शीर्ष अदालत असम के नलबाड़ी जिले के निवासी मोहम्मद रहीम अली की नागरिकता से जुड़े मामले पर सुनवाई कर रही थी. उन पर बांग्लादेश से भारत में अवैध प्रवास का आरोप था, जिसके ख़िलाफ़ वह दो दशकों से क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे थे. अदालत ने कहा कि मामले में उनकी राष्ट्रीयता पर संदेह करने वाली कोई ठोस सामग्री उपलब्ध नहीं थी.
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में विदेशी न्यायाधिकरण और गुवाहाटी हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए असम के रहने वाले मोहम्मद रहीम अली को भारतीय नागरिक बताया है.
टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के मुताबिक, अदालत ने कहा कि विदेशी अधिनियम की धारा 9 आरोपी पर भले ही नागरिकता साबित करने का भार डालती है, लेकिन इससे पहले अधिकारियों के पास किसी व्यक्ति को विदेशी मानने लिए कुछ ठोस तथ्यात्मक सामग्री होनी चाहिए.
अपने फैसले में जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने कहा कि सरकार किसी भी व्यक्ति को यूं ही चुनकर उससे नागरिक होने के सबूत नहीं मांग सकती.
अदालत ने आगे कहा कि धारा 9 को अफवाहों या अस्पष्ट आरोपों के आधार पर लागू नहीं किया जा सकता है. किसी व्यक्ति के खिलाफ बुनियादी या प्राथमिक सामग्री के अभाव में अधिकारियों द्वारा मनमानी कार्यवाही शुरू करने से संबंधित व्यक्ति के जीवन पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ सकता है.
मालूम हो कि शीर्ष अदालत असम के नलबाड़ी जिले के निवासी मोहम्मद रहीम अली की नागरिकता से जुड़े मामले पर सुनवाई कर रही थी. मोहम्मद रहीम पर 25 मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से भारत में अवैध प्रवास का आरोप लगा था. यह तारीख असम समझौते के अनुसार असम में विदेशियों का पता लगाने की अंतिम तिथि (कट-ऑफ तिथि) है.
इस मामले में नलबाड़ी के एक विदेशी न्यायाधिकरण ने साल 2012 में अली को एकपक्षीय आदेश में विदेशी घोषित कर दिया था. गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने भी 2015 के अपने फैसले में उन्हें विदेशी मानते हुए न्यायाधिकरण के आदेश को बरकरार रखा था. इसके बाद अली ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.
सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद रहीम को अवैध बांग्लादेशी नागरिक मानने से इनकार करते हुए विदेशी न्यायाधिकरण और गुवाहाटी उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया.
पीठ ने कहा, ‘…सवाल ये है कि क्या इस अधिनियम की धारा 9 कार्यपालिका को किसी व्यक्ति को यूहीं चुनने, उसके दरवाजे पर दस्तक देने और उससे यह कहने का अधिकार देती है कि ‘हमें आपके विदेशी होने का शक है’?… जाहिर तौर पर राज्य ऐसा नहीं कर सकता है. न ही हम एक अदालत के रूप में इस तरह के दृष्टिकोण का समर्थन कर सकते हैं.’
पीठ ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील कौशिक चौधरी की दलील को स्वीकार कर लिया, जिन्होंने कहा कि धारा 9 का मनमाने ढंग से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है और प्राकृतिक न्याय के स्थापित सिद्धांतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
अदालत ने कहा, ‘इस बात को दोहराने की जरूरत नहीं है कि आरोपी आम तौर पर तब तक आरोप को गलत साबित नहीं कर पाएगा जब तक कि उसे अपने खिलाफ सबूत/सामग्री के बारे में पता नहीं है, जिसके आधार पर उसे संदिग्ध माना गया है. सिर्फ एक आरोप से सारा बोझ आरोपी के ऊपर नहीं डाला जा सकता, जब तक कि उसे आरोप के साथ-साथ उसका समर्थन करने वाली सामग्री का पता न हो.’
अदालत ने कहा कि इस मामले में प्राधिकारण के पास ऐसी कोई सामग्री नहीं थी, जिससे उनकी राष्ट्रीयता पर संदेह पैदा हो. दो दशकों तक कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद रहीम का बचाव करते हुए उन्हें भारतीय घोषित कर दिया क्योंकि उनके सभी रिश्तेदारों को भी भारतीय नागरिक घोषित कर दिया गया था.
अदालत ने यह भी कहा कि आधिकारिक दस्तावेजों पर नामों में वर्तनी की छोटी गलतियां उनके भारतीय नागरिक होने की प्रामाणिकता से इनकार करने का एकमात्र कारण नहीं हो सकती हैं, जैसा कि इस मामले में हुआ.
