दालमंडी: बनारस की रूह, सांस्कृतिक धरोहर और व्यापार पर संकट के बादल, सरकार की मंशा पर सवाल-ग्राउंड रिपोर्ट

Written by विजय विनीत | Published on: December 24, 2024
दालमंडी की गलियों को आठ फीट से 23 फीट चौड़ा करने की योजना बनाई गई है। यह सड़क काशी विश्वनाथ धाम को जोड़ेगा। सरकार के इस इस निर्णय से हजारों व्यापारी व्यथित हैं।



काशी, जो अपनी सांस्कृतिक विविधता और ऐतिहासिक धरोहरों के लिए जानी जाती है, आज विकास के नाम पर अपनी आत्मा को खोने की कगार पर है। दालमंडी, बनारस की वह धड़कन, जहां हर रोज हजारों लोग आते हैं और करोड़ों का कारोबार होता है, आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। सरकार की योजना के तहत दालमंडी की तंग गलियों को चौड़ा करके सड़क बनाया जाना है। यह योजना न केवल बाजार की भौतिक संरचना को बदलने जा रही है, बल्कि हजारों व्यापारियों और उनके परिवारों की जिंदगी पर भी गहरा असर डालेगी।

जिया काजिम, जो जीलट वाच के मालिक हैं, अपनी दुकान के सामने खड़े असहाय नज़र आते हैं। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई देती हैं। 129 साल पुरानी उनकी दुकान केवल एक व्यापारिक प्रतिष्ठान नहीं है, बल्कि एक इतिहास है। वे कहते हैं, "हमारी चार पीढ़ियां इसी दुकान से जुड़ी रही हैं। अब सब कुछ खत्म होने जा रहा है। यह दुकान हमारी पहचान है। इसे टूटते देखना ऐसा लगेगा, जैसे हमारी रगों से खून खींच लिया जाए।"

दालमंडी की गलियों को आठ फीट से 23 फीट चौड़ा करने की योजना बनाई गई है। यह सड़क काशी विश्वनाथ धाम को जोड़ेगा। सरकार के इस इस निर्णय से हजारों व्यापारी व्यथित हैं। कढ़ाई और बर्तन के व्यापारी अब्दुल वहीद कहते हैं, "सरकार कहती है कि यह विकास है, लेकिन हमसे पूछिए, यह कैसा विकास है? हमारी दुकानें टूटेंगी, तो हमारी रोजी-रोटी का क्या होगा? हम इन गलियों में पले-बढ़े हैं। यहां के हर कोने में हमारी मेहनत की कहानियां हैं। अगर यह सब उजाड़ दिया गया, तो हम कहां जाएंगे?"



दालमंडी की कहानी सिर्फ इन दुकानों तक सीमित नहीं है। यह गली अपने भीतर सदियों की कहानियां, संघर्ष, और संवेदनाएं समेटे हुए है। दालमंडी बनारस की सबसे बड़ी होलसेल मंडी है। इससे भी पहले, यह तवायफों के कोठों के लिए मशहूर थी। यहां की हवाएं उन गूंजते घुंघरुओं और गाई जाने वाली ठुमरी की कहानियां सुनाती थीं, जो आज सिर्फ इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं।

दालमंडी का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना बनारस का। यहां की 200 साल पुरानी इमारतें आज भी मजबूती से खड़ी हैं, जो चुनार के लाल बलुआ पत्थर और चूने की जुड़ाई से बनी थीं। इन दीवारों ने अंग्रेजों का शासन देखा, मुगलिया तहजीब को महसूस किया और बनारसी संस्कृति को संजोए रखा।

आज दालमंडी की तंग गलियों में कॉस्मेटिक्स और इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकानें हैं। लेकिन इन चमकती दुकानों के पीछे हजारों परिवारों का संघर्ष छिपा है। सरकारी कागजों में दालमंडी का नाम अब "हकीम मोहम्मद जाफर मार्ग" हो गया है। नाम बदल दिया गया, लेकिन क्या इसका इतिहास भी मिटाया जा सकता है?

दालमंडी में 10,000 से ज्यादा दुकानें हैं। गली में कदम रखते ही ऐसा लगता है जैसे आप दिल्ली के पालिका बाजार, जयपुर के बापू बाजार या भोपाल के चौक बाजार की गलियों में पहुंच गए हों। बाहर मोबाइल की दुकानें चमकती हैं, और अंदर की ओर बढ़ते ही आपको महिलाओं के लिए ड्रेसेज, जूतियां और पर्स की दुकानों की कतारें नजर आएंगी। लेकिन दालमंडी की कहानी सिर्फ इन दुकानों तक सीमित नहीं है। यह गली अपने भीतर सदियों की कहानियां, संघर्ष, और संवेदनाएं समेटे हुए है।

दालमंडी में कारोबार करने वाले अधिकतर व्यापारी मुस्लिम समुदाय से आते हैं। हर दुकान की अपनी कहानी है, अपनी विरासत है। छोटे व्यापारी रईस मियां कहते हैं, "दालमंडी हमारे लिए केवल एक बाजार नहीं है। यह हमारी रोजी-रोटी, हमारी पहचान और हमारी जिंदगी है। अगर यह सब खत्म हो गया, तो हमारे बच्चों का भविष्य क्या होगा? हम चाहते हैं कि सरकार हमारी बात सुने और हमें उजड़ने से बचाए।"

चाय की दुकान पर बैठकर बातचीत करते हुए एक बुजुर्ग, मोहम्मद सलीम, याद करते हैं, "जब मैं बच्चा था, तब से इन गलियों की चहल-पहल देखता आ रहा हूं। यह बाजार काशी की रगों में बसा है। यहां की खुशबू, यहां का शोर, यहां की जिंदगी—सब कुछ अद्भुत है। अगर यह गलियां खत्म हो गईं, तो काशी का दिल टूट जाएगा।"

बाबा सर्राफ, जो 1924 से इस बाजार में आभूषणों का व्यापार कर रहे हैं, अपने दादा और पिता की विरासत की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, "यह दुकान हमारी सांसों की तरह है। अगर यह खत्म हो गई, तो हमारी जिंदगी का मकसद ही खत्म हो जाएगा।" उनकी आंखों में डर और आवाज में बेबसी है। "हमने यहां अपनी जिंदगी बिताई है। हमारे पास दूसरा कोई ठिकाना नहीं है। सरकार कहती है कि हमें मुआवजा दिया जाएगा, लेकिन क्या पैसे से हम अपनी पहचान वापस खरीद सकते हैं?"



