जिस तरह उदार मुस्लिमों से कहा जा रहा है कि वे आईएसआईएस को मुस्लिमों का प्रतिनिधत्व से खारिज कर दें उसी तरह उदार हिंदुओं से भी यह अपील की जानी चाहिए वह इसके कट्टर स्वरूप को खारिज कर खुद इसकी विरासत का दावा करें।
Photo credit: Rediffusion
देश में पिछले कुछ दिनों से गोरक्षकों की ओर से लोगों की पीट-पीट कर हत्या को रोकने का क्या तरीका है ?
यूपी में बीफ की अफवाह पर लगभग डेढ़ साल पहले मोहम्मद अखलाक की पीट-पीट कर हत्या कर देने की घटना के बाद से इस तरह की घटनाओं में आठ मुस्लिमों की हत्या की जा चुकी है। दो मुस्लिम महिलाएं बलात्कार की शिकार हो चुकी हैं। गोरक्षकों की ओर से दो महिलाओं समेत लगभग 40 लोगों की पिटाई हो चुकी है। जिन आठ लोगों की हत्या हुई, उनमें एक झारखंड का 22 वर्षीय मिनहाज अंसारी पुलिस कस्टडी में मारा गया था। उसकी गिरफ्तारी व्हाट्सएप पर कथित तौर पर बीफ की तस्वीर भेजने को लेकर हुई थी।
इस तरह की घटनाओं का हिसाब देखें तो लगभग हर महीने दो से ज्यादा लोगों की पीट-पीट कर हत्या हो रही है। देश में हाल में जिस कदर गोरक्षक हिंसा पर उतारू हैं उससे कुछ दिनों में दूसरे देश यहां आने वाले अपने पर्यटकों के लिए यह एडवाइजरी जारी कर सकते हैं कि वे अगर भारतीय पर्यटक स्थलों का भ्रमण करें तो बीफ न खाएं। यह उनके लिए जानलेवा हो सकता है।
केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से जिस तरह का हिंसक असहिष्णुता का माहौल पैदा हुआ है। उसमें उदार हिंदुओं को सामने आकर हिंदू धर्म के उदार स्वरूप को बढ़ावा देने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसे हिंदुओं को आगे आकर कट्टर हिंदुत्व का विरोध करना होगा। हिंदुत्व के जिस कट्टर स्वरूप को बढ़ावा दिया जा रहा है उसका विरोध करना होगा।
इस समस्या का एक अहम पहलू है। वह यह कि राज्य गोरक्षकों की ओर से लोगों की पिटाई से नहीं रोकने जा रहा है। देश के सर्वोच्च नेता की चुप्पी बरकरार है। जब देश में 55 साल के पहलू खान की मौत का दृश्य टीवी पर दिखाई जा रहा है और संसद में इस पर बहस चल रही है तो हमारा यह नेता बांग्लादेश की पीएम शेख हसीना के स्वागत में लगा है। मवेशियों की तस्करी कर बांग्लादेश ले जाने का मुद्दा सत्ताधारी पार्टी के लिए पुरानी दुखती रग है। गृह मंत्री बनते ही राजनाथ सिंह ने अपने शुरुआती निर्देशों में बॉर्डर सिक्यूरिटी फोर्स को इन तस्करों पर लगाम लगाने को कहा था। ताकि बांग्लादेशी बीफ खाना ही छोड़ दें। हसीना ने राजनाथ के इस आदेश के बारे में जरूरी सुना होगा। पहलू खान की मौत के बारे में उन्होंने क्या सोचा होगा। अगर कुछ नहीं भी सोचा होगा तो इस बात को लेकर जरूरी आश्वस्त हो गई होंगी कि केवल उनके ही देश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ बड़े पैमाने पर कट्टरपंथी सड़कों पर नहीं उतर पड़ते हैं। पड़ोसी में भी ऐसे धर्मांधों का राज है।
आखिर इन घटनाओं के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, जिनमें से ज्यादातर हिंदू हैं की ओर से कोर्ट को यह अपील क्यों नहीं की जाती कि गोरक्षकों के खिलाफ एक्शन लिया जा रहा है या नहीं इसकी निगरानी के लिए कोई मैकेनिज्म बनाने का निर्देश दिया जाए।
भारत में इस तरह की घटनाओं पर पाकिस्तान में जरूर जश्न मनाया जा रहा होगा। शायद वे दुनिया को यह दिखा कर खुश हो रहे हों कि दो राष्ट्र के सिद्धांत पर पाकिस्तान की उनकी मांग और इसकी स्थापना का उनका फैसला सही था।
लेकिन यह सही नहीं है। लेकिन क्या हम पाकिस्तान निर्माण की इस बुनियाद को खारिज कर सकते हैं। क्या उदारवादी ताकतें यह खुलकर कहेंगी कि गोरक्षकों की ओर से इस तरह पीट-पीट कर लोगों की हत्या गलत है?
