वर्तमान सरकार में आपदा से विनाश की स्थिति कोरोना महामारी के आने के बाद बनी है लेकिन शासन पद्धति से बर्बादी की स्थिति पिछले सात सालों से हर दिन बनती नजर आ रही है. अगर थोड़ा पीछे जाकर आंकड़ों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि देश में अगर महामारी नहीं भी फैलती तो भी भारतीय अर्थव्यवस्था का निरंतर गिरना तय था. यह सच है कि कोरोना महामारी और उसके प्रभावों नें अर्थव्यवस्था को रसातल में पंहुचा दिया है लेकिन इसका आग़ाज वर्तमान सरकार की जन विरोधी नीतियों के साथ 2016 से ही शुरू हो चूका था जब नोटबंदी की वजह से केवल असंगठित क्षेत्र में ही 60 फीसदी से अधिक श्रमिक बेरोजगार हो गए.
वैश्विक स्तर पर भी किए गए सभी अध्यनों, रिपोर्टों व् सर्वेक्षणों में यह माना गया है कि कोरोना महामारी की वजह से अलग-अलग देशों द्वारा भारत के विकास को लेकर किए गए पूर्वानुमानों में बदलाव हुए हैं और इसमें गिरावट भी आई है. अमेरिकी ब्रोकरेज फर्म गोल्डमैन Sachs ने चालू वित्त वर्ष के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि के पूर्वानुमानों को 11.7 फ़ीसदी से घटाकर 11.1 फ़ीसदी कर दिया है. जापानी फर्म नोमुरा ने इसे 13.5 प्रतिशत से घटाकर 12.6 प्रतिशत तक कर दिया है. वहीं जेपी मॉर्गन ने भी भारत को लेकर किए गए अपने पूर्व अनुमानों को कम कर 13 फ़ीसदी से 11 फीसदी कर दिया है. भीषण मंदी की मार झेल रही भारतीय अर्थव्यवस्था को कोरोना आपदा ने बदतर बनाने का काम किया है. केन्द्रीय वित्त मंत्रालय ने हाल ही में अपनी मासिक समीक्षा में कोरोना की दूसरी लहर के कारण लॉकडाउन व अन्य पाबंदियां लगाने से आने वाले वित्त वर्ष में आर्थिक गतिविधियों में गिरावट की आशंका जताई है हालाँकि, मंत्रालय द्वारा यह भी कहा गया है कि अर्थव्यवस्था पर इसका असर पिछले वर्ष की तुलना में कम रहने की उम्मीद है.
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का आधार वहां का श्रम शक्ति होता है जो संगठित और असंगठित क्षेत्रों में विभाजित है और जिसकी नियति सत्ता द्वारा तय की जा रही अर्थनीति पर निर्भर करता है. सामाजिक वर्चस्व जहाँ एकजुटता से बनती है वहीँ आर्थिक समृधि संगठित व्यवस्था के जरिए ही सोपान तक पहुचती है. एकजुट संगठित शक्ति का ही परिणाम है कि आज 10 प्रतिशत से भी कम श्रम शक्ति वाले देश के संगठित क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) में 50 प्रतिशत का योगदान है जबकि बाकि 50 फ़ीसदी की भरपाई करने में असंगठित क्षेत्र के 90 फ़ीसदी से अधिक श्रमिकों की भागीदारी है. सवाल यह है कि आजादी के इतने सालों बाद भी और सुव्यवस्थित राजनीतिक सत्ता का दंभ भरने वाले शासक वर्ग के होने के बाद भी इतनी बड़ी श्रम शक्ति वाले अर्थव्यवस्था का आधा हिस्सा असंगठित क्षत्रों में काम करने को क्यूँ बाध्य है? संगठन शक्ति के जरिए सत्ता तक पहुँचने वाले शासक पूरी अर्थव्यवस्था को संगठित करने के बारे में क्यूँ नहीं सोचते हैं? जिससे पूरी श्रमशक्ति समान रूप से लाभान्वित हो सके और अर्थव्यवस्था को भी नयी उड़ान दे सके. आज देश का सच यह है कि संगठित क्षेत्र की बुलंद इमारत असंगठित क्षेत्र द्वारा तैयार किए गए आधार पर खड़ी है. असंगठित क्षेत्र के हितों को लेकर आज संसद से सेमिनार तक में बातें तो होती है लेकिन यह व्यवहार में उतर कर हक़ीकत नहीं बन पाती है. देश में चहुओर असंगठित क्षेत्र का संकट बना हुआ है. असंगठित क्षेत्र का सीधा मतलब होता है असुविधाओं और अभावों वाला क्षेत्र, जहाँ लोग जीवन के मौलिक अधिकारों तक से वंचित रहते हैं. इन क्षेत्रों में किसी तरह जिन्दगी कट गयी तो सौभाग्य की बात है वरना कोरोना जैसी आपदा, अन्य महामारी, दुर्घटना, आर्थिक मंदी जैसी परिस्थिति सबसे पहले इस क्षेत्र के लोगों को ही अपना निशाना बनाती है. इस क्षेत्र के श्रमिक दयनीय हालत में ज़िन्दगी जीने को मजबूर हैं. जिस देश की 90 प्रतिशत श्रमशक्ति असमानता और दयनीयता के अँधेरे में जीवन बसर करने को मजबूर है उस देश में उजाले और मजबूत अर्थव्यवस्था का बखान करना बेमानी सा लगता है.