गुजरा मोदी के संपूर्ण वर्चस्व का दौर

Written by सत्येंद्र रंजन | Published on: June 5, 2024


साल 2024 में आकर राष्ट्रीय जनादेश एक बार फिर खंडित रूप में सामने आया है। वैसे 2014 और 2019 में भी जनादेश इलाकाई आधार पर खंडित रहा था। तब उत्तर और पश्चिमी भारत में भाजपा का सिक्का चला था। दक्षिण में कर्नाटक तक उसके पांव जरूर पसरे थे, लेकिन बाकी दक्षिणी राज्यों में उसकी पहुंच नहीं बन सकी थी। पूर्वी भारत और उत्तर-पूर्व की तस्वीर मिली-जुली रही थी। 2024 में उत्तर और पश्चिम भी बंट गए। यह जरूर है कि वोट प्रतिशत के लिहाज से भाजपा के पांव दक्षिणी राज्यों में अधिक पसरे हैं, भले ही उसे सीटों के अर्थ में वहां उस हद तक फायदा ना हुआ हो।

इस सूरत को देखते ताजा जनादेश के बारे में कोई समग्र निष्कर्ष निकालना संभव नहीं है। भाजपा को उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में तगड़ी चोट लगी है। इसके अलावा कई राज्यों में उसे सीटों का नुकसान हुआ है। मगर ये वो राज्य हैं, जहां वह दो बार से चरम सफलता हासिल कर रही थी। वैसे में उसे नुकसान होना राजनीति का सामान्य स्तर पर लौटना माना जाएगा।

बहरहाल, चुनावी राजनीति का एक हद तक सामान्य रूप में लौटने का संकेत ही इस आम चुनाव की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि नरेंद्र मोदी परिघटना (phenomena) पर विराम लग गया है। यह धारणा टूट गई है कि आम जन की जिंदगी से जुड़े विभिन्न मोर्चों पर भाजपा सरकार का प्रदर्शन चाहे जैसा रहे, नरेंद्र मोदी का करिश्मा चुनावों में उसकी सफलता की गारंटी बना रहेगा। इस आम चुनाव में वास्तव में यही कथित करिश्मा जख्मी हुआ है।

ऐसा होने के परिणाम दूरगामी हो सकते हैं। आखिर इसी करिश्मा में यकीन के कारण देश के कॉरपोरेट सेक्टर और अन्य शासक वर्गों ने पिछले एक दशक से अपना पूरा दांव मोदी पर लगा रखा है। यह दांव लगाने की शुरुआत तब से हुई थी, जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। असल में “गुजरात मॉडल” यही था कि कॉरपोरेट मोदी के पीछे अपनी पूरी ताकत लगाएं और उस बदौलत सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार उनके माफिक नीतियों पर अमल करे।

इस मॉडल का एक बड़ा आयोजन वाइब्रेंट गुजरात होता था, जहां पहुंच कर 2007-08 से ही देश के बड़े पूंजीपतियों ने मोदी को भारत का भावी प्रधानमंत्री घोषित करना शुरू किया था। मोदी का वह फॉर्मूला राष्ट्रीय स्तर पर भी कारगर रहा। उसी के परिणामस्वरूप पिछले दस साल आम जन की दुर्दशा बढ़ी है। मगर इस चुनाव में वह फॉर्मूला अगर पूरी तरह से पिटा नहीं है, तो कम-से-कम यह तो कहा ही जाएगा कि उसमें बड़े छेद हो गए हैं।

तो यह लाजिमी है कि मोदी पर अब तक दांव लगाने वाले धनी-मानी तबके अब इस सवाल पर सोचने पर मजबूर होंगे कि क्या एकमात्र उसी चेहरे पर दांव लगाए रखना बुद्धिमानी होगी, जिसके चुनावी मुकाबले में पिटने की शुरुआत हो गई है?

हिंदुत्व, उग्र राष्ट्रवाद, और उन्माद की हद तक भावनात्मक माहौल बना कर चुनावी सफलता हासिल करते रहने का खुद नरेंद्र मोदी में आत्म-विश्वास इतना गहरा था कि 2024 आते-आते उन्होंने विकास या जन-कल्याण की बात करनी ही छोड़ दी। या इसे ऐसे भी कहा जा सकता है कि ऐसा करने की उनकी क्षमता चूक गई। क्षमता संभवतः इसलिए चूक गई, क्योंकि उनके शासनकाल का जो रिकॉर्ड है, उसे देखते हुए लोगों के लिए उनके ऐसे उनके वायदों पर भरोसा करना संभव नहीं रह गया।