दालमंडी, बनारस की आत्मा है। यहां की गलियों में होली के रंग, ईद की चांदनी, और दीवाली की जगमगाहट मिला करती है। मकर संक्रांति के लिए पतंगें, सावन के लिए राखियां, और मुहर्रम के लिए साज-सज्जा—यहां हर त्योहार का सामान मिलता है। "आज दालमंडी की गलियों में वो चहल-पहल नहीं है," कहते हैं वसीम अंसारी, जो पिछले 20 सालों से कपड़े की दुकान चला रहे हैं। "त्योहारों का मौसम हमारे लिए खुशियां लेकर आता था। अब लगता है जैसे सब कुछ खत्म हो जाएगा।"

दालमंडी के व्यापारियों का दर्द केवल रोजी-रोटी का नहीं है। यह बनारस के बदलते स्वरूप का है। काशी, जो अपनी विरासत और विविधता के लिए मशहूर थी, अब एक परियोजना बनकर रह गई है। "पहले यहां बनारस बसता था। हर गली में एक कहानी थी। अब बस नक्शे हैं, योजनाएं हैं, और बुलडोज़र हैं," कहते हैं रेहान अहमद, जो दालमंडी में इलेक्ट्रॉनिक सामान की दुकान चलाते हैं।

दालमंडी के बाजार में घूमते हुए हर चेहरे पर एक कहानी है। फरीदा बेगम, जो अपने पति के साथ पिछले 15 साल से मसाले की दुकान चला रही हैं, कहती हैं, "हमने इस बाजार से अपने बच्चों को पढ़ाया, उन्हें अच्छे स्कूलों में भेजा। अब अगर यह दुकान टूट गई, तो हम उनके भविष्य को कैसे बचाएंगे?" उनकी आवाज कांप जाती है, "क्या विकास का मतलब यह है कि हमारे सपने, हमारी मेहनत, सब खत्म हो जाए?"


बनारस की धड़कन है दालमंडी

दालमंडी सिर्फ एक बाजार नहीं, बनारस की धड़कन है। यहां की गलियों में समय ठहर सा गया था। यह बाजार उन हजारों परिवारों का गवाह रहा है, जिन्होंने अपनी जिंदगी की हर छोटी-बड़ी जरूरत यहीं से पूरी की। लेकिन आज यह धड़कन रुकने को मजबूर है। काशी की गहराइयों में बसा यह बाजार अब एक ऐसी जंग का सामना कर रहा है, जहां हर कोई हारता नजर आ रहा है। व्यापारी, खरीदार, और काशी की आत्मा—सब कुछ इस विकास के नीचे दबने को है। दालमंडी के उजड़ने से केवल व्यापार नहीं, बल्कि बनारस के एक बड़े हिस्से की पहचान मिट जाएगी।

यह दालमंडी का केवल एक पहलू है। हर कोने में खड़े लोग, हर दुकान के पीछे छिपी कहानियां, और हर चेहरे पर छाई उदासी इस बात का सबूत है कि यह सिर्फ एक सड़क चौड़ीकरण का मामला नहीं है। यह काशी की विरासत, इसकी आत्मा, और हजारों परिवारों की आजीविका पर पड़ने वाली चोट है। दालमंडी के व्यापारी अपनी दुकानों के टूटने के डर के साए में जी रहे हैं। उनके पास उम्मीद के सिवा कुछ नहीं बचा है। मोहम्मद अरशद, जो कपड़े का व्यापार करते हैं। वो कहते हैं, "हमारी गलियां चौड़ी होंगी, लेकिन हमारी जिंदगी तंग हो जाएगी।"


सालों से चश्मे का बाले यादव कहते हैं, "सरकार ने कहा है कि हमें दूसरी जगह दी जाएगी, लेकिन आज तक यह साफ नहीं है कि वह जगह कहां होगी और कैसी होगी? हम जहां हैं, वहां के ग्राहक हमें जानते हैं। नई जगह पर हम एक बार फिर से शुरुआत कैसे करेंगे?" बाले के शब्दों में सरकार के वादों के प्रति अविश्वास और अपने व्यापार के भविष्य को लेकर गहरी चिंता झलकती है।

दालमंडी के व्यापारियों का दर्द केवल अपनी दुकानों को खोने का नहीं, बल्कि अपनी जिंदगी के सबसे अहम हिस्से को खोने का है। 55 वर्षीय जुल्फकार आलम, जो दशकों कपड़ों का व्यापार कर रहे हैं, भावुक होकर कहते हैं, "यह बाजार मेरी जिंदगी का हिस्सा है। मैंने अपने पिता के साथ इस दुकान पर बैठना शुरू किया था। आज मेरी उम्र इस बाजार की उम्र से जुड़ी है। अगर यह बाजार नहीं रहेगा, तो मैं कैसे रहूंगा?"

गोवि

"मंदिर की रौनक, बाजार की खामोशी"

काशी विश्वनाथ धाम के सुंदरीकरण ने मंदिर के आसपास की गलियों को तो चमकदार बना दिया, लेकिन दालमंडी में दुकानों को तोड़ने का अलार्म बनाकर इस बाजार की चहल-पहल को खामोश कर दिया है। दालमंडी सिर्फ सामान बेचने की जगह नहीं, बल्कि यहां की गलियों में संस्कृति की रौनक बसती है। ईद पर सेवइयों की खुशबू हो या होली पर रंगों की बहार, यह बाजार हर त्योहार को अपनी अनोखी छवि में समेट लेता था। लेकिन अब इन गलियों की चहल-पहल खत्म होने को है।

बाबा सर्राफ के मालिक जुल्फिकार आलम सोने-चादी के आभूषण बेचते हैं। इनकी दुकान करीब सौ साल पुरानी है। वह कहते हैं, "दालमंडी से हमने अपनी जिंदगी खड़ी की। हमारी कड़ी पीढ़ियों ने आभूषण की दुकान से अपनी जिंदगी की गाड़ी खींची है। अगर यह बाजार खत्म हो गया, तो हमारा इतिहास और हमारी मेहनत दोनों मिट जाएंगे।" जुल्फिकार की आवाज में डर और दर्द साफ झलकता है।

दालमंडी के व्यापारियों के लिए यह बाजार उनकी रोजी-रोटी से कहीं अधिक है। यह उनकी पहचान, उनकी संस्कृति, और उनकी विरासत है। लेकिन अब यह विरासत विकास की आड़ में मिटने को है। हर चेहरे पर बस एक ही सवाल है—क्या इस बाजार के खत्म होने के बाद हमारी जिंदगी वैसी रह पाएगी, जैसी अब तक थी?


