अपने इतिहास के सबसे विपरीत समय और परिस्थितियों के बीच कांग्रेस पार्टी कर्नाटक के किले को बचाने में कामयाब हो गयी है हालांकि इसके लिये उसे जेडीएस को बड़ी भूमिका देते हुये उसके साथ सत्ता में भागीदारी करनी पड़ी है. लेकिन 2019 के हिसाब से यह एक फायदे का सौदा है. वैसे तो पिछले चार सालों के दौरान कांग्रेस पार्टी मुसलसल हारती आ रही है इस बार भी जब 15 मई के दिन कर्नाटक में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरकर सामने आई तो हर किसी को उसके नाकारापन और अमित शाह की क्षमता पूरा भरोसा था. लेकिन इस बार कांग्रेस ने सभी को चौंकाते हुये जो किया है उसे “शेर के मुंह से शिकार छीनना” कहते हैं. उन्होंने अपनी रणनीतियों और बचाव से बीएस येदियुरप्पा को विश्वास मत का सामना किए बगैर ही अपना इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया.
दरअसल कर्नाटक का चुनाव दो भागों में लड़ा गया पहले राउंड में भाजपा तीनों पार्टियों में सबसे आगे थी लेकिन मतगणना के बाद हुये दुसरे राउंड में कांग्रेस ने फुर्ती दिखाते हुये जेडीएस को अपने खेमे में मिला लिया जिससे उनका बढ़त और दावा दोनों मजबूत हो गया. गुजरात में नैतिक जीत के बाद राहुल गांधी को एक असली जीत की ज़रूरत थी और कर्नाटक में उन्हों दोनों मिला है.
इससे पहले मेघालय और गोवा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस सत्ता गवां चुकी थी लेकिन इस बार कर्नाटक में उसने कोई गलती नहीं की और वे समय के हिसाब से सटीक फैसला लेते गये. कम विधायक होने बावजूद जेडीएस को बिना शर्त समर्थन व कुमारास्वामी को सीएम पद देने का फैसला, राज्यपाल के फैसले के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट चले जाना और इतना अधिक दबाव के बावजूद सफलतापूवर्क अपने विधायकों को एकजुट रख पाने जैसी बातें इस बात की ओर इशारा हैं दे से ही सही कांग्रेस अपनी गलतियों से सीख रही है.
येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद किये गये प्रेस कांफ्रेस में राहुल गांधी का आत्मविश्वाश देखने लायक था इस दौरान वे काफी आक्रमक नजर आये ,भाजपा को उसी की शैली में निशाना बनाते हुये सबसे पहले तो उन्होंने इस सफलता का पूरा क्रेडिट लिया फिर फ्लोर टेस्टिंग से पहले विधायकों की खरीद-फरोख्तक का आरोप सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर लगाते हुये उन्हें ही भ्रष्टाचार बता डाला, इस दौरान उन्होंने अमित शाह को भी “हत्या का आरोपी” कहा.
कर्नाटक का चुनाव वाकई में अभूतपूर्व था, यह भव्य, भड़काऊ, नाटकीय और अभी तक का सबसे खर्चीला विधानसभा चुनाव था, एक ऐसा चुनाव था जिसे दोनों प्रमुख पार्टियों ने निर्णायक मानकर लड़ रही थीं कांग्रेस ने इसे भारतीय राजनीति के जमीन पर अपनी जगह को बचाए रखने के लिए तो भाजपा ने अपने निर्णायक वर्चस्व के लिए लड़ा. कांग्रेस के लिये इसे जीतना अपने अस्तित्व को बचने की तरह था और भाजपा कर्नाटक को एक बार फिर दक्षिण भारत में अपना पैर ज़माने के लिये एंट्री पॉइंट बनना चाहती थी. यह चुनाव राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के लिए निजी तौर पर भी अहम था कर्नाटक जीतकर नरेंद्र मोदी को यह साबित करना था कि ब्रांड मोदी का असर ख़त्म नहीं हुआ है और उनकी लहर बरकार है जबकि अध्यक्ष के रूप में राहुल का यह पहला चुनाव था जिसमें उन्हें अपने हार के सिलसिले को तोड़ते हुये खुद को विपक्ष की तरफ से विकल्प के रूप में स्थापित करना था.