जब मीडिया में शोर मचता है तो पुलिस कुछ गोरक्षकों को गिरफ्तार कर लेती है। लेकिन सच्चाई यह है कि जो लोग पिटाई से बच जाते हैं। उन्हें ही फिर असली अपराध मान लिया जाता है। पहलू खां के साथ उनके जिन साथियों पर हमले हुए थे और जो बच गए थे अब उन पर केस लाद दिए गए हैं। यह पैटर्न अक्टूबर 2015 में कांग्रेस शासित हिमाचल में शुरू हुआ था। चाहे सत्ता में कोई भी हो पुलिस मान लेती है कि हिंदुत्व का राज है। अब तक राज्यों की किसी भी कांग्रेस सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया है, जिससे पुलिस बीफ और गोरक्षा से जुड़े मामलों को अलग नजरिये से देखने की कोशिश करे।
अक्टूबर 2015 में हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के लवासा गांव में गाय ले जा रहे 20 साल के नोमान की हत्या कर दी गई। पुलिस ने इस मामले में कुछ मुस्लिमों और हमलावरों को गिरफ्तार कर लिया । लेकिन हमलावरों को तुरंत जमानत मिल गई। इसी तरह यूपी में समाजवादी पार्टी के शासन के दौरान मोहम्मद अखलाक की परिवार के सदस्यों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी गई। हालांकि यह काम कोर्ट के आदेश के बाद हुआ।
आज की तारीख में निचली अदालतें, सरकार और पुलिस गाय का किसी भी तरीके से इस्तेमाल करने वाले मुसलमानों को अपराधी मान लेती है। चाहे वे दूधिये हों या किसान। उन्हें बीफ खाने वाले मुसलमानों की तरह ही समझा जाता है। बीजेपी मानती है कि मुसलमान जितने तरह के मीट खाते हैं सब बीफ हैं।
ऐसा सिर्फ अखलाक के मामले में ही नहीं हुआ। हाल में जयपुर में एक रेस्तरां के कर्मचारियों को सिर्फ इसलिए पीटा गया कि वे बचे हुए चिकन को कूड़ेदान में फेंकने जा रहे थे। यह कूड़ेदान वहां था, जहां गायें इकट्ठा थीं। उन कर्मचारियों पर कूड़ेदान में बीफ फेंकने का आरोप लगाया गया। कहा गया कि वे गायों को बीफ खिलाने की कोशिश कर रहे थे।
इन हालातों में क्या किया जाए। हम बाकी लोगों को क्या करना चाहिए। हम का मतलब जो लोग इस तरह के धर्मांधों के कदमों से भड़के हुए हैं। चूंकि हम मानवीय हैं इसलिए भड़के हुए हैं लेकिन एक हिंदू के तौर पर भी हम इस तरह के कदम से क्षुब्ध हैं।
सरेआम निहत्थे मुसलमानों और दलितों की पिटाई और उनकी हत्या हिंदू धर्म पर विश्वास और गाय की पवित्रता को लेकर हो रही है। हममें से कइयों के लिए गाय पवित्र है लेकिन जिस हिंदू धर्म का हम पालन करते हैं, उसमें इस तरह की हत्या की इजाजत नहीं है। यह सही है कि दलितों के साथ दुर्व्यवहार कुछ हिंदू धार्मिक ग्रंथों का हिस्सा हैं लेकिन आज की तारीख में बहुत कम हिंदू इस तरह की चीज का समर्थन करेंगे।
