बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर शाम 5 बजे वाराणसी के शांति कार्यकर्ताओं ने बैठक का आयोजन कर वर्तमान स्थितियों पर चिंतन किया
वाराणसी में एक बार फिर मंदिर-मस्जिद विवाद शुरू हो गया है। काशी विश्वनाथ मंदिर और उससे सटी हुई ज्ञानवापी मस्जिद विवाद के केंद्र में है। अधिकांश सामाजिक लोगों की चिंता बाबरी मस्जिद के घटना क्रम के अनुभव को लेकर है। इसमें भी मुख्य चिंता हिंसा को लेकर है। सांप्रदायिक हिंसा, राज्य द्वारा हिंसक बल प्रयोग और धार्मिक सम्प्रदायों के बीच एक दूसरे के प्रति विश्वसनीयता का लगातार क्षरण और इस सबके चलते सामान्य लोगों के जीवन का असंगठन, छोटी कमाई वालों की कमाई टूटना और समाज में निराशा का प्रसार। ये बड़ी चिंता के विषय हैं।
16 मई की शाम को इसी विषय पर वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक बैठक विश्व ज्योति केन्द्र नदेसर में हुई। यह बैठक एक समूह ने बुलाई थी, जिसमें अलग-अलग धर्मों और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों के लोग शामिल हुए।
बैठक में शामिल होने वालों में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले लोग थे। इनमें कुछ श्रम अधिकार एक्टिविस्ट हैं, कुछ राजनीतिक एक्टिविस्ट, कुछ मानवाधिकार रक्षक और कुछ असंगठित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन बैठकों में शामिल कुछ कार्यकर्ताओं में किसान नेता रामजनम, दलित एक्टिविस्ट अनूप श्रमिक, गांधीवादी सुनील सहस्रबुद्धे और विजय नारायण सिंह, वरिष्ठ सामाजिक वैज्ञानिक और सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) की वरिष्ठ समन्वयक डॉ मुनिजा खान, शिया मस्जिद के प्रवक्ता हाजी शामिल थे। इनके अलावा- फरमान हैदर, वामपंथी नेता मनीष शर्मा, पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) से प्रवल सिंह, आशा से वल्लभ पांडे, सामाजिक कार्यकर्ता परमिता और जागृति और बंकर साझ मंच से फजलुर रहमान अंसारी आदि ने वर्तमान हालातों पर चिंता जताई। सुनील सहस्रबुद्धे ने बैठक की अध्यक्षता की और रामजनम ने संचालन किया। इस बैठक में करीब 40 व्यक्तियों ने भाग लिया।
सामाजिक, राजनैतिक, संवैधानिक और धार्मिक पक्षों पर लोगों ने अपनी-अपनी राय रखी और सुझाव दिए कि उपस्थित लोगों द्वारा और स्थानीय समाज को कैसी पहल के लिए प्रेरित करना चाहिए, जिससे ध्रुवीकरण बढ़ने और हिंसा की सम्भावना को कम किया जा सके। इस सभा में मोहल्लों में जाकर बात करना, राजनीतिक और धार्मिक नेताओं से मिलकर बात करना, शांति जुलूस निकालना, परचा निकालना, जगह-जगह पर सर्व धर्म प्रार्थनाएं आयोजित करना और वाराणसी में चल रहे मुकदमे में इंटरवीनर के रूप में अपनी भागीदारी बनाना जैसे सुझाव सामने आये। सभी बिंदुओं पर राय मशविरा हुआ। अलग-अलग लोगों ने अपने विचार सामने रखे। इस बात पर काफी जोर आया कि वाराणसी के समाज की यह विशेष ज़िम्मेदारी बनती है कि वह अपने शहर में होने वाली ऐसी क्रिया में भाग लेकर शांति की सभी संभावनाएं सक्रिय तौर पर तलाशे। उपरोक्त सुझावों के साथ ही यह कहा गया कि इस सिलसिले में राजनीति, धर्म, कानून और स्थानीय समाज शक्ति के स्रोत व केंद्र हैं। इन सभी के आपसी संवाद से ही हल तय हो सकता है। ऐसा संवाद कायम हो इसकी कोशिश स्थानीय समाज को करनी होगी।
