.. तो भाजपा ने मुसलमान महिलाओं को भी चुनावी मुद्दा बना दिया!

Written by Nasiruddin | Published on: December 9, 2017
जी हां, क्यों तलाक-ए-बिद्दत यानी एक म‍जलिस की तीन तलाक का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट के फैसले के लगभग तीन महीने बाद फिर उभर आया है? याद कीजिए, अगस्त में हमारी सरकार का नजरिया क्या था? उस वक्त तो वह खास इस मुद्दे पर कानून की बात नहीं कर रही थी. है न?   



तब फिर अभी क्यों?
ठीक गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले तीन तलाक पर कानून बनाने का ख्याल क्यों हवा में तैरने लगा? क्या यह गौर करने वाली बात नहीं है? क्या मुसलमान महिलाओं से उमड़ते लगाव का चुनाव से कोई रिश्ता बनता जा रहा है? इसका सही-सही जवाब इन लाइनों को लिखने के वाले के पास नहीं है. तो आइए हम मिलकर समझने की कोशि‍श करते हैं कि क्या हो रहा है.  

बदलाव का पहिया इत्ता तेज कैसे घूमने लगा
अचानक एक दिन खबर आती है, लखनऊ समेत उत्तर प्रदेश के कई शहरों में तीन तलाक पर कानून के पक्ष में, प्रधानमंत्री और मौजूदा सरकार वाली पार्टी के हक में मुसलमान महिलाओं के जुलूस निकल रहे हैं. ये महिलाएं प्रधानमंत्री से कह रही हैं, ‘आपने हमारा साथ दिया, हम आपका साथ देंगे.’ इनकी अपील है, ‘’तीन तलाक मुद्दे पर हम मोदी जी के साथ हैं: भाजपा को वोट करें.’ यूपी में तो इस वक्त कोई चुनाव हो नहीं रहा है. फिर ये मुसलमान महिलाएं इस वक्त किससे वोट देने की अपील कर रही हैं. जी, अंदाजा बिल्कुल सही है. ये अपील गुजरात चुनाव के लिए है. ये भारतीय जनता पार्टी की जीत की दुआएं कर रही हैं. ये महिलाएं कौन हैं? किस संगठन की हैं? कैसे लाई गई हैं? इन सब पर अलग से लम्बी बात हो सकती है. पर यह मुसलमान महिलाएं सड़क पर भाजपा के साथ दिख रही हैं, यह तो हकीकत है.

इससे पहले भी कुछ होता है. एक दिन इत्ती सी खबर आती है कि तीन तलाक को रोकने के लिए सरकार कानून बनाएगी. जब वह बात आई-गई होने लगी तो चंद रोज बाद ही एक और चौंकाने वाली खबर आई कि अब तो कानून का मसौदा भी तैयार है. दिसम्बर में संसद के सत्र में इस पर विचार भी होगा. इस बीच इस मसौदे पर सहमति मिलने लगी. उत्तर प्रदेश सरकार ने कैबिनेट में विचार कर इस पर अपनी मुहर भी लगा दी. इतनी तेजी से महिलाओं के हक ‘सामाजिक बदलाव’का पहिया कैसे घूमने लगा?

क्या मजहबी लीडरशि‍प को उकसाने की कोशि‍श है...
ऐसा लगता है कि कुछ लोगों को मुसलमानों के दकियानूस, मर्दाना मजहबी लीडरशिप से उम्मीद के मुताबिक इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है. वे उन्हें लगातार उकसाने की कोशि‍श में लगे हैं. वे चाहते हैं कि यह समूह कुछ तीखी प्रतिक्रिया के साथ मैदान में आए.