12 मार्च, 1993 में जब मुंबई में गुस्साए मुस्लिमों के एक समूह ने आतंकवाद की बड़ी कार्रवाई को अंजाम दिया उसी समय से हम मुसलमानों से इस तरह की विध्वंसक कार्रवाई के खिलाफ खुल कर बोलने की अपील करते आए हैं। इसी तरह जब जरनैल सिंह भिंडरावाले और उनके अनुयायी इससे एक दशक पहले पंजाब में नरसंहार को अंजाम दे रहे थे तो हम सिखों से ऐसी घटनाओं की निंदा करने की अपील करते थे। यहां तक कि बाल ठाकरे ने मुंबई की एक प्रेस कांफ्रेंस में इस तरह की मांग रखते हुए मुंबई के सिख नेताओं को अपमानित किया था।
लेकिन हिंदू बुद्धिजीवियों ने हमेशा ठाकरे, प्रवीण तोगड़िया और पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी समेत कट्टर आरएसएस-बीजेपी नेताओं की आलोचना की है। यहां तक कि उनकी ओर से मौजूदा पीएम नरेंद्र मोदी की भी आलोचना हुई है। ऐसा होना ही चाहिए। जहां भी बहुसंख्यक आबादी का वर्चस्व हो उसके बुद्धिजीवियों को उदारता का उदाहरण पेश करना चाहिए। अल्पसंख्यकों पर जब हमले हो तो उसे खुल कर सामने आकर इसका विरोध करना चाहिए।
जिस तरह से मुस्लिमों से यह कहा जा रहा है कि वे आईएसआईएस की ओर से कट्टरपंथी इस्लाम के प्रचार का विरोध करें ठीक उसी तरह से हिंदुओं से भी अपील की जानी चाहिए के लोगों के सामने आकर उन्हें यह बताएं कि असली हिंदुत्व कट्टरपंथ का समर्थन नहीं करता। हाल की घटनाओं से दुनिया में हिंदुओं की जिस कट्टरपंथी छवि का प्रचार हो रहा है, उसका विरोध करना होगा। जिन लोगों ने हमारी आजादी के संघर्ष का नेतृत्व किया था उन्होंने हिंदुओं के बीच जाति व्यवस्था के दुष्परिणामों को स्वीकार किया था। इसलिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया। लेकिन आज जो सत्ता में बैठे हैं उनके रुख से नहीं लगता कि हिंदुत्व के अनुयायी हिंदुत्व के नाम पर जो गलतियां कर रहे हैं, उन्हें वे स्वीकार करते हैं। इसके बजाय इस तरह के अत्याचार और बहशीपन को वे समर्थन देते दिखते हैं। ऐसे में आम हिंदुओं की यह जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे इस तरह के आतंक के विरोधियों के खिलाफ आगे आएं। कट्टरपंथी लोगों की करतूतों के खिलाफ उदारवादी लोग आगे आकर यह बताते रहे हैं कि वे इस धर्म के वारिस नहीं हैं। 27 फरवरी, 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में आगजनी की घटना में हिंदू तीर्थयात्रियों की मौत के बाद गोधरा के मुसलमानों प्रमुख मौलाना उमरजी ने इस घटना के लिए अपने समुदाय की ओर से माफी मांगी थी।
आखिर इस तरह की जवाबदेही लेकर अफसोस जताने का दायित्व अल्पसंख्यकों पर ही क्यों हो। होना तो यह चाहिए बहुसंख्यक इस तरह की भूमिका निभाएं। जब उनके समुदाय के लोग गलत काम करें तो वे एक कदम आगे आकर इसकी जिम्मेदारी लें और माफी मांगें। साथ ही यह सुनिश्चित करें कि आगे से इस तरह की करतूतों के लिए समाज में कोई जगह नहीं होगी।
जो लोग कट्टरपंथी हिंदुओं के अत्याचारों के शिकार हो रहे हैं वे बदले की कार्रवाई के तौर पर क्या कर सकते हैं?