इस सभा के मंतव्य को आगे बढाने के लिए सभा में उपस्थित कुछ लोगों को एक समूह के रूप में सर्व सहमति से चुना गया। ये नाम हैं- पारमिता, रामजनम, मुनीज़ा खान, मनीष शर्मा, फादर आनंद, फरमान हैदर, प्रवाल सिंह और जागृति।
सभा में कानूनी सवाल पर ज्यादा बात हुई। क्योंकि ज्ञानवापी परिसर की वीडियोग्राफी के आदेश और उसके बाद की सुनवाई और आदेश के सन्दर्भ में कई लोगों का यह कहना था कि यह अदालत संवैधानिक व्यवस्थाओं का सम्मान भी नहीं कर रही है। लोगों ने यह भी कहा कि पहले भी जैसे बाबरी मस्जिद के सवाल पर कानूनी प्रक्रियाओं को चलाने की विधि पर लोगों का बड़ा एतराज रहा और एकतरफा निर्णय आते रहे हैं। यह कठिन प्रश्न है। हम शासन–प्रशासन को भ्रष्टाचार मुक्त देखना चाहते हैं, डाक्टर को ईमानदारी बरतता देखना चाहते हैं, शिक्षक को ठीक से पढाता हुआ देखना चाहते हैं और न्यायाधीशों को निरपेक्ष भाव से संविधान की व्यवस्था का पालन करता हुआ देखना चाहते हैं। ये सब सही समाज की कल्पना के अंतर्गत आते हैं लेकिन ऐसा होता नहीं है।
वक्ताओं ने कहा कि सभी संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर आर्थिक और राजनीतिक दबाव बने रहते हैं, जिसके चलते जिसे हम न्यायसंगत मानते हैं वह नहीं हो पाता। स्वराज वह व्यवस्था और विचार है जिसमें हम अपेक्षा कर सकते हैं कि राजननीतिक और आर्थिक दबाव में आकर गलत काम करने की मजबूरियां अथवा लालच न पैदा हों। यह देश ब्रिटिश राज, राजतन्त्र और लोकतंत्र, सभी को लम्बे-लम्बे समयों के लिए देख चुका है। बात थोड़ी दूर की मालूम पड़ सकती है लेकिन फौरी समाधान के साथ-साथ वैसी ही समस्याएं, ध्रुवीकरण की स्थितियां और हिंसा की संभावना तथा वास्तविक हिंसा बार-बार होते हुए देखी जा रही है। इसलिए दूर का ही क्यों न हो लेकिन स्थाई समाधान की सम्भावनाएँ खोजने का काम साथ साथ चलाना चाहिए। जैसे हर समाधान के लिए, हम लोगों ने बात की कि, हिंसा किसी भी किस्म का विकल्प नहीं हो सकती। यानि धार्मिक, राजनैतिक, न्यायिक और सामाजिक तबकों के बीच बातचीत में यह पूर्व शर्त होनी चाहिए कि हिंसा मंज़ूर नहीं है और तब तक संवाद जारी रहेगा जब तक कोई समझौता न हो जाये। यह संवाद इसी अर्थ में व्यावहारिक होगा कि यह नैतिकता की बात करेगा, समाज में प्रचलित व्यवहार के मानदंडों और नैतिक मूल्यों यानि सही-गलत की मान्यताओं को समुचित स्थान देगा।
हिंसा की नामंजूरी हर समझौते का अंग होगी। इसी तरह से हिंसा को नामंज़ूर करने वाली राजनैतिक व्यवस्था की भी एक परम्परा इस देश में रही है। यह स्वराज की परम्परा है। ऐसा नहीं है कि राजनीति और शासन हिंसा मुक्त रहा हो लेकिन स्वायत्तता और स्वशासन की व्यापक परम्पराएँ अंग्रेजों के आने से पहले तक तो थीं हीं। इन्हें ही स्वराज की परम्परा कहते हैं। स्वराज के विचार और व्यवस्थाओं पर व्यापक बातचीत शुरू होगी तो विकट समस्याओं के फौरी हल खोजने में भी मदद ही होगी। नये सन्दर्भ बनेंगे, नये विचार सामने आयेंगे और ताकत के नए स्रोत भी नज़र आयेंगे।