सुप्रीम कोर्ट में केस के दौरान कई उदारमना- तरक्कीपसंद लोग भी इस मजहबी लीडरशि‍प से वैसे ही उम्मीद लगाए बैठे थे, जैसा उन्होंने अस्सी की दहाई में शहनाज और शाहबानो के मामले में किया था. मगर जाहिर है, गंगा में तब से बहुत पानी बह चुका है. इस लीडरशि‍प ने भी बदलते समाजी-सियासी माहौल में अपने तौर-तरीकों में बदलाव किया है. उसके काम करने का अंदाज बदला है. इसीलिए उसने सु्प्रीम कोर्ट में केस के दौरान और फैसले के बाद ऊपरी तौर पर वैसा कुछ भी नहीं किया, जैसा वलवला उन्होंने तीस साल पहले पैदा किया था. सवाल है, क्या कुछ लोग चाहते हैं कि यह वलवला फिर पैदा हो? क्या इसलिए वे तीन तलाक के मुद्दे पर उन्हें लगातार उकसाने में लगे हैं? वैसे, इस बार इनकी यह रणनीति थोड़ी कामयाब भी दिखती है. मीडिया ने इस पर जबरन चर्चा भी शुरू कर दी है. मीडिया में‘शरीअत में दखलंदाजी’ की आवाज को जगह मिलने लगी है. जगह-जगह से इसके खि‍लाफ खबरें आना शुरू हो रही हैं.

मुसलमानों में खौफ और महिलाओं से लगाव- ये कैसा रिश्ता है...
एक और बात गौर करने लायक है. आमतौर पर इस मुल्क की सेक्यूलर मानी जाने वाली पार्टियां मुसलमानों के मुद्दे पर वही बात बोलती रही हैं, जो इस समुदाय के मर्दाना दकियानूस मजहबी लीडरशि‍प को पसंद आता रहा है. वे उन मुद्दों पर बोलने से कतराती रही हैं, जिनका वास्ता मुसलमान महिलाओं की जिंदगी या उनके हकों से रहा है. भारतीय जनता पार्टी ने इस कमजोर कड़ी को मजबूती से पकड़ लिया है. वह मुसलमानों से कितना लगाव रखती है, यह बात उससे बेहतर कोई नहीं जानता है. इसलिए मुसलमान महिलाओं की हालत और उनके हको प्रति उसका लगाव कितना ईमानदार है, यह तो आने वाला वक्त बताएगा. हालांकि, वह इसका इस्तेमाल करने में बखूबी लगी है. इसका फायदा भी उन्हें मिला है.

एक तरफ देश के बड़े हिस्से के मुसलमानों पर खौफ का साया है. उनकी जिंदगी और रोजी पर संकट है. इस पार्टी की सरकारों को जैसा कारगर कदम उठाना चाहिए,वे नहीं उठा रही हैं. मगर मुसलमान महिलाओं के हकों के लिए वे बैचेन हैं. यह तो सोचने वाली बात है. क्यों है न?

यह मुसलमान मर्द बनाम मुसलमान महिला का मसला नहीं है. यह गैरबराबरी और इंसाफ का मसला है. क्या गैरबराबरी और इंसाफ सिर्फ ‘इकट्ठी तीन तलाक’ तक सिमटी हुई है?  

... तो मुसलमान महिलाएं बनीं हैं चुनावी मुद्दा
इसलिए शक पैदा होना लाजिमी है. इस मुद्दे का इस्तेमाल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के दौरान मुसलमानों को घेरने, कलंकित करने और उनके खि‍लाफ गोलबंदी के लिए बखूबी किया गया. कहीं मुसलमानों को घेरने और अपमानित करने के लिए वैसा ही माहौल बड़े पैमाने पर बनाने की कोशि‍श तो नहीं हो रही है.

आखि‍र क्या वजह है कि इस कानून की कोशि‍श में मुसलमानों के उस तरक्कीपसंद तबके को भी शामिल नहीं किया गया, जो इस तरह के तलाक के खि‍लाफ हैं. इसमें सिर्फ तलाकशुदा महिलाएं या महिलाओं की तंजीम ही नहीं हैं, बल्कि बड़ी तादाद में मर्द दानिश्वर, कानून के जानकार भी शामिल हैं जो इस तरह के इकतरफा और इकट्ठी तलाक के खि‍लाफ हैं. अभी तक कि जानकारी के मुताबिक, ये सभी इस प्रक्रिया से बाहर हैं. मुमकिन है, कुछ लोग शामिल हों. हालांकि बड़ा समूह इन सबसे अलग ही दिख रहा है.

वैसे, सरकार ने अब तक क्या किया

इस कानून के पक्ष में सबसे बड़ी दलील यह दी जा रही है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी एक मजलिस की तीन तलाक रुक नहीं रही है.