आपको याद होगा, गुजरात में मरे हुए मवेशी ले जाने के आरोप में दलितों की नृशंस पिटाई के बाद दलितों ने मरी हुई गायों को उठाने से इनकार कर दिया था। क्या मुस्लिम ऐसा कर सकते हैं। क्या मुसलमान मवेशी पालना छोड़ दें? यह कठिन होगा। क्योंकि उनकी जीविका मवेशियों पर निर्भर है।
गोरक्षकों के अत्याचारों के लिए आखिर किसे भुगतना होगा। जाहिर है किसानों को। गोहत्या पर पाबंदी और मीट कारोबार पर रोक लगाने से मवेशी किसानों के लिए बोझ बन जाएंगे। क्योंकि एक उम्र के बाद मवेशी चाहे गाय हों या बैल- उन्हें पालना किसानों के लिए भारी मुश्किल बन जाता है। देश में किसानों की आबादी में सबसे ज्यादा संख्या हिंदुओं की हैं। वो क्यों नहीं इस तरह के अत्याचारों के खिलाफ मोर्चा खोलते हैं।
पशु मेले में कारोबार मंदा हो गया है। ऐसे में जिन किसानों को अपने मवेशियों के लिए खरीदार नहीं मिल रहे हैं उन्हें इस तरह के अत्याचार का विरोध करना चाहिए। देश भर में ऐसी रिपोर्टें हैं कि हिंदू किसान अपने मवेशियों के दाम गिरने से नाराज हैं।
कर्नाटक में गायों को ले जा रहे एक बीजेपी कार्यकर्ताओं को गोरक्षकों ने मार डाला। कई हिंदू कारोबारियों का कहना है कि उन पर हमले हुए। उन्हें अपनी सरकारों पर दबाब डालना चाहिए कि वे गोरक्षकों के खिलाफ कड़े कदम उठाएं। बीजेपी ने तो अपनी चुनाव स्ट्रेटजी और नीतियों से यह साफ कर दिया है कि वह सिर्फ हिंदुओं और हिंदुओं की पार्टी है। ऐसे में इस तरह की समस्याओं से निजात पाने का एक ही तरीका है कि गोरक्षकों को मिले संरक्षण को तुरंत खत्म किया जाए। गोरक्षक जिस तरह दिन-दहाड़े लोगों की हत्या कर रहे हैं, वैसी स्थिति में अदालत की शरण ली जानी चाहिए।
कांग्रेस के तहसीन पूनावाला ने गोरक्षकों पर प्रतिबंध की मांग करने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। लेकिन यह प्रतिबंध तभी कारगर साबित होगा, जब राज्य सरकारें चाहेंगी। आखिर इन घटनाओं के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, जिनमें से ज्यादातर हिंदू हैं, की ओर से कोर्ट को यह अपील क्यों नहीं की जाती कि गोरक्षकों के खिलाफ एक्शन लिया जा रहा है या नहीं इसकी निगरानी के लिए कोई मैकेनिज्म बनाने का निर्देश दे।
इस तरह के हमलो की सूची, इन पर पुलिस के नाकाफी कदम के ब्योरे, और सत्ता में बैठे लोगों की ओर से गोरक्षकों के कदमों के समर्थन, ऐसे हमलों का लोगों की जिंदगी के असर के बारे में कोर्ट को बताया जाना चाहिए।
अगर सिर्फ आतंकवादी मामलों की निगरानी और जांच के लिए नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी बनाई जा सकती है तो गोरक्षकों के अत्याचारों पर नजर रखन के लिए स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम यानी एसआईटी क्यों नहीं बनाई जा सकती?