काशी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन सुगम बनाना और ट्रैफिक को नियंत्रित करना सरकार की प्राथमिकता हो सकती है, लेकिन इस प्रयास में क्या हजारों परिवारों की जिंदगी को उजाड़ देना न्यायोचित है? 78 वर्षीय अतहर सिद्दीकी, जिनकी घड़ियों की 70 साल पुरानी दुकान है, अपनी आंखों में आंसू लिए कहते हैं, "यह बाजार सिर्फ व्यापार का केंद्र नहीं है, बल्कि हमारी यादों और संघर्षों का हिस्सा है। चौड़ीकरण के बाद यहां होलसेल मार्केट नहीं रहेगा। मॉल्स और फूड स्टॉल्स की चकाचौंध में असली दालमंडी कहीं खो जाएगी।"

यह दर्द सिर्फ अतहर सिद्दीकी का नहीं है। यह हर उस छोटे दुकानदार का है, जो अपनी रोजी-रोटी के लिए दालमंडी पर निर्भर है। सलमान, जो कपड़ों का व्यापार करते हैं, कहते हैं, "हमारी दुकानें तंग गलियों में सही, लेकिन यहां हर दिन हजारों ग्राहक आते हैं। हमें डर है कि सरकार कहीं और ले जाकर बसाएगी तो क्या वहां हमारा कारोबार टिक पाएगा? क्या हमारे पुराने ग्राहक हमें वहां भी ढूंढेंगे?"

दालमंडी की गलियां सिर्फ बाजार नहीं, बल्कि पीढ़ियों की मेहनत और संघर्ष की गवाह हैं। 65 वर्षीय डॉ. दिलशाद अहमद सिद्दीकी, जिनकी चश्मों की दुकान है, बेहद भावुक होकर कहते हैं, "यह सिर्फ गली चौड़ी करने का मसला नहीं है। यह हमारी संस्कृति, हमारी पहचान और हमारी जड़ों को उखाड़ने जैसा है। अगर यह बाजार उजड़ता है, तो काशी की आत्मा का एक बड़ा हिस्सा हमेशा के लिए खो जाएगा।"

दालमंडी के व्यापारियों का संघर्ष कभी खत्म होता नहीं दिखता। छोटे दुकानदार, जिनके पास न तो जमीन का मालिकाना हक है और न ही कोई विकल्प, पूरी तरह से असहाय महसूस कर रहे हैं। दिलशाद सिद्दीकी कहते हैं, "सरकार को चाहिए कि वह हमें भी विकास का हिस्सा बनाए, न कि हमें विकास की बलि चढ़ाए। अगर अंडरग्राउंड मार्केट बनाकर हमें वहीं बसाया जाता, तो शायद यह दर्द सहन करने लायक होता। लेकिन ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा।"

यह दर्द और बेबसी सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि दालमंडी के हर उस व्यापारी की है, जिसने अपनी जिंदगी की नींव इस बाजार की गलियों में रखी थी। 60 साल के मुन्ने खां, जो चश्मों का व्यापार करते हैं, कहते हैं, "हमारे पास कुछ और करने का हुनर नहीं है। यह बाजार ही हमारी जिंदगी है। अगर यह उजड़ गया, तो हमारा भविष्य अंधकार में डूब जाएगा।"


मौन में छिपा विरोध

दालमंडी के अधिकांश व्यापारी खुलकर अपनी बात रखने से डरते हैं। उन्हें लगता है कि विरोध करने से उनकी परेशानी और बढ़ सकती है। लेकिन उनके मौन में जो दर्द है, वह हर उस व्यक्ति को महसूस होता है, जो इन गलियों से गुजरा है। प्रिंस कम्युनिकेशन के मालिक 35 वर्षीय फरहान कहते हैं कि दालमंडी काशी का दिल है। इसका खत्म होना न सिर्फ व्यापार, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक धरोहर का अंत होगा। सवाल यह है कि क्या विकास का मतलब सिर्फ इमारतें और सड़कें हैं, या फिर इसमें इंसानियत और जिंदगियों की अहमियत भी है? दालमंडी का हर कोना, हर गली अपनी कहानी कहती है। लेकिन क्या सरकार उन कहानियों को सुनने को तैयार है? या फिर यह बाजार भी विकास की चमक में हमेशा के लिए खो जाएगा?"

दालमंडी में गली चौड़ीकरण के पक्ष में स्थानीय पार्षद इंद्रेश कुमार का तर्क है कि यह बदलाव न केवल यातायात को सुगम बनाएगा, बल्कि क्षेत्र की आपातकालीन सेवाओं में भी सुधार लाएगा। वह कहते हैं, "अगर गली सड़क में तब्दील हो जाती है, तो एंबुलेंस और दमकल गाड़ियां यहां आसानी से आ-जा सकेंगी। बाबा विश्वनाथ कॉरिडोर तक पहुंचना सुगम होगा। बेनिया की पार्किंग, जो 700 वाहनों की क्षमता वाली है, अब पूरी तरह उपयोग में लाई जा सकेगी।"

इंद्रेश का कहना है कि बीते तीन वर्षों में काशी ने 19 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं का स्वागत किया। बढ़ते पर्यटक दबाव के कारण मुख्य और संपर्क मार्गों का चौड़ीकरण अनिवार्य हो गया है। वह आगे कहते हैं, "काशी अब केवल स्थानीय निवासियों की नहीं, बल्कि पूरे देश की धरोहर है। यह बदलाव शहर को वैश्विक स्तर पर एक नए रूप में पेश करेगा।"


