डॉ भीमराव अम्बेडकर के अनुसार “किसी भी समाज की प्रगति का आकलन उस समाज में महिलाओं की प्रगति के द्वारा किया जा सकता है” लेकिन आज भी भारतीय समाज में औरतों ख़ास कर घुमंतू समाज के औरतों की स्थिति दयनीय बनी हुई है. भारत सांस्कृतिक रूप से विविधता वाला देश है जिसमें विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि वाले लोग रहते हैं. हर वर्ग में महिलाओं की स्थिति भिन्न तरीके से आंकलित की गयी है लेकिन अगर विशेष रूप से घुमंतू समुदाय के महिलाओं की बात की जाए तो वो वर्षों से भारतीय समाज में जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर ट्रिपल भेदभाव का सामना कर रही हैं. घुमंतू समुदाय को कई क्षेत्रों में खानाबदोश आदिवासी समाज भी कहा जाता है. यह समाज अपने शैशवावस्था से ही समाज के अन्य वर्गों द्वारा असमानता व् भेदभाव का सामना कर रहा है. इस समाज के ऊपर हुए शोध कार्यों से भी महिलाओं को लगभग दरकिनार ही किया गया है अगर कुछ अध्ययन हुए भी हैं तो वो उत्पादन, वितरण और सामाजिक पहचान के संबंध में घुमंतू महिलाओं की स्थिति को सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों के पैमाने पर आधारित हैं. वर्तमान वर्ष में भारत सहित पूरा विश्व कोरोना महामारी से प्रभावित है ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह खानाबदोश समुदाय अन्य वर्गों की अपेक्षा दयनीय स्थिति में हैं और इनके महिलाओं के हालत बदतर स्थिति में पहुंच चुके हैं.
अगर सरल शब्दों में कहा जाए तो कह सकते हैं कि घुमंतू समुदाय विशेषकर महिलाएं भारतीय समाज के सबसे उपेक्षित और हाशिए पर हैं. वे उपेक्षित समाज के बीच भी उपेक्षित वर्ग हैं जो सदियों से कलंक, सामाजिक उपेक्षा और शोषण के शिकार हैं। आजादी के इतने दशकों बाद भी, उनके पास जीवन की सबसे बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। उनमें से महिलाएं सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। उनकी साक्षरता दर बहुत कम है। उनमें से अधिकांश के पास स्वास्थ्य देखभाल की सुविधाओं तक की पहुंच नहीं है। वे न केवल अन्य समुदायों के लोगों द्वारा बल्कि उनके समुदाय के भीतर भी कई अत्याचारों से पीड़ित हैं.
आजादी के बाद बने भारत का संविधान देश में रहने वाले तमाम लोगों को सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार देता है. इस देश में कई वर्ग, धर्म और जाति के लोग एक साथ रहते हैं एक घर्म के अन्दर भी जातियों का पदानुक्रम साफ़ तौर पर देखा जा सकता है, यहाँ 826 से अधिक भाषाएँ और हजारों बोलियाँ बोली जाती हैं और 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है. इस तरह के विविधता वाले समाज की वास्तविकता यह है कि जनगणना के दौरान सभी समुदायों में अधिकांश आबादी को पंजीकृत किया गया हैं दूसरी ओर, कुछ महत्वपूर्ण लेकिन दुर्लभ आबादी के दुर्लभ लोग जनगणना के तहत पंजीकृत होने के बावजूद विकास कार्यों से लाभान्वित होने से वंचित हैं. घुमंतू जनजातियाँ ऐसे समुदाय हैं जिन्हें सामाजिक मान्यता और राज्य के प्रमुख विकास कार्यक्रमों से दूर रखा जाता रहा है. चूंकि वे असंगठित हैं, अल्पसंख्यक आबादी और ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदाय हैं, उन्हें अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) जैसे विभिन्न सामाजिक श्रेणियों के तहत रखा गया.