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वाराणसी में एक बार फिर मंदिर-मस्जिद विवाद शुरू हो गया है। काशी विश्वनाथ मंदिर और उससे सटी हुई ज्ञानवापी मस्जिद विवाद के केंद्र में है। अधिकांश सामाजिक लोगों की चिंता बाबरी मस्जिद के घटना क्रम के अनुभव को लेकर है। इसमें भी मुख्य चिंता हिंसा को लेकर है। सांप्रदायिक हिंसा, राज्य द्वारा हिंसक बल प्रयोग और धार्मिक सम्प्रदायों के बीच एक दूसरे के प्रति विश्वसनीयता का लगातार क्षरण और इस सबके चलते सामान्य लोगों के जीवन का असंगठन, छोटी कमाई वालों की कमाई टूटना और समाज में निराशा का प्रसार। ये बड़ी चिंता के विषय हैं।
16 मई की शाम को इसी विषय पर वाराणसी के सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक बैठक विश्व ज्योति केन्द्र नदेसर में हुई। यह बैठक एक समूह ने बुलाई थी, जिसमें अलग-अलग धर्मों और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों के लोग शामिल हुए।
बैठक में शामिल होने वालों में विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले लोग थे। इनमें कुछ श्रम अधिकार एक्टिविस्ट हैं, कुछ राजनीतिक एक्टिविस्ट, कुछ मानवाधिकार रक्षक और कुछ असंगठित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन बैठकों में शामिल कुछ कार्यकर्ताओं में किसान नेता रामजनम, दलित एक्टिविस्ट अनूप श्रमिक, गांधीवादी सुनील सहस्रबुद्धे और विजय नारायण सिंह, वरिष्ठ सामाजिक वैज्ञानिक और सिटीजंस फॉर जस्टिस एंड पीस (सीजेपी) की वरिष्ठ समन्वयक डॉ मुनिजा खान, शिया मस्जिद के प्रवक्ता हाजी शामिल थे। इनके अलावा- फरमान हैदर, वामपंथी नेता मनीष शर्मा, पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) से प्रवल सिंह, आशा से वल्लभ पांडे, सामाजिक कार्यकर्ता परमिता और जागृति और बंकर साझ मंच से फजलुर रहमान अंसारी आदि ने वर्तमान हालातों पर चिंता जताई। सुनील सहस्रबुद्धे ने बैठक की अध्यक्षता की और रामजनम ने संचालन किया। इस बैठक में करीब 40 व्यक्तियों ने भाग लिया।
सामाजिक, राजनैतिक, संवैधानिक और धार्मिक पक्षों पर लोगों ने अपनी-अपनी राय रखी और सुझाव दिए कि उपस्थित लोगों द्वारा और स्थानीय समाज को कैसी पहल के लिए प्रेरित करना चाहिए, जिससे ध्रुवीकरण बढ़ने और हिंसा की सम्भावना को कम किया जा सके। इस सभा में मोहल्लों में जाकर बात करना, राजनीतिक और धार्मिक नेताओं से मिलकर बात करना, शांति जुलूस निकालना, परचा निकालना, जगह-जगह पर सर्व धर्म प्रार्थनाएं आयोजित करना और वाराणसी में चल रहे मुकदमे में इंटरवीनर के रूप में अपनी भागीदारी बनाना जैसे सुझाव सामने आये। सभी बिंदुओं पर राय मशविरा हुआ। अलग-अलग लोगों ने अपने विचार सामने रखे। इस बात पर काफी जोर आया कि वाराणसी के समाज की यह विशेष ज़िम्मेदारी बनती है कि वह अपने शहर में होने वाली ऐसी क्रिया में भाग लेकर शांति की सभी संभावनाएं सक्रिय तौर पर तलाशे। उपरोक्त सुझावों के साथ ही यह कहा गया कि इस सिलसिले में राजनीति, धर्म, कानून और स्थानीय समाज शक्ति के स्रोत व केंद्र हैं। इन सभी के आपसी संवाद से ही हल तय हो सकता है। ऐसा संवाद कायम हो इसकी कोशिश स्थानीय समाज को करनी होगी।
