दोपहर के करीब एक बज रहे होंगे। मार्केट में चहल पहल कम थी। जो भी दिख रहा था सब अलसाया सा। पेड़ पौधे भी अलसाये से दिख रहे थे जैसे खड़े खड़े थक गए हों। सामने पड़ी सब्जियों पर कई बार पानी मारे जाने के बावजूद भी वे मुरझाई सी दिखने की कोशिश कर रही थीं। वे उदास और मुरझाई सी न दिखने लगें उसके लिए मैंने उनपर पानी का छींटा मारने के लिए जैसे ही पानी उठाया एक नई गाड़ी आकर ठीक दुकान के सामने खड़ी हो गई। गाड़ी बिलकुल नई थी। अभी अभी शोरूम से निकलकर आई प्रतीत होती थी। वह महंगे ब्रांड की थी। ऐसी कारें सड़कों पर कम दिखती हैं। गाड़ी पर सामने लगे फीते और दरवाजे पर सजावट के उद्देश्य से लगा दी गई छोटी छोटी प्लास्टिक की कलाकारियां इस बात की पुष्टि कर रहे थे कि यह अभी शो रूम से निकलकर सड़क पर पहली बार चल रही है।
दरवाजा खुला। बड़े आहिस्ते से खुला। खुलने का तरीका ऐसा लगा जैसे खोलने वाले ने नई गाड़ी के प्रति सम्मान व्यक्त किया हो। एक सज्जन बाहर निकले। गाड़ी के पीछे कुछ परिवार नुमा लोग बैठे थे जो आपस मे व्यस्त थे। उतरे हुए सज्जन बड़े सज्जन से लग रहे थे। वह मेरी तरफ बढ़े। मैं उनसे मुखातिब होने के लिए तैयार बैठा था। वह मेरी तरफ न देखकर नारियल की तरफ मुड़े। उन्होंने नारियल के ढेर में से एक नारियल चुना। उसे ठोका, बजाया और हिलाकर यह जांच की कि इसमें पानी भरा है या नहीं। मैं उन्हें देख रहा था। वे फ़ूड इंस्पेक्टर से प्रतीत हो रहे थे। उसमें भी नारियल विशेषज्ञ।
मैं हर जांचकर्ता में देश का भविष्य देखता हूँ। अस्सी से नब्बे प्रतिशत ग्राहक बिना जांचे सब्जियां नहीं खरीदते। मैं यह देख खुश हो जाता हूँ। मन से वाह निकलती है। कितने जागरूक हैं लोग। मैं सोचता हूँ- यदि हिंदी पट्टी में 500 लोगों में गांधी और गोडसे में से एक को चुनना होगा तो आधे से अधिक गोडसे पर मुहर लगा देंगे। कुछ साइलेंटली मन मे गोडसे को रख गांधी को चुन लेंगे और बाकी गांधी को चुन लेंगे। मैं सब्जियां चुनने वाले को अनालाइस करता हूँ। आधे को पता ही नहीं होता अच्छी सब्जियां कौन सी हैं। वे चुनने के नाम पर कुछ भी उठा लेते हैं। एक साहब एक दिन दो चार खराब आलू टोकरी में भर लिए तो मैंने उनसे कहा- सर ये वाले अच्छे नहीं हैं। मैं आपको अच्छे निकालकर दे देता हूँ।
वे बोले- डोंट टीच मी हाउ टू चूज पोटैटोज।
वे आलू विशेषज्ञ वाले टोन में बोले थे। मुझे लगा मैं किसी एग्रीकल्चरल विभाग के प्रोफेसर के सामने खड़ा हूँ। मैंने चुप होना उचित समझा।
वे आलू लेकर घर गए और आधे घण्टे में ही आलू लेकर वापस आ गए। बोले- वाइफ ने कहा जाओ बदलकर दूसरा ले आओ। तू दे दे यार अच्छे वाले निकालकर।
यह कहने में उनका टोन बदला था। मुझे लगा डिग्री घर रखकर आये होंगे।
लेकिन बात तो गाड़ी से उतरे सज्जन की हो रही थी। जो अभी गाड़ी से उतरकर नारियल विशेषज्ञ की भूमिका में थे। उनके हर परीक्षण पर नारियल खरा उतरा। उन्होंने मुझे नारियल दिखाते हुए पूछा - यह कितने का है?