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यह लेख पहले री-डिफ्यूजन में छपा था। इसे लेखिका की अनुमति से हमने यहां प्रकाशित किया है। मूल लेख यहां पढ़ें- (Read the original)
Photo credit: Rediffusion
देश में पिछले कुछ दिनों से गोरक्षकों की ओर से लोगों की पीट-पीट कर हत्या को रोकने का क्या तरीका है ?
यूपी में बीफ की अफवाह पर लगभग डेढ़ साल पहले मोहम्मद अखलाक की पीट-पीट कर हत्या कर देने की घटना के बाद से इस तरह की घटनाओं में आठ मुस्लिमों की हत्या की जा चुकी है। दो मुस्लिम महिलाएं बलात्कार की शिकार हो चुकी हैं। गोरक्षकों की ओर से दो महिलाओं समेत लगभग 40 लोगों की पिटाई हो चुकी है। जिन आठ लोगों की हत्या हुई, उनमें एक झारखंड का 22 वर्षीय मिनहाज अंसारी पुलिस कस्टडी में मारा गया था। उसकी गिरफ्तारी व्हाट्सएप पर कथित तौर पर बीफ की तस्वीर भेजने को लेकर हुई थी।
इस तरह की घटनाओं का हिसाब देखें तो लगभग हर महीने दो से ज्यादा लोगों की पीट-पीट कर हत्या हो रही है। देश में हाल में जिस कदर गोरक्षक हिंसा पर उतारू हैं उससे कुछ दिनों में दूसरे देश यहां आने वाले अपने पर्यटकों के लिए यह एडवाइजरी जारी कर सकते हैं कि वे अगर भारतीय पर्यटक स्थलों का भ्रमण करें तो बीफ न खाएं। यह उनके लिए जानलेवा हो सकता है।
केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से जिस तरह का हिंसक असहिष्णुता का माहौल पैदा हुआ है। उसमें उदार हिंदुओं को सामने आकर हिंदू धर्म के उदार स्वरूप को बढ़ावा देने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसे हिंदुओं को आगे आकर कट्टर हिंदुत्व का विरोध करना होगा। हिंदुत्व के जिस कट्टर स्वरूप को बढ़ावा दिया जा रहा है उसका विरोध करना होगा।
इस समस्या का एक अहम पहलू है। वह यह कि राज्य गोरक्षकों की ओर से लोगों की पिटाई से नहीं रोकने जा रहा है। देश के सर्वोच्च नेता की चुप्पी बरकरार है। जब देश में 55 साल के पहलू खान की मौत का दृश्य टीवी पर दिखाई जा रहा है और संसद में इस पर बहस चल रही है तो हमारा यह नेता बांग्लादेश की पीएम शेख हसीना के स्वागत में लगा है। मवेशियों की तस्करी कर बांग्लादेश ले जाने का मुद्दा सत्ताधारी पार्टी के लिए पुरानी दुखती रग है। गृह मंत्री बनते ही राजनाथ सिंह ने अपने शुरुआती निर्देशों में बॉर्डर सिक्यूरिटी फोर्स को इन तस्करों पर लगाम लगाने को कहा था। ताकि बांग्लादेशी बीफ खाना ही छोड़ दें। हसीना ने राजनाथ के इस आदेश के बारे में जरूरी सुना होगा। पहलू खान की मौत के बारे में उन्होंने क्या सोचा होगा। अगर कुछ नहीं भी सोचा होगा तो इस बात को लेकर जरूरी आश्वस्त हो गई होंगी कि केवल उनके ही देश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ बड़े पैमाने पर कट्टरपंथी सड़कों पर नहीं उतर पड़ते हैं। पड़ोसी में भी ऐसे धर्मांधों का राज है।
आखिर इन घटनाओं के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, जिनमें से ज्यादातर हिंदू हैं की ओर से कोर्ट को यह अपील क्यों नहीं की जाती कि गोरक्षकों के खिलाफ एक्शन लिया जा रहा है या नहीं इसकी निगरानी के लिए कोई मैकेनिज्म बनाने का निर्देश दिया जाए।
भारत में इस तरह की घटनाओं पर पाकिस्तान में जरूर जश्न मनाया जा रहा होगा। शायद वे दुनिया को यह दिखा कर खुश हो रहे हों कि दो राष्ट्र के सिद्धांत पर पाकिस्तान की उनकी मांग और इसकी स्थापना का उनका फैसला सही था।
लेकिन यह सही नहीं है। लेकिन क्या हम पाकिस्तान निर्माण की इस बुनियाद को खारिज कर सकते हैं। क्या उदारवादी ताकतें यह खुलकर कहेंगी कि गोरक्षकों की ओर से इस तरह पीट-पीट कर लोगों की हत्या गलत है?