प्रशासन ने दालमंडी की तंग गलियों को सड़क में बदलने और क्षेत्र को आधुनिक सुविधाओं से लैस करने का एक विस्तृत खाका तैयार किया है। इसमें दिल्ली के पालिका बाजार की तर्ज पर एक अंडरग्राउंड मार्केट बनाने की योजना है। इस योजना के तहत दालमंडी गली की दुकानों को तोड़कर 23 फीट चौड़ी सड़क बनाई जाएगी। बिजली आपूर्ति के लिए अंडरग्राउंड केबल बिछाई जाएंगी। नई सीवर लाइन डाली जाएगी। बेनिया के रास्ते से काशी विश्वनाथ मंदिर जाने की दूरी 2.5 किलोमीटर से घटकर 1 किलोमीटर हो जाएगी।

दालमंडी की मौजूदा तंग गलियों में न तो पार्किंग की सुविधा है और न ही पुलिस गश्त के लिए पर्याप्त जगह। 8 फीट चौड़ी सड़कों पर भीड़ और अराजकता आम बात है। प्रशासन का मानना है कि इन समस्याओं का समाधान गली चौड़ीकरण के माध्यम से हो सकता है। इंद्रेश के अनुसार, "इस विकास कार्य से न केवल आवागमन सुगम होगा, बल्कि व्यापार भी बेहतर होगा।"

हालांकि, इस विकास योजना को लेकर दालमंडी के छोटे व्यापारियों में भारी असंतोष है। उनकी शिकायत है कि इस चौड़ीकरण की कीमत उन्हें अपनी दुकानें और आजीविका गंवाकर चुकानी पड़ रही है। दालमंडी के एक व्यापारी सलमान का कहना है, "यह बाजार हमारी जिंदगी है। अगर यह उजड़ गया, तो हमारे परिवार भूखों मर जाएंगे। दालमंडी, बनारस की उन ऐतिहासिक गलियों में से एक है, जहां हर ईंट और हर मोड़ भारतीय संस्कृति, संगीत, और स्वतंत्रता संग्राम के अनकहे किस्से बयां करते हैं। यह सिर्फ एक बाजार नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल है, जिसने बनारस की आत्मा को अपनी धड़कनों में संजोया है।"

दूसरी ओर, प्रशासन का कहना है कि यह कदम क्षेत्र को न केवल बेहतर बनाएगा, बल्कि काशी को विश्वस्तरीय पर्यटन स्थल में बदलने का हिस्सा है। सवाल यह है कि क्या विकास की इस कीमत को न्यायोचित ठहराया जा सकता है?


बनारस की आत्मा का संघर्ष

दालमंडी सिर्फ एक बाजार नहीं है। यह बनारस की आत्मा है। यहां के रौनक भरे बाजार, संकरी गलियां और पीढ़ियों की मेहनत बनारस की पहचान हैं। बनारसी साड़ियों के विक्रेता सद्दाम हुसैन कहते हैं,"हमारी दुकानें हमारा घर हैं। अगर ये उजड़ गईं, तो हम कहां जाएंगे? दालमंडी की गलियों में हमारी यादें बसती हैं। इसे मिटाना हमारी जिंदगी को मिटाने जैसा है। दालमंडी सिर्फ एक गली भर नहीं, यह उस संस्कृति की गवाह है, जो कभी खत्म नहीं हो सकती। यह बाजार बनारस के दिल की धड़कन है। इसे बचाना सिर्फ व्यापारियों का ही नहीं, हमारी विरासत का भी सवाल है।"

बनारस घराने के मशहूर तबला वादक पंडित किशन महाराज ने साल 1986 में सन्मार्ग में एक लेख लिखा था। दालमंडी की अहमियत को दर्शाते हुए उन्होंने कहा था, "मुगलों के समय से पहले ही दालमंडी एक प्रमुख बाजार के रूप में विकसित हो चुकी थी। 16वीं सदी में यह बाजार और भी प्रसिद्ध हो गया। इस मंडी ने बनारस के संगीत घरानों के रूप में एक नई पहचान बनाई थी।"

प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. मोतीचंद ने अपनी किताब "काशी का इतिहास" में उल्लेख किया है कि पहले दालमंडी में मुख्य रूप से दालों का कारोबार हुआ करता था, लेकिन शाम होते ही यह स्थल एक सांगीतिक महफिल बन जाया करता था। रईस और सम्मानित लोग यहां बैठकर भांड़ मंडली से मनोरंजन करते थे।

मुगलों के आखिरी दौर में दालमंडी का व्यापार बदलने लगा और यह अब विश्वेश्वरगंज में शिफ्ट हो गया। इसके बाद यह गली कला, संगीत और नृत्य का केंद्र बन गई। लेखक विश्वनाथ मुखर्जी ने अपनी किताब "बना रहे बनारस में" कहते हैं, "18वीं सदी में दालमंडी में शास्त्रीय संगीत के साधक आते थे। यहां की गलियों में शाम होते ही रईस लोग सफेद बनारसी कपड़े पहनकर, पान की गिलौरी के साथ संगीत का आनंद लिया करते थे। और यहीं से सितारा देवी और बागेश्वरी देवी जैसी महान हस्तियां सामने आईं।"

"अंग्रेजों के आने के बाद दालमंडी का रूप बदलने लगा। अंग्रेजों ने यहां तवायफों को बसाना शुरू किया, और धीरे-धीरे यह क्षेत्र मनोरंजन का प्रमुख केंद्र बन गया। उस दौर में अंग्रेज तवायफों को ‘डॉल’ कहते थे, और यही कारण था कि इस इलाके को ‘डॉलमंडी’ के नाम से भी जाना जाने लगा। दालमंडी का यह रूप, जहां कभी संगीत और कला की गूंज थी, अब एक अलग ही दिशा में मोड़ ले चुका था।"


दालमंडी में जब तवायफों ने जलवा बिखेरना शुरु किया तो इस गली के ऊपर वाले मंजिलों से अक्सर मुजरे और तबले की आवाजें आतीं, और गली के कोनों में छिपकर रईसजन इन संगीत संधाओं का लुत्फ उठाते थे। लेकिन आज इस गली में वो पुरानी रौनक और आवाज़ें गायब हो चुकी हैं। एक समय था जब यहां के दुकानों से घुंघरुओं की आवाज और तबले की थापें सुनाई देती थीं, लेकिन आज इस इलाके में वो सब खामोश हो चुका है।

