आज के अखबारों में देश की अर्थव्यवस्था ठीक होने की ‘खबर’है। इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दू में लीड है (मैंने और अखबार अभी नहीं देखे हैं)। पूरी खबर पढ़ जाइए आपको इस ‘उम्मीद’ का एक कारण या आधार नहीं दिखेगा। पूरी खबर सरकारी लफ्फाजी के अलावा कुछ नहीं है। खबर पढ़कर ऐसा लगा जैसे एक जमाने में आगरा का तांगा वाला लाल किला का इतिहास बता देता थे। निर्माण की इंजीनियरिंग के साथ !! ठीक है कि तांगे वाले की मजबूरी थी पर मैंने कभी उसकी तारीफ नहीं की। आज अखबारों ने इस खबर को लीड क्यों बनाया है वही जानें। पहले खबरें छपवाने के लिए 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था या 20 लाख करोड़ के पैकेज जैसी घोषणाएं होती थीं। अब उसकी भी जरूरत नहीं रह गई है। उम्मीद की किरण और भविष्यवाणी भी लीड बन जाती है। इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दू में भी।
इंडियन एक्सप्रेस के शीर्षक में कहा गया है, जीडीपी घटकर इस वित्त वर्ष में 9.5 प्रतिशत हो सकता है। द टेलीग्राफ ने इस खबर को बिजनेस पन्ने पर लीड बनाया है और शीर्षक है, आरबीआई ने इस साल 9.5 प्रतिशत के संकुचन का अनुमान लगाया। जब सारी खबर अनुमान और उम्मीद ही है तो शीर्षक में वही क्यों नहीं? हिन्दू का शीर्षक और सकारात्मक है। आरबीआई ने चौथी तिमाही तक संकुचन खत्म होने की भविष्यवाणी की। बेशक यह शीर्षक ज्यादा प्रतिभाशाली है और खबर से कोई शक नहीं होता है। समझ में आ जाता है कि अनुमान या भविष्यवाणी है और पूरी खबर पढ़ने के लिए आमंत्रण भी नहीं है। जिसे यूपीएससी की परीक्षा देनी हो वह आकड़े और तर्क ढूंढ़ ले। इंडियन एक्सप्रेस की खबर का लिंक कमेंट बॉक्स में है। इस लिंक से मुफ्त में खबर वही पढ़ पाएंगे जिनका कोटा पूरा नहीं हुआ हो।
आप जानते हैं कि देश की अर्थवस्था की खराब हालत सिर्फ कोरोना के कारण नहीं है। नोटबंदी, जीएसटी के अलावा नियम लागू करने और अनावश्यक सख्ती के साथ मनमाने नियमों के कारण मुर्गा - मांस की खुदरा बिक्री करना प्रतिबंधित होने से लेकर सैकड़ों एनजीओ और शेल कंपनियों को बंद करा दिया गया है। नया कारोबार करना लगातार मुश्किल होता गया है, पुराने कारोबारों का चलता रहना मुश्किल हो गया है। ऐसे में अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के ठोस उपाय करने होंगे। नए कारोबार शुरू करने की अनुमति देने और स्थितियां अनुकूल बनाने के लिए उदारता दिखानी होगी। नियमों में ढील देनी होगी ताकि हर कोई छोटा मोटा काम करके कुछ कमा सके पर ऐसा कुछ करने की बजाय खबर छपवाई जा रही है कि उम्मीद की किरण दिख रही है। जाहिर है इससे कुछ नहीं होना है पर समय काटा जा रहा है और अगला बहाना या मुद्दा तलाशने तक का इंतजार किया जा रहा है।
अर्थव्यवस्था की इस हालत में प्रधानमंत्री हवा से ऑक्सीजन और पानी निकालने का आईडिया दे रहे हैं। राहुल गांधी ने इसपर सवाल उठा दिया तो मंत्रियों की टोली प्रधानमंत्री की साख बचाने और राहुल गांधी की बिगाड़ने में लग गई है। उसकी खबरें भी आप पढ़ेंगे ही। मुद्दा यह नहीं है कि आईडिया व्यावहारिक है या मूर्खतापूर्ण - मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री को सार्वजनिक रूप से ऐसे आईडिया देने की क्या जरूरत है। संबंधित लोगों को बुलाकर कहें और वे उन्हें बताएंगे। अच्छा हुआ तो लागू करेंगे। खराब हुआ तो प्रधानमंत्री को बता देंगे। पर प्रधानसेवक जी ऐसे काम नहीं करते। लगता यही है कि प्रधानमंत्री मानते ही नहीं हैं कि वे गलत वे सकते हैं और भक्त किस्म के उनके सलाहकारों में यह सब कहने की ना हिम्मत है और ना वे इसकी जरूरत समझते हैं। बदले में बच्चा बच्चा कह रहा है राजा नंगा है।
आज की खबर का आधार यही है:
1. कारोबारों की स्थिति बदलने के कुछ उत्साहजनक संकेत हैं
2. आर्थिक गतिविधियां विकास की तरफ लौट सकती हैं
3. पूरे साल के लिए जीडीपी 9.5 प्रतिशत कम होने का अनुमान है
4. कोरोना के सक्रिय मामले कम होने से उम्मीद की किरणें दिख रही हैं
5. अर्थव्यवस्था की तेज और द्रुत वापसी बेहद व्यवहार्य है बशर्ते ....
