हम सबको प्रेरणा देकर गयी है, वह लड़ी तो एक योद्धा बनकर. उनका साहित्य और उनके समर्पित सामाजिक कार्य हमेशा हमें मजबूती प्रदान करते रहेंगे.