असम में 500 से अधिक वन गांव: जनजातीय मंत्रालय

Written by Sabrangindia Staff | Published on: June 25, 2022
आदिवासियों की लंबे समय से चली आ रही अतिक्रमण संबंधी शिकायतों को लेकर मंगलवार को CCTOA द्वारा आवाज उठाई गई।


जनजातीय मामलों के मंत्रालय (एमओटीए) का शोध रिकॉर्ड, जो ऑल इंडिया यूनियन ऑफ फॉरेस्ट वर्किंग पीपल (AIUFWP) द्वारा खोज किया गया है, बताता है कि, असम में 1901-02 से 524 वन (गैर-राजस्व) गांव बसे हुए हैं। दशकों पुराने यह दस्तावेज़ बताते हैं कि कैसे 1900 के शुरुआती दशक से ही आदिवासी परिवार अतिक्रमण को लेकर शिकायत करते रहे हैं। अतिक्रमण का यह एक ऐसा मुद्दा जिसको लेकर स्थानीय कार्यकर्ताओं द्वारा दशकों से विरोध किया जा रहा है, आज भी बादस्तूर जारी है। 

जीसी शर्मा ठाकुर का "असम में आदिवासियों के लिए बसाए गए वन गांवों की समस्याएं' नामक शोधपत्र बताता है कि आरक्षित वनों के निर्माण के दौरान "वृक्षारोपण और रखरखाव के लिए नियमित कार्य बल रखने" के उद्देश्य से वन गांवों की स्थापना की गई थी। ऐसा पहला गांव अविभाजित-असम में स्थापित किया गया था।

“वर्तमान में असम में 524 वन गांव हैं जो आरक्षित वन (अधिकार) क्षेत्र में आते हैं, जो वर्तमान [1901-02 के]  लगभग सभी जिलों को कवर करते हैं। आरक्षित वनों का 3 प्रतिशत से भी अधिक का क्षेत्रफल (वन ग्रामीणों) आदिवासियों के दखल (कब्जे) में है। 2011 की जनगणना के हिसाब से असम में आदिवासियों की आबादी लगभग 40 लाख है, जो राज्य की कुल आबादी का क़रीब 13% हिस्सा है। यही नहीं, जहां 47.11% वन ग्रामीण अनुसूचित जनजाति वर्ग से ताल्लुक रखते हैं वहीं, 524 वन गांवों में से 233 में 50% से अधिक आबादी आदिवासियों की है।



ठाकुर ने कहा कि इन गैर-राजस्व गांवों से बाहर रहने पर आदिवासी कई लाभों से वंचित हो जाते हैं। यह सब भी तब है जब अधिकांश स्थानीय समूह आजादी के पहले से ही जंगलों में रहते चले आ रहे हैं।

खैर, आगे की बात करें तो वनों में अतिक्रमण 1901 से ही सरकार के साथ स्थानीय लोगों के लिए भी एक बड़ा मुद्दा है। सर्वेक्षण में शामिल दो भूमिहीन सूचनादाताओं ने बताया था कि वह, साथी ग्रामीणों के घरों में काम करके आजीविका कमाते थे। उस समय केवल 10 परिवारों ने कहा था कि उनके पास 20-30 बीघा जमीन है। उस समय भी वन कानून, विकास विभाग को आदिवासियों के लिए कल्याणकारी और विकासपरक योजनाएं शुरू करने की अनुमति नहीं देता था। ग्रामीणों को उनके कब्जे वाली भूमि को वित्तीय संस्थानों को गिरवी रखने से भी रोक दिया गया था कि "भूमि वन विभाग की है"।

सालों में आज यह सब बदल गया है, खासकर अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 आने के बाद, जिसमें कानून वन क्षेत्र को आदिवासियों की अंतर्निहित संपत्ति के रूप में मान्यता देता है। हाल ही में, गुवाहाटी अदालत ने भी जिला उपायुक्तों को वन भूमि के अतिक्रमणकर्ताओं पर कार्रवाई करने के निर्देश देकर, अधिनियम की भावना के प्रति समर्थन जताया हैं।

एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान गुवाहाटी हाईकोर्ट ने आदिवासी बेल्ट और ब्लॉक वाले जिलों के उपायुक्तों को निर्देश दिया था कि वे इन आदिवासी इलाक़ों में अतिक्रमणकारियों के खिलाफ कानून के अनुसार ज़रूरी कार्रवाई करें। इसके साथ आदिवासी इलाक़ों से अवैध कब्जा हटाने के संबंध में की गई कार्रवाई की डीटेल्स उपायुक्तों को व्यक्तिगत हलफनामे के तौर पर दाखिल करने को भी कहा गया था।