6. 2021-22 की पहली तिमाही में 20.6 प्रतिशत बढ़ने की संभावना
7. इस साल विकास और मुद्रास्फीति के अनुमान पहली बार साझा किए हैं
8. आगामी महीने भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए निर्णायक चरण
9. सभी संकेतों के अनुसार जीडीपी का घटना अब पीछे रह जाएगा
10. असली आधार सिर्फ और सिर्फ यह कि कोविड-19 का प्रभाव कम होगा।
कैसे और क्यों वह भी नहीं है। कोविड से निपटने का तरीका आप देख चुके हैं। अब तो ताली थाली भी नहीं बजवाई जा रही है जबकि मामला इतना बढ़ गया है। दूसरी ओर, इंटरनेट पर मुफ्त में अखबार पढ़ना मुश्किल होता जा रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि कोरोनाकाल में इंटरनेट पर अखबारों की मांग और जरूरत बढ़ी तो सभी अखबारों ने धीरे-धीरे, एक-एक कर प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार आपदा में अवसर देखा और जो चीज पहले मुफ्त उपलब्ध थी उसके पैसे वसूलने शुरू कर दिए। आप जानते हैं कि अखबार विज्ञापनों से भरे होते हैं। और इन दिनों सरकारी खबरों के लिए सरकारी विज्ञापन भी छपवाए जा रहे हैं। जो अखबार हम आप इंटरनेट पर पढ़ते हैं उसका सारा खर्चा छपे (और कमाई भी) अखबारों से निकल ही जाता है। कंप्यूटर पर बनने वाले अखबारों के पाठक बढ़ाने और आम जनता की उपलब्धता के लिए उन्हें इंटरनेट पर अपलोड कर देना कोई अतिरिक्त खर्च नहीं है। लेकिन जब सरकार ही आपदा में अवसर दिखाए तो कोई क्यों चूके? सब चंगा सी।
इंडियन एक्सप्रेस के शीर्षक में कहा गया है, जीडीपी घटकर इस वित्त वर्ष में 9.5 प्रतिशत हो सकता है। द टेलीग्राफ ने इस खबर को बिजनेस पन्ने पर लीड बनाया है और शीर्षक है, आरबीआई ने इस साल 9.5 प्रतिशत के संकुचन का अनुमान लगाया। जब सारी खबर अनुमान और उम्मीद ही है तो शीर्षक में वही क्यों नहीं? हिन्दू का शीर्षक और सकारात्मक है। आरबीआई ने चौथी तिमाही तक संकुचन खत्म होने की भविष्यवाणी की। बेशक यह शीर्षक ज्यादा प्रतिभाशाली है और खबर से कोई शक नहीं होता है। समझ में आ जाता है कि अनुमान या भविष्यवाणी है और पूरी खबर पढ़ने के लिए आमंत्रण भी नहीं है। जिसे यूपीएससी की परीक्षा देनी हो वह आकड़े और तर्क ढूंढ़ ले। इंडियन एक्सप्रेस की खबर का लिंक कमेंट बॉक्स में है। इस लिंक से मुफ्त में खबर वही पढ़ पाएंगे जिनका कोटा पूरा नहीं हुआ हो।
आप जानते हैं कि देश की अर्थवस्था की खराब हालत सिर्फ कोरोना के कारण नहीं है। नोटबंदी, जीएसटी के अलावा नियम लागू करने और अनावश्यक सख्ती के साथ मनमाने नियमों के कारण मुर्गा - मांस की खुदरा बिक्री करना प्रतिबंधित होने से लेकर सैकड़ों एनजीओ और शेल कंपनियों को बंद करा दिया गया है। नया कारोबार करना लगातार मुश्किल होता गया है, पुराने कारोबारों का चलता रहना मुश्किल हो गया है। ऐसे में अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने के ठोस उपाय करने होंगे। नए कारोबार शुरू करने की अनुमति देने और स्थितियां अनुकूल बनाने के लिए उदारता दिखानी होगी। नियमों में ढील देनी होगी ताकि हर कोई छोटा मोटा काम करके कुछ कमा सके पर ऐसा कुछ करने की बजाय खबर छपवाई जा रही है कि उम्मीद की किरण दिख रही है। जाहिर है इससे कुछ नहीं होना है पर समय काटा जा रहा है और अगला बहाना या मुद्दा तलाशने तक का इंतजार किया जा रहा है।
