पी चिदंबरम का कॉलम: इस बार जल्दी खुल गई बजट की पोल

Written by संजय कुमार सिंह | Published on: July 14, 2019
इस साल के केंद्रीय बजट की पोल पिछले सभी बजट के मुकाबले जल्दी खुल गई। लोगों में इसे या इसके प्रस्तावों को लेकर कोई ‘चर्चा’ नहीं हुई। बेहद अमीर (6467) तकलीफ में हैं, लेकिन डर के मारे चुप्पी साधे हुए हैं। अमीर इसलिए राहत महसूस कर रहे हैं कि उन्हें बख्श दिया गया है। मध्यवर्ग का मोहभंग हो गया है क्योंकि उस पर नए बोझ लाद दिए गए हैं। गरीब अपनी किस्मत के हवाले हैं। मझोले कॉरपोरेट (4000) फेंके गए टुकड़ों का हिसाब लगाने में लगे हैं।

बजट पर अगर कोई चर्चा कर रहा है तो वे सिर्फ अर्थशास्त्री और संपादकीय लेखक हैं और इन दोनों की केंद्र सरकार ने बहुत ही तिरस्कार पूर्ण अनदेखी की है। (वित्तमंत्री ने मिलने का समय लिए बिना वित्त मंत्रालय में पत्रकारों के घुसने पर रोक लगा दी है!)

सारे उपाय ठप
सरकार ने 2019-20 में सात या आठ फीसदी की वृद्धि दर देने का वादा किया है। यह एक फीसदी का अंतर भर नहीं है। यह जारी धीमी वृद्धि और संभावित तेज वृद्धि के बीच का फर्क है। यह इस बात का भी संकेत है कि मुख्य आर्थिक सलाहकार के अंतर्गत आने वाला आर्थिक प्रभाग वित्त सचिव के तहत आने वाले बजट विभाग से कोई संवाद नहीं करता है। ज्यादातर पर्यवेक्षकों ने इस पर गौर किया है कि बजट भाषण में इस बात का कोई संकेत नहीं था कि सरकार धीमी वृद्धि (सात फीसदी) से ही संतुष्ट है या उच्च और तेज वृद्धि (आठ से ज्यादा) का लक्ष्य रख रही है। मुझे लगता है कि पहले वाला ही होगा।

उच्च और तेज वृद्धि के लिए वृद्धि के चारों प्रमुख उपायों को पूरी रफ्तार देने की जरूरत है। सिर्फ 2018-19 में ही कारोबारी निर्यात 315 अरब अमेरिकी डॉलर, जो 2013-14 में था, से ऊपर निकल पाया, फिर भी इसमें पिछले साल के मुकाबले नौ फीसदी की धीमी वृद्धि ही थी। राजस्व खाते में सरकारी खर्च (ब्याज भुगतान और अनुदान मिलाकर) 2018-19 में जीडीपी का सिर्फ 7.18 फीसदी ही रहा। निजी खपत महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिकी के बेपटरी होने, सुरक्षा आदि की संभावनाओं सहित कई सूक्ष्म कारकों पर निर्भर करती है। लोगों के सामने सबसे बड़ी स्थायी दुविधा तो यही बनी रहती है कि बचत करूं या खर्च करूं। उदाहरण के लिए, यह निजी खपत में गिरावट है जिसने गाड़ियों और दुपहिया की बिक्री को बुरी तरह से प्रभावित किया है।

निवेश में ठहराव
इसके बाद निवेश का नंबर आता है। आर्थिक सर्वे ने निवेश के उपाय पर भरोसा जताया है और इससे थोड़ा कम निजी खपत पर। अर्थव्यवस्था में निवेश का पैमाना सकल स्थायी पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) होता है। इस सारणी से मोदी-1 सरकार की कहानी बयां होती है -

वर्ष जीएफसीएफ (जीडीपी का प्रतिशत) 
2007-08 32.9
2014-15 30.1
2015-16 28.7
2016-17 28.2
2017-18 28.6
2018-19 29.3

जीएफसीएफ 32.9 के उच्च स्तर से लगभग पांच प्रतिशत अंक तक गिर गया है। तीन साल तक यह लगातार 28 फीसदी के स्तर पर ठहरा रहा और 2018-19 में इसमें मामूली, 29.3 फीसदी तक सुधार आया।

अगर सार्वजनिक निवेश और निजी निवेश में भरपूर वृद्धि होती है तो जीएफसीएफ में बढ़ोत्तरी होगी। सरकारी निवेश कर राजस्व बढ़ाने की सरकार की क्षमता पर निर्भर करता है, लेकिन सरकार की यह क्षमता संदेह के घेरे में आ चुकी है। 2018-19 में सरकार को कुल कर राजस्व के संशोधित अनुमानों में से 167455 करोड़ रुपए का ‘घाटा’ हुआ। 2019-20 के लिए कर राजस्व की अनुमानित वृद्धि दरें, अगर विनम्रता से कहा जाए, तो इतनी महत्त्वाकांक्षी है कि चौंकाती हैं। क्या कोई विश्वास कर सकता है कि आयकर राजस्व 23.25 या जीएसटी राजस्व 44.98 फीसदी बढ़ जाएगा?