इससे पहले राहुल गाँधी ने भाजपा को नरेंद्र मोदी और अमित शाह के गढ़ गुजरात में छकाया था और अब कर्नाटक में भी उन्होंने यही किया है. इन चार सालों के दौरान ऐसा दूसरी बार हुआ जब कांग्रेस इस तरह से लड़ती हुई दिखाई दी है,पहले अहमद पटेल के राज्य सभा सीट के लिये और इस बार कर्नाटक में.
कर्नाटक में लड़ाई दोहरी थी दिलचस्प बात यह है कि खेल के इन दोनों भागों को किसी नाटक की तरह खेला व परफॉर्म किया गया जिसमें जनता नामक शय की भूमिका वोट डालने वाली मशीन या सिर्फ दर्शक के तौर पर ही रही. मतगणना के बाद जो खेल खेला गया उसकी सबसे दिलचस्प व्याख्या चेतन भगत ने की उन्होंने ट्वीटर पर लिखा, “त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में कोई नैतिक रास्ता नहीं बचता, अब दोनों ही पक्ष नैतिकता सिखाना बंद करें यह बेकार की कवायद है. हॉर्स ट्रेडिंग (विधायकों की खरीद-फरोख्त) भी एक कला है बीजेपी और कांग्रेस के लिए एक और परीक्षा देखते हैं, इसमें कौन बेहतर निकलता है.” दुर्भाग्य से यहां चेतन भगत सही हैं दरअसल हमारा लोकतंत्र इस खेल का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि विधयाकों को बचाने के लिये उन्हें बसों में भरकर रिसोर्ट दर रिसोर्ट भटकने और हॉर्स ट्रेडिंग के खुले प्रयास जैसी बातें अब हमारे लिये सामान्य हो गयी है अब हम इससे रौद्र रस (क्रोध) की जगह हास्य रस ग्रहण करने लगे हैं. भारत में चुनाव पैसों का खेल बन चुके हैं जिसमें इस तरह की नाटक-नौटंकी सामान्य है.
मशीनों से होने वाला चुनाव भी अब मशीनी बना दिये गये हैं जहां हार-जीत का फैसला जीवन के वास्तविक मुद्दों से नहीं बल्कि मैनेजमेंट, मनी और ध्रुवीकरण के सहारे होता है. अगर हम राजनीतिक दलों को इसी तरह से लोकतंत्र की धजजिया उड़ाने की इजाजत देते रहे तो वे जल्दी ही वोटों की तरह लोकतंत्र को भी ईवीएम जैसी किसी मशीन में कैद कर देंगें जहां हम वोटर किसी रोबोट की तरह होंगें.
लेकिन कर्नाटक ने उम्मीद जगाई है और इस पूरे प्रकरण में एक बार फिर न्यायपालिका की भूमिका सराहनीय रही है इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता भी काफी हद तक बहाल हुई है कर्नाटक में असली जीत लोकतंत्र की हुई है, और इससे सबसे बड़ा सन्देश विपक्ष को यह मिला है कि “लड़ोगे तो जीतोगे” और अगर साथ मिल कर लड़ोगे तो भाजपा के रथ को रोकना संभव है. इससे नरेंद्र मोदी और भाजपा के अजेय होने का तिलस्म टूटा है. कर्नाटक का चुनाव भारत के लोकतंत्र में एक बड़ा पड़ाव साबित हुआ है इस पूरे घटनाक्रम ने विपक्ष को करीब लाने का काम किया है इस बात की पूरी संभावना है कि इसके बाद भाजपा के खिलाफ एकजुट विपक्ष की मुहीम जोर पकडे और सब अपने हितों को छोड़ कर सामूहिक हित की दिशा में आगे बढें.
