दुनिया भर में दो या उससे अधिक देशों का विवादों में बने रहना नया नहीं है कुछ विवाद भौतिक कारणों से हैं तो कुछ राजनीति से प्रेरित विवाद होते रहे हैं और हो रहे हैं. इज़राइल और फिलिस्तीन के मध्य लम्बे अरसे से विवाद चला आ रहा है जो कई बार सशस्त्र संघर्ष का कारण भी बन चुका है. हाल ही में 11 दिनों के सशस्त्र संघर्ष के बाद इज़राइल व फिलिस्तीन के बीच संघर्ष विराम की घोषणा हो चुकी है, लोगों की जिंदगियां पटरी पर लौटने लगी हैं लेकिन चारों और तबाही के मंजर नजर आ रहे हैं. फिलिस्तीन के संगठन हमास द्वारा अल अक्सा मस्जिद विवाद को केंद्र में रख कर इज़राइल पर जवाबी हमले किए गए जिसे मिस्र की मध्यस्थता से अब समाप्त कर दिया गया है. एक और इस तरह की गतिविधियों के लिए अल अक्सा मस्जिद विवाद को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है वहीं यह भी सच है कि इज़राइल जैसे साम्राज्यवादी मनसूबे से पोषित देश के लिए केवल एक मस्जिद महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह एक सोची समझी घटनाक्रम की उपज है.
इज़राइल निर्माण का इतिहास:
ऐतिहासिक रूप से इज़राइल नामक देश वैश्विक पटल पर अस्तित्व में नहीं था और न ही यहूदी धर्म के नाम पर अलग राष्ट्र बनाने की कोई हलचल थी. आज से करीब सवा सौ साल पहले 1897 में यहूदीवादी लोगों द्वारा जर्मनी में सम्मेलन रखा गया. यह सम्पूर्ण यहूदियों का सम्मलेन नहीं था बल्कि कुछ यहूदीवादियों का सम्मलेन था इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि भारत में जितना अंतर हिन्दू और हिन्दुत्ववादी में है इनमें भी उतना ही अंतर है. उस समय के ज्यादातर यहूदियों ने जर्मनी में प्रस्तावित इस सम्मेलन का विरोध किया, नतीजतन इस सम्मलेन को जर्मनी में नहीं करवा कर स्विट्जरलैंड के शहर बासेल में करना पड़ा. ज्यादातर यहूदियों ने इस सम्मलेन द्वारा किए गए आह्वाहन को दो कारणों से ख़ारिज किया पहला- उनके धर्म में देश या राष्ट्र की अवधारणा का नहीं होना और दूसरा –उनका यह मानना था कि इस तरह के कदम को उठाने से दुनिया भर में रह रहे यहूदियों की मुश्किलें बढेंगी. यहूदियों को लोग निशाना बनाएँगे और उनके व्यापार पर भी असर पड़ेगा.
जब दुनिया में यहूदियों के लिए अलग देश की मांग की जा रही थी उस समय फिलिस्तीन की आबादी 6 लाख थी. ऐसा नहीं है कि इस देश के नागरिक केवल मुसलमान हैं, यहाँ 95 प्रतिशत अरब (जिसमें सारे अरब मुसलमान नहीं थे ईसाई भी थे) और 5 प्रतिशत यहूदी भी थे. उस समय फिलिस्तीन ओटोमन साम्राज्य का हिस्सा था जिसे प्रथम विश्व युद्ध के विजेता गठबंधन द्वारा बर्बाद कर दिया गया था. फिलिस्तीन लम्बे अरसे से एक अलग देश रहा है. इस इलाके में यहूदियों का देश बनाने के पीछे तर्क यह दिया गया कि धार्मिक रूप से यहूदी धर्म की जड़ें वहां हैं जबकि जेरुसलम तीन धर्मों यहूदी, इस्लाम, और ईसाई के धार्मिक आस्था का केंद्र है. विश्व युद्ध के समय जर्मनी में यहूदियों के कत्लेआम ने अलग यहूदी देश की मांग को मजबूती प्रदान की. 1948 में इन्ही ज़िओनिस्टों ने दुनिया भर के यहूदीवादियों को इकट्ठा करने का नारा दिया और ब्रिटेन, अमरीका, फ़्रांस, आस्ट्रिया आदि देशों के हथियारों की मदद और सैन्य शक्ति के साथ फिलिस्तीन में युद्ध छेड़ दिया गया. इज़राइल के निर्माण के लिए फिलिस्तीन का एक बड़ा भूभाग छीन लिया गया. इस लड़ाई के बाद इज़रायल नाम के देश का जन्म हुआ. इस थोपे गए युद्ध में आधी से ज्यादा फिलिस्तीनी आबादी शरणार्थी बन गयी. अपने देश में ही बेघर या बाहर के देशों में बिना नागरिकता के रहने के लिए मजबूर कर दी गयी. अब इन शरणार्थियों की तादाद लगभग 35 से 40 लाख तक है. अब तक के सबसे प्रकाण्ड वैज्ञानिक अल्बर्ट आईन्स्टीन को इस नए देश ‘इज़रायल’ का दूसरा राष्ट्रपति बनने का न्यौता दिया गया था, जिन्हे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था.
