लेकिन सरकार इस संकट के प्रति पूरी तरह से उदासीन है, और योजना को कम फ़ंड देना जारी रखे हुए है।
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI
यह एक गंभीर संकट की तरफ इशारा है, कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में काम की मांग इस साल जुलाई तक लगभग 2021 के स्तर पर पहुंच गई है। याद रखें: 2021 महामारी का दूसरा वर्ष था जिसमें कोविड की घातक दूसरी लहर के बाद मांग में उछाल देखा गया था। वित्तीय वर्ष 2023-24 के पहले चार महीनों, यानी अप्रैल से जुलाई 2023 तक, 9.84 करोड़ परिवारों ने इस योजना में काम किया, जो पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में लगभग 10 प्रतिशत अधिक है, और 2021 के 9.97 करोड़ के करीब है। उपलब्ध सरकारी डेटा के लिए नीचे दिया चार्ट देखें।
2021 और 2022 के कोविड वर्षों में बढ़ती मांग देखी गई थी क्योंकि लॉकडाउन और महामारी के कारण हुई तबाही ने अर्थव्यवस्था को धीमा कर दिया था, शहरी इलाकों से गांवों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन/प्रवासन हुआ था। महामारी समाप्त हो गई है लेकिन मनरेगा के तहत काम की मांग पिछले साल गिरावट के बाद फिर से बढ़ गई है।
इस योजना के तहत ग्रामीण मजदूरों को 100 दिनों का काम उपलब्ध कराया जाता है। हालाँकि, आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि योजना के तहत जो काम दिए जाते हैं उन काम के दिनों की औसत संख्या पिछले साल लगभग 48 थी और पिछले कई वर्षों से यह लगभग 50 दिन पर टिकी हुई है, जबकि औसत मजदूरी बहुत कम बनी हुई है - पिछले साल यह प्रति दिन 217.91 रुपये थी और उससे एक साल पहले 208.84 रुपए थी।
कड़ी मेहनत, कम मजदूरी और साल में लगभग 50 दिनों के काम की छिटपुट प्रकृति के बावजूद, यह योजना उन करोड़ों हताश ग्रामीण परिवारों के लिए एक जीवन रेखा बनी हुई है जो किसी तरह अपनी आय को पूरा करने के लिए पूरक मजदूरी की तलाश में रहते हैं।
नौकरियों की कमी और कम कमाई का संकट
योजना के तहत काम की इतनी अधिक मांग क्यों है? इसका प्राथमिक कारण यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था कामकाजी उम्र की आबादी के एक बड़े हिस्से को रोजगार उपलब्ध कराने में असमर्थ है। सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी) के अनुसार, बेरोजगारी दर पिछले कई वर्षों से 7-9 प्रतिशत के आसपास मंडरा रही है, यह दर महामारी के दौरान तेजी से बढ़ी थी लेकिन बाद में अपनी इस सीमा के भीतर वापस आ गई थी। ग्रामीण इलाकों में रोज़गार अधिकतम सीजनल होते हैं क्योंकि कृषि ही काम का मुख्य स्रोत बनी हुई है। यह मनरेगा के काम के पैटर्न में भी दिखाई देता है - रबी की फसल के बाद गर्मियों के महीनों में काम की मांग बढ़ जाती है और फिर जब मानसून की बारिश होती है तो खरीफ की बुआई शुरू होती है तो मांग फिर से कम हो जाती है।
योजना में काम की उच्च मांग का एक अन्य संबंधित कारण यह है कि कमाई बहुत कम है, चाहे वह कृषि से संबंधित काम में हो या गैर-कृषि कार्य, या यहां तक कि स्वरोजगार में भी आय कम है।
2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि ग्रामीण मजदूरों की वास्तविक मजदूरी- यानी, मुद्रास्फीति के अनुसार समायोजित मजदूरी - या तो स्थिर है या पिछले दो वर्षों में उसमें मामूली गिरावट देखी गई है। पहले के एक सर्वेक्षण में कहा गया था कि ग्रामीण भारत में लगभग 36.5 करोड़ श्रमिक हैं, जिनमें से लगभग 61.5 प्रतिशत कृषि में, 20 प्रतिशत उद्योग में और 18.5 प्रतिशत सेवाओं में कार्यरत हैं।