घुमंतू समुदाय ज्यादातर अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों के साथ गांव से बाहर रहते हैं. घुमंतू महिलाएं सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से भारतीय समाज में वंचित हैं. निरंतर प्रवास और आपराधिक जनजातियों के धब्बा के कारण जो आजादी के पहले से ही उन पर लगा हुआ है, यह समुदाय भौगोलिक रूप से अलग-थलग है। अलग अलग राज्य में इस समुदाय में सामाजिक-आर्थिक विविधताएँ हैं. आवास इन समुदायों की प्रमुख समस्याओं में से एक है, जिनमें से अधिकांश के पास कभी कोई स्थायी घर या बसावट नहीं रही. वे नई बदलती वास्तविकताओं का सामना कर रहे हैं, अब वे एक जगह बसना चाहते हैं. स्थानीय अधिकारियों द्वारा उनके निपटान का विस्थापन इन समुदायों के सामने एक और बड़ी समस्या है। उन्हें सरकारी एजेंसियों और अन्य समुदायों द्वारा अवैध या अनधिकृत अतिक्रमण या कब्जा करने वाला माना जाता है. यह समुदाय परिवार विस्थापित होने के निरंतर भय में रहते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी आजीविका का नुकसान होता है और उनके बच्चों की शिक्षा बाधित होती है। खानाबदोश समुदायों में बहुत सारे अंधविश्वास व्याप्त हैं, जो विभिन्न स्वास्थ्य विकारों से जुड़े हैं। गरीबी और अज्ञानता के कारण, इन समुदायों में कई लोग अभी भी काले जादू और टोना टोटका के माध्यम से उपचार पसंद करते हैं इसलिए बड़े स्तर पर इन घुमंतू समुदायों के बीच स्वास्थ्य जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है ताकि समुदाय सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचना शुरू कर दें.
घुमंतू समुदाय के अधिकांश लोग अपने पारंपरिक व्यवसायों के माध्यम से अपनी आजीविका अर्जित करना चाहते हैं क्योंकि संसाधनों की कमी और कौशल की कमी के कारण उनके लिए आय के वैकल्पिक स्रोत सीमित हैं. खानाबदोश समुदाय की अधिकांश महिलाएं विभिन्न जिम्मेदारियों का ध्यान रखती हैं जैसे खाना पकाना, कपड़े धोना, घर की सफाई करना, बच्चों की देखभाल करना आदि। इन समुदायों की महिलाएँ बहुत मेहनती होती हैं। उनमें से बड़ी संख्या में कमाने के साथ-साथ घरेलू गतिविधियों का भी ध्यान रखा जाता है। उनमें से अधिकांश काम करने और अपने परिवार के लिए कुछ पूरक आय अर्जित करने के लिए तैयार रहती हैं. उन्हें बुनाई, सिलाई, कढ़ाई, मिट्टी के खिलौने, हस्तशिल्प और अन्य सजावटी लेख बनाना पसंद है लेकिन उन्हें अपने छोटे उद्यमों को शुरू करने के लिए कुछ प्रशिक्षण और संसाधनों की आवश्यकता होती है. प्रतिदिन कमाई करके जीविका चलाने वाले इस समुदाय की स्थिति कोरोना महामारी के दौरान बदतर हो चुकी है, कुछ क्षेत्रों में महामारी की दुर्दशा की शिकार घुमंतू समुदाय की महिलाऐं देहव्यापार तक करने को मजबूर हो चुकी है.
हालांकि महिलाओं की व्यावसायिक स्थिति राज्य और क्षेत्र के अनुसार भिन्न भिन्न देखि जा सकती है. कंजरों, नट और गादिया लोहार समुदायों में महिलाएं आय सृजन गतिविधियों में लगभग बराबर की भागीदार हैं. वे बहुत मेहनती और श्रमशील होती हैं लेनिन बंजारा सहित अन्य की स्थिति इनसे अलग है.
घुमंतू महिलाओं को कास्ट, क्लास और लिंग के आधार पर ट्रिपल भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। कई आर्थिक प्रक्रियाओं का सामना करने वाली खानाबदोश महिलाओं में जन्म के परिणाम से विरासत में मिले भेदभाव, जो उनके आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं. महाराष्ट्र में, महिलाओं पर समय-समय पर इन अत्याचारों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए हैं.