जब मीडिया में शोर मचता है तो पुलिस कुछ गोरक्षकों को गिरफ्तार कर लेती है। लेकिन सच्चाई यह है कि जो लोग पिटाई से बच जाते हैं। उन्हें ही फिर असली अपराध मान लिया जाता है। पहलू खां के साथ उनके जिन साथियों पर हमले हुए थे और जो बच गए थे अब उन पर केस लाद दिए गए हैं। यह पैटर्न अक्टूबर 2015 में कांग्रेस शासित हिमाचल में शुरू हुआ था। चाहे सत्ता में कोई भी हो पुलिस मान लेती है कि हिंदुत्व का राज है। अब तक राज्यों की किसी भी कांग्रेस सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया है, जिससे पुलिस बीफ और गोरक्षा से जुड़े मामलों को अलग नजरिये से देखने की कोशिश करे।
अक्टूबर 2015 में हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के लवासा गांव में गाय ले जा रहे 20 साल के नोमान की हत्या कर दी गई। पुलिस ने इस मामले में कुछ मुस्लिमों और हमलावरों को गिरफ्तार कर लिया । लेकिन हमलावरों को तुरंत जमानत मिल गई। इसी तरह यूपी में समाजवादी पार्टी के शासन के दौरान मोहम्मद अखलाक की परिवार के सदस्यों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी गई। हालांकि यह काम कोर्ट के आदेश के बाद हुआ।
आज की तारीख में निचली अदालतें, सरकार और पुलिस गाय का किसी भी तरीके से इस्तेमाल करने वाले मुसलमानों को अपराधी मान लेती है। चाहे वे दूधिये हों या किसान। उन्हें बीफ खाने वाले मुसलमानों की तरह ही समझा जाता है। बीजेपी मानती है कि मुसलमान जितने तरह के मीट खाते हैं सब बीफ हैं।
ऐसा सिर्फ अखलाक के मामले में ही नहीं हुआ। हाल में जयपुर में एक रेस्तरां के कर्मचारियों को सिर्फ इसलिए पीटा गया कि वे बचे हुए चिकन को कूड़ेदान में फेंकने जा रहे थे। यह कूड़ेदान वहां था, जहां गायें इकट्ठा थीं। उन कर्मचारियों पर कूड़ेदान में बीफ फेंकने का आरोप लगाया गया। कहा गया कि वे गायों को बीफ खिलाने की कोशिश कर रहे थे।
इन हालातों में क्या किया जाए। हम बाकी लोगों को क्या करना चाहिए। हम का मतलब जो लोग इस तरह के धर्मांधों के कदमों से भड़के हुए हैं। चूंकि हम मानवीय हैं इसलिए भड़के हुए हैं लेकिन एक हिंदू के तौर पर भी हम इस तरह के कदम से क्षुब्ध हैं।
सरेआम निहत्थे मुसलमानों और दलितों की पिटाई और उनकी हत्या हिंदू धर्म पर विश्वास और गाय की पवित्रता को लेकर हो रही है। हममें से कइयों के लिए गाय पवित्र है लेकिन जिस हिंदू धर्म का हम पालन करते हैं, उसमें इस तरह की हत्या की इजाजत नहीं है। यह सही है कि दलितों के साथ दुर्व्यवहार कुछ हिंदू धार्मिक ग्रंथों का हिस्सा हैं लेकिन आज की तारीख में बहुत कम हिंदू इस तरह की चीज का समर्थन करेंगे।
