‘मुस्लिम बहनों’ के लिए घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं मोदी

Written by Madhu Prasad | Published on: May 11, 2017

आज मोदी अपनी मुस्लिम बहनों के लिए घड़ियाली आंसू बहाते हुए दिख रहे हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2002 के गुजरात दंगों के बाद उन्होंने इन महिलाओं के प्रति कितनी सहानुभूति दिखाई थी?
 
क्या उन्मादी और कट्टरपंथी हिंदू भीड़ द्वारा मार डाले गए मोहम्मद अखलाक और पहलू खान की विधवा का दर्द मोदी की मुस्लिम बहनों से कम है। या फिर जेएनयू से गायब कर दिए गए नजीब की मां का दर्द इन बहनों से जुदा है। इन महिलाओं के दर्द पर पीएम चुप क्यों हैं।




प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से हाल के दिनों में तीन तलाक पर दिए गए बयानों पर अफसोस ही जाहिर किया जा सकता है। पीएम मोदी के ये बयान एक बड़ी विडंबना हैं। हाल के कुछ बयानों में उन्होंने अपनी ‘मुस्लिम बहनों’ की परेशानियों पर गंभीर चिंता जाहिर की। एक तरफ, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेतृत्व और मौलानाओं को उनकी सलाह और दूसरी ओर सेक्यूलर दलों को तुष्टिकरण से बाज आने की उनकी अपील, दोनों ही बेहद आपत्तिजनक है। मोदी जिस तरह से लोगों को तीन तलाक के खिलाफ अभियान में आरएसएस-भाजपा के साथ आने के लिए कह रहे हैं वह बेहद ही खतरनाक और आपत्तिजनक है।
 
यह याद रखना बेहद जरूरी है कि मोदी 2002 में गुजरात के सीएम थे और उनके पास सूबे के गृह मंत्री का भी पद था। गुजरात में जो नरसंहार हुआ उससे पूरी दुनिया वाकिफ है। उन दंगों में मुस्लिम बहनों के साथ जो क्रूरता हुई, उस पर हमारे पीएम ने आज तक एक शब्द तक नहीं कहा है।
 
यहां तक कि उन्होंने न्यूनतम गरिमा भी नहीं दिखाई। उल्टे उन मजलूम औरतों का यह कह कर मजाक उड़ाया कि दंगों के बाद के रिलीफ कैंप बच्चे पैदा करने की फैक्टरी हैं। याद रहे, ये कैंप सरकार ने नहीं लगाए थे। इनका प्रबंधन मुस्लिमों ने अपने संसाधनों से किया था। बाद के दिनों में हम दो, हमारे पच्चीस के नारे उनके भाषणों का हिस्सा बनते रहे। इससे पता चल जाता है कि मोदी अपनी मुस्लिम बहनों के लिए कितने संवेदनशील हैं?
 
मोदी अब पीएम हैं। उन पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निगाहें हैं। अचानक से उनकी हिंदूवादी पितृसत्तात्मक मानसिकता बदली हुई दिख रही है तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह बदल गए हैं। ऐसा हुआ है तो यह स्वागतयोग्य है। लेकिन तथ्य कुछ और कहते हैं।
 
क्या उन्मादी और कट्टरपंथी हिंदू भीड़ द्वारा मार डाले गए मोहम्मद अखलाक और पहलू खान की विधवा का दर्द मोदी की मुस्लिम बहनों से कम है। या फिर जेएनयू से गायब कर दिए गए नजीब की मां का दर्द इन बहनों से जुदा है। क्या इन महिलाओं को पीएम और इस देश के सम्मान, करुणा और देखभाल की जरूरत नहीं है। इन महिलाओं के दर्द पर पीएम चुप क्यों हैं।
 
छोटी-छोटी बात पर ट्वीट करने वाले पीएम अल्पसंख्यकों और दलितों के खिलाफ बर्बर कार्रवाई करने वाले क्रूर गोरक्षकों को सलाह देने में इतनी देर क्यों लगाते हैं। वह भी बेहद बुझे हुए अंदाज में। आज जब मोदी अपनी मुस्लिम बहनों के लिए घड़ियाली आंसू बहाते हुए दिख रहे हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2002 के गुजरात दंगों के बाद उन्होंने इन महिलाओं के प्रति कितनी सहानुभूति दिखाई थी?
 