अर्थव्यवस्था की इस हालत में प्रधानमंत्री हवा से ऑक्सीजन और पानी निकालने का आईडिया दे रहे हैं। राहुल गांधी ने इसपर सवाल उठा दिया तो मंत्रियों की टोली प्रधानमंत्री की साख बचाने और राहुल गांधी की बिगाड़ने में लग गई है। उसकी खबरें भी आप पढ़ेंगे ही। मुद्दा यह नहीं है कि आईडिया व्यावहारिक है या मूर्खतापूर्ण - मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री को सार्वजनिक रूप से ऐसे आईडिया देने की क्या जरूरत है। संबंधित लोगों को बुलाकर कहें और वे उन्हें बताएंगे। अच्छा हुआ तो लागू करेंगे। खराब हुआ तो प्रधानमंत्री को बता देंगे। पर प्रधानसेवक जी ऐसे काम नहीं करते। लगता यही है कि प्रधानमंत्री मानते ही नहीं हैं कि वे गलत वे सकते हैं और भक्त किस्म के उनके सलाहकारों में यह सब कहने की ना हिम्मत है और ना वे इसकी जरूरत समझते हैं। बदले में बच्चा बच्चा कह रहा है राजा नंगा है।
आज की खबर का आधार यही है:
1. कारोबारों की स्थिति बदलने के कुछ उत्साहजनक संकेत हैं
2. आर्थिक गतिविधियां विकास की तरफ लौट सकती हैं
3. पूरे साल के लिए जीडीपी 9.5 प्रतिशत कम होने का अनुमान है
4. कोरोना के सक्रिय मामले कम होने से उम्मीद की किरणें दिख रही हैं
5. अर्थव्यवस्था की तेज और द्रुत वापसी बेहद व्यवहार्य है बशर्ते ....
6. 2021-22 की पहली तिमाही में 20.6 प्रतिशत बढ़ने की संभावना
7. इस साल विकास और मुद्रास्फीति के अनुमान पहली बार साझा किए हैं
8. आगामी महीने भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए निर्णायक चरण
9. सभी संकेतों के अनुसार जीडीपी का घटना अब पीछे रह जाएगा
10. असली आधार सिर्फ और सिर्फ यह कि कोविड-19 का प्रभाव कम होगा।
कैसे और क्यों वह भी नहीं है। कोविड से निपटने का तरीका आप देख चुके हैं। अब तो ताली थाली भी नहीं बजवाई जा रही है जबकि मामला इतना बढ़ गया है। दूसरी ओर, इंटरनेट पर मुफ्त में अखबार पढ़ना मुश्किल होता जा रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि कोरोनाकाल में इंटरनेट पर अखबारों की मांग और जरूरत बढ़ी तो सभी अखबारों ने धीरे-धीरे, एक-एक कर प्रधानमंत्री की सलाह के अनुसार आपदा में अवसर देखा और जो चीज पहले मुफ्त उपलब्ध थी उसके पैसे वसूलने शुरू कर दिए। आप जानते हैं कि अखबार विज्ञापनों से भरे होते हैं। और इन दिनों सरकारी खबरों के लिए सरकारी विज्ञापन भी छपवाए जा रहे हैं। जो अखबार हम आप इंटरनेट पर पढ़ते हैं उसका सारा खर्चा छपे (और कमाई भी) अखबारों से निकल ही जाता है। कंप्यूटर पर बनने वाले अखबारों के पाठक बढ़ाने और आम जनता की उपलब्धता के लिए उन्हें इंटरनेट पर अपलोड कर देना कोई अतिरिक्त खर्च नहीं है। लेकिन जब सरकार ही आपदा में अवसर दिखाए तो कोई क्यों चूके? सब चंगा सी।