गोरक्षकों के अत्याचारों के खिलाफ खुल कर सामने आएं उदारवादी हिंदू

Written by Jyoti Punwani | Published on: April 14, 2017
ज्योति पुनवानी लेखक ने अपने ही लेख के अनुवाद को दुबारा हिंदी मैं किया है। यह हम पेश कर रहे हैं। - Editors

Gau rakshak
Image: India Today

 
जिस तरह उदार मुस्लिमों से कहा जा रहा है कि वे आईएसआईएस को मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व से ख़ारिज कर दें उसी तरह उदार हिन्दुओं से भी यह अपील की जानी चाहिए वह इसके कट्टर स्वरुप को ख़ारिज कर खुद इसकी विरासत का दावा करें।
 
देश में पिछले कुछ दिनों से गोरक्षकों की ओर से लोगों की पीट-पीट कर हत्या करने की घटनाओं को लेकर हम क्या कर सकते हैं?
 
यूपी में बीफ की अफवाह पर १७ महीने पहले मोहम्मद अख़लाक़ की पीट-पीट कर हत्या कर देने की घटना के बाद, से इस तरह की घटनाओं में आठ मुस्लिमों की हत्या की जा चुकी हैं। दो मुस्लिम महिलाएं बलात्कार की शिकार हो चुकी हैं। गोरक्षकों की ओर से दो महिलाओं समेत लगभग ४० लोगों की पिटाई हो चुकी है। जिन आठ लोगों की हत्या हुई, उनमें झारखंड़ का २२ वर्षीय मिनहाज अंसारी पुलिस कस्टडी में मारा गया। उसकी गिरफ़्तारी व्हाट्सएप पर कथित तौर पर बीफ को लेकर मेसेज की वजह से हुई थी।
 
इस तरह की घटनाओं का हिसाब देखें तो लगभग हर महीने दो से ज्यादा लोगों की पीट-पीट कर हत्या हो रही है। अब तो वक्त आ गया है कि हमें इंटरनेट पर भारत आनेवाले विदेशियों के लिए यह सलाह या एडवाइजरी जारी करनी चाहिए कि कहां कहां ऐसी खुनी घटनाएं होने की सम्भावना है, ओर अगर वे इन खूबसूरत जगहों को देखना चाहें, तो कोई भी मास खाना उनके लिए जानलेवा हो सकता है।
 
आज, केंद्र की नई सरकार ने हिंसक असहिष्णुता का ऐसा माहोल पैदा किया है, जिसको देखकर आम हिंदू को भी मजबूर होकर अपनी आवाज उठानी चाहिए, उस तूफान के खिलाफ जिसे 'हिंदू धर्म' का नाम सत्ताधारी पक्श दे रहा है। "यह मेरा हिंदू धर्म नहीं हैं" - यह हमारा नारा बनना चाहिए।
 
एक चीज हमें याद रखनी पड़ेगी : कि सरकार गोरक्षकों को रोकेगी नहीं। देश के सर्वोच्च नेता की चुप्पी बरकरार है। जब देश में ५५ साल के पहलू खान की मौत का दृश्य टीवी पर दिखाया जा रहा था और संसद में इस पर बहस चल रही थी, तो हमारे नेता बांग्लादेश की पीएम शेख हसीना के स्वागत में लगे थे। भारत से बांग्लादेश में मवेशियों की तस्करी का मुद्दा सत्ताधारी पार्टी के  लिए पुरानी दुखती रग है। गृह मंत्री बनते ही राजनाथ सिंह ने अपने शुरूआती निर्देशों में बॉर्डर सिक्यूरिटी फ़ोर्स को कहा था कि इन तस्करों पर इतना सख्त लगाम लगाएं कि बांग्लादेशी बीफ खाना ही छोड़ दें। हसीना ने राजनाथ के इस आदेश के बारे में जरूर सुना होगा। पहलू खान की मौत के बारे में उन्होंने क्या सोचा होगा? कम से कम इतना तो सोचा होगा कि चलो, सिर्फ मेरे देश में ही धर्मांध खुले आम अल्पसंख्यकों को मारते हुए नहीं घूम रहे हैं।
 
क्यों न मानवाधिकार कार्यकर्ता, जिनमें से ज्यादातर हिंदू हैं, कोर्ट को यह अपील करें, कि गोरक्षकों के मार पीट की घटनाओं के बाद प्रशासन ने क्या करवाई की है, इसकी निगरानी के लिए अदालत ही कोई यंत्रणा या मैकेनिज्म बनाए ?
 