कोर्ट ने यह स्पष्ट करते हुए चेताया है कि अगर इस आदेश को प्रभावी करने के लिए उचित कदम नहीं उठाए जाते हैं तो प्रक्रिया में देरी करने वाले अधिकारियों को हर्जाना भुगतना पड़ेगा। अदालत की प्रक्रिया में देरी के लिए जिम्मेदार पाए जाने वाले अधिकारियों के वेतन से वसूली करने के बारे में कोर्ट विचार करेगी। इस सब के बावजूद संबंधित प्राधिकरणों द्वारा इस तरह के अतिक्रमण को हटाने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गई है।

इन कानूनों और अदालती आदेशों का ठीक तरह से अनुपालन सुनिश्चित हो सके, इसके लिए असम के जनजातीय संगठनों (सीसीटीओए) की समन्वय समिति के नेतृत्व में स्थानीय कार्यकर्ताओं ने 21 जून, 2022 को सोनापुर सर्कल कार्यालय का घेराव किया। 

असम के जनजातीय संगठनों की समन्वय समिति (Coordination Committee of the Tribal Organizations of Assam – CCTOA) के कार्यकर्ताओं ने मंगलवार को सोनापुर सर्कल कार्यालय का घेराव किया और सर्कल अधिकारी के माध्यम से मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा को एक ज्ञापन भी सौंपा जिसमें सरकार से आदिवासी लोगों की बेदखली रोकने की मांग की गई।

CCTOA ने इस ज्ञापन के ज़रिए कई मांगें सामने रखी हैं। इनमें कुछ ख़ास मांगें यह हैं:

–आदिवासी इलाक़ों से अतिक्रमण करने वालों और अवैध उद्योगों को हटाया जाए,

–जनजातीय क्षेत्रों और आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भूमि का सर्वेक्षण किया जाए,

–आदिवासियों को उनके कब्जे में भूमि के लिए पट्टा दिया जाए,

– वन अधिकार अधिनियम, 2006 का कार्यान्वयन हो और, 
– आदिवासी इलाक़ों, ट्राइबल सब-प्लान (टीएसपी) और Integrated Tribal Development Projects (आईटीडीपी) को Assam State Capital Region Development Authority (ASCRDA) के दायरे से बाहर किया जाए।

इसके साथ ही आदिवासियों को भूमि पट्टा जारी करने और संविधान की अनुसूची 6 के तहत मिसिंग, राभा हसोंग और तिवा लोगों को शामिल करने का आह्वान किया। तकम मिसिंग पोरिन केबांग (TMPK) जैसे अन्य समूह भी आदिवासियों के वन अधिकारों के दावे के लिए प्रदर्शन में शामिल हुए।

CCTOA ने अपने ज्ञापन में कहा है कि “जनजातीय क्षेत्रों और ब्लॉकों से अतिक्रमण हटाने के लिए संबंधित प्राधिकरण द्वारा आज तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है।” असम के राभा आदिवासी CCTOA ने असम सरकार से गुवाहाटी हाई कोर्ट के निर्देशों को लागू करने का अनुरोध किया है। कार्यकर्ताओं ने असम में कुल जनजातीय क्षेत्र के सिकुड़ने और संबंधित जनजातीय इलाक़ों में डी-शेड्यूलिंग के परिणामों पर भी चिंता ज़ाहिर की। उनका कहना है कि डी-शेड्यूलिंग से कई लाख आदिवासी बेघर और भूमिहीन हो गए। ज्ञापन में यह भी कहा गया है कि इस स्थिति ने असम की अनुसूचित जनजातियों की सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और शैक्षिक स्थिति को काफी हद तक खराब कर दिया है। इसलिए, सीसीटीओए ने सरकार से सभी गैर-अनुसूचित जनजातीय बेल्टों को बहाल करने का अनुरोध किया है।

सीसीटीओए ने यह भी मांग की कि आदिवासी इलाक़ों और आदिवासी आबादी वाले क्षेत्रों में उचित भूमि सर्वेक्षण किया जाना चाहिए और आदिवासी लोगों को उनके कब्जे में भूमि के पूरे टुकड़े का तुरंत पट्टा दिया जाना चाहिए। ज्ञापन में कहा गया है, “वन अधिकार अधिनियम, 2006 असम में ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है। इसलिए अनुसूचित जनजाति के लोगों को काफी समस्या का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए हमारी मांग है कि राज्य सरकार को विभिन्न वनों और आरक्षित वनों में सभी आदिवासी निवासियों को भूमि के बंदोबस्त/भूमि का मालिकाना हक जारी करने के लिए एक फ़ैसला लेना चाहिए। इसी क़दम से आदिवासियों के खिलाफ किए गए ऐतिहासिक अन्याय का निवारण हो पाएगा।” CCTOA ने यह भी कहा कि ASCRDA के दायरे में आदिवासी इलाक़ों, ट्राइबल सब-प्लान और आईटीडीपी क्षेत्रों को शामिल करने का असम सरकार का प्रस्ताव आदिवासी अधिकारों के लिए सीधा-सीधा ख़तरा है।

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