अप्रैल 2020 से मार्च 2021 की अवधि के दौरान पिछले आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) में कहा गया था कि ग्रामीण इलाकों में, परिवारों का प्रमुख हिस्सा (55 प्रतिशत) स्व-रोज़गार है, वह भी मुख्यतः कृषि में है। इसके बाद कैज़ुअल श्रम (24 प्रतिशत) है, जो अक्सर दैनिक मजदूरी पर मौसमी और अनियमित काम होता है। ग्रामीण परिवारों में नियमित, वेतनभोगी कर्मचारी केवल 13 प्रतिशत ही है। स्व-रोज़गार में, ग्रामीण पुरुष औसतन प्रति माह 10,228 रुपये कमाते हैं जबकि महिलाओं को इसके आधे से भी कम (4,561 रुपये) मिलते हैं। दिहाड़ी मजदूर जो दैनिक मजदूरी पर काम करते हैं और बहुत कठिन कामकाजी परिस्थितियों का सामना करते हैं, उन्हें सबसे कम वेतन मिलता है। शहरी इलाकों में भी, एक पुरुष कैज़ुअल कर्मचारी प्रति माह केवल 10,058 रुपये कमाता है जबकि महिला श्रमिक को केवल 6,608 रुपये मिलते हैं। शहरी इलाकों में कमाई थोड़ी बेहतर है, पुरुषों को 12,360 रुपये और महिलाओं को 8,145 रुपये मिलते हैं। कैज़ुअल श्रमिकों के लिए ये मासिक वेतन पीएलएफएस में एकत्र किए गए दैनिक आय डेटा से अनुमानित हैं। वास्तव में, ऐसे भी दिन होंगे जब काम के दिनों के बीच में कोई काम नहीं मिलता होगा।
आय के इस बेहद निम्न स्तर का परिणाम यह होता है कि लोग अक्सर अपनी आय बढ़ाने के लिए कई तरह के काम ढूंढते है और उन्हे करते हैं। मनरेगा में काम करना उन कई विकल्पों में से एक है और वे इस योजना में काम की पेशकश होने पर तुरंत इसे स्वीकार कर लेते हैं।
वास्तव में, अर्थव्यवस्था का निर्वाह का यह स्तर उपभोग की अवस्तुओं पर कम खर्च का बुनियादी कारण है जो बदले में मांग को कम करता है और इस प्रकार औद्योगिक उत्पादन को भी नीचे खींचता है। इस प्रकार धीमी अर्थव्यवस्था का पूरा चक्र इस महत्वपूर्ण तथ्य से जुड़ा है कि भारत में विशाल जनसमूह के हाथों में खरीदने की कोई शक्ति नहीं है।
सरकार मनरेगा को दे रही कम फंड
कोई यह तो जरूर सोचता होगा कि इन गंभीर हालात में केंद्र सरकार कम से कम ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को मजबूत और विस्तारित करके लोगों को कुछ राहत प्रदान करेगी। अधिक आवंटन का मतलब अधिक लोगों के लिए अधिक नौकरियाँ होना है। लेकिन नवउदारवादी हठधर्मिता के प्रति अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से पंगु सरकार जितना संभव हो उतना कम खर्च कर रही है और निजी क्षेत्र को शो चलाने की अनुमति दे रही है, बदले में वह फंडिंग की योजना को खत्म करने की कोशिश कर रही है। सरकार ने शुरू में बजट अनुमान (बीई) में आवश्यकता से कम राशि आवंटित करने और फिर, बहुत शोर-शराबे के बाद, वर्ष के आगे बढ़ने के साथ इसे बढ़ाने की एक विचित्र रणनीति अपनाई हुई है। फिर भी, संशोधित अनुमान (आरई) आवश्यक आवंटन से कम पर समाप्त हो जाता है।
इस निरंतर कम आवंटन के लिए ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसदीय स्थायी समिति की आलोचना का जवाब देते हुए, ग्रामीण विकास विभाग ने कहा था कि, "वित्त वर्ष 2019-20 में, बीई 60,000 करोड़ रुपये था जिसे संशोधित कर 71,001.81 करोड़ रुपये कर दिया गया था।" वित्त वर्ष 2020-21 के लिए, बीई 61,500 करोड़ रुपये था जिसे फिर संशोधित कर 1,11,500 करोड़ रुपये किया गया और वित्त वर्ष 2021-22 में, 73,000 करोड़ रुपये का बीई संशोधित होकर 98,000 करोड़ रुपये हो गया था और पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान वर्ष 2022-23 में बजट अनुमान 73,000 करोड़ रुपये था, जिसे संशोधित कर 89,400 करोड़ रुपये कर दिया गया है।” यह बात समिति की 33वीं रिपोर्ट में दर्ज की गई थी.
2023-24 के लिए, समिति ने बताया कि विभाग ने खुद 98,000 करोड़ रुपये के आवंटन का प्रस्ताव दिया था, लेकिन वित्त मंत्रालय ने इसे घटाकर 60,000 करोड़ रुपये कर दिया था!