इससे कांग्रेस और राहुल गाँधी को एक और लाइफ़ लाइन मिल गया है जिसका फायदा वे आने वाले दिनों में उठा सकते हैं. आगामी सर्दियों में तीन राज्यों के विधान सभा चुनाव होने वाले हैं और इन तीनों राज्यों में भाजपा सत्ता में और कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल के रूप में है. 2019 से पहले का यही असली सेमीफाईनल होगा .अगर राहुल गांधी इन तीन राज्यों में से दो में भी बढ़त हासिल कर लेते हैं तो फिर 2019 में वो मोदी के ठोस चुनौती पेश करने की स्थित में आ सकते है.
दरअसल कर्नाटक का चुनाव दो भागों में लड़ा गया पहले राउंड में भाजपा तीनों पार्टियों में सबसे आगे थी लेकिन मतगणना के बाद हुये दुसरे राउंड में कांग्रेस ने फुर्ती दिखाते हुये जेडीएस को अपने खेमे में मिला लिया जिससे उनका बढ़त और दावा दोनों मजबूत हो गया. गुजरात में नैतिक जीत के बाद राहुल गांधी को एक असली जीत की ज़रूरत थी और कर्नाटक में उन्हों दोनों मिला है.
इससे पहले मेघालय और गोवा में सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद कांग्रेस सत्ता गवां चुकी थी लेकिन इस बार कर्नाटक में उसने कोई गलती नहीं की और वे समय के हिसाब से सटीक फैसला लेते गये. कम विधायक होने बावजूद जेडीएस को बिना शर्त समर्थन व कुमारास्वामी को सीएम पद देने का फैसला, राज्यपाल के फैसले के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट चले जाना और इतना अधिक दबाव के बावजूद सफलतापूवर्क अपने विधायकों को एकजुट रख पाने जैसी बातें इस बात की ओर इशारा हैं दे से ही सही कांग्रेस अपनी गलतियों से सीख रही है.
येदियुरप्पा के इस्तीफे के बाद किये गये प्रेस कांफ्रेस में राहुल गांधी का आत्मविश्वाश देखने लायक था इस दौरान वे काफी आक्रमक नजर आये ,भाजपा को उसी की शैली में निशाना बनाते हुये सबसे पहले तो उन्होंने इस सफलता का पूरा क्रेडिट लिया फिर फ्लोर टेस्टिंग से पहले विधायकों की खरीद-फरोख्तक का आरोप सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर लगाते हुये उन्हें ही भ्रष्टाचार बता डाला, इस दौरान उन्होंने अमित शाह को भी “हत्या का आरोपी” कहा.
कर्नाटक का चुनाव वाकई में अभूतपूर्व था, यह भव्य, भड़काऊ, नाटकीय और अभी तक का सबसे खर्चीला विधानसभा चुनाव था, एक ऐसा चुनाव था जिसे दोनों प्रमुख पार्टियों ने निर्णायक मानकर लड़ रही थीं कांग्रेस ने इसे भारतीय राजनीति के जमीन पर अपनी जगह को बचाए रखने के लिए तो भाजपा ने अपने निर्णायक वर्चस्व के लिए लड़ा. कांग्रेस के लिये इसे जीतना अपने अस्तित्व को बचने की तरह था और भाजपा कर्नाटक को एक बार फिर दक्षिण भारत में अपना पैर ज़माने के लिये एंट्री पॉइंट बनना चाहती थी. यह चुनाव राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के लिए निजी तौर पर भी अहम था कर्नाटक जीतकर नरेंद्र मोदी को यह साबित करना था कि ब्रांड मोदी का असर ख़त्म नहीं हुआ है और उनकी लहर बरकार है जबकि अध्यक्ष के रूप में राहुल का यह पहला चुनाव था जिसमें उन्हें अपने हार के सिलसिले को तोड़ते हुये खुद को विपक्ष की तरफ से विकल्प के रूप में स्थापित करना था.
इससे पहले राहुल गाँधी ने भाजपा को नरेंद्र मोदी और अमित शाह के गढ़ गुजरात में छकाया था और अब कर्नाटक में भी उन्होंने यही किया है. इन चार सालों के दौरान ऐसा दूसरी बार हुआ जब कांग्रेस इस तरह से लड़ती हुई दिखाई दी है,पहले अहमद पटेल के राज्य सभा सीट के लिये और इस बार कर्नाटक में.