मैंने बताया- तीस का है।
उन्होंने तीस सुनकर मुंह बिचकाया। मैं समझ गया कि ऐसा करने से उनका मतलब नारियल का उनको महंगा लगना है। उन्होंने नारियल को फिर से हिलाया और बोले- छोटा है।
मैंने सहमति में कह दिया- हाँ थोड़ा छोटा है।
उन्होंने कहा- पच्चीस ले लो। हमें चार नींबू भी लेने हैं।
मैंने कहा- सर, इस नारियल पर बस मुझे तीन रुपये मिलते हैं। कम नहीं तो नहीं होगा।
उन्होंने फिर कहा- कम कर लो। पांच रुपये ही तो कम करा रहा हूँ।
मैंने कहा- सर, सही कह रहा हूँ। मुझे तीन रुपये ही मिलते हैं इस नारियाल पर। कैसे कम कर दूं पांच रुपये ?
उन्होंने फिर कहा- देखो देखो हो जाएगा। मुझे नींबू भी चाहिए चार।
मैं सोच में पड़ गया। इतनी महंगी गाड़ी से ये आदमी उतरा है। लाखों रुपये गाड़ी में दे दिये पर अदने से नारियल के लिए पांच रुपये कम करवाने में यह अपना और मेरा समय व्यर्थ किये जा रहा है। यह हमारी सरकारों से कुछ सीखता क्यों नहीं? तीन की चीज भी एक सौ तीन में खरीद लेती हैं। बिन जरूरत की चीज भी ऊंचे दाम पर खरीद लेती हैं। रक्षा उपकरण हो, जेट हो, विमान हो एक सरकार कम दाम में सौदा करती है तो सरकार बदलते ही आने वाली सरकार उसी चीज के कई गुना दाम देकर उठा लेती है। सवाल उठते हैं तो एक्स्ट्रा टेक्नोलॉजी की बात कहकर कन्विंश कर लेती है। विपक्ष चुप हो जाता है। सवाल कई तरह के उठने होते हैं जो नहीं उठते।
सवाल तो ये होना चाहिए कि क्या अब हमें युद्ध की सामग्री की और आवश्यकता है? हमारी प्राथमिकता में देश के नागरिक कब आएंगे? उनकी मूलभूत जरूरतें कब आएंगी? क्या इतने हथियार काफी नहीं हैं जो अबतक हमने जमा कर रखे हैं? लॉकडाउन लगता है, लाखों लोग पैदल निकल जाते हैं हजारों किलोमीटर अपने घर की तरह, कितनी जगहों पर बांस और रस्सी पकड़कर बच्चे नदी पार करते हुए स्कूल जाते हैं, कितने लोग हॉस्पिटल के बाहर सुविधा न मिलने पर दम तोड़ देते हैं, महंगाई इतनी कि जनता की हालत पस्त है। ये सब कितने दुःख की बात है पर इन समस्याओं को प्राथमिकता न देकर सरकारें हथियार खरीदती हैं, फाइटर प्लेन ले आती हैं। ये सब मुद्दे उठाए कौन? जो विपक्ष में हैं वह भी तो सत्ता में रहते यही कर रहे थे। आज हालत ये है कि विपक्ष सत्ता पर मुद्दों को लेकर हमलावर होने की जगह डिफेन्स मोड में अक्सर नजर आती है। एक चीज को डिफेंस कर ही रहे होते हैं कि सरकार दूसरे मुद्दे डिफेंस के लिए थमा देती है। मैं सुप्रीम कोर्ट की बात नहीं करूंगा। यहां मामला आस्था वाला हो चुका है कुछ समय से।
नारियल खरीदने के उद्देश्य से खड़े सज्जन ने फिर कहा- मुझे चार नींबू भी चाहिए। कितने के हैं चार?
मैंने कहा- दस के चार हैं।
उन्होंने झट से अपना गुणा गणित लगाया और कहा- चलो दोनों चीजें मिलाकर मुझे तीस में दे दो।
अब मुझे उस सज्जन पर गुस्सा आ रहा था। मन में आया कि कह दें कि इतनी महंगी गाड़ी ले लिए हैं आप पर दो चार रुपये के लिए भाव ताव कर रहे हैं। पर ऐसी बातें कही नहीं जाती। मन में रखी जाती हैं। बहुत सी बातें मन में रखने योग्य होती हैं। हर किसी के पास मन की बात कहने का प्रिविलेज नहीं होता। पर मैंने देखा है बहुत से लोगों के पास मन की बात कर लेने वाले प्रिविलेजधारियों से सवाल कर लेने का मौका होता है पर वे इस मौके को 'आम कैसे खाते हो', 'इतना मेहनत करके थकते क्यों नहीं' जैसे वाहियात सवालों में गुजार देते हैं। भविष्य में जिसको यह प्रिविलेज हासिल हो कि वह मन की बात कर लेने वाले से बात करने का अवसर पाए वह यह सवाल जरूर पूछे- आप प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों नहीं करते?