इस स्थिति पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, समिति ने बताया कि 2023-24 के लिए, 60,000 करोड़ रुपये का बीई पिछले वर्ष के आरई से 29,400 करोड़ रुपये कम था। इसमें आगे कहा गया, “स्थिति का जायजा लेते हुए, समिति को विभाग का ऐसा जवाब बेहद रूढ़िवादी और सामान्य प्रकृति का लगता है। ग्रामीण विकास विभाग ने समिति के इस सवाल का ठोस जवाब नहीं दिया कि डीओआरडी इस रुपये की गणना पर कैसे पहुंचा। प्रस्तावित मांग स्तर पर मनरेगा के लिए बीई के रूप में 98,000/- करोड़ रुपये है, और न ही यह इस समय मनरेगा के तहत धन की संभावित कमी से निपटने के लिए कार्रवाई का कोई ठोस तरीका सामने रखने में सक्षम है। समिति ऐसे महत्व के मुद्दे से निपटने में डीओआरडी द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण से संतुष्ट नहीं है, जिससे फंड की कमी के कारण मनरेगा के तहत किए जा रहे काम में बाधा आ सकती है। ऐसा परिदृश्य मनरेगा के तहत गरीब ग्रामीण श्रमिकों के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि धन की कमी से मजदूरी लंबित रहती है और परियोजनाएं रुक सकती हैं। उपरोक्त के मद्देनजर, समिति दृढ़ता से अपनी सिफारिश दोहराती है और डीओआरडी से फंड को अत्यधिक जानकारीपूर्ण और मजबूत वित्तीय व्यावहारिकता के साथ मनरेगा से संबंधित पहलू पर आवंटन जारी करने का आग्रह करती है…”
ये आदान-प्रदान, स्थायी समिति द्वारा आलोचना के बावजूद भी, सरकार के अड़ियल रवैये का एक स्नैपशॉट देते हैं, और साथ ही इस बात का भी खुलासा करते नज़र हैं कि वित्त मंत्रालय में फैसले अधिकारियों द्वारा लिए जा रहे हैं।
जो भी हो, देश भयंकर और विस्फोटक रोजगार संकट का सामना कर रहा है और सरकार रेत में अपना सिर धंसाती नजर आ रही है।
साभार- न्यूजक्लिक
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI
यह एक गंभीर संकट की तरफ इशारा है, कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में काम की मांग इस साल जुलाई तक लगभग 2021 के स्तर पर पहुंच गई है। याद रखें: 2021 महामारी का दूसरा वर्ष था जिसमें कोविड की घातक दूसरी लहर के बाद मांग में उछाल देखा गया था। वित्तीय वर्ष 2023-24 के पहले चार महीनों, यानी अप्रैल से जुलाई 2023 तक, 9.84 करोड़ परिवारों ने इस योजना में काम किया, जो पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में लगभग 10 प्रतिशत अधिक है, और 2021 के 9.97 करोड़ के करीब है। उपलब्ध सरकारी डेटा के लिए नीचे दिया चार्ट देखें।
2021 और 2022 के कोविड वर्षों में बढ़ती मांग देखी गई थी क्योंकि लॉकडाउन और महामारी के कारण हुई तबाही ने अर्थव्यवस्था को धीमा कर दिया था, शहरी इलाकों से गांवों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन/प्रवासन हुआ था। महामारी समाप्त हो गई है लेकिन मनरेगा के तहत काम की मांग पिछले साल गिरावट के बाद फिर से बढ़ गई है।
इस योजना के तहत ग्रामीण मजदूरों को 100 दिनों का काम उपलब्ध कराया जाता है। हालाँकि, आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि योजना के तहत जो काम दिए जाते हैं उन काम के दिनों की औसत संख्या पिछले साल लगभग 48 थी और पिछले कई वर्षों से यह लगभग 50 दिन पर टिकी हुई है, जबकि औसत मजदूरी बहुत कम बनी हुई है - पिछले साल यह प्रति दिन 217.91 रुपये थी और उससे एक साल पहले 208.84 रुपए थी।
कड़ी मेहनत, कम मजदूरी और साल में लगभग 50 दिनों के काम की छिटपुट प्रकृति के बावजूद, यह योजना उन करोड़ों हताश ग्रामीण परिवारों के लिए एक जीवन रेखा बनी हुई है जो किसी तरह अपनी आय को पूरा करने के लिए पूरक मजदूरी की तलाश में रहते हैं।