ये समुदाय सदियों से सामाजिक कलंक और पूर्वाग्रह के शिकार हैं। मुख्यधारा का समाज अभी भी उन्हें बराबरी का मानने को तैयार नहीं है. उन्हें अभी भी अपराधी माना जाता है. समुदायों ने पुलिस को उनके खिलाफ अत्यधिक पक्षपाती होने की शिकायत कई बार की. इन समुदायों के सदस्यों के कई मामले सामने आए हैं जिनमें पुलिस ने इन्हें ही गलत तरीके से फंसाया है. ये महिलाएं न केवल बाहरी समुदाय के लोगों द्वारा उपेक्षा और शोषण का शिकार होती हैं, बल्कि परिवार के भीतर अपने लोगों द्वारा भड़काए जाने वाले दर्द और पीड़ा भी होती हैं। एक खानाबदोश का जीवन बहुत कठिन होता है जो आघात, पीड़ा और अशांति से भरी परिस्थितियों से घिरा हुआ है, जिसमें से उनकी महिलाएं सबसे अधिक पीड़ित हैं. यह समुदाय ख़ास कर इनकी औरतें आज तक अपने ही देश में स्थायी आवास और सम्मान के लिए संघर्ष कर रही है जो इस सरकार के जनविरोधी नागरिकता कानून के आने के बाद और फिर कोरोना महामारी के प्रभाव ने इनके हालात को बदतर स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जिस पर तत्काल प्रभाव से संज्ञान लेने की जरुरत है.
अगर सरल शब्दों में कहा जाए तो कह सकते हैं कि घुमंतू समुदाय विशेषकर महिलाएं भारतीय समाज के सबसे उपेक्षित और हाशिए पर हैं. वे उपेक्षित समाज के बीच भी उपेक्षित वर्ग हैं जो सदियों से कलंक, सामाजिक उपेक्षा और शोषण के शिकार हैं। आजादी के इतने दशकों बाद भी, उनके पास जीवन की सबसे बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। उनमें से महिलाएं सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। उनकी साक्षरता दर बहुत कम है। उनमें से अधिकांश के पास स्वास्थ्य देखभाल की सुविधाओं तक की पहुंच नहीं है। वे न केवल अन्य समुदायों के लोगों द्वारा बल्कि उनके समुदाय के भीतर भी कई अत्याचारों से पीड़ित हैं.
आजादी के बाद बने भारत का संविधान देश में रहने वाले तमाम लोगों को सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार देता है. इस देश में कई वर्ग, धर्म और जाति के लोग एक साथ रहते हैं एक घर्म के अन्दर भी जातियों का पदानुक्रम साफ़ तौर पर देखा जा सकता है, यहाँ 826 से अधिक भाषाएँ और हजारों बोलियाँ बोली जाती हैं और 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है. इस तरह के विविधता वाले समाज की वास्तविकता यह है कि जनगणना के दौरान सभी समुदायों में अधिकांश आबादी को पंजीकृत किया गया हैं दूसरी ओर, कुछ महत्वपूर्ण लेकिन दुर्लभ आबादी के दुर्लभ लोग जनगणना के तहत पंजीकृत होने के बावजूद विकास कार्यों से लाभान्वित होने से वंचित हैं. घुमंतू जनजातियाँ ऐसे समुदाय हैं जिन्हें सामाजिक मान्यता और राज्य के प्रमुख विकास कार्यक्रमों से दूर रखा जाता रहा है. चूंकि वे असंगठित हैं, अल्पसंख्यक आबादी और ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदाय हैं, उन्हें अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) जैसे विभिन्न सामाजिक श्रेणियों के तहत रखा गया.
घुमंतू समुदाय ज्यादातर अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों के साथ गांव से बाहर रहते हैं. घुमंतू महिलाएं सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से भारतीय समाज में वंचित हैं. निरंतर प्रवास और आपराधिक जनजातियों के धब्बा के कारण जो आजादी के पहले से ही उन पर लगा हुआ है, यह समुदाय भौगोलिक रूप से अलग-थलग है। अलग अलग राज्य में इस समुदाय में सामाजिक-आर्थिक विविधताएँ हैं. आवास इन समुदायों की प्रमुख समस्याओं में से एक है, जिनमें से अधिकांश के पास कभी कोई स्थायी घर या बसावट नहीं रही. वे नई बदलती वास्तविकताओं का सामना कर रहे हैं, अब वे एक जगह बसना चाहते हैं. स्थानीय अधिकारियों द्वारा उनके निपटान का विस्थापन इन समुदायों के सामने एक और बड़ी समस्या है। उन्हें सरकारी एजेंसियों और अन्य समुदायों द्वारा अवैध या अनधिकृत अतिक्रमण या कब्जा करने वाला माना जाता है. यह समुदाय परिवार विस्थापित होने के निरंतर भय में रहते हैं जिसके परिणामस्वरूप उनकी आजीविका का नुकसान होता है और उनके बच्चों की शिक्षा बाधित होती है। खानाबदोश समुदायों में बहुत सारे अंधविश्वास व्याप्त हैं, जो विभिन्न स्वास्थ्य विकारों से जुड़े हैं। गरीबी और अज्ञानता के कारण, इन समुदायों में कई लोग अभी भी काले जादू और टोना टोटका के माध्यम से उपचार पसंद करते हैं इसलिए बड़े स्तर पर इन घुमंतू समुदायों के बीच स्वास्थ्य जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है ताकि समुदाय सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंचना शुरू कर दें.