कपड़ा, घड़ी, चश्मा, कास्टमेटिक्स आदि सामनों की दुकानों दालमंडी एक समय मस्ती और रूहानी माहौल हुआ करता था, वहीं अब इन गलियों में एक तरह की तन्हाई छाई हुई है। हम जब एक दुकान पर गए तो वहां पाकीजा फिल्म का मशहूर गाना 'इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा' सुनाई दिया। यह गाना उस पुराने दौर की याद दिलाता है, जब यहां की गलियों में रंगीनियां हुआ करती थीं। अब हालांकि, यह गली एक शांत और बदलती हुई तस्वीर पेश करती है, जहां सुर, साज और आवाज़ सब खामोश हैं।

प्राख्यात तबला वादक लक्ष्मी नारायण सिंह उर्फ लच्छू महाराज दालमंडी की एक हवेली में रहते थे। अब यह हवेली एक मार्केटिंग कॉम्प्लेक्स में बदल चुकी है। एक समय वह भी था जब लच्छू महाराज यहां रियाज किया करते थे। और इस हवेली से जुड़ी एक और दिलचस्प बात यह है कि फिल्म स्टार गोविंदा की मां, निर्मला देवी का जन्म भी यहीं हुआ था। लच्छू महाराज की उंगलियों से जब तबले की थाप, जैसे धिर-धिर-तिटकत और ताक-धिन-धिन्ना, बजती तो मानो हर सुनने वाला उसमें खो जाता था।



दालमंडी के कटरा राजपूत में तब्दील लच्छू महाराज की एक हवेली थी, जहां वो रियाज किया करते थे। उनके भाई जय नारायण सिंह के बेटे, वैभव सिंह बताते हैं, "हमारे दादा कुबेर सिंह, जो मूल रूप से सुल्तानपुर के रहने वाले थे, 10-12 साल की उम्र से ही रियाज करने लगे थे। कमरे में पंखा नहीं चलता था, सिर्फ एक मोमबत्ती जलती और वहीं, उस अंधेरे कमरे में उनका संगीत गूंजता रहता। इस हवेली में न केवल लच्छू महाराज, बल्कि कई अन्य महान कलाकारों ने भी समय बिताया था।"

71 साल की उम्र में भी जब वह तबले पर थाप देते, तो उनकी गति और धार में कोई जोड़ नहीं था। लच्छू महाराज की तबला वादन की कला का कोई मुकाबला नहीं था। एक समय था जब आपातकाल के दौरान उन्हें जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उनका संगीत कभी नहीं रुका। दालमंडी में ही निर्मला देवी का जन्म हुआ था, जो वासुदेव सिंह की बेटी थीं और लच्छू महाराज की बहन।

निर्मला देवी, जो बनारस की एक बड़ी ठुमरी गायिका मानी जाती हैं, ने इस इलाके की संगीत परंपरा को और बढ़ावा दिया। दिलचस्प बात यह है कि निर्मला देवी के बेटे, फिल्म स्टार गोविंदा, का ननिहाल दालमंडी में ही था। राज नारायण बताते हैं कि इसी हवेली में लच्छू महाराज ने अपने भांजे गोविंदा को भी तबला बजाना सिखाया था।

हर जुबां पर उस्ताद का नाम

दालमंडी का नाम आते ही उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का नाम सबसे पहले जुबां पर आता है। उनकी शहनाई की गूंज इन गलियों में गूंजी, जिसने इसे भारतीय संगीत का केंद्र बना दिया। साल 1960 के दशक में आई फिल्म 'गूंज उठी शहनाई' में उस्ताद की शहनाई ने इसे और भी लोकप्रिय बना दिया। "दिल का खिलौना टूट गया" जैसे गीतों की आत्मीयता आज भी संगीत प्रेमियों को दालमंडी की गलियों में खींच लाती है।

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का यह कथन कि "अगर दालमंडी और वहां की तवायफें न होतीं, तो बिस्मिल्लाह खान भी न होते," इस बात का प्रमाण है कि इन तवायफों ने केवल बनारस की संस्कृति को समृद्ध किया, बल्कि कलाकारों के जीवन और कला को भी आकार दिया।

बनारस की दालमंडी, संगीत और कला का एक एसा केंद्र था, जहां कई मशहूर कलाकारों की साधना और रचनाएं बसी हुई थीं। यह वह गली है, जो कला और संस्कृति की धारा से हमेशा जुड़ी रही। दालमंडी के पुराने घर, हवेलियां और गलियाँ आज भी उन महान कलाकारों की यादें संजोए हुए हैं। इसी गली में हुआ करती थीं रसूलन बाई, जिनका संगीत की दुनिया में बड़ा नाम था।

70 के दशक तक दालमंडी बनारस का ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत का सांगीतिक और सांस्कृतिक केंद्र थी। यहां की तवायफें न केवल नृत्य और गायन की पारंगत थीं, बल्कि वे तहज़ीब, अदब, और बनारसी संस्कृति की ध्वजवाहक भी थीं। महाकवि जयशंकर प्रसाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे साहित्यकार भी इन गलियों में आते थे। मुंशी प्रेमचंद की कहानियों में भी दालमंडी का जिक्र मिलता है, जहां उन्होंने इसकी सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता को बड़े ही संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया।

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "बनारस का संगीत, उसकी कला और संस्कृति में न केवल उस्तादों और नर्तकियों का योगदान रहा है, बल्कि यह शहर खुद एक अनोखी प्रयोगशाला की तरह था, जहां हर स्वर, हर ताल और हर भाव एक नए रूप में परिवर्तित होता था। संगीत और कला के इस माहौल ने यहां के फनकारों को एक नई दिशा दी और उनका नाम दुनिया भर में फैलाया। दालमंडी की गलियां, जो कभी कला और संस्कृति का केंद्र थीं, आज भी उन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों की गवाही देती हैं।"