एक मजलिस की तीन तलाक, एक ऐसा मसला है, जो सदियों से चलन में है. इसे मजहबी मानकर अपनाया जाता रहा है. इसके खि‍लाफ उठती हर सदा को चुप कराने की अरसे से कोशि‍श होती रही है. इसके नाम पर मजहबी और फिरकापरस्त गोलबंदी होती रही है. इसलिए तलाक का यह तरीका किसी फैसले के बाद अचानक गायब हो जाएगा, यह मुमकिन नहीं है.  

इसलिए यह गौर करना भी जरूरी है कि जिन लोगों पर सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के फैसलों या दूसरे कानूनी उपायों की जानकारी आम लोगों खासकर आम महिलाओं तक पहुंचाने की है, उन्होंने क्या किया? सिर्फ बेहतर फैसले आने या कानून बनाने से लोगों तो इसका फायदा पहुंचने लगेगा, यह सोच ही गड़बड़ है. उसके बारे में जानकारी पहुंचाना भी सरकार का काम है. एक मजलिस की तीन तलाक पर मौजूदा सरकार ने मुसलमान म‍हिलाओं के पक्ष में जबरदस्त चिंता जाहिर की थी. मगर जब यह फैसला आया तो इसके प्रचार-प्रसार के लिए क्या किया? यही नहीं, परेशान हाल मुसलमान महिलाओं को और भी क्या कानूनी साधन मुहैया हैं, इसके बारे में भी कोई जानकारी जन-जन तक पहुंचाने की कोशि‍श नहीं हुई.

यह सवाल तो महिला मुद्दों पर काम करने वाली तंजीमें, समाजी कारकुनों से भी किया जाना चाहिए. मुद्दा तो यह है कि बड़ी आबादी अब भी इन फैसलों या उपायों के बारे में नहीं जानती हैं. वह नहीं जानती है कि इन मसलों में कानूनी हक का कैसे इस्तेमाल किया जाए. तो नए कानून बनते ही, क्या यह सब दुरूस्त हो जाएगा? सामाजिक बदलाव न तो सिर्फ कानून या फैसलों से हुए हैं और न होंगे. कानून के साथ मजबूत सामाजिक मुहिम की जरूरत होती है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह मुहिम कहां है.

वैसे, खबरों के मुताबिक, विधि‍ आयोग हर धर्म के निजी कानूनों में सुधार पर विचार कर रहा है. बेहतर तो यही होता कि उसके मसौदे का इंतजार किया जाता. अगर कुछ बनाना ही है तो पारिवारि‍क या वैवाहिक कानून के दायरे में आने वाले हर क्षेत्र में संहिताबतद्ध कानून बनाने की पहल हो.

सवाल भरोसे का भी है...
यह गौर करने लायक है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला और मौजूदा सरकारी की कानून बनाने की पहल– दोनों एक जैसी चीज नहीं है. सुप्रीम कोर्ट अब भी एक इंसाफ पसंद इदारे के रूप में मकबूल है. नागरिकों का यकीन इस इदारे पर कायम है. इसलिए जब तलाक-ए-बिद्दत को खारिज करने का फैसला आया तो बड़े तबके ने उसे मान लिया. जिन्होंने नहीं माना, वे खुलकर बोल नहीं पाए. मगर क्या मुसलमानों का यही यकीन/भरोसा मौजूदा सरकार के मामले में है? इसलिए इसकी पहल को क्या आसानी से गोलबंदी का जरिया नहीं बनाया जा सकता है?

इसलिए, मौजूदा समाजी-सियासी माहौल में जहां, हर चीज को साम्प्रदायिक चश्मे से देखने की कोशि‍श हो रही हो, मुसलमानों के बड़े तबके में असुरक्षा का माहौल हो, सिर्फ एक मजलिस के तीन तलाक को फौजदारी कानून के दायरे में लाने का ख्याल बेहतर नहीं है. इससे चीजें सुलझेगी नहीं. किसी भी समाज में सुधार सिर्फ कानून नहीं लाते हैं. सुधार कभी भी समाज को उकसा कर, उसे दरकिनार कर न तो लाया जा सका है और न लाया जा सकेगा. (जारी...)

(नासि‍रूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार/ शोधकर्ता हैं. सामाजिक मुद्दों और खास तौर पर महिला मुद्दों पर लिखते हैं. यह आर्टिकल उन्होंने सबरंग इंडिया के लिए लिखा है.)

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