2024 के चुनाव के लिए प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकारों ने ‘विकसित भारत’ की कहानी तैयार की थी। लेकिन मतदान का पहला चरण आते-आते यह साफ हो गया कि वैसे ऊंचे सपनों में अब आम जन की रुचि नहीं है। जब उनकी अपनी जिंदगी अवनति की तरफ हो, तब यह लाजिमी है कि उन्नत या विकसित भारत के कथानक में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती। तो मोदी और उनकी पार्टी ने पहले चरण के मतदान के बाद इस कहानी चर्चा ही छोड़ दी। उसके बाद वे हिंदू-मुस्लिम के अपने आजमाए फॉर्मूले पर लौट गए। मगर चुनाव नतीजों से जाहिर है कि यह फॉर्मूला भी अब पहले जैसा कारगर नहीं रह गया है।

2024 का चुनाव नरेंद्र मोदी ने जन-कल्याण की सोच के खिलाफ जंग छेड़ते हुए लड़ा। इसे उनका दुस्साहस ही कहा जाएगा कि 2023-24 के बजट में (जो आम चुनाव के पहले का आखिरी पूर्ण बजट था) उनकी सरकार ने जन-कल्याण के तमाम कार्यक्रमों के लिए आवंटन में कटौती कर दी। यह सिलसिला 2024-25 के अंतरिम बजट में भी जारी रहा। इस बीच मोदी “रेवड़ी संस्कृति” के खिलाफ जुबानी मुहिम भी छेड़ चुके थे। 2024 के चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने बढ़ती गैर-बराबरी को सही ठहराने की कोशिश की, कुछ हाथों में धन संग्रहण की चिंताजनक परिघटना को उन्होंने वेल्थ क्रियेटर्स की कामयाबी के रूप में पेश किया, और गरीब आवाम को दी जाने वाली राहत को देश के विकास में बाधक बताया। इस तरह उन्होंने ऐसी समझ लोगों के सामने रखी, मानों देश और आम जन कोई अलग-अलग चीज हो!

आज अगर पिछले दो आम चुनावों की तुलना में और भी ज्यादा खंडित जनादेश हमारे सामने आया है, तो यह बेशक कहा जा सकता है कि जिन आम जन के प्रति प्रधानमंत्री ने अपमान का ऐसा भाव दिखाया, उसके एक बड़े हिस्से ने फिलहाल उनकी पार्टी से बदला लिया है। यही वो तबके हैं, जिनके मन में ‘अच्छे दिन’ के वादे ने ऊंची उम्मीदें जगाई थीं। मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री के अपने पहले कार्यकाल में ‘लाभार्थी’ संस्कृति का हौव्वा खड़ा कर उन उम्मीदों को जिंदा रखा। लेकिन 2024 आते-आते उन्होंने आम जन को लाभ पहुंचाने की सोच पर ही हमला बोल दिया।

उसका नतीजा सामने है। हिंदुत्व के अंडरकरंट से हुए ध्रुवीकरण के साथ ‘अच्छे दिन’ के वादे ने भाजपा के लिए जो प्लस वोट जोड़े थे, वे अगर पूरे देश में नहीं, तो कम-से-कम कुछ राज्यों में जरूर ही, उससे अलग हो गए हैं। नतीजतन, भाजपा ने लोकसभा में बहुमत गंवा दिया है।

1989 में भारतीय राजनीति पर कांग्रेस का वर्चस्व खत्म होने के बाद से और 2014 में मोदी के उदय के पहले तक-एक समझ यह थी कि भारत में अब कोई राष्ट्रीय जनादेश नहीं होता। बल्कि प्रांतीय स्तर पर उभरने वाले जनादेश के कुल योग से राष्ट्रीय राजनीतिक सूरत उभरती है। 2024 में फिर से बात वहीं पहुंचती दिखी है। और इसके साथ ही भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी युग के अंत की शुरुआत हो गई है।

हालांकि नई लोकसभा में भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला है, लेकिन अब जो सियासी उभरी है, वह अनिश्चित से भरी है। अगर एनडीए एकजुट रहा भी, तब भी यह तय है कि सहयोगी दलों के तेवर गुजरे दस वर्षों जैसे नहीं रहेंगे। ऐसे में गठबंधन और सरकार का नेतृत्व करना एक नए तरह के कौशल की मांग करेगा। नरेंद्र मोदी ऐसे कौशल के लिए नहीं जाने जाते। उनकी पहचान आदेशात्मक अंदाज में शासन करने वाले नेता की रही है।

जाहिर है, एनडीए को बहुमत मिलने और भाजपा के सबसे बड़े दल के रूप में उभरने के बावजूद मोदी-शाह की जोड़ी के लिए पहले की तरह राज करना आसान नहीं होगा। इसलिए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 2024 के जनादेश से देश के राजनीतिक गतिशास्त्र (dynamics) में भारी बदलाव आ सकता है। यह तो पूरे भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि मोदी के पूर्ण वर्चस्व का दौर गुजर गया है।  

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं)

Courtesy: Janchowk

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