तो मैंने सामने खड़े सज्जन से बड़ी सज्जनता से कहा- सर नहीं हो पायेगा इतने सस्ते में। आप आगे देख लो और दुकानें हैं। हो सकता है किसी को ये दोनों चीजें मुझसे सस्ते दामों में मिली हों और वह आपको आपके मांगे गए भाव मे दे दे।
उन्होंने कहा- आप ही दे देते। नई गाड़ी ली है। चार नींबू टायरों के आगे लगाने हैं और नारियल फोड़ना है मंदिर जाकर।
अब मुझे उस सज्जन पर तरस आया। कितना पढ़ा लिखा व्यक्ति है। पैसे भी इतने कमा लिए हैं कि अच्छी सोसाइटी से बिलांग करता नजर आ रहा है। पर कर्म वही ढकोसला वाले। यह चार नींबू का सत्यानाश करने के लिए मेरे समय का नाश कर रहा है। मैंने नींबू की तरफ देखे। मुझे ऐसा लगा जैसे इनपर गाड़ी के टायर चढ़ रहे हों और ये बेबश से बस फिजूल में खत्म हो जाने के सिवा कुछ न कर पा रहे हों। मैंने सज्जन को ना कहके मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया। सज्जन गाड़ी की तरफ बढ़े और दरवाजा खोल उसमें समा गए।
गाड़ी आगे बढ़ी और दूर की दुकान के पास जाकर रुकी। मैं सोच रहा था कि इससे कम में नारियल कौन बेचता है ? नींबू भी तो मैं ठीक भाव मे बेच रहा हूँ। क्या कोई इससे भी सस्ता बेचता है ? कौन देगा इस सज्जन को इससे कम दाम में। अगर उसनें पैंतीस भी देने को कहा होता तो मैं उसे दे देता। इतनी ही तो मेरी लागत है। कोई इतना भाव करे तो उसे नाराज नहीं करना चाहिए।
यही सब सोचता अपने काम में मैं व्यस्त हो गया। अचानक फिर वही गाड़ी आकर सामने रुकी। सज्जन फिर निकले। मुझसे कहा- पैंतीस ले लो और दे दो। मैं दूसरी जगह नहीं जा रहा।
मैंने सोचा- यह आदमी नहीं बुर्जुआ थाली का बैगन है। अगर अब न दिया तो सैकड़ों रुपए का पेट्रोल फूंक कार से इस दुकान से उस दुकान लुढ़कता रहेगा। चार नींबू का सत्यानाश तो होगा पर समय, पेट्रोल, हवा दूषित होने से तो बच जाएगी !
बिना देरी के मैंने उसे नींबू पकड़ाए और गाड़ी तक छोड़कर विदा किया।
दरवाजा खुला। बड़े आहिस्ते से खुला। खुलने का तरीका ऐसा लगा जैसे खोलने वाले ने नई गाड़ी के प्रति सम्मान व्यक्त किया हो। एक सज्जन बाहर निकले। गाड़ी के पीछे कुछ परिवार नुमा लोग बैठे थे जो आपस मे व्यस्त थे। उतरे हुए सज्जन बड़े सज्जन से लग रहे थे। वह मेरी तरफ बढ़े। मैं उनसे मुखातिब होने के लिए तैयार बैठा था। वह मेरी तरफ न देखकर नारियल की तरफ मुड़े। उन्होंने नारियल के ढेर में से एक नारियल चुना। उसे ठोका, बजाया और हिलाकर यह जांच की कि इसमें पानी भरा है या नहीं। मैं उन्हें देख रहा था। वे फ़ूड इंस्पेक्टर से प्रतीत हो रहे थे। उसमें भी नारियल विशेषज्ञ।
मैं हर जांचकर्ता में देश का भविष्य देखता हूँ। अस्सी से नब्बे प्रतिशत ग्राहक बिना जांचे सब्जियां नहीं खरीदते। मैं यह देख खुश हो जाता हूँ। मन से वाह निकलती है। कितने जागरूक हैं लोग। मैं सोचता हूँ- यदि हिंदी पट्टी में 500 लोगों में गांधी और गोडसे में से एक को चुनना होगा तो आधे से अधिक गोडसे पर मुहर लगा देंगे। कुछ साइलेंटली मन मे गोडसे को रख गांधी को चुन लेंगे और बाकी गांधी को चुन लेंगे। मैं सब्जियां चुनने वाले को अनालाइस करता हूँ। आधे को पता ही नहीं होता अच्छी सब्जियां कौन सी हैं। वे चुनने के नाम पर कुछ भी उठा लेते हैं। एक साहब एक दिन दो चार खराब आलू टोकरी में भर लिए तो मैंने उनसे कहा- सर ये वाले अच्छे नहीं हैं। मैं आपको अच्छे निकालकर दे देता हूँ।