12 मार्च, 1993 में जब मुंबई में गुस्साए मुस्लिमों के एक समूह ने आतंकवाद की बड़ी कार्रवाई को अंजाम दिया उसी समय से हम मुसलमानों से इस तरह की विध्वंसक कार्रवाई के खिलाफ खुल कर बोलने की अपील करते आए हैं। इसी तरह जब जरनैल सिंह भिंडरावाले और उनके अनुयायी इससे एक दशक पहले पंजाब में नरसंहार को अंजाम दे रहे थे तो हम सिखों से ऐसी घटनाओं की निंदा करने की अपील करते थे। यहां तक कि बाल ठाकरे ने मुंबई की एक प्रेस कांफ्रेंस में इस तरह की मांग रखते हुए मुंबई के सिख नेताओं को अपमानित किया था।
लेकिन हिंदू बुद्धिजीवियों ने हमेशा ठाकरे, प्रवीण तोगड़िया और पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी समेत कट्टर आरएसएस-बीजेपी नेताओं की आलोचना की है। यहां तक कि उनकी ओर से मौजूदा पीएम नरेंद्र मोदी की भी आलोचना हुई है। ऐसा होना ही चाहिए। जहां भी बहुसंख्यक आबादी का वर्चस्व हो उसके बुद्धिजीवियों को उदारता का उदाहरण पेश करना चाहिए। अल्पसंख्यकों पर जब हमले हो तो उसे खुल कर सामने आकर इसका विरोध करना चाहिए।
जिस तरह से मुस्लिमों से यह कहा जा रहा है कि वे आईएसआईएस की ओर से कट्टरपंथी इस्लाम के प्रचार का विरोध करें ठीक उसी तरह से हिंदुओं से भी अपील की जानी चाहिए के लोगों के सामने आकर उन्हें यह बताएं कि असली हिंदुत्व कट्टरपंथ का समर्थन नहीं करता। हाल की घटनाओं से दुनिया में हिंदुओं की जिस कट्टरपंथी छवि का प्रचार हो रहा है, उसका विरोध करना होगा। जिन लोगों ने हमारी आजादी के संघर्ष का नेतृत्व किया था उन्होंने हिंदुओं के बीच जाति व्यवस्था के दुष्परिणामों को स्वीकार किया था। इसलिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया। लेकिन आज जो सत्ता में बैठे हैं उनके रुख से नहीं लगता कि हिंदुत्व के अनुयायी हिंदुत्व के नाम पर जो गलतियां कर रहे हैं, उन्हें वे स्वीकार करते हैं। इसके बजाय इस तरह के अत्याचार और बहशीपन को वे समर्थन देते दिखते हैं। ऐसे में आम हिंदुओं की यह जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे इस तरह के आतंक के विरोधियों के खिलाफ आगे आएं। कट्टरपंथी लोगों की करतूतों के खिलाफ उदारवादी लोग आगे आकर यह बताते रहे हैं कि वे इस धर्म के वारिस नहीं हैं। 27 फरवरी, 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 कोच में आगजनी की घटना में हिंदू तीर्थयात्रियों की मौत के बाद गोधरा के मुसलमानों प्रमुख मौलाना उमरजी ने इस घटना के लिए अपने समुदाय की ओर से माफी मांगी थी।
आखिर इस तरह की जवाबदेही लेकर अफसोस जताने का दायित्व अल्पसंख्यकों पर ही क्यों हो। होना तो यह चाहिए बहुसंख्यक इस तरह की भूमिका निभाएं। जब उनके समुदाय के लोग गलत काम करें तो वे एक कदम आगे आकर इसकी जिम्मेदारी लें और माफी मांगें। साथ ही यह सुनिश्चित करें कि आगे से इस तरह की करतूतों के लिए समाज में कोई जगह नहीं होगी।
जो लोग कट्टरपंथी हिंदुओं के अत्याचारों के शिकार हो रहे हैं वे बदले की कार्रवाई के तौर पर क्या कर सकते हैं?