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की एक रिपोर्ट के अनुसार असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रम शक्ति का वैश्विक औसत 60 प्रतिशत से अधिक है. जिसमें अफ्रीका महाद्वीप का औसत सबसे ज्यादा 85.8 प्रतिशत है, अरब देशों का 68.2 फ़ीसदी, एशिया और प्रशांत क्षेत्र का 68.8 प्रतिशत, अमेरिका का 40 प्रतिशत जबकि यूरोप और मध्य एशिया का औसत सबसे कम 25.1 है. रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के रोजगार विकासशील देशों में है. दुनिया के सबसे बड़े बाजार में शामिल और मांग आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश भारत में 93 प्रतिशत श्रम शक्ति का असंगठित क्षेत्र में होना चरमराती अर्थव्यवस्था का असल रूप सामने लाती है. देश की मौजूदा सरकार नें असंगठित क्षेत्र को संगठित कर अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए दो बड़े कदम उठाए लेकिन इन दो क़दमों नोटबंदी और GST के चलते उपजी जटिलताओं को संभाल नहीं पाए. इन सरकारी क़दमों के परिणाम स्वरूप कई छोटे उद्योग बंद हो गए, जीएसटी लागू होने के बाद 2017- 18 में बेरोजगारी दर देश में 45 साल के सर्वोच्च स्तर 6.1 पर पहुच गया. 2019 में बेरोजगारी दर 8.9 फ़ीसदी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा बताया गया. नोटबंदी और जीएसटी की वजह से बढ़ते बेरोजगारी की दर को कोरोना महामारी ने अलग ऊँचाई प्रदान की और इस समय देश में बेरोजगारी की दर 24 प्रतिशत तक पहुच गयी.
असंगठित क्षेत्र के लोगों की जिन्दगी में बदलाव लाने के नाम पर नीति-नियंताओं के द्वारा कई सारे श्रम कानूनों को ख़त्म कर चार नयी श्रम संहिताएँ बनाई गयीं जिसे संसद में 2019 में ही पारित किया गया था जबकि सामाजिक सुरक्षा संहिता, व्यवसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, और ओद्योगिक संबंध संहिता को कोरोना काल के दौरान सितम्बर 2020 में पारित कराया गया जो अप्रैल 2021 से देश में लागू हो चुकी है, हालाँकि यह बदलाव श्रमिकों की स्थिति में सुधार लाने को लेकर किया गया लेकिन वास्तविकता यह है कि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की स्थिति को सुधारने में कहीं से भी सहायक सिद्ध नहीं हुआ. कोरोना महामारी के कारण लगाए गए देशव्यापी बंद की वजह से बेरोजगार हुए श्रमिकों में 80 फ़ीसदी असंगठित क्षेत्र के लोग शामिल हैं. श्रमिक सुधार कानून के नाम पर सरकार द्वारा लाए गए चार कानून में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की तस्वीर को बदलने को लेकर कोई प्रावधान नहीं किया गया है. इस कानून के दायरे से खेतिहर मजदूर, प्रवासी मजदूर, स्वरोजगारी, दिहाड़ी मजदूर सहित कई असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को बाहर ही रखा गया है. सामाजिक सुरक्षा का अधिकार संविधान में हर श्रमिक के लिए दिया गया है लेकिन सामाजिक सुरक्षा संहिता के दायरे में केवल वही संस्थाएं, या कार्यस्थल आता है जहाँ 10 या इससे अधिक मजदूर काम कर रहे हों. इससे भी अधिक हैरत की बात यह है कि सामाजिक सुरक्षा संहिता के तहत जिस कोष का प्रावधान किया गया है, 2021 के बजट में उसके लिए कोई भी आबंटन नहीं किए गया है. कोरोना महामारी की दूसरी और भयावह लहर की चपेट में असंगठित क्षेत्र के लोगों की अधिकांश आबादी झुलस रही है जिसे महसूस करना किसी भी प्रजातंत्र में रहने वाले लोगों के लिए काफ़ी पीड़ादायक है. असंगठित क्षेत्र के लोगों के प्रति सरकारी जिम्मेदारी और कर्तव्यों का सच उनके कामों से उजागर होता है और इनकी नियत पर भी कई सवाल खड़ा करता है.