वे बोले- डोंट टीच मी हाउ टू चूज पोटैटोज।
वे आलू विशेषज्ञ वाले टोन में बोले थे। मुझे लगा मैं किसी एग्रीकल्चरल विभाग के प्रोफेसर के सामने खड़ा हूँ। मैंने चुप होना उचित समझा।
वे आलू लेकर घर गए और आधे घण्टे में ही आलू लेकर वापस आ गए। बोले- वाइफ ने कहा जाओ बदलकर दूसरा ले आओ। तू दे दे यार अच्छे वाले निकालकर।
यह कहने में उनका टोन बदला था। मुझे लगा डिग्री घर रखकर आये होंगे।
लेकिन बात तो गाड़ी से उतरे सज्जन की हो रही थी। जो अभी गाड़ी से उतरकर नारियल विशेषज्ञ की भूमिका में थे। उनके हर परीक्षण पर नारियल खरा उतरा। उन्होंने मुझे नारियल दिखाते हुए पूछा - यह कितने का है?
मैंने बताया- तीस का है।
उन्होंने तीस सुनकर मुंह बिचकाया। मैं समझ गया कि ऐसा करने से उनका मतलब नारियल का उनको महंगा लगना है। उन्होंने नारियल को फिर से हिलाया और बोले- छोटा है।
मैंने सहमति में कह दिया- हाँ थोड़ा छोटा है।
उन्होंने कहा- पच्चीस ले लो। हमें चार नींबू भी लेने हैं।
मैंने कहा- सर, इस नारियल पर बस मुझे तीन रुपये मिलते हैं। कम नहीं तो नहीं होगा।
उन्होंने फिर कहा- कम कर लो। पांच रुपये ही तो कम करा रहा हूँ।
मैंने कहा- सर, सही कह रहा हूँ। मुझे तीन रुपये ही मिलते हैं इस नारियाल पर। कैसे कम कर दूं पांच रुपये ?
उन्होंने फिर कहा- देखो देखो हो जाएगा। मुझे नींबू भी चाहिए चार।
मैं सोच में पड़ गया। इतनी महंगी गाड़ी से ये आदमी उतरा है। लाखों रुपये गाड़ी में दे दिये पर अदने से नारियल के लिए पांच रुपये कम करवाने में यह अपना और मेरा समय व्यर्थ किये जा रहा है। यह हमारी सरकारों से कुछ सीखता क्यों नहीं? तीन की चीज भी एक सौ तीन में खरीद लेती हैं। बिन जरूरत की चीज भी ऊंचे दाम पर खरीद लेती हैं। रक्षा उपकरण हो, जेट हो, विमान हो एक सरकार कम दाम में सौदा करती है तो सरकार बदलते ही आने वाली सरकार उसी चीज के कई गुना दाम देकर उठा लेती है। सवाल उठते हैं तो एक्स्ट्रा टेक्नोलॉजी की बात कहकर कन्विंश कर लेती है। विपक्ष चुप हो जाता है। सवाल कई तरह के उठने होते हैं जो नहीं उठते।
सवाल तो ये होना चाहिए कि क्या अब हमें युद्ध की सामग्री की और आवश्यकता है? हमारी प्राथमिकता में देश के नागरिक कब आएंगे? उनकी मूलभूत जरूरतें कब आएंगी? क्या इतने हथियार काफी नहीं हैं जो अबतक हमने जमा कर रखे हैं? लॉकडाउन लगता है, लाखों लोग पैदल निकल जाते हैं हजारों किलोमीटर अपने घर की तरह, कितनी जगहों पर बांस और रस्सी पकड़कर बच्चे नदी पार करते हुए स्कूल जाते हैं, कितने लोग हॉस्पिटल के बाहर सुविधा न मिलने पर दम तोड़ देते हैं, महंगाई इतनी कि जनता की हालत पस्त है। ये सब कितने दुःख की बात है पर इन समस्याओं को प्राथमिकता न देकर सरकारें हथियार खरीदती हैं, फाइटर प्लेन ले आती हैं। ये सब मुद्दे उठाए कौन? जो विपक्ष में हैं वह भी तो सत्ता में रहते यही कर रहे थे। आज हालत ये है कि विपक्ष सत्ता पर मुद्दों को लेकर हमलावर होने की जगह डिफेन्स मोड में अक्सर नजर आती है। एक चीज को डिफेंस कर ही रहे होते हैं कि सरकार दूसरे मुद्दे डिफेंस के लिए थमा देती है। मैं सुप्रीम कोर्ट की बात नहीं करूंगा। यहां मामला आस्था वाला हो चुका है कुछ समय से।
नारियल खरीदने के उद्देश्य से खड़े सज्जन ने फिर कहा- मुझे चार नींबू भी चाहिए। कितने के हैं चार?