निजी निवेश कॉरपोरेट बचत और घरेलू बचत पर निर्भर करता है। इसके अलावा, निवेश विश्वास से जुड़ा मामला होता है। अगर कॉरपोरेट पर्याप्त मुनाफा नहीं कमाता है या उसे पर्याप्त मुनाफे की उम्मीद नहीं होती है और वह अपने मुनाफे को फिर से निवेश में नहीं लगाता है या घरेलू बचत स्थिर हो गई हो तो फिर निजी निवेश नहीं बढ़ेगा। कॉरपोरेट मुनाफा ऐसे कई पहलुओं पर निर्भर करता है जो कॉरपोरेट के नियंत्रण में नहीं होते हैं। जहां तक घरेलू बचतों का संबंध है, बजट में मुझे ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला, जो लोगों को और ज्यादा बचत करने और उस बचत को निवेश में लगाने के लिए प्रोत्साहित करता हो। अगर कुछ है तो यह कि पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा कर मध्यवर्ग पर और बोझ डाल दिए गए हैं, लंबी अवधि वाला कैपिटल गेन टैक्स जारी रखा गया है, शेयरों की पुनर्खरीद पर कर लगा दिया है और अखबारी कागज, किताबों, स्प्लिट एसी, ऑटोमोबाइल कल-पुर्जों और सोना-चांदी पर भारी सीमा शुल्क थोप दिया गया है। यदि जीएफसीएफ स्थिर बना रहता है और मान लिया जाए कि उत्पादकता या दक्षता में कोई नाटकीय सुधार नहीं आता है तो जीडीपी वृद्धि दर में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हो पाएगा।

सरंचनात्मक सुधार नहीं
बजट भाषण में दो जगहों पर ‘सरंचनात्मक सुधारों’ का उपयोग किया गया है, लेकिन ऐसे किसी भी कदम का उल्लेख नहीं किया गया है जिसे सरंचनात्मक सुधार के रूप में देखा जा सके। यह मेरे इस विचार की पुष्टि करता है कि नरेंद्र मोदी साहसी सुधारवादी नहीं हैं। वे पुराने ढर्रे पर चलने वाले, संरक्षणवादी, मुक्त व्यापार में भरोसा नहीं रखने वाले और कर-और-खर्च नीति के समर्थक हैं। करों के मामले को छोड़ दें, उनकी स्थिति राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जैसी ही है।

करीब सात फीसदी की धीमी वृद्धि से सरकार संतुष्ट नजर आती है। पूंजी निर्माण या खुशहाली लाने के लिए सात फीसदी की वृद्धि दर संपूर्ण रूप से नाकाफी है। सात फीसदी की वृद्धि दर लाखों नौकरियां कैसे पैदा करेगी जो कि जरूरी हैं। सात फीसदी की वृद्धि दर आबादी के सबसे निचले तबके (सबसे नीचे आने वाले बीस फीसदी लोग) की प्रति व्यक्ति आमद नहीं बढ़ाएगी। सात फीसदी की वृद्धि दर से भारत दुनिया की सबसे तेज उभरती अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने का तमगा तो जीत सकता है लेकिन गरीब, बेरोजगारों और उपेक्षित, असुरक्षित और शोषित वर्गों के लोगों के लिए उसका कोई मतलब नहीं होगा।

[इंडियन एक्सप्रेस में ‘अक्रॉस दि आइल’ नाम से छपने वाला पूर्व वित्त मंत्री और कांग्रेस नेता पी चिदंबरम का साप्ताहिक कॉलम। जनसत्ता में यह ‘दूसरी नजर’ नाम से छपता है। पेश है जनसत्ता का अनुवाद, साभार पर संशोधित / संपादित। एक्सप्रेस में इसका शीर्षक, ट्रैप्ड इन 7 परसेन्ट ग्रोथ और जनसत्ता में सात फीसद वृद्धि के जाल में है।]

बाकी ख़बरें