आपको याद होगा, गुजरात में मरे हुए मवेशी ले जाने के आरोप में दलितों की नृशंस पिटाई के बाद दलितों ने मरी हुई गायों को उठाने से इनकार कर दिया था। क्या मुस्लिम ऐसा कर सकते हैं। क्या मुसलमान मवेशी पालना छोड़ दें? यह कठिन होगा। क्योंकि उनकी जीविका मवेशियों पर निर्भर है।
गोरक्षकों के अत्याचारों के लिए आखिर किसे भुगतना होगा। जाहिर है किसानों को। गोहत्या पर पाबंदी और मीट कारोबार पर रोक लगाने से मवेशी किसानों के लिए बोझ बन जाएंगे। क्योंकि एक उम्र के बाद मवेशी चाहे गाय हों या बैल- उन्हें पालना किसानों के लिए भारी मुश्किल बन जाता है। देश में किसानों की आबादी में सबसे ज्यादा संख्या हिंदुओं की हैं। वो क्यों नहीं इस तरह के अत्याचारों के खिलाफ मोर्चा खोलते हैं।
पशु मेले में कारोबार मंदा हो गया है। ऐसे में जिन किसानों को अपने मवेशियों के लिए खरीदार नहीं मिल रहे हैं उन्हें इस तरह के अत्याचार का विरोध करना चाहिए। देश भर में ऐसी रिपोर्टें हैं कि हिंदू किसान अपने मवेशियों के दाम गिरने से नाराज हैं।
कर्नाटक में गायों को ले जा रहे एक बीजेपी कार्यकर्ताओं को गोरक्षकों ने मार डाला। कई हिंदू कारोबारियों का कहना है कि उन पर हमले हुए। उन्हें अपनी सरकारों पर दबाब डालना चाहिए कि वे गोरक्षकों के खिलाफ कड़े कदम उठाएं। बीजेपी ने तो अपनी चुनाव स्ट्रेटजी और नीतियों से यह साफ कर दिया है कि वह सिर्फ हिंदुओं और हिंदुओं की पार्टी है। ऐसे में इस तरह की समस्याओं से निजात पाने का एक ही तरीका है कि गोरक्षकों को मिले संरक्षण को तुरंत खत्म किया जाए। गोरक्षक जिस तरह दिन-दहाड़े लोगों की हत्या कर रहे हैं, वैसी स्थिति में अदालत की शरण ली जानी चाहिए।
कांग्रेस के तहसीन पूनावाला ने गोरक्षकों पर प्रतिबंध की मांग करने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। लेकिन यह प्रतिबंध तभी कारगर साबित होगा, जब राज्य सरकारें चाहेंगी। आखिर इन घटनाओं के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, जिनमें से ज्यादातर हिंदू हैं, की ओर से कोर्ट को यह अपील क्यों नहीं की जाती कि गोरक्षकों के खिलाफ एक्शन लिया जा रहा है या नहीं इसकी निगरानी के लिए कोई मैकेनिज्म बनाने का निर्देश दे।
इस तरह के हमलो की सूची, इन पर पुलिस के नाकाफी कदम के ब्योरे, और सत्ता में बैठे लोगों की ओर से गोरक्षकों के कदमों के समर्थन, ऐसे हमलों का लोगों की जिंदगी के असर के बारे में कोर्ट को बताया जाना चाहिए।
अगर सिर्फ आतंकवादी मामलों की निगरानी और जांच के लिए नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी बनाई जा सकती है तो गोरक्षकों के अत्याचारों पर नजर रखन के लिए स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम यानी एसआईटी क्यों नहीं बनाई जा सकती?
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यह लेख पहले री-डिफ्यूजन में छपा था। इसे लेखिका की अनुमति से हमने यहां प्रकाशित किया है। मूल लेख यहां पढ़ें- (Read the original)