कर्नाटक में लड़ाई दोहरी थी दिलचस्प बात यह है कि खेल के इन दोनों भागों को किसी नाटक की तरह खेला व परफॉर्म किया गया जिसमें जनता नामक शय की भूमिका वोट डालने वाली मशीन या सिर्फ दर्शक के तौर पर ही रही. मतगणना के बाद जो खेल खेला गया उसकी सबसे दिलचस्प व्याख्या चेतन भगत ने की उन्होंने ट्वीटर पर लिखा, “त्रिशंकु विधानसभा की सूरत में कोई नैतिक रास्ता नहीं बचता, अब दोनों ही पक्ष नैतिकता सिखाना बंद करें यह बेकार की कवायद है. हॉर्स ट्रेडिंग (विधायकों की खरीद-फरोख्त) भी एक कला है बीजेपी और कांग्रेस के लिए एक और परीक्षा देखते हैं, इसमें कौन बेहतर निकलता है.” दुर्भाग्य से यहां चेतन भगत सही हैं दरअसल हमारा लोकतंत्र इस खेल का इतना अभ्यस्त हो चुका है कि विधयाकों को बचाने के लिये उन्हें बसों में भरकर रिसोर्ट दर रिसोर्ट भटकने और हॉर्स ट्रेडिंग के खुले प्रयास जैसी बातें अब हमारे लिये सामान्य हो गयी है अब हम इससे रौद्र रस (क्रोध) की जगह हास्य रस ग्रहण करने लगे हैं. भारत में चुनाव पैसों का खेल बन चुके हैं जिसमें इस तरह की नाटक-नौटंकी सामान्य है.
मशीनों से होने वाला चुनाव भी अब मशीनी बना दिये गये हैं जहां हार-जीत का फैसला जीवन के वास्तविक मुद्दों से नहीं बल्कि मैनेजमेंट, मनी और ध्रुवीकरण के सहारे होता है. अगर हम राजनीतिक दलों को इसी तरह से लोकतंत्र की धजजिया उड़ाने की इजाजत देते रहे तो वे जल्दी ही वोटों की तरह लोकतंत्र को भी ईवीएम जैसी किसी मशीन में कैद कर देंगें जहां हम वोटर किसी रोबोट की तरह होंगें.
लेकिन कर्नाटक ने उम्मीद जगाई है और इस पूरे प्रकरण में एक बार फिर न्यायपालिका की भूमिका सराहनीय रही है इससे न्यायपालिका की विश्वसनीयता भी काफी हद तक बहाल हुई है कर्नाटक में असली जीत लोकतंत्र की हुई है, और इससे सबसे बड़ा सन्देश विपक्ष को यह मिला है कि “लड़ोगे तो जीतोगे” और अगर साथ मिल कर लड़ोगे तो भाजपा के रथ को रोकना संभव है. इससे नरेंद्र मोदी और भाजपा के अजेय होने का तिलस्म टूटा है. कर्नाटक का चुनाव भारत के लोकतंत्र में एक बड़ा पड़ाव साबित हुआ है इस पूरे घटनाक्रम ने विपक्ष को करीब लाने का काम किया है इस बात की पूरी संभावना है कि इसके बाद भाजपा के खिलाफ एकजुट विपक्ष की मुहीम जोर पकडे और सब अपने हितों को छोड़ कर सामूहिक हित की दिशा में आगे बढें.
इससे कांग्रेस और राहुल गाँधी को एक और लाइफ़ लाइन मिल गया है जिसका फायदा वे आने वाले दिनों में उठा सकते हैं. आगामी सर्दियों में तीन राज्यों के विधान सभा चुनाव होने वाले हैं और इन तीनों राज्यों में भाजपा सत्ता में और कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल के रूप में है. 2019 से पहले का यही असली सेमीफाईनल होगा .अगर राहुल गांधी इन तीन राज्यों में से दो में भी बढ़त हासिल कर लेते हैं तो फिर 2019 में वो मोदी के ठोस चुनौती पेश करने की स्थित में आ सकते है.