पीएम और उनके दूसरे मंत्रियों के नेतृत्व में तीन तलाक के मुद्दे पर जिस तरह से हौवा खड़ा कर रहे हैं उसने सारी हदें पार कर दी है। जबकि यह बात ध्यान में रहनी चाहिए कि खुद मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक के खिलाफ याचिका दायर की है । इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में दायर उनकी याचिका पर 11 मई को सुनवाई शुरू हो रही है। दरअसल संघ परिवार ने संविधान की ओर से अल्पसंख्यक समुदायों को मिले पर्सनल लॉ के अधिकारों पर पक्षपाती रवैया अपनाया है।
 
संघ परिवार समान नागरिक संहिता के नाम पर हिंदुत्व के आचार-विचारों को थोपने की कोशिश में है। वह बहुसंख्यक हिंदुओं के सामाजिक आचार और व्यवहार को देश के नागरिकों पर लादना चाहता है। इससे अल्पसंख्यकों और पिछड़ी जातियों के लोगों के संवैधानिक अधिकारों, रीति-रिवाजों, खान-पान और व्यवहार में दखल पड़ता है। जबकि संविधान में अलग-अलग सामाजिक-धार्मिक समूहों की स्वायत्तता और विविधता को संरक्षित करने के प्रावधान हैं। संविधान में हर समूह को अपनी संस्कृति और सामाजिकता सुरक्षित रखने का अधिकार है। अगर इसके हनन की कोशिश की जाती है तो व्यक्ति और समूह इसके खिलाफ अदालत जा सकते हैं।
 
1986 में सुप्रीम कोर्ट ने विधवा शाह बानो को गुजारा भत्ता देने के पक्ष में फैसला देकर संविधान के इस प्रावधान की सर्वोच्चता पर मुहर लगा दी थी। और इस तरह उसने मुल्ला-मौलवियों की व्याख्या को पलट दिया था। हालांकि यह अलग बात है कि राजीव गांधी सरकार ने राजनीतिक फायदे के लिए इस फैसले को उलट दिया था।
 
अब भी ऐसा ही कुछ करने की कोशिश हो रही है। खास कर ऐसे वक्त में जब मुस्लिम समुदाय को एक खतरे के तौर पर दिखा कर लगातार उस पर हमले हो रहे हैं। गोरक्षा के नाम पर उस पर हमले हो रहे हैं। लैंगिक अत्याचार का बहाना (तीन तलाक का मुद्दा उठा कर) बना कर उसे अलग-थलग करने की कोशिश हो रही है। दरअसल समान नागरिक संहिता के पीछे का मकसद यही है कि अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों का गुलाम बना दिया जाए।
 
संघ परिवार और सरकार में समान नागरिक संहिता को लागू करने की जबरदस्त तड़प दिखती है। लेकिन उन कानूनों का पालन कराने में सरकार नाकाम क्यों हैं, जो बाल विवाह, ऑनर किलिंग, खाप पंचायतों जबरदस्ती लागू कानूनों को रोकने के लिए बने हैं। जाति के नाम पर अत्याचार और शोषण को रोकने के लिए लागू कानून प्रभावी क्यों नहीं हो रहे हैं। वैवाहिक बलात्कार के मुद्दे को तो स्वीकार ही नहीं किया जा रहा है क्योंकि हिंदू विवाह पवित्र बंधन है।
 
पीएम से लेकर कांस्टेबल तक और जनमत बनाने वाले मीडिया से लेकर समुदाय और जाति संगठन और हर पार्टी के राजनीतिक नेतृत्व तक हर कोई अल्पसंख्यकों के अधिकारों को अपने स्वार्थ के नजरिये से देखने लगता है। जब राजनीतिक घाटा हो और सत्ता तक पहुंच और प्रभाव घटने लगे तो राजनीतिक नेतृत्व से लेकर आम आदमी तक अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों के पूर्वाग्रह का समर्थन करने लगते हैं। जब तक इस गठजोड़ का खात्मा नहीं किया जाता तब तक जाति, लैंगिक और धर्म की धरातल पर हाशिये पर रहने वाले लोगों के अधिकारों का हनन होता रहेगा और ये सताए जाते रहेंगे।

तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट को फैसला करना है। सुप्रीम कोर्ट को याचिका दायर करने वाली महिलाओं के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने दें। तीन तलाक की शिकार महिलाओं ने जो तरक्कीपसंद कदम उठाया है, उसे पीएम और सत्ताधारी पार्टी के राजनीतिक फायदे का औजार न बनने दें।
 
मधु प्रसाद ऑल इंडिया फोरम फॉर राइट टु एजुकेशन की मेंबर प्रेसिडियम हैं।

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