विनय कहते हैं, "आज की तारीख में, भले ही ये गलियां पहले जैसी गुलजार नहीं हैं, फिर भी यहां की गलियों और कोठों में बीती हुई उस कला की आवाजें अब भी गूंजती हैं, जो कभी बनारस के हर कोने में सुनाई देती थीं। बनारस के संगीत घराने, चाहे वे तबला, सितार या शहनाई के हों, इन गलियों की हवा में बसी हुई हैं। इन्हीं घरानों की वजह से बनारस को संगीत की जन्मभूमि कहा जाता है, और ये धरोहर आज भी उन कलाकारों की मेहनत और साधना का जीवित उदाहरण हैं, जिन्होंने कला और संस्कृति को न केवल भारतीय समाज, बल्कि पूरी दुनिया के सामने प्रस्तुत किया।"

पूर्व पार्षद सलीम बताते हैं, "बुजुर्गों से सुना था कि जब रसूलन बाई मुजरा गातीं, तो बनारस के रईसों और जमींदारों का जमावड़ा लगता था। उनके गाए हुए गाने जैसे ‘मटुकिया मोरी छिन ले गयो सांवरिया’ और ‘फूलगेंदवा न मारो, लागत जोबनवा में चोट’, ये गाने तो बस जैसे सुनते ही दिल में घर कर जाते थे। इन गानों की लोकप्रियता का अंदाजा लगाना मुश्किल था।"

डॉ. प्रवीण कुमार झा ने अपनी किताब 'वाह उस्ताद, हिंदुस्तानी संगीत घरानों के किस्से' में भी इसका जिक्र किया है। रसूलन बाई का गाया ‘अजी फूल गेंदवा न मारो’ मन्ना डे ने भी गाया था। उनका गाया हुआ दादरा ‘ठाढे रहियो रे ओ बांके यार’ तो फिल्म ‘पाकीजा’ का हिस्सा बन गया था, जिसे लता मंगेशकर ने गाया था और मीना कुमारी पर फिल्माया गया था।


देशभक्ति की आवाज

दालमंडी की तवायफें केवल नृत्य और संगीत तक सीमित नहीं थीं। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वतंत्रता सेनानी बदरुद्दीन अहमद के अनुसार, "दालमंडी की तवायफों ने अपनी संपत्ति और आभूषण बेचकर आंदोलन के लिए धन जुटाया। उनकी महफिलें गुप्त बैठकों और संदेशों के आदान-प्रदान का केंद्र थीं। देशभक्ति का पहला मुजरा विद्याधरी बाई ने दालमंडी इलाके के अपने कोठे पर गाया था। विद्याधरी खुद आजादी के आंदोलन की गीत और कविताएं लिखती थीं। इन तवायफों ने अपनी कला को आजादी की लड़ाई में एक हथियार बना लिया था, जिसे हमेशा याद रखा जाएगा।"

"स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जब चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों से बचने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे, तो वह कई बार धनेसरीबाई के घर में पनाह लिया करते थे। धनेसरीबाई केवल एक तवायफ नहीं, बल्कि एक वीर महिला थीं। उनका साहस और संघर्ष इतना था कि वह अंग्रेजों को अपने दरवाजे से खदेड़ देती थीं। उनका यह साहस और देशभक्ति का जज्बा आज भी दालमंडी के इतिहास में गूंजता है।"

साल 1969 में दंगाइयों द्वारा रसूलन बाई के कोठे को जलाए जाने के बाद उन्हें चौक थाना के पास चाय की स्टॉल लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन इसके बावजूद उनकी आवाज और संगीत की महफिलें बंद नहीं हुईं। रसूलन बाई के गहनों का महत्व तब बढ़ा, जब उन्होंने उन गहनों को तभी पहना जब देश स्वतंत्र हुआ।

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान उन्हें 'इबादत की आवाज' कहा करते थे। रसूलन बाई और उनके जैसे कई कलाकारों ने न केवल मनोरंजन किया, बल्कि उनके घरों में देशभक्ति की महफिलें भी सजती थीं। ये महफिलें उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के रूप में एकजुटता का प्रतीक बनीं।

दालमंडी की मशहूर तवायफ दुलारीबाई के कहने पर उनके खास नन्हकू ने कई अंग्रेजों को मार गिराया था। ये महिलाएं न केवल अपनी कला में माहिर थीं, बल्कि उन्होंने अपने देश के लिए संघर्ष भी किया। इनकी शहादत और संघर्ष की कहानियां आज भी दालमंडी की हवाओं में बसी हुई हैं। तवायफों ने स्वतंत्रता सेनानियों की गुप्त बैठकों के लिए अपने स्थानों का उपयोग किया।


दालमंडी की तवायफों और महिलाओं ने अपनी संपत्ति और गहनों को बेचकर आजादी के आंदोलन के लिए धन जुटाया। उनकी कविताओं और गीतों ने लोगों में देशभक्ति की भावना जगाई। यहां तौकीबाई, हुस्नाबाई, जद्दनबाई, जानकीबाई (छप्पन छुरी), गौहरजान, रसूलनबाई, सिद्धेश्वरी देवी, और विद्याधरी जैसी विख्यात कलाकारों ने अपनी कला से दालमंडी को पहचान दिलाई। ये महिलाएं केवल नृत्यांगना या गायिका नहीं थीं, बल्कि वे बनारसी तहज़ीब और संगीत परंपरा की वाहक थीं।

जद्दनबाई के कोठे पर भी अंग्रेजों की छापेमारी से संघर्ष जारी रहता था। यहां अंग्रेजों के खिलाफ कई बातें की जाती थीं और यही महफिलें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के खाका में एक अहम भूमिका निभाती थीं। सिद्धेश्वरी देवी की महफिलें भी इसी तरह से प्रेरणादायक हुआ करती थीं, जहां वह देशभक्ति गीत गाकर अपने चाहने वालों में जोश भर देती थीं। इन गली-मोहल्लों में संगीत और देशभक्ति की बातों से एक नया उत्साह और जोश पैदा होता था, जो आजादी के संघर्ष का हिस्सा बन गया।

गुलशन कपूर, जो दालमंडी के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व को समझने वाले प्रमुख व्यक्ति हैं, बताते हैं कि, "यह इलाका व्यापारियों और तीर्थयात्रियों का मनोरंजन स्थल होने के साथ-साथ उनके ठहरने का स्थान भी था। यहां की महफिलों में संगीत, नृत्य और अदब का संगम होता था।"