वैश्विक स्तर पर भी किए गए सभी अध्यनों, रिपोर्टों व् सर्वेक्षणों में यह माना गया है कि कोरोना महामारी की वजह से अलग-अलग देशों द्वारा भारत के विकास को लेकर किए गए पूर्वानुमानों में बदलाव हुए हैं और इसमें गिरावट भी आई है. अमेरिकी ब्रोकरेज फर्म गोल्डमैन Sachs ने चालू वित्त वर्ष के लिए भारत की आर्थिक वृद्धि के पूर्वानुमानों को 11.7 फ़ीसदी से घटाकर 11.1 फ़ीसदी कर दिया है. जापानी फर्म नोमुरा ने इसे 13.5 प्रतिशत से घटाकर 12.6 प्रतिशत तक कर दिया है. वहीं जेपी मॉर्गन ने भी भारत को लेकर किए गए अपने पूर्व अनुमानों को कम कर 13 फ़ीसदी से 11 फीसदी कर दिया है. भीषण मंदी की मार झेल रही भारतीय अर्थव्यवस्था को कोरोना आपदा ने बदतर बनाने का काम किया है. केन्द्रीय वित्त मंत्रालय ने हाल ही में अपनी मासिक समीक्षा में कोरोना की दूसरी लहर के कारण लॉकडाउन व अन्य पाबंदियां लगाने से आने वाले वित्त वर्ष में आर्थिक गतिविधियों में गिरावट की आशंका जताई है हालाँकि, मंत्रालय द्वारा यह भी कहा गया है कि अर्थव्यवस्था पर इसका असर पिछले वर्ष की तुलना में कम रहने की उम्मीद है.
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का आधार वहां का श्रम शक्ति होता है जो संगठित और असंगठित क्षेत्रों में विभाजित है और जिसकी नियति सत्ता द्वारा तय की जा रही अर्थनीति पर निर्भर करता है. सामाजिक वर्चस्व जहाँ एकजुटता से बनती है वहीँ आर्थिक समृधि संगठित व्यवस्था के जरिए ही सोपान तक पहुचती है. एकजुट संगठित शक्ति का ही परिणाम है कि आज 10 प्रतिशत से भी कम श्रम शक्ति वाले देश के संगठित क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद(जीडीपी) में 50 प्रतिशत का योगदान है जबकि बाकि 50 फ़ीसदी की भरपाई करने में असंगठित क्षेत्र के 90 फ़ीसदी से अधिक श्रमिकों की भागीदारी है. सवाल यह है कि आजादी के इतने सालों बाद भी और सुव्यवस्थित राजनीतिक सत्ता का दंभ भरने वाले शासक वर्ग के होने के बाद भी इतनी बड़ी श्रम शक्ति वाले अर्थव्यवस्था का आधा हिस्सा असंगठित क्षत्रों में काम करने को क्यूँ बाध्य है? संगठन शक्ति के जरिए सत्ता तक पहुँचने वाले शासक पूरी अर्थव्यवस्था को संगठित करने के बारे में क्यूँ नहीं सोचते हैं? जिससे पूरी श्रमशक्ति समान रूप से लाभान्वित हो सके और अर्थव्यवस्था को भी नयी उड़ान दे सके. आज देश का सच यह है कि संगठित क्षेत्र की बुलंद इमारत असंगठित क्षेत्र द्वारा तैयार किए गए आधार पर खड़ी है. असंगठित क्षेत्र के हितों को लेकर आज संसद से सेमिनार तक में बातें तो होती है लेकिन यह व्यवहार में उतर कर हक़ीकत नहीं बन पाती है. देश में चहुओर असंगठित क्षेत्र का संकट बना हुआ है. असंगठित क्षेत्र का सीधा मतलब होता है असुविधाओं और अभावों वाला क्षेत्र, जहाँ लोग जीवन के मौलिक अधिकारों तक से वंचित रहते हैं. इन क्षेत्रों में किसी तरह जिन्दगी कट गयी तो सौभाग्य की बात है वरना कोरोना जैसी आपदा, अन्य महामारी, दुर्घटना, आर्थिक मंदी जैसी परिस्थिति सबसे पहले इस क्षेत्र के लोगों को ही अपना निशाना बनाती है. इस क्षेत्र के श्रमिक दयनीय हालत में ज़िन्दगी जीने को मजबूर हैं. जिस देश की 90 प्रतिशत श्रमशक्ति असमानता और दयनीयता के अँधेरे में जीवन बसर करने को मजबूर है उस देश में उजाले और मजबूत अर्थव्यवस्था का बखान करना बेमानी सा लगता है.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की एक रिपोर्ट के अनुसार असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रम शक्ति का वैश्विक औसत 60 प्रतिशत से अधिक है. जिसमें अफ्रीका महाद्वीप का औसत सबसे ज्यादा 85.8 प्रतिशत है, अरब देशों का 68.2 फ़ीसदी, एशिया और प्रशांत क्षेत्र का 68.8 प्रतिशत, अमेरिका का 40 प्रतिशत जबकि यूरोप और मध्य एशिया का औसत सबसे कम 25.1 है. रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र के रोजगार विकासशील देशों में है. दुनिया के सबसे बड़े बाजार में शामिल और मांग आधारित अर्थव्यवस्था वाले देश भारत में 93 प्रतिशत श्रम शक्ति का असंगठित क्षेत्र में होना चरमराती अर्थव्यवस्था का असल रूप सामने लाती है. देश की मौजूदा सरकार नें असंगठित क्षेत्र को संगठित कर अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए दो बड़े कदम उठाए लेकिन इन दो क़दमों नोटबंदी और GST के चलते उपजी जटिलताओं को संभाल नहीं पाए. इन सरकारी क़दमों के परिणाम स्वरूप कई छोटे उद्योग बंद हो गए, जीएसटी लागू होने के बाद 2017- 18 में बेरोजगारी दर देश में 45 साल के सर्वोच्च स्तर 6.1 पर पहुच गया. 2019 में बेरोजगारी दर 8.9 फ़ीसदी राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण द्वारा बताया गया. नोटबंदी और जीएसटी की वजह से बढ़ते बेरोजगारी की दर को कोरोना महामारी ने अलग ऊँचाई प्रदान की और इस समय देश में बेरोजगारी की दर 24 प्रतिशत तक पहुच गयी.
असंगठित क्षेत्र के लोगों की जिन्दगी में बदलाव लाने के नाम पर नीति-नियंताओं के द्वारा कई सारे श्रम कानूनों को ख़त्म कर चार नयी श्रम संहिताएँ बनाई गयीं जिसे संसद में 2019 में ही पारित किया गया था जबकि सामाजिक सुरक्षा संहिता, व्यवसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य, और ओद्योगिक संबंध संहिता को कोरोना काल के दौरान सितम्बर 2020 में पारित कराया गया जो अप्रैल 2021 से देश में लागू हो चुकी है, हालाँकि यह बदलाव श्रमिकों की स्थिति में सुधार लाने को लेकर किया गया लेकिन वास्तविकता यह है कि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की स्थिति को सुधारने में कहीं से भी सहायक सिद्ध नहीं हुआ. कोरोना महामारी के कारण लगाए गए देशव्यापी बंद की वजह से बेरोजगार हुए श्रमिकों में 80 फ़ीसदी असंगठित क्षेत्र के लोग शामिल हैं. श्रमिक सुधार कानून के नाम पर सरकार द्वारा लाए गए चार कानून में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की तस्वीर को बदलने को लेकर कोई प्रावधान नहीं किया गया है. इस कानून के दायरे से खेतिहर मजदूर, प्रवासी मजदूर, स्वरोजगारी, दिहाड़ी मजदूर सहित कई असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को बाहर ही रखा गया है. सामाजिक सुरक्षा का अधिकार संविधान में हर श्रमिक के लिए दिया गया है लेकिन सामाजिक सुरक्षा संहिता के दायरे में केवल वही संस्थाएं, या कार्यस्थल आता है जहाँ 10 या इससे अधिक मजदूर काम कर रहे हों. इससे भी अधिक हैरत की बात यह है कि सामाजिक सुरक्षा संहिता के तहत जिस कोष का प्रावधान किया गया है, 2021 के बजट में उसके लिए कोई भी आबंटन नहीं किए गया है. कोरोना महामारी की दूसरी और भयावह लहर की चपेट में असंगठित क्षेत्र के लोगों की अधिकांश आबादी झुलस रही है जिसे महसूस करना किसी भी प्रजातंत्र में रहने वाले लोगों के लिए काफ़ी पीड़ादायक है. असंगठित क्षेत्र के लोगों के प्रति सरकारी जिम्मेदारी और कर्तव्यों का सच उनके कामों से उजागर होता है और इनकी नियत पर भी कई सवाल खड़ा करता है.