इस सभा के मंतव्य को आगे बढाने के लिए सभा में उपस्थित कुछ लोगों को एक समूह के रूप में सर्व सहमति से चुना गया। ये नाम हैं- पारमिता, रामजनम, मुनीज़ा खान, मनीष शर्मा, फादर आनंद, फरमान हैदर, प्रवाल सिंह और जागृति।
सभा में कानूनी सवाल पर ज्यादा बात हुई। क्योंकि ज्ञानवापी परिसर की वीडियोग्राफी के आदेश और उसके बाद की सुनवाई और आदेश के सन्दर्भ में कई लोगों का यह कहना था कि यह अदालत संवैधानिक व्यवस्थाओं का सम्मान भी नहीं कर रही है। लोगों ने यह भी कहा कि पहले भी जैसे बाबरी मस्जिद के सवाल पर कानूनी प्रक्रियाओं को चलाने की विधि पर लोगों का बड़ा एतराज रहा और एकतरफा निर्णय आते रहे हैं। यह कठिन प्रश्न है। हम शासन–प्रशासन को भ्रष्टाचार मुक्त देखना चाहते हैं, डाक्टर को ईमानदारी बरतता देखना चाहते हैं, शिक्षक को ठीक से पढाता हुआ देखना चाहते हैं और न्यायाधीशों को निरपेक्ष भाव से संविधान की व्यवस्था का पालन करता हुआ देखना चाहते हैं। ये सब सही समाज की कल्पना के अंतर्गत आते हैं लेकिन ऐसा होता नहीं है।
वक्ताओं ने कहा कि सभी संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर आर्थिक और राजनीतिक दबाव बने रहते हैं, जिसके चलते जिसे हम न्यायसंगत मानते हैं वह नहीं हो पाता। स्वराज वह व्यवस्था और विचार है जिसमें हम अपेक्षा कर सकते हैं कि राजननीतिक और आर्थिक दबाव में आकर गलत काम करने की मजबूरियां अथवा लालच न पैदा हों। यह देश ब्रिटिश राज, राजतन्त्र और लोकतंत्र, सभी को लम्बे-लम्बे समयों के लिए देख चुका है। बात थोड़ी दूर की मालूम पड़ सकती है लेकिन फौरी समाधान के साथ-साथ वैसी ही समस्याएं, ध्रुवीकरण की स्थितियां और हिंसा की संभावना तथा वास्तविक हिंसा बार-बार होते हुए देखी जा रही है। इसलिए दूर का ही क्यों न हो लेकिन स्थाई समाधान की सम्भावनाएँ खोजने का काम साथ साथ चलाना चाहिए। जैसे हर समाधान के लिए, हम लोगों ने बात की कि, हिंसा किसी भी किस्म का विकल्प नहीं हो सकती। यानि धार्मिक, राजनैतिक, न्यायिक और सामाजिक तबकों के बीच बातचीत में यह पूर्व शर्त होनी चाहिए कि हिंसा मंज़ूर नहीं है और तब तक संवाद जारी रहेगा जब तक कोई समझौता न हो जाये। यह संवाद इसी अर्थ में व्यावहारिक होगा कि यह नैतिकता की बात करेगा, समाज में प्रचलित व्यवहार के मानदंडों और नैतिक मूल्यों यानि सही-गलत की मान्यताओं को समुचित स्थान देगा।
हिंसा की नामंजूरी हर समझौते का अंग होगी। इसी तरह से हिंसा को नामंज़ूर करने वाली राजनैतिक व्यवस्था की भी एक परम्परा इस देश में रही है। यह स्वराज की परम्परा है। ऐसा नहीं है कि राजनीति और शासन हिंसा मुक्त रहा हो लेकिन स्वायत्तता और स्वशासन की व्यापक परम्पराएँ अंग्रेजों के आने से पहले तक तो थीं हीं। इन्हें ही स्वराज की परम्परा कहते हैं। स्वराज के विचार और व्यवस्थाओं पर व्यापक बातचीत शुरू होगी तो विकट समस्याओं के फौरी हल खोजने में भी मदद ही होगी। नये सन्दर्भ बनेंगे, नये विचार सामने आयेंगे और ताकत के नए स्रोत भी नज़र आयेंगे।
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