अगर साफ़ शब्दों में कहा जाए तो दुसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने फिलिस्तीन की धरती पर जबरन इज़राइल नामक देश को बसाया जिसका कारण यह जरुर दिया गया कि दुनिया भर से सताए गए यहूदियों को एक अलग देश की जरुरत है लेकिन उनका मूल उद्धेश्य तेल उत्पादक क्षेत्र में अपनी मौजूदगी को बढ़ाना था. प्रो. राम पुनियानी के अनुसार “इज़राइल दरअसल अधिवासी औपनिवेश वाद, सैनिक कब्ज़े और जमीन की चोरी का उदाहरण है” साम्राज्यवादी देशों की मदद से बने इस देश को बनाने के पीछे मजबूत साम्राज्यवादी मंसूबा रहा है जो मध्य एशिया में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षत्रों पर अपना आधिपत्य बनाए रखना चाहते हैं.
संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका:
संयुक्त राष्ट्र संघ जो दुसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया भर के देशों में शांति और सुरक्षा बहाल करने के उद्धेश्य से बनाया गया, ने अपने पूरे इतिहास में जितने प्रस्ताव इज़राइल की करतूतों और मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ पारित किये हैं उतने किसी और मामले में नहीं किये. संयुक्त राष्ट्र संघ में फिलिस्तीन की समस्या को लेकर जब-जब भी वोटिंग हुई है तब-तब ज्यादातर मामलों में इज़रायल के पक्ष में सिर्फ एक वोट पड़ा है और यह वोट अमरीका का रहा है. ट्रूमैन, आइजनहॉवर, केनेडी, जॉनसन, निक्सन से लेकर फोर्ड, कार्टर, रीगन, बड़े छोटे बुश, क्लिन्टन, ओबामा से होते हुए डोनाल्ड ट्रम्प के अमरीका तक, सभी की साम्राज्यवादी विदेश नीति एक सी ही रही. मई 2021 ने साबित कर दिया है कि बाइडेन का अमरीका भी इससे बहुत अलग नहीं रहने वाला है.
ग़ौरतलब बात यह है कि विश्व भर में हिंसक गतिविधियों को रोकने, अतिक्रमण की नीतियों पर चलने वाले देशों को सही रास्ता दिखाने और पीड़ित देशों को न्याय दिलाने के लिए बनायीं गयी संस्थाएं आज क्या कर रही हैं. दुनिया भर के देशों में शांति और सुरक्षा कायम रहे यह प्रत्येक देशों के हित में हैं लेकिन अतिक्रमण की चाहत, और मुनाफ़े की लालसा में पूंजीपति देशों और उनके आकाओं को दुसरे देश की और उन्मुख कर देता है. इतिहास गवाह है महज दो देशों के मध्य शुरू हुआ विवाद व् संघर्ष की वजह से भी दुनिया को विश्व युद्ध की तरफ़ धकेला जा सकता है. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना वैश्विक शांति, प्रगति व् समृद्धि के लिए की गयी थी व् उसका मुख्य उद्देश्य विश्व में शांति और सुरक्षा स्थापित करना है.
धर्म के नाम पर दयनीय स्थिति बता कर बनाए गए देश के इस पुरे मामले में धर्म की कोई भूमिका ही नहीं है. असल मुद्दा मध्य एशिया में स्थित तेल के संसाधनों पर वर्चस्व बनाए रखने का है. संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् दोनों पक्षों से युