राजस्थान की एक चुनावी जनसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: फेसबुक/@BJP4Rajasthan)
राजस्थान के बांसवाड़ा में दिए विवादास्पद भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक साथ कई मर्यादाएं तोड़ीं। मसलन,
उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भाषण को उसके मूल संदर्भ से काट कर और डॉ. सिंह के मंतव्य को तोड़-मरोड़ कर पेश किया।
मनमोहन सिंह ने कभी यह नहीं कहा था कि देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक है। उन्होंने अपनी तत्कालीन सरकार की प्राथमिकताओं का उल्लेख करते हुए अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिला, अल्पसंख्यकों आदि का जिक्र किया था और फिर उसी क्रम में मुस्लिम समुदाय में पिछड़ेपन का उल्लेख किया था। उसके बाद उन्होंने कहा था कि “इन सबका” देश के संसाधनों पर पहला हक है। इनमें सिर्फ मुसलमानों को निकाल कर हिंदू-मुस्लिम संदर्भ में उसे पेश करना ईमानदारी नहीं है।
मोदी ने कहा कि कांग्रेस ने हिंदुओं के धन छीन कर मुसलमानों में बांटने का वादा किया है। कांग्रेस के ताजा चुनाव घोषणापत्र में (जिसे उसने न्याय पत्र कहा है) में ऐसा कोई वादा नहीं है।
कांग्रेस नेता ने राहुल गांधी ने देश में संपत्ति की मैपिंग (यानी संपत्ति की स्थिति का आकलन) कराने और संपत्ति के पुनर्वितरण की बात जरूर कही थी, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने कहा था कि जातीय जनगणना के जरिए गरीब और पिछड़े समुदायों का पता लगाकर उनके बीच पुनर्वितरण किया जाएगा।
मोदी ने मुसलमानों को “अधिक बच्चे पैदा करने वाले” लोगों के रूप में चित्रित किया। यह बात स्पष्टतः तथ्यों और संदर्भ के विरुद्ध है। इसे एक समुदाय विशेष के प्रति नफरती टिप्पणी के रूप में देखा जाएगा।
उनका यह कहना कि कांग्रेस माताओं को मंगलसूत्र को छीन लेगी, बिल्कुल मनगढ़ंत बात है।
अपने भाषण के दौरान उपरोक्त प्रकरण का जिक्र करते हुए लोगों से मोदी ने जिस अंदाज में सवाल पूछा, उसे साफ तौर पर धर्म के नाम वोट मांगने की श्रेणी में रखा जाएगा।
कम-से-कम इतने पहलुओं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह भाषण आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करता मालूम पड़ता है। यहां तक कि कई जानकारों ने संहिता की उन धाराओं को भी बताया है, जिनके तहत इस भाषण को लेकर प्रधानमंत्री पर निर्वाचन आयोग कार्रवाई कर सकता है। क्या आयोग ऐसा करेगा?
उसका अब तक का रिकॉर्ड भरोसा नहीं बंधाता। आखिर इसके पहले भी प्रधानमंत्री इसी तरह की बातें चुनाव सभाओं में कह चुके हैं। मसलन,
- 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने बहुचर्चित “श्मशान-कब्रिस्तान” का जिक्र किया था।
- 2019 में झारखंड विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने उपद्रवियों की “कपड़ों से पहचान” करने की बात कही थी।
- 2023 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान जब कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने का वादा किया, तो मोदी ने उसे बजरंग बली पर प्रतिबंध से जोड़ दिया और बजरंग बली के नाम पर मतदाताओं से भाजपा को वोट देने की अपील की थी।
उन मौकों पर आम धारणा यही बनी कि या तो निर्वाचन आयोग ने आंख फेर ली है या उसे सांप सूंघ गया है। दरअसल, आयोग के बारे में बनी ऐसी धारणाएं आज भारतीय लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती बन गई हैं। इनकी वजह से चुनावों में सभी दलों के लिए समान धरातल ना होने या चुनाव प्रक्रिया के लगातार दूषित होते जाने की शिकायतें खड़ी हो रही हैं। इसका क्या परिणाम हो सकता है, इसकी एक ताजा मिसाल महाराष्ट्र में सामने आई है।
वहां शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट ने खुलेआम निर्वाचन आयोग की नाफरमानी करने का एलान किया है। आयोग ने चुनाव के लिए पार्टी के थीम सॉन्ग से दो शब्दों- भवानी और हिंदू को हटाने का निर्देश दिया था। आयोग के मुताबिक थीम सॉन्ग में इन शब्दों के होने का मतलब है कि शिवसेना धर्म के नाम पर वोट मांग रही है, जो आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन है। मगर पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे ने दो-टूक कह डाला है कि शिव सेना आयोग के निर्देश का पालन नहीं करेगी।
क्या इसके पहले कभी अपने देश में इस तरह निर्वाचन आयोग को चुनौती दी गई है? आज अगर ऐसा हुआ है, तो यह गहरे आत्म-मंथन का विषय है कि ऐसा क्यों हो रहा है?
इस पहलू पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि उद्धव ठाकरे ने सीधे आयोग को चुनौती दे डाली है। कहा है कि आयोग पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर कार्रवाई करे। ठाकरे ने दोनों भाजपा नेताओं के भाषणों के कुछ वीडियो दिखाए, जिनके बारे में उनका कहना है कि इनमें कही गईं बातें धार्मिक भावनाओं को भड़काने वाली हैं। स्पष्टतः उद्धव ठाकरे ने निर्वाचन आयोग को कठघरे में खड़ा दिया है।
ठाकरे को ऐसा करने का अवसर इसलिए मिला है, क्योंकि आयोग की निष्पक्षता पर सवाल पहले से मौजूद हैं। ये धारणा बन गई है कि आयोग को आदर्श आचार संहिता की याद सिर्फ विपक्षी नेताओं के मामले में आती हैं।
जिस रोज ठाकरे अपनी पार्टी के थीम सॉन्ग के मामले में निर्वाचन आयोग के प्रति आक्रामक तेवर में नजर आए, उसी रोज प्रधानमंत्री मोदी ने बांसवाड़ा में उपरोक्त भाषण दिया। यह तो लाजिमी ही है कि उनके इस भाषण से समाज के एक बड़े हिस्से में उद्विग्नता फैली है। मगर बात सिर्फ इतनी नहीं है। अधिक महत्त्वपूर्ण संदर्भ यह है कि इससे एक बार फिर निर्वाचन आयोग के सामने अग्निपरीक्षा की स्थिति आई है। अगर वह इसमें उतीर्ण नहीं होता है, तो फिर उसे उस तरह की चुनौतियों के लिए तैयार रहना चाहिए, जैसी अभी उद्धव ठाकरे ने दी है।
यह बात सबको अवश्य याद रखनी चाहिए कि आदर्श आचार संहिता का कोई कानूनी आधार नहीं है। यह पार्टियों की सहमति से तैयार संहिता है, जिस पर अमल के लिए उनका सहयोग जरूरी है। यह सहयोग सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि आयोग सबके प्रति समान नजरिया अपनाए। वरना, अगर खुद आयोग विवाद के केंद्र में आता चला गया, तो फिर चुनाव प्रक्रिया की साख पर सवाल गहराते चले जाएंगे।
ऐसे सवालों की वजह से यह कहा जा रहा है कि 18वीं लोकसभा के चुनाव में उदारवादी लोकतंत्र का भविष्य दांव पर लगा हुआ है। इस सिलसिले में सबसे बड़ा प्रश्न यही उठा है कि क्या अब चुनाव प्रक्रिया स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रह गई है और क्या सात चरणों में होने वाले मतदान के बाद चार जून को जो नतीजे घोषित होंगे, उन्हें हर हलके में निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाएगा?
चुनावों के लिए सभी दलों एवं उम्मीदवारों के लिए समान धरातल उपलब्ध नहीं रह जाने की धारणा के बनने की कई ठोस वजहें हैं। मसलन,
कॉरपोरेट और अन्य धनी तबकों ने अपना पूरा दांव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी पर लगा रखा है। इसलिए एक तरफ भाजपा के पास अकूत वित्तीय संसाधन हैं, वहीं दूसरे ज्यादातर दलों के लिए चुनाव खर्च जुटाना मुश्किल होता चला गया है।
हाल में हुए इलेक्टोरल बॉन्ड्स से संबंधित खुलासे ने यह जग-जाहिर कर दिया कि राजनीतिक चंदे की उपलब्धता किस हद तक असमान हो गई है। अब यह साफ है कि वर्तमान केंद्र सरकार ने भाजपा के लिए चंदा जुटाने और विपक्ष को इससे वंचित करने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), सीबीआई, इनकम टैक्स डिपार्टमेंट आदि जैसी अपनी एजेंसियों का दुरुपयोग किया है।
चूंकि भाजपा कॉरपोरेट सेक्टर की पसंद बनी हुई है और मेनस्ट्रीम मीडिया पर इस सेक्टर की कंपनियों का स्वामित्व है, इसलिए भाजपा को इस विशाल प्रचार तंत्र का साथ भी मिला हुआ है। बल्कि कहा तो यह जा सकता है कि मेनस्ट्रीम मीडिया भाजपा के प्रचार तंत्र के रूप में काम कर रहा है।
धन की अकूत उपलब्धता के कारण भाजपा ने सोशल मीडिया पर भी अपना वर्चस्व बना रखा है। इस रूप में सियासी प्रचार की मुहिम में विपक्षी पार्टियां उसका मुकाबला करने में अपेक्षाकृत अक्षम बनी हुई हैं।
चुनाव के धरातल को असमान बनाने में एक बड़ी भूमिका संवैधानिक एवं वैधानिक संस्थाओं की भी है। इस आरोप में दम है कि निर्वाचन आयोग सहित कई ऐसी संस्थाएं चुनावों के दौरान भाजपा की सुविधा के हिसाब से काम करती रही हैं। चुनाव कार्यक्रम तय करने से लेकर आदर्श चुनाव आचार संहिता पर अनुपालन तक में भेदभाव की शिकायतें बढ़ती चली गई हैं।
इसी क्रम में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की विश्वसनीयता का प्रश्न गंभीर हो गया है। अब मुख्यधारा के विपक्षी दल और नेता भी इन मशीनों में छेड़छाड़ का शक जता रहे हैं। पिछले दिनों वीवीपैट पर्चियों की गिनती के लिए दायर याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में निर्वाचन आयोग ने ईवीएम की प्रोग्रामिंग और वीवीपैट मशीन के बारे में जो दलीलें दीं, उससे उसकी मंशा पर सार्वजनिक रूप से प्रश्न खड़े किए गए।
इन सारे कारणों ने चुनाव की स्वच्छता को लेकर संशय का माहौल बना डाला है।
इस बीच आम चुनाव के पहले चरण में कम मतदान होने की खबर आई। 19 अप्रैल को जिन 102 सीटों पर वोट डाले गए, वहां 2019 की तुलना में 4.4 प्रतिशत कम वोट पड़े। पांच साल पहले इन सीटों पर 69.9 प्रतिशत मतदान हुआ था, जो इस बार 65.5 प्रतिशत रहा। जिन 21 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में उस दिन वोट पड़े, उनमें सिर्फ छत्तीसगढ़ (2.03 फीसदी) और मेघालय (3.07 प्रतिशत) ऐसे हैं, जहां मतदान प्रतिशत बढ़ा। बाकी हर जगह गिरावट आई।
मणिपुर में विशेष परिस्थिति है, इसलिए वहां आई 10.52 प्रतिशत गिरावट को अलग से समझा जा सकता है। इसी तरह नगालैंड में बहिष्कार का आह्वान था, इसलिए वहां 26.09 फीसदी गिरावट का कारण सबसे अलग है। लेकिन बाकी तमाम जगहों पर वोट क्यों कम पड़े, यह ऐसा प्रश्न है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
भारत में आम तौर पर हाल के वर्षों में रुझान ऊंचे मतदान प्रतिशत का रहा है। ऐसे में इस बार उदासीनता क्यों दिखी है? तेज गरमी पड़ने का तर्क गले नहीं उतरता। गौरतलब है कि 2004 से हर लोकसभा चुनाव इसी मौसम में हुआ है। तो क्या यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चुनाव प्रक्रिया को लेकर गहराते सवालों ने मतदाताओं के मन में उदासीनता पैदा की है? या फिर पूरी राजनीति जो रूप ले रही है, उससे मतदाताओं के एक हिस्से में निराशा घर करती जा रही है?
बेशक अभी मतदान के छह चरण बाकी हैं। सबकी नज़र इस पर भी रहेगी कि उनमें मतदान प्रतिशत का रुझान कैसा रहता है। लेकिन शुरुआती संकेत अच्छे नहीं हैं, यह बात तो फिलहाल कही ही जा सकती है।
इस संदर्भ में इस बात पर अवश्य जोर डाला जाना चाहिए कि चुनाव प्रक्रिया और परिणामों में लोगों का भरोसा बनाए रखने में निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं की सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। लोकतंत्र का भविष्य इसी भरोसे पर टिका होता है। इसीलिए आयोग के आचरण पर उठते सवाल और उसे दी जा रही चुनौतियां गंभीर चिंता का विषय हैं। इन्हें लोकतंत्र पर हो रहे प्रहार के रूप में देखा जाएगा।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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