नौकरियों की कमी और कम कमाई का संकट
योजना के तहत काम की इतनी अधिक मांग क्यों है? इसका प्राथमिक कारण यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था कामकाजी उम्र की आबादी के एक बड़े हिस्से को रोजगार उपलब्ध कराने में असमर्थ है। सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी) के अनुसार, बेरोजगारी दर पिछले कई वर्षों से 7-9 प्रतिशत के आसपास मंडरा रही है, यह दर महामारी के दौरान तेजी से बढ़ी थी लेकिन बाद में अपनी इस सीमा के भीतर वापस आ गई थी। ग्रामीण इलाकों में रोज़गार अधिकतम सीजनल होते हैं क्योंकि कृषि ही काम का मुख्य स्रोत बनी हुई है। यह मनरेगा के काम के पैटर्न में भी दिखाई देता है - रबी की फसल के बाद गर्मियों के महीनों में काम की मांग बढ़ जाती है और फिर जब मानसून की बारिश होती है तो खरीफ की बुआई शुरू होती है तो मांग फिर से कम हो जाती है।
योजना में काम की उच्च मांग का एक अन्य संबंधित कारण यह है कि कमाई बहुत कम है, चाहे वह कृषि से संबंधित काम में हो या गैर-कृषि कार्य, या यहां तक कि स्वरोजगार में भी आय कम है।
2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि ग्रामीण मजदूरों की वास्तविक मजदूरी- यानी, मुद्रास्फीति के अनुसार समायोजित मजदूरी - या तो स्थिर है या पिछले दो वर्षों में उसमें मामूली गिरावट देखी गई है। पहले के एक सर्वेक्षण में कहा गया था कि ग्रामीण भारत में लगभग 36.5 करोड़ श्रमिक हैं, जिनमें से लगभग 61.5 प्रतिशत कृषि में, 20 प्रतिशत उद्योग में और 18.5 प्रतिशत सेवाओं में कार्यरत हैं।
अप्रैल 2020 से मार्च 2021 की अवधि के दौरान पिछले आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) में कहा गया था कि ग्रामीण इलाकों में, परिवारों का प्रमुख हिस्सा (55 प्रतिशत) स्व-रोज़गार है, वह भी मुख्यतः कृषि में है। इसके बाद कैज़ुअल श्रम (24 प्रतिशत) है, जो अक्सर दैनिक मजदूरी पर मौसमी और अनियमित काम होता है। ग्रामीण परिवारों में नियमित, वेतनभोगी कर्मचारी केवल 13 प्रतिशत ही है। स्व-रोज़गार में, ग्रामीण पुरुष औसतन प्रति माह 10,228 रुपये कमाते हैं जबकि महिलाओं को इसके आधे से भी कम (4,561 रुपये) मिलते हैं। दिहाड़ी मजदूर जो दैनिक मजदूरी पर काम करते हैं और बहुत कठिन कामकाजी परिस्थितियों का सामना करते हैं, उन्हें सबसे कम वेतन मिलता है। शहरी इलाकों में भी, एक पुरुष कैज़ुअल कर्मचारी प्रति माह केवल 10,058 रुपये कमाता है जबकि महिला श्रमिक को केवल 6,608 रुपये मिलते हैं। शहरी इलाकों में कमाई थोड़ी बेहतर है, पुरुषों को 12,360 रुपये और महिलाओं को 8,145 रुपये मिलते हैं। कैज़ुअल श्रमिकों के लिए ये मासिक वेतन पीएलएफएस में एकत्र किए गए दैनिक आय डेटा से अनुमानित हैं। वास्तव में, ऐसे भी दिन होंगे जब काम के दिनों के बीच में कोई काम नहीं मिलता होगा।
आय के इस बेहद निम्न स्तर का परिणाम यह होता है कि लोग अक्सर अपनी आय बढ़ाने के लिए कई तरह के काम ढूंढते है और उन्हे करते हैं। मनरेगा में काम करना उन कई विकल्पों में से एक है और वे इस योजना में काम की पेशकश होने पर तुरंत इसे स्वीकार कर लेते हैं।
वास्तव में, अर्थव्यवस्था का निर्वाह का यह स्तर उपभोग की अवस्तुओं पर कम खर्च का बुनियादी कारण है जो बदले में मांग को कम करता है और इस प्रकार औद्योगिक उत्पादन को भी नीचे खींचता है। इस प्रकार धीमी अर्थव्यवस्था का पूरा चक्र इस महत्वपूर्ण तथ्य से जुड़ा है कि भारत में विशाल जनसमूह के हाथों में खरीदने की कोई शक्ति नहीं है।
सरकार मनरेगा को दे रही कम फंड