पाकिस्तान में तो गोरक्षकों की हरकतों पर जश्न मनाया जा रहा है। वे खुश हैं कि आखिर उनके देश के निर्माता का 'दो-राष्ट्र सिद्धांत', जिस पर पाकिस्तान बना, भारत में सही सिद्ध हो रहा है। हमें पता है कि उनका यह खयाल गलत है। मगर हम जो इस जहरीले सिद्धांत को ठुकराते आए हैं, किस मुंह से पाकिस्तानियों को बताएं कि जो वो सोच रहे हैं, वह गलत है?
 
क्या हिंदुस्तान के सत्ताधारी गोरक्षकों की ओर से इस तरह पीट-पीट कर लोगों की हत्या को गलत मानते हैं?
 
जब मीडिया में शोर मचता है, तो पुलिस कुछ गोरक्षकों को गिरफ्तार कर लेती है। लेकिन सच्चाई यह है कि जो लोग पिटाई से बच जाते हैं, उन्हीं को असली अपराधी माना जाता है। पहलू खां के जिन साथियों पर हमले हुए थे और जो बच गए थे, अब उन पर केस लाद दिए गए हैं। यह सिलसिला अक्टूबर २०१५ में कांग्रेस शासित हिमाचल में शुरू हुआ था। चाहे सत्ता में कोई भी हो, पुलिस के लिए तो हिंदुत्व ही का राज है। अब तक किसी भी कांग्रेस सरकार ने ऐसा कुछ नहीं किया है, जिससे पुलिस का यह रवेया बदले।
 
अक्टूबर २०१५ में हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले के लवासा गांव में गाय ले जा रहे २० साल के नोमान की हत्या कर दी गई। पुलिस ने इस मामले में हमलावरों को गिरफ्तार कर लिया, मगर नोमान के मुस्लिम साथियों को भी गिरफ्तार किया। हमलावरों को तुरंत जमानत मिल गई।
 
इसी तरह यूपी में समाजवादी पार्टी के शासन के दौरान मोहम्मद अख़लाक़ के परिवार के सदस्यों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी गई। हालांकि यह काम कोर्ट के आदेश के बाद हुआ।
 
आज की तारीख में निचली अदालतें, सरकार और पुलिस गाय का किसी भी तरीके से इस्तेमाल करने वाले मुसलमानों को अपराधी मान लेती है, चाहे वे दूधिये हों या किसान। उन्हें बीफ खाने वाले मुसलमानों की तरह ही समझा जाता है। वैसे बीजेपी के लिए, मुसलमान जो भी मास खाए, वह गाय का ही मास माना जाता है। ऐसा सिर्फ अख़लाक़ के मामले में नहीं हुआ। हाल ही में जयपुर में एक रेस्तरां के कर्मचारियों को सिर्फ इसलिए पीटा गया कि वे बचे हुए चिकन को कूड़ेदान में फेंकने जा रहे थे। यह कूड़ेदान वहां था, जहां गायें इकठ्ठा थीं। उन कर्मचारियों पर कूड़ेदान में बीफ फेंकने का आरोप लगाया गया।
 
इन हालातों में हमें क्या करना चाहिए? 'हम' मतलब जो लोग इस तरह के धर्मांध हिंसक जोश से नफरत करते हैं। ऐसा जोश हमारे अन्दर इन्सानियत के नाते ही नहीं, बल्कि हिंदू होने के नाते भी जरूर नफरत पैदा करता होगा?
 
सरेआम निहत्थे मुसलमानों और दलितों की पिटाई और उनकी हत्या हिंदू धर्म में गाय की पवित्रता को लेकर हो रही है। हममें से कइयों के लिए गाय पवित्र है लेकिन जिस हिन्दू धर्म का हम पालन करते हैं, उसमें इस तरह की हत्या की इजाजत नहीं है। यह सही है कि दलितों के साथ दुर्व्यवहार कुछ हिन्दू धार्मिक ग्रंथों का हिस्सा हैं। लेकिन आज की तारीख में बहुत कम हिन्दू इस तरह की चीज का समर्थन करेंगे।
 
१२ मार्च, १९९३ में जब मुंबई में गुस्साए मुसलमानों के एक समूह ने देश में आतंकवाद की पहली बड़ी घटना को अंजाम दिया, उस समय से हम मुसलमानों से इस तरह के कारनामों के खिलाफ खुल कर बोलने की अपील करते आए हैं। इसी तरह, इससे एक दशक पहले, जब जरनैल सिंह भिंडरावाले और उनके अनुयायी पंजाब में दहशत फैला रहे थे, हम सिखों से ऐसी घटनाओं की निंदा करने की अपील करते थे। यहां तक कि शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे ने मुंबई की एक प्रेस कांफ्रेंस में इस तरह की मांग रखते हुए मुंबई के सिख नेताओं को अपमानित किया था।
 
लेकिन हिन्दू बुद्धिजीवियों ने हमेशा ठाकरे, प्रवीण तोगड़िया, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और मौजूदा पीएम नरेंद्र मोदी समेत, आरएसएस-बीजेपी नेताओं की आलोचना की है। ऐसा होना ही चाहिए। जहां भी बहुसंख्यक आबादी का वर्चस्व हो, उसके बुद्धिजीवियों को अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए खुलकर बोलना चाहिए।

लेकिन आज, केंद्र की नई सरकार ने हिंसक असहिष्णुता का ऐसा माहोल पैदा किया हैं, जिसको देखकर आम हिन्दू को भी मजबूर होकर अपनी आवाज उठानी चाहिए, उस तूफान के खिलाफ जिसे 'हिन्दू धर्म' का नाम सत्ताधारी पक्श दे रहा है।
 
"यह मेरा हिन्दू धर्म नहीं हैं" - यह हमारा नारा बनना चाहिए। और हमें रास्तों पर बड़े बड़े मोर्चे निकालकर यह जोर जोर से कहना चाहिए।
 
ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं करना चाहिए ताकि गैर-हिन्दू को यह सन्देश जाए कि बहुसंख्यक हिन्दू उन्हें बराबर के नागरिक मानते हैं - और यह सन्देश देना बहुत आवश्यक हो गया है - मगर इसलिए भी कि हम अपने आप को विश्वास दिला सकें कि हमारा मजहब एक खुनी मजहब नहीं हैं।
 
जिस तरह से मुस्लिमों से यह कहा जा रहा है कि वे आईएसआईएस द्वारा प्रचारित कट्टरपंथी इस्लाम को नकार कर, दुनिया को बताएं कि सही इस्लाम क्या है, ठीक उसी तरह से हिन्दुओं को भी जो भी आज हिन्दू धर्म के नाम पर चल रहा है, उसे नकार कर, दुनिया को बताना चाहिए कि असली हिन्दू धर्म यह नहीं है।
 
जिन लोगों ने हमारी आजादी के संघर्ष का नेतृत्व किया था उन्होंने हिन्दुओं के बीच जाति व्यवस्था के दुष्परिणामों को स्वीकार किया था। इसलिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया। लेकिन आज जो सत्ता में बैठे हैं उनके रुख से नहीं लगता कि उनके अनुयायी द्वारा हिन्दू धर्म के नाम पर जो अपराध हो रहे हैं, उन्हें वे अपराध मानते भी हैं। उलटा इस वहशीपन का खुला समर्थन हो रहा है। ऐसे में आम हिन्दुओं के लिए और भी महत्वपूर्ण होता है कि वे इस आतंक के विरोध में बुलन्द आवाज उठाएं। और जिन पर हिन्दू धर्म के नाम पर हमले हुए हैं, उनको इन हमलों के लिए अफ़्सोस भी जताएं।
 
ऐसे करने के लिए एक उदहारण मौजूद है। २७ फरवरी, २००२ को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस के एस-६ कोच में आगजनी की घटना में हिन्दू तीर्थयात्रियों की मौत के बाद गोधरा के मुसलमानों के प्रमुख मौलाना उमरजी ने इस घटना के लिए अपने समुदाय की ओर से माफ़ी मांगी थी।
 
आखिर अपने कौम के कुछ लोगों की करतूतों के लिए जवाबदेही लेने और अफ़सोस जताने का दायित्व सिर्फ अल्पसंख्यंकों पर ही क्यों हो? दरअसल, बहुसंख्यकों पर ज्यादा जिम्मेदारी बनती हैं।
 
इन हमलों के जो शिकार है, वे क्या कर सकते हैं?
 
आपको याद होगा, गुजरात के ऊना में मरे हुए मवेशी ले जाते वक्त दलितों की नृशंस पिटाई के बाद, दलितों ने मरी हुई गायों को उठाने से इनकार कर दिया था। क्या मुस्लिम मवेशी से कुछ भी वास्ता रखना बंद कर सकते है? क्या मवेशियों को पालना भी छोड़  सकते हैं? यह कठिन होगा, क्योंकि बहुतों की जीविका मवेशियों पर निर्भर है। लेकिन शायद यह तकलीफ उठाना फायदेमंद हो।
 
गोरक्षकों के अत्याचारों की कीमत, मीट कारोबार पर रोक लगाने की कीमत, आखिर किसे भुगतनी पड़ेगी? किसानों को। क्योंकि एक उम्र के बाद मवेशी, चाहे गाय हों या बैल, किसानों के लिए बोझ बन जाते हैं। देश में किसानों की आबादी में सबसे ज्यादा संख्या हिन्दुओं की हैं। वे इन नए प्रक्रियांओं का विरोध करें।
 
पशु मेले में कारोबार मंदा हो गया है। ऐसे में जिन किसानों को अपने मवेशियों के लिए खरीदार नहीं मिल रहे हैं, उन्हें विरोध करने दीजिए। देश भर से रिपोर्टें आ रही हैं कि हिन्दू किसान और मवेशियों का कारोबार करनेवाले हिन्दू, मवेशियों के दाम गिरने से, और धंधे में अचानक जान के खतरे आने से नाराज हैं।  
 
कर्नाटक में गायों को ले जा रहे एक बीजेपी कार्यकर्ता को गोरक्षकों ने पिछले साल मार डाला। कई हिन्दू कारोबारियों का कहना है कि उन पर हमले हुए हैं।  उन्हें अपनी सरकारों पर दबाव डालने दीजिए। बीजेपी ने तो अपनी चुनाव स्ट्रेटजी और नीतियों से यह साफ़ दिखा दिया है कि वह सिर्फ हिन्दुओं की और हिन्दुओं के लिए पार्टी है। लेकिन शायद यह रास्ता मुश्किल हो। गोरक्षक जिस तरह दिन-दहाड़े लोगों की हत्या कर रहे हैं, वैसी स्थिति में अदालत की शरण ली जानी चाहिए।       
 
कांग्रेस के तहसीन पूनावाला की गोरक्षकों पर प्रतिबंध की मांग करने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। लेकिन यह प्रतिबंध तभी कारगर साबित होगा, जब राज्य सरकारें चाहेंगी। इसके बजाय, क्यों न मानवाधिकार कार्यकर्ता, जिनमें से ज्यादातर हिन्दू हैं, कोर्ट को यह अपील करें, कि गोरक्षकों के मार पीट की घटनाओं के बाद प्रशासन ने क्या करवाई की हैं, इसकी निगरानी के लिए अदालत ही कोई यंत्रणा या मैकेनिज्म बनाए?
 
इस तरह के हमलो की सूची, इन पर पुलिस के नाकाफी कदम के ब्योरे, सत्ता में बैठे लोगों की ओर से गोरक्षकों के करतूतों का समर्थन, और, ऐसे हमलों का लोगों की ज़िंदगी पर क्या असर होता हैं, इस सब के बारे में कोर्ट को बताया जाना चाहिए।
अगर सिर्फ आतंकवादी मामलों की निगरानी और जांच के लिए नेशनल इनवेस्टीगेशन एजेंसी (एन आय ए) बनाई जा सकती है, तो गोरक्षकों के आतंक  की जांच के लिए स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम यानी एसआईटी क्यों नहीं बनाई जा सकती ?
 
यह लेख पहले रीडिफ.काम में छपा था। इसे लेखिका की अनुमति से हमने यहां प्रकाशित किया है।
 
मूल लेख यहां पढ़े  (Read the original here)

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