गुलशन कपूर दालमंडी को काशी के चार पुरुषार्थों—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—का एक प्रतीक मानते हैं। चौक से जाने वाले चार रास्ते इस विचार को स्पष्ट करते हैं, "पहलाः धर्म, काशी विश्वनाथ मंदिर की ओर जाने वाला मार्ग। दूसराः अर्थ, प्रमुख बाजार की ओर जाने वाला मार्ग। तीसराः काम, दालमंडी की ओर जाने वाला मार्ग। चौथाः मोक्ष, मणिकर्णिका घाट की ओर जाने वाला मार्ग।"

गुलशन बताते हैं, "दालमंडी का 'काम' पुरुषार्थ जीवन की पूर्णता और आनंद का प्रतीक था, जो नृत्य और संगीत के माध्यम से व्यक्त होता था। 80 के दशक के बाद दालमंडी की छवि में बदलाव आया। जहां पहले यह सांस्कृतिक वैभव का केंद्र था, वहीं बाद में इसे केवल व्यावसायिक गतिविधियों और वेश्यालय के रूप में देखा जाने लगा। इसका सांस्कृतिक महत्व धीरे-धीरे धूमिल हो गया।"

दालमंडी का नाम क्यों बदला?

दालमंडी का नाम आज हकीम मोहम्मद जाफर मार्ग के रूप में जाना जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसका नाम कभी दालमंडी था? दरअसल, शहर के कुछ रईसों ने अंग्रेज अफसरों से मिलकर इस मोहल्ले का नाम बदलकर हकीम मोहम्मद जाफर मार्ग कर दिया, ताकि उनकी इज्जत पर कोई आंच न आए। हकीम मोहम्मद जाफर, जो एक प्रसिद्ध यूनानी डॉक्टर थे, ने कई सालों तक बनारस और ग्वालियर के राजघराने का इलाज किया था।

व्यापारी नेता बदरुद्दीन अहमद कहते हैं, "समय और समाज ने दालमंडी को एक अलग रूप में ढाला है।अगर हम आज के समय में दालमंडी को देखें, तो यह एक बाजार में तब्दील हो चुका है, लेकिन इसके भीतर की ऐतिहासिक गूंज और सांस्कृतिक धरोहर कभी खत्म नहीं हो सकती। दालमंडी केवल व्यापार का केंद्र नहीं, बल्कि बनारस की सांस्कृतिक विविधता और विरासत की जीती-जागती तस्वीर है। "


"दालमंडी की हर गली, हर कोना इतिहास की कहानियां बयां करता है। यह बाजार उस साझी संस्कृति का उदाहरण है जहां हिंदू और मुस्लिम दोनों ने कंधे से कंधा मिलाकर न केवल व्यापार किया, बल्कि त्योहारों को भी एक साथ जिया। आज इस विरासत पर संकट मंडरा रहा है, और हर व्यापारी की आंखों में अपने उजड़ते भविष्य की चिंता साफ दिखती है।"

बदरुद्दीन यह भी कहते हैं, "योगी सरकार के दालमंडी पर लिए गए निर्णयों ने इस स्थान के महत्व और उसके संरक्षण को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है। यह जरूरी है कि दालमंडी की विरासत को संरक्षित किया जाए, ताकि आने वाली पीढ़ियां इसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक योगदान को जान और समझ सकें। दालमंडी सिर्फ एक बाजार नहीं, बल्कि बनारसी तहज़ीब और भारतीय इतिहास का गौरव है, जो हर मोड़ पर अपनी कहानियों को हमारे कानों में फुसफुसाता रहता है।"

ऋषि झिंगरन, बनारस के एक प्रसिद्ध पत्रकार, बताते हैं, "दालमंडी केवल एक व्यापारिक केंद्र नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक तीर्थ थी। यहां की रौनक, फिजा, और लोगों की चहल-पहल ने इसे एक अलग ही मुकाम दिया। दालमंडी का नाम बनारस के रग-रग में रचा-बसा है। बीजेपी सरकार सालों पुरानी विरासत को क्यों ढहाने पर तुली हुई है, यह बात समझ से परे है।"

"बनारस के पुरनियों से बात कीजिए तो यह रहस्य निथरकर सामने आता है कि दालमंडी में न कभी गाड़ियां चलीं, न ही इक्के और बग्घियां। बेनियाबाग की ओर से चौक आने का शार्टकट रास्ता राजा दरवाजा से होकर था। राजा दरवाजा मार्ग पर इक्के, बग्घियां और रिक्शे सभी चला करते थे। अगर किसी सड़क को चौड़ा करना ही है तो राजा दरवाजा को कीजिए।"

झिंगरना सवाल खड़ा करते हैं, "सरकार बनारस की विरासत को मिटाने पर आखिर क्यों उतारू है। बनारस का हर प्रबुद्ध जानता है कि राजा दरवाजा रोड सरकार क्यों नहीं चौड़ा करना चाहेगी, क्योंकि बीजेपी के वोट बैंक के खिसकने का सवाल सबसे पहले खड़ा होगा। दालमंडी के दुकानदारों की पुकार सुनने के लिए सरकार आखिर क्यों तैयार नहीं है? यहां के सारे कारोबारी विलाप कर रहे हैं, "हमारी दुकानें हमारा घर हैं। अगर ये उजड़ गईं, तो हम कहां जाएंगे? दालमंडी की गलियों में हमारी यादें बसती हैं। इसे मिटाना हमारी जिंदगी को मिटाने जैसा है।"

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी मोदी-योगी सरकार की नीति और नीयत पर तल्ख टिप्पणी करते हुए कहते हैं, ""दालमंडी बनारस की उस संस्कृति की गवाह है, जो कभी खत्म नहीं हो सकती। यह बाजार बनारस के दिल की धड़कन है। इसे बचाना सिर्फ व्यापारियों का ही नहीं, हमारी विरासत का भी सवाल है। दालमंडी का यह विवाद काशी के उस बड़े सवाल को उठाता है जो देश के हर प्राचीन शहर में गूंजता है – क्या विकास के नाम पर परंपरा को कुर्बान करना सही है? एक ओर सरकार का तर्क है कि यह बदलाव काशी को नई पहचान देगा, तो दूसरी ओर व्यापारियों का दर्द और उनकी जड़ें उजड़ने का डर है।"