कोई यह तो जरूर सोचता होगा कि इन गंभीर हालात में केंद्र सरकार कम से कम ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को मजबूत और विस्तारित करके लोगों को कुछ राहत प्रदान करेगी। अधिक आवंटन का मतलब अधिक लोगों के लिए अधिक नौकरियाँ होना है। लेकिन नवउदारवादी हठधर्मिता के प्रति अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से पंगु सरकार जितना संभव हो उतना कम खर्च कर रही है और निजी क्षेत्र को शो चलाने की अनुमति दे रही है, बदले में वह फंडिंग की योजना को खत्म करने की कोशिश कर रही है। सरकार ने शुरू में बजट अनुमान (बीई) में आवश्यकता से कम राशि आवंटित करने और फिर, बहुत शोर-शराबे के बाद, वर्ष के आगे बढ़ने के साथ इसे बढ़ाने की एक विचित्र रणनीति अपनाई हुई है। फिर भी, संशोधित अनुमान (आरई) आवश्यक आवंटन से कम पर समाप्त हो जाता है।
इस निरंतर कम आवंटन के लिए ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसदीय स्थायी समिति की आलोचना का जवाब देते हुए, ग्रामीण विकास विभाग ने कहा था कि, "वित्त वर्ष 2019-20 में, बीई 60,000 करोड़ रुपये था जिसे संशोधित कर 71,001.81 करोड़ रुपये कर दिया गया था।" वित्त वर्ष 2020-21 के लिए, बीई 61,500 करोड़ रुपये था जिसे फिर संशोधित कर 1,11,500 करोड़ रुपये किया गया और वित्त वर्ष 2021-22 में, 73,000 करोड़ रुपये का बीई संशोधित होकर 98,000 करोड़ रुपये हो गया था और पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान वर्ष 2022-23 में बजट अनुमान 73,000 करोड़ रुपये था, जिसे संशोधित कर 89,400 करोड़ रुपये कर दिया गया है।” यह बात समिति की 33वीं रिपोर्ट में दर्ज की गई थी.
2023-24 के लिए, समिति ने बताया कि विभाग ने खुद 98,000 करोड़ रुपये के आवंटन का प्रस्ताव दिया था, लेकिन वित्त मंत्रालय ने इसे घटाकर 60,000 करोड़ रुपये कर दिया था!
इस स्थिति पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए, समिति ने बताया कि 2023-24 के लिए, 60,000 करोड़ रुपये का बीई पिछले वर्ष के आरई से 29,400 करोड़ रुपये कम था। इसमें आगे कहा गया, “स्थिति का जायजा लेते हुए, समिति को विभाग का ऐसा जवाब बेहद रूढ़िवादी और सामान्य प्रकृति का लगता है। ग्रामीण विकास विभाग ने समिति के इस सवाल का ठोस जवाब नहीं दिया कि डीओआरडी इस रुपये की गणना पर कैसे पहुंचा। प्रस्तावित मांग स्तर पर मनरेगा के लिए बीई के रूप में 98,000/- करोड़ रुपये है, और न ही यह इस समय मनरेगा के तहत धन की संभावित कमी से निपटने के लिए कार्रवाई का कोई ठोस तरीका सामने रखने में सक्षम है। समिति ऐसे महत्व के मुद्दे से निपटने में डीओआरडी द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण से संतुष्ट नहीं है, जिससे फंड की कमी के कारण मनरेगा के तहत किए जा रहे काम में बाधा आ सकती है। ऐसा परिदृश्य मनरेगा के तहत गरीब ग्रामीण श्रमिकों के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि धन की कमी से मजदूरी लंबित रहती है और परियोजनाएं रुक सकती हैं। उपरोक्त के मद्देनजर, समिति दृढ़ता से अपनी सिफारिश दोहराती है और डीओआरडी से फंड को अत्यधिक जानकारीपूर्ण और मजबूत वित्तीय व्यावहारिकता के साथ मनरेगा से संबंधित पहलू पर आवंटन जारी करने का आग्रह करती है…”
ये आदान-प्रदान, स्थायी समिति द्वारा आलोचना के बावजूद भी, सरकार के अड़ियल रवैये का एक स्नैपशॉट देते हैं, और साथ ही इस बात का भी खुलासा करते नज़र हैं कि वित्त मंत्रालय में फैसले अधिकारियों द्वारा लिए जा रहे हैं।
जो भी हो, देश भयंकर और विस्फोटक रोजगार संकट का सामना कर रहा है और सरकार रेत में अपना सिर धंसाती नजर आ रही है।
साभार- न्यूजक्लिक