अदालत ने जोर देकर कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए, भले ही वे कानून में स्पष्ट रूप से उल्लिखित न हों.
कोर्ट ने कहा कि अधिनियम की धारा 9 के तहत व्यक्ति को उसके खिलाफ उपलब्ध जानकारी और सामग्री के बारे में सूचित किया जाना चाहिए, ताकि वह अपने खिलाफ कार्यवाही का मुकाबला कर सके और अपना बचाव कर सके.
Courtesy: The Wire
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अपने फैसले में जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने कहा कि सरकार किसी भी व्यक्ति को यूं ही चुनकर उससे नागरिक होने के सबूत नहीं मांग सकती.
अदालत ने आगे कहा कि धारा 9 को अफवाहों या अस्पष्ट आरोपों के आधार पर लागू नहीं किया जा सकता है. किसी व्यक्ति के खिलाफ बुनियादी या प्राथमिक सामग्री के अभाव में अधिकारियों द्वारा मनमानी कार्यवाही शुरू करने से संबंधित व्यक्ति के जीवन पर इसका गंभीर प्रभाव पड़ सकता है.
मालूम हो कि शीर्ष अदालत असम के नलबाड़ी जिले के निवासी मोहम्मद रहीम अली की नागरिकता से जुड़े मामले पर सुनवाई कर रही थी. मोहम्मद रहीम पर 25 मार्च 1971 के बाद बांग्लादेश से भारत में अवैध प्रवास का आरोप लगा था. यह तारीख असम समझौते के अनुसार असम में विदेशियों का पता लगाने की अंतिम तिथि (कट-ऑफ तिथि) है.
इस मामले में नलबाड़ी के एक विदेशी न्यायाधिकरण ने साल 2012 में अली को एकपक्षीय आदेश में विदेशी घोषित कर दिया था. गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने भी 2015 के अपने फैसले में उन्हें विदेशी मानते हुए न्यायाधिकरण के आदेश को बरकरार रखा था. इसके बाद अली ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.
सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद रहीम को अवैध बांग्लादेशी नागरिक मानने से इनकार करते हुए विदेशी न्यायाधिकरण और गुवाहाटी उच्च न्यायालय के आदेश को रद्द कर दिया.
पीठ ने कहा, ‘…सवाल ये है कि क्या इस अधिनियम की धारा 9 कार्यपालिका को किसी व्यक्ति को यूहीं चुनने, उसके दरवाजे पर दस्तक देने और उससे यह कहने का अधिकार देती है कि ‘हमें आपके विदेशी होने का शक है’?… जाहिर तौर पर राज्य ऐसा नहीं कर सकता है. न ही हम एक अदालत के रूप में इस तरह के दृष्टिकोण का समर्थन कर सकते हैं.’
पीठ ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश वकील कौशिक चौधरी की दलील को स्वीकार कर लिया, जिन्होंने कहा कि धारा 9 का मनमाने ढंग से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है और प्राकृतिक न्याय के स्थापित सिद्धांतों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.
अदालत ने कहा, ‘इस बात को दोहराने की जरूरत नहीं है कि आरोपी आम तौर पर तब तक आरोप को गलत साबित नहीं कर पाएगा जब तक कि उसे अपने खिलाफ सबूत/सामग्री के बारे में पता नहीं है, जिसके आधार पर उसे संदिग्ध माना गया है. सिर्फ एक आरोप से सारा बोझ आरोपी के ऊपर नहीं डाला जा सकता, जब तक कि उसे आरोप के साथ-साथ उसका समर्थन करने वाली सामग्री का पता न हो.’
अदालत ने कहा कि इस मामले में प्राधिकारण के पास ऐसी कोई सामग्री नहीं थी, जिससे उनकी राष्ट्रीयता पर संदेह पैदा हो. दो दशकों तक कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद रहीम का बचाव करते हुए उन्हें भारतीय घोषित कर दिया क्योंकि उनके सभी रिश्तेदारों को भी भारतीय नागरिक घोषित कर दिया गया था.
अदालत ने यह भी कहा कि आधिकारिक दस्तावेजों पर नामों में वर्तनी की छोटी गलतियां उनके भारतीय नागरिक होने की प्रामाणिकता से इनकार करने का एकमात्र कारण नहीं हो सकती हैं, जैसा कि इस मामले में हुआ.
अदालत ने जोर देकर कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए, भले ही वे कानून में स्पष्ट रूप से उल्लिखित न हों.
कोर्ट ने कहा कि अधिनियम की धारा 9 के तहत व्यक्ति को उसके खिलाफ उपलब्ध जानकारी और सामग्री के बारे में सूचित किया जाना चाहिए, ताकि वह अपने खिलाफ कार्यवाही का मुकाबला कर सके और अपना बचाव कर सके.
Courtesy: The Wire
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