'संविधान के साथ मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन है निजीकरण'

Written by Navnish Kumar | Published on: April 2, 2021
निजीकरण के बहाने देश के सरकारी सेक्टर को बेचना संविधान के आर्टिकल 14, 15, 16, 19, 21, 38, 39, 300 और 335 के विरुद्ध है। यह कहना है संविधान बचाओ समिति के संयोजक व एडवोकेट राजकुमार का। राजकुमार इस बाबत आम लोगों को जागरूक कर रहे हैं। उनका कहना है कि निजीकरण, संविधान के साथ मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन है। यही नहीं, यह फैसला आर्थिक विषमता को और बढ़ाएगा। खास है कि संविधान बचाओ समिति आरक्षण आदि कई मुद्दों पर लड़ाई लड़ रही है और कई मामलों में हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट तक ने उनकी बातों का संज्ञान लिया है। 



राजकुमार कहते हैं कि संविधान में आर्टिकल 14, 15, 16, 19 और 21 को संविधान की आत्मा कहा गया है परंतु निजीकरण करके संविधान की आत्मा को छलनी किया जा रहा है। संविधान के आर्टिकल 39 बी और सी में यह प्रावधान किया गया है कि सरकार ऐसी कोई नीति नहीं बनाएगी जिससे देश की अधिकांश संपत्ति कुछ चुनिंदा लोगों के हाथों में इकट्ठी हो जाए। आजादी के समय देश की ज्यादातर जनता गरीब थी और अधिकांश संपत्ति कुछ गिने-चुने लोगों के हाथ में थी। संविधान सभा ने बहुमत से यह तय किया था कि सरकार, सरकारी सेक्टर को अपनाकर देश में फैली असमानता को दूर करेगी। 

इसी से 1947 से सरकारी सेक्टर में इनवेस्टमेंट शुरू किया गया। इससे देश की आम गरीब जनता मुख्यधारा में भले शामिल नहीं हो पाई हो लेकिन मध्य धारा में जरूर शामिल हो गई थी। प्लानिंग कमीशन की रिपोर्ट इस बात की ओर इशारा करती है कि देश में 1947 से 1992 के बीच गरीबी घटी है। परंतु 1992 से निजीकरण के चलते, देश की संपत्ति चुनिंदा उद्योगपतियों के हाथ में इकट्ठा होती जा रही है और जनता को गरीबी की ओर धकेला जा रहा है। संविधान का आर्टिकल 14, 15, 16 समानता की गारंटी देता है परंतु निजीकरण असमानता की गारंटी देता है। 

वह कहते हैं कि आज देश के गिने चुने 100 से भी कम लोगों के पास देश की अधिकांश संपत्ति इकट्ठी हो चुकी है और यदि निजीकरण पर तत्काल रोक नहीं लगी तो निजीकरण के कारण सरकारी संस्थान के साथ-साथ बैंकों में जमा अपने धन तक से हाथ धोने से इंकार नहीं किया जा सकता। हालांकि सरकार ने बैंक में जमा कुल धन का बीमा एक लाख से बढाकर 5 लाख रूपये कर दिया है। जबकि बैंक जब किसी व्यक्ति को लोन देता है तो रिकवरी की गारंटी 100% से अधिक रखता है। जनता के जमा धन की गारंटी भी 100% सरकार/बैंक को लेनी चाहिए। वहीं अब जब, बैकों का निजीकरण हो जायेगा तो बैंककर्मियों का भला होगा और ना ही जनता का। 

वर्तमान में जनता के बैंक में जमा धन में से लोन लेकर उद्योगपति दूरसंचार, रेल, बिजली, बैंक, बीमा, हवाई अड्डे सहित विभिन्न सरकारी संस्थानों को खरीद रहे हैं और उसपर मोटा मुनाफा कमाया जा रहा है। मुनाफे का बंटवारा भी अन्यायपूर्ण तरीके से हो रहा है। कर्मचारियों का शोषण कराने में भी सरकार की भूमिका संदिग्ध प्रतीत होती है। 

आर्टिकल 15 व 16 लोक नियोजन में एससी, एसटी, ओबीसी के लोगों के प्रतिनिधित्व की गारंटी देते हैं परंतु निजीकरण के फैसले के बाद जो संस्थान तथाकथित उद्योगपतियों को बेचे जा रहे हैं उसमें आर्टिकल 14, 15 व 16 का उल्लंघन करके समाज के कमजोर वर्गों का प्रतिनिधित्व शून्य करने की भी यह गहरी साज़िश है।