"क्या बनारस का विकास उन हजारों परिवारों की कीमत पर होना चाहिए जो सदियों से यहां बसे हैं? या फिर सरकार को उनके लिए भी एक ऐसी योजना बनानी चाहिए जो परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बना सके? दालमंडी की एतिहासिक विरासत को भुलाना केवल एक स्थान को खोना नहीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ों से दूर होना है। दालमंडी आज भी भारतीय संस्कृति के उस अनूठे संगम का प्रतीक है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को जोड़ता है।"

महंत राजेंद्र कहते हैं, "दालमंडी गली को सड़क बनाने की सनक एक सोची-समझी साजिश का नतीजा है। इस गली में सर्वाधिक दुकानें मुसलमानों की है। असल मकसद है वर्ग विशेष के बीच नफरत पैदा करना। सत्ता के शीर्ष पर बैठे कुछ लोग बनारस में नफरती हिंदुओं को खड़ा कर रहे हैं, ताकि उनका एजेंडा चलता रहे। साथ ही कोई नौजवान न नौकरी की  डिमांड करे और न महंगाई की चर्चा हो। आने वाले समय में इसके विस्फोटक नतीजे सामने आएंगे। वोटबैंक के लिए बहुसंख्यक समाज के मन में जिस तरह से मुसलमानों के खिलाफ नफरत पैदा करने की स्कीम चलाई जा रही है, उसके नतीजे बंगलादेश और श्रीलंका की तरह भयावह हो सकते हैं। "

"दालमंडी केवल एक बाजार नहीं है, यह बनारस की आत्मा है। यह उन गलियों की दास्तां है, जहां संस्कृति, इतिहास, और मानवीय संवेदनाएं वर्षों से एक साथ सांस लेती आई हैं। आज, विकास के नाम पर इन गलियों और यहां बसने वाले हजारों परिवारों की जिंदगियां खतरे में हैं। दालमंडी के दुकानदारों और यहां के निवासियों को विस्थापित करने का मतलब केवल उनका घर उजाड़ना नहीं, बल्कि उनकी पूरी जिंदगी को बर्बाद कर देना है।

"दालमंडी का इतिहास केवल बनारस की कहानी नहीं, बल्कि पूरे देश की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा है। यह आवश्यक है कि पुरानी सड़कों और मार्गों को फिर से उपयोग में लाया जाए, बजाय इसके कि हम इस विरासत को हमेशा के लिए मिटा दें।"


विकास के नाम पर विरासत को मिटाना आसान है, लेकिन क्या यह सही है? बांसफाटक सड़क, जो पहले मुख्य मार्ग हुआ करती थी, को चौड़ा किया जा सकता है। दालमंडी को बचाने के लिए वैकल्पिक योजनाओं पर काम करना जरूरी है। सवाल यह है कि क्या विकास के इस रास्ते में हम अपनी जड़ों को हमेशा के लिए खो देंगे? क्या विकास की इस दौड़ में मानवता के लिए कोई जगह बची है?

पीएनएन 24 न्यूज के संपादक तारिक आजमी कहते हैं कि दालमंडी के गली के चौड़ीकरण की प्रक्रिया का विरोध भी इसलिए हो रहा है क्योंकि यह सीधे तौर पर हजारों लोगों की रोज़ी-रोटी से जुड़ा हुआ है। मेन स्टीम की मीडिया केवल दालमंडी तक ही सीमित होकर इस मुद्दे को उठा रहा है, लेकिन वाराणसी के अन्य क्षेत्रों में भी अतिक्रमण की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। उन्होंने उदाहरण के तौर पर जलपा देवी रोड, गोला दीनानाथ, काशीपुरा और कड़ घंटा जैसे इलाकों का हवाला दिया, जहां दुकानदारों ने अपनी दुकानें सड़क के बाहर निकाल रखी हैं, और यह स्थिति नगर निगम की अनदेखी का परिणाम है।

आज़मी ने यह भी सवाल उठाया कि जब अन्य क्षेत्रों में अतिक्रमण पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती, तो दालमंडी ही क्यों विशेष ध्यान का केंद्र बनता है। उनका कहना था कि, "यह राजनीति से प्रेरित हो सकता है, क्योंकि दालमंडी क्षेत्र एक अहम चुनावी क्षेत्र है, और यहां के व्यापारी समुदाय का सीधा असर विधानसभा चुनावों पर पड़ सकता है। यदि नगर निगम यहां अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई करता है, तो इसका असर दक्षिणी विधानसभा क्षेत्र के चुनावी परिणामों पर भी पड़ेगा।"

"दालमंडी की चिंता सिर्फ व्यापारियों का नहीं, यह बनारस की उस आत्मा को बचाने की लड़ाई है जिन्होंने अपनी कला से इस गली को जीवंत बनाया था। सरकार को यह समझना होगा कि विकास का मतलब केवल नई इमारतें और चौड़ी सड़कें नहीं है। विकास का असली मतलब है मानवता को प्राथमिकता देना। दालमंडी की गलियां, यहां के लोग और उनकी संस्कृति बनारस के इतिहास और आत्मा का हिस्सा हैं।"

पत्रकार आजमी कहते हैं, "यहां सवाल यह नहीं है कि सड़क चौड़ीकरण जरूरी है या नहीं, सवाल यह है कि क्या यह सही मायनों में "काशी की नई सुबह" होगी, या फिर यह उन अंधेरों की शुरुआत होगी, जो हजारों परिवारों को अपने साथ डुबा लेगी? ऐसे में यह जरूरी है कि यह जरूरी है कि सरकार और प्रशासन विकास की योजना बनाते समय मानवीय संवेदनाओं को प्राथमिकता दें।"

"दालमंडी का इतिहास और यहां के लोगों की जिंदगी, दोनों ही बनारस की पहचान हैं। इन्हें बचाने के लिए एक संतुलित और संवेदनशील योजना की जरूरत है। देखना यह है कि दालमंडी की संस्कृति बच पाएगी अथवा विकास की आंधी में गुम हो जाएंगी? यह सवाल सिर्फ बनारस का नहीं, पूरे देश का है। जब विकास और मानवता आमने-सामने हों, तो किसे चुनना चाहिए? "

(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। बनारस की दालमंडी से उनकी ग्राउंड रिपोर्ट)

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