मैंने कहा- दस के चार हैं।
उन्होंने झट से अपना गुणा गणित लगाया और कहा- चलो दोनों चीजें मिलाकर मुझे तीस में दे दो।
अब मुझे उस सज्जन पर गुस्सा आ रहा था। मन में आया कि कह दें कि इतनी महंगी गाड़ी ले लिए हैं आप पर दो चार रुपये के लिए भाव ताव कर रहे हैं। पर ऐसी बातें कही नहीं जाती। मन में रखी जाती हैं। बहुत सी बातें मन में रखने योग्य होती हैं। हर किसी के पास मन की बात कहने का प्रिविलेज नहीं होता। पर मैंने देखा है बहुत से लोगों के पास मन की बात कर लेने वाले प्रिविलेजधारियों से सवाल कर लेने का मौका होता है पर वे इस मौके को 'आम कैसे खाते हो', 'इतना मेहनत करके थकते क्यों नहीं' जैसे वाहियात सवालों में गुजार देते हैं। भविष्य में जिसको यह प्रिविलेज हासिल हो कि वह मन की बात कर लेने वाले से बात करने का अवसर पाए वह यह सवाल जरूर पूछे- आप प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों नहीं करते?
तो मैंने सामने खड़े सज्जन से बड़ी सज्जनता से कहा- सर नहीं हो पायेगा इतने सस्ते में। आप आगे देख लो और दुकानें हैं। हो सकता है किसी को ये दोनों चीजें मुझसे सस्ते दामों में मिली हों और वह आपको आपके मांगे गए भाव मे दे दे।
उन्होंने कहा- आप ही दे देते। नई गाड़ी ली है। चार नींबू टायरों के आगे लगाने हैं और नारियल फोड़ना है मंदिर जाकर।
अब मुझे उस सज्जन पर तरस आया। कितना पढ़ा लिखा व्यक्ति है। पैसे भी इतने कमा लिए हैं कि अच्छी सोसाइटी से बिलांग करता नजर आ रहा है। पर कर्म वही ढकोसला वाले। यह चार नींबू का सत्यानाश करने के लिए मेरे समय का नाश कर रहा है। मैंने नींबू की तरफ देखे। मुझे ऐसा लगा जैसे इनपर गाड़ी के टायर चढ़ रहे हों और ये बेबश से बस फिजूल में खत्म हो जाने के सिवा कुछ न कर पा रहे हों। मैंने सज्जन को ना कहके मुंह दूसरी तरफ घुमा लिया। सज्जन गाड़ी की तरफ बढ़े और दरवाजा खोल उसमें समा गए।
गाड़ी आगे बढ़ी और दूर की दुकान के पास जाकर रुकी। मैं सोच रहा था कि इससे कम में नारियल कौन बेचता है ? नींबू भी तो मैं ठीक भाव मे बेच रहा हूँ। क्या कोई इससे भी सस्ता बेचता है ? कौन देगा इस सज्जन को इससे कम दाम में। अगर उसनें पैंतीस भी देने को कहा होता तो मैं उसे दे देता। इतनी ही तो मेरी लागत है। कोई इतना भाव करे तो उसे नाराज नहीं करना चाहिए।
यही सब सोचता अपने काम में मैं व्यस्त हो गया। अचानक फिर वही गाड़ी आकर सामने रुकी। सज्जन फिर निकले। मुझसे कहा- पैंतीस ले लो और दे दो। मैं दूसरी जगह नहीं जा रहा।
मैंने सोचा- यह आदमी नहीं बुर्जुआ थाली का बैगन है। अगर अब न दिया तो सैकड़ों रुपए का पेट्रोल फूंक कार से इस दुकान से उस दुकान लुढ़कता रहेगा। चार नींबू का सत्यानाश तो होगा पर समय, पेट्रोल, हवा दूषित होने से तो बच जाएगी !
बिना देरी के मैंने उसे नींबू पकड़ाए और गाड़ी तक छोड़कर विदा किया।