सरकार, संस्थानों को बेचते समय खरीदने वालों से संविधान के 14, 15 16, 19 और 21 यानि मौलिक संवैधानिक अधिकारों की गारंटी भी नहीं ले रही है। राजकुमार कहते हैं कि देश में मौलिक अधिकारों की रक्षा करने की जिम्मेदारी उच्च और सर्वोच्च न्यायालय पर है परंतु न्यायालय भी निजीकरण के मामले में आर्टिकल 226 और 32 में दी गई अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी को निभाने में असमर्थ और असहाय नजर आ रहे हैं। अन्यथा तो कोर्ट सुओ-मोटो एक्शन लेकर सरकार को रोकने का प्रयास जरूर कर रहे होते।  

उन्होंने कहा कि 42वें संशोधन में संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी एवं पंथनिरपेक्ष जैसे शब्द जुड़े। नीति निर्देशक तत्वों को मौलिक अधिकारों की तरह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी तय करने की बात शुरू हुई तो संविधान के 42वें संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दे डाली जिसमें निर्णय हुआ कि मौलिक अधिकार व्यक्तिगत रूप से व्यक्तिगत अधिकारों की गारंटी हैं। परंतु संविधान का आर्टिकल 39 बी और सी सामूहिक रूप से सबके हित की गारंटी देते हैं। 

मिनर्वा मिल्स केस में सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी संवैधानिक पीठ ने यह तय किया था कि संविधान का आर्टिकल 39बी और सी मौलिक अधिकारों की तरह प्रयोग किया जाएगा। क्योंकि आर्टीकल 39 देश के सभी नागरिकों के व्यापक हित की गारंटी देता है इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इसे मौलिक अधिकार माना। परंतु सरकार का एकमात्र उद्देश्य देश की संपत्ति को कुछ गिने-चुने हाथों में सौंप देना है जो संविधान के साथ मौलिक अधिकारों का भी स्पष्ट उल्लंघन है। 

राजकुमार कहते हैं कि देश की विधायिका को नागरिकों के कल्याण और संविधान की रक्षा के लिए चुना जाता है लेकिन विधायिका आज अपने संवैधानिक दायित्वों के उलट कार्य कर रही है। वहीं, कार्यपालिका को भी ध्वस्त किया जा रहा है। यही नहीं, कार्यपालिका के हाथों, आने वाली पीढियों को नपुंसक बनवाया जा रहा है, उसे होश तक नहीं है। दूसरी ओर, न्यायालय लोक-सेवाओं तक में एससी-एसटी, ओबीसी के प्रतिनिधित्व को लेकर गंभीर नजर नहीं आ रहा है। इसलिए नागरिकों की देश बचाने की बडी जिम्मेदारी शुरू होती है। 

राजकुमार सभी नागरिकों से आह्वान करते हुए कहते हैं कि सरकार द्वारा संविधान के विरुद्ध किए जा रहे निजीकरण के कार्य को तत्काल रोका जाए और यदि सरकार नहीं रुकती है तो वोट के अधिकार से देश की 130 करोड़ आबादी को, जाति-धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर निजीकरण करने वाली राष्ट्र और संविधान विरोधी ताकतों को सत्ता से बेदखल कर देना चाहिए। 

दूसरी ओर, सार्वजनिक परिसंपत्तियों को बेचने की प्रक्रिया और उसके लाभ हानि को इस तरह से भी समझा जा सकता है। मान लीजिए सरकार, बैंकों से 100 रुपए उधार लेती है और फिर इतना धन अर्जित करने के लिए 100 रुपए कीमत की सार्वजनिक परिसंपत्ति बेच देती है ताकि इसकी सकल कर्जदारी में कोई बढ़ोतरी न हो। सरकार की क्रय शक्ति के लिए सार्वजनिक क्षेत्र की परिसंपत्तियां बेचना, बुनियादी तौर पर वित्तीय घाटे की ही स्थिति है। दूसरी तरह के मामलों में सरकार अपने शेयर (जो कि सार्वजनिक क्षेत्रों की परिसंपत्तियों में होते हैं) निजी क्षेत्र के हवाले कर देती है। वित्तीय घाटे और सार्वजनिक परिसंपत्तियों को बेचने में एकमात्र अंतर, कागजी कार्यवाही भर का ही है। 

पहली स्थिति में सरकार निजी क्षेत्रों को धन मुहैया कराती है तो दूसरी में सार्वजनिक परिसंपत्तियों को निजी क्षेत्रों को बेच देती है, वह भी आय के पूंजीगत मूल्य से कम कीमत पर क्योंकि अन्यथा निजी क्षेत्र खरीदेंगे ही नहीं। जानकारों के अनुसार, दोनों स्थिति निजी क्षेत्र को लाभ पहुंचाती हैं और अनुचित ढंग से आर्थिक विषमता को बढ़ाती हैं।

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