घुमंतू समुदाय के अधिकांश लोग अपने पारंपरिक व्यवसायों के माध्यम से अपनी आजीविका अर्जित करना चाहते हैं क्योंकि संसाधनों की कमी और कौशल की कमी के कारण उनके लिए आय के वैकल्पिक स्रोत सीमित हैं. खानाबदोश समुदाय की अधिकांश महिलाएं विभिन्न जिम्मेदारियों का ध्यान रखती हैं जैसे खाना पकाना, कपड़े धोना, घर की सफाई करना, बच्चों की देखभाल करना आदि। इन समुदायों की महिलाएँ बहुत मेहनती होती हैं। उनमें से बड़ी संख्या में कमाने के साथ-साथ घरेलू गतिविधियों का भी ध्यान रखा जाता है। उनमें से अधिकांश काम करने और अपने परिवार के लिए कुछ पूरक आय अर्जित करने के लिए तैयार रहती हैं. उन्हें बुनाई, सिलाई, कढ़ाई, मिट्टी के खिलौने, हस्तशिल्प और अन्य सजावटी लेख बनाना पसंद है लेकिन उन्हें अपने छोटे उद्यमों को शुरू करने के लिए कुछ प्रशिक्षण और संसाधनों की आवश्यकता होती है. प्रतिदिन कमाई करके जीविका चलाने वाले इस समुदाय की स्थिति कोरोना महामारी के दौरान बदतर हो चुकी है, कुछ क्षेत्रों में महामारी की दुर्दशा की शिकार घुमंतू समुदाय की महिलाऐं देहव्यापार तक करने को मजबूर हो चुकी है.
हालांकि महिलाओं की व्यावसायिक स्थिति राज्य और क्षेत्र के अनुसार भिन्न भिन्न देखि जा सकती है. कंजरों, नट और गादिया लोहार समुदायों में महिलाएं आय सृजन गतिविधियों में लगभग बराबर की भागीदार हैं. वे बहुत मेहनती और श्रमशील होती हैं लेनिन बंजारा सहित अन्य की स्थिति इनसे अलग है.
घुमंतू महिलाओं को कास्ट, क्लास और लिंग के आधार पर ट्रिपल भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। कई आर्थिक प्रक्रियाओं का सामना करने वाली खानाबदोश महिलाओं में जन्म के परिणाम से विरासत में मिले भेदभाव, जो उनके आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं. महाराष्ट्र में, महिलाओं पर समय-समय पर इन अत्याचारों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए हैं.
ये समुदाय सदियों से सामाजिक कलंक और पूर्वाग्रह के शिकार हैं। मुख्यधारा का समाज अभी भी उन्हें बराबरी का मानने को तैयार नहीं है. उन्हें अभी भी अपराधी माना जाता है. समुदायों ने पुलिस को उनके खिलाफ अत्यधिक पक्षपाती होने की शिकायत कई बार की. इन समुदायों के सदस्यों के कई मामले सामने आए हैं जिनमें पुलिस ने इन्हें ही गलत तरीके से फंसाया है. ये महिलाएं न केवल बाहरी समुदाय के लोगों द्वारा उपेक्षा और शोषण का शिकार होती हैं, बल्कि परिवार के भीतर अपने लोगों द्वारा भड़काए जाने वाले दर्द और पीड़ा भी होती हैं। एक खानाबदोश का जीवन बहुत कठिन होता है जो आघात, पीड़ा और अशांति से भरी परिस्थितियों से घिरा हुआ है, जिसमें से उनकी महिलाएं सबसे अधिक पीड़ित हैं. यह समुदाय ख़ास कर इनकी औरतें आज तक अपने ही देश में स्थायी आवास और सम्मान के लिए संघर्ष कर रही है जो इस सरकार के जनविरोधी नागरिकता कानून के आने के बाद और फिर कोरोना महामारी के प्रभाव ने इनके हालात को बदतर स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जिस पर तत्काल प्रभाव से संज्ञान लेने की जरुरत है.