जाग रहा है गण, जश्न तो बनता है, बशर्ते शांतिपूर्ण हो...

Written by Navnish Kumar | Published on: January 26, 2021
2020 पूरी तरह निराशा का साल बन जाता लेकिन जाते जाते किसान आंदोलन के रूप में नई उम्मीदें जगा गया है। किसान आंदोलन ने देश के सोये गण को जगाने का काम किया है और गण जाग रहा है तो गणतंत्र परेड यानी जश्न तो बनता ही है। बशर्ते शांतिपूर्ण हो।



यह गण (आम किसान) का जागना ही है कि पूरी तरह दिशाहीन नजर आ रही मोदी सरकार का हर दांव किसानों की एकजुटता, संयम और बढ़े मनोबल के आगे धराशायी हो गया है। अब कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक स्थगित कर, कमेटी बैठाना हो या फिर किसान ट्रैक्टर रैली को हरी झंडी देना, साफ है कि मोदी सरकार ने परोक्ष तौर से घुटने टेक दिए हैं। अब बेवजह की दिखावटी जिद को छोड़, सरकार को तत्काल तीनों कानूनों को वापस लेते हुए, एमएसपी पर फसल खरीद की गारंटी का कानून लाने का ऐलान करना चाहिए। अन्यथा इससे आगे अब, केवल और केवल छीछालेदार ही होनी है। वहीं, सरकार का हो या किसान का, राष्ट्रीय नुकसान होना है। 

खास है कि 72वें गणतंत्र पर आज, भारत का तंत्र (राष्ट्रपति व पीएम आदि) दिल्ली के राजपथ पर ताक़त के प्रदर्शन में सलामी लेगा जबकि, राष्ट्र-राज्य के गण (लोग) किसान ट्रैक्टर रैली से तंत्र को चेताएंगे कि उनकी सुनो!। दिल्ली की सीमा पर दो माह से ठंड, बारिश, महामारी से जूझते किसान, तंत्र के आगे स्यापा कर रहे हैं कि उनके पेट पर, उनकी खेती, उनकी जमीनी खुद्दारी को मारने वाले कृषि कानूनों को रद्द करो! लेकिन भारत के तंत्र, उसकी हाकिम सरकार, प्रधानमंत्री मोदी की यह ऐंठ दो टूक है कि वे कानून बनाने वाले हैं तो चाहे जो करेंगे। ऐसे में गणतंत्र का क्या अर्थ निकालें? भारत के 138 करोड़ नागरिकों में कोई तीस करोड़ लोग राजा और उसके तंत्र की भक्ति में हैं, जबकि बाकी सौ करोड़ लोग या तो बेगाने हैं या सिख, मुसलमान, दलित जात-पांत में वे नाम, वे संज्ञाएं पाए हुए हैं, जिन्हें चाहे तो खालिस्तानी कहें या पाकिस्तानी या टुकड़े-टुकड़े गैंग, देशद्रोही, वामपंथी, सेकुलर या मोदी विरोधी!।

यही सब हैं कि इस जनवरी ‘खालिस्तानियों’ से दिल्ली का तंत्र आक्रांत है तो पिछली जनवरी, शाहीन बाग की मुस्लिम औरतों से था। न तब तंत्र ने समझा और न अब तंत्र समझ रहा है कि लोकतंत्र और गणतंत्र तभी दीर्घायु होता है जब निर्णयों में आबादी का अधिकाधिक समर्थन हो। राष्ट्र-राज्य, सचमुच जनप्रतिनिधि की बहस, राजनीति, विचार, सहमति, डायलॉग, संवाद की व्यवस्थाओं में पका जिंदादिल, जीवंत गणतंत्र बनता है। इसी सब की बदौलत, रोम गणराज्य दुनिया का सबसे समृद्ध गणतंत्र था। 

लेकिन रोम की कहानी में पतन के वक्त में भी वह सब था जो आज के भारत में है। सरकार और तंत्र सुरसा की तरह फैले और अव्यस्था-अक्षमता में काम करते हुए, तो पैसे और धनपतियों के असर में तमाम सार्वजनिक संस्थाएं भ्रष्ट हो गईं। सामाजिक और आर्थिक असमानता इतनी भयानक कि, नागरिकों में सिस्टम के प्रति भरोसा टूटा हुआ लेकिन लफ्फाजों-निरंकुश प्रवृत्ति के नेताओं के जादू में जीवन जीने को शापित!

“नश्वर गणतंत्रः कैसे रोम दमनकारी बना’ के लेखक एडवर्ड जे. वाट्स ने रोम गणराज्य और मौजूदा अमेरिकी गणराज्य व अन्य गणराज्यों (भारत) की तुलना पर एक इंटरव्यू में कहा है कि गणतंत्र में जनप्रतिनिधि चुनने, तय करने वाले होते हैं। इसमें तब गणराज्य पटरी से उतरने लगता है, जब जनप्रतिनिधि सिद्दांत-सम्मत फैसले लेना बंद कर देते हैं। जनमत के मूड में बहकने लगते हैं। ऐसा रोम में हुआ था, अमेरिका में हुआ हैं और भारत में हो रहा है। बकौल एडवर्ड वाट्स रोम गणराज्य के पतन का प्रारंभ बिंदु वह था। जब नेताओं ने सोचा कि उनकी निज महत्वाकांक्षा, गणराज्य की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति है। 

रोम गणराज्य के सोचने-विचारने-बहस-आम सहमति के सिस्टम का जीवन तीन सौ साल रहा। आखिरी सौ सालों में सोच-समझकर फैसले के तरीकों-औजारों पर अमल में कमी आना शुरू हुई। तभी एक नेता ऑगस्टस देश का पर्याय बन बैठा। लोगों ने भी उससे सुरक्षा की गारंटी मान उसके आपाधापी के, मनमाने फैसलों पर सोचा कि यही देश हित में ठीक है। नतीजतन विवेकसम्मत, सही फैसले होने बंद हो गए। गणराज्य को दीमक लगी और मतदाताओं के दिमाग में ऐसा जहर घुसा कि गणतंत्र भीतर-भीतर ही जर्जर हो अतंतः ढह गया। रोम में लोग भूल बैठे थे कि सिस्टम (गणराज्य-लोकतंत्र) जो बनाया हुआ है उसमें नतीजे समझौते और सर्वानुमति से ही आ सकते हैं।

दरअसल किसानों के साथ सरकार की पिछली बातचीत में कानून टालने से आशा बंधी थी। कि दोनों को बीच का रास्ता मिल गया है। डेढ़ साल तक कृषि-कानूनों के टलने व कमेटी बनाने का अर्थ क्या है? क्या यह नहीं हैं कि यदि दोनों के बीच सहमति नहीं हुई तो ये कानून हमेशा के लिए टल जाएंगे। सरकार इन्हें थोप नहीं पाएगी। अपनी नाक बचाने का सरकार के पास इससे अच्छा उपाय क्या था? सरकार ने अपनी गलती स्वीकार कर ली है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से सरकार के असली इरादों को लेकर किसानों में इतना शक पैदा हो गया है कि वे इस प्रस्ताव को भी बहुत दूर की कौड़ी मानकर कूड़े में फेंकने को आमादा हो गए हैं।

केंद्र सरकार ने कृषि कानूनों का विरोध कर रहे किसानों के सामने अपनी तरफ से जो सबसे अच्छा प्रस्ताव रखा है वह कानूनों पर डेढ़ साल के लिए रोक लगाकर कमेटी बैठाने का है। सरकार को भरोसा था कि किसान इसके तकनीकी पहलुओं में नहीं जाएंगे और इसे स्वीकार कर लेंगे। लेकिन जब किसानों ने इसे नामंजूर किया तो केंद्र सरकार ने किसानों को डराने और चेतावनी देने का दांव चला। 22 जनवरी की बैठक में कृषि मंत्री कई घंटे की देरी से आए और आते ही किसानों पर नाराजगी जताते हुए कहा कि सरकार के प्रस्ताव पर फैसला सरकार को बताने की बजाय किसानों ने पहले मीडिया को क्यों बताया। इसके बाद उन्होंने कहा कि बस अब बहुत बातचीत हो गई, आगे बात नहीं होगी और किसान 24 घंटे में अपना फैसला बताएं।

जबकि सरकार की चिंता समझौते व सर्वानुमति से फैसले लेने और आम सहमति बनाने की होनी चाहिए। इसी से बेहतर होता कि 23 की बजाय, सरकार सभी 50 जिंसों पर, फलों और सब्जियों पर भी सरकारी मूल्य घोषित करती, जैसे केरल की कम्युनिस्ट सरकार ने किया है। सरकार और किसानों की संयुक्त समिति के विचार का मुख्य विषय यह होना चाहिए कि भारत के औसत मेहनतकश किसानों को (सिर्फ बड़े ज़मींदारों को नहीं) सम्पन्न और समर्थ कैसे बनाया जाए और उनकी उपज को दुगुनी-चौगुनी करके भारत को विश्व का अन्नदाता कैसे बनाया जाए? 

राजनीतिक विश्लेषक लोकेश सलारपुरी कहते हैं कि दरअसल किसान आंदोलन के कारण, सरकार बुरी तरह बौखलाहट में है। बल्कि सच है कि किसानों को बदनाम करने, फूट डालने व डराने की असफल कोशिशों के बाद, मोदी सरकार घुटनों पर है। सरकार भी इस बात को समझ चुकी है। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है। कोई शक नहीं है कि कानून रद्द भी होंगे और एमएसपी को लेकर कानून भी बनेगा। परन्तु खुद को बेहद शातिर समझने वाले लोग बहुत बड़े वाले मूर्ख साबित होंगे। लोकेश कहते हैं कि फिलहाल, किसान रिपब्लिक डे का मजा लीजिए और फिर सरकार के कुछ उटपटांग कदम (जो अगले एक पखवाड़े में उठाये जाएंगे) के गवाह बनने के लिए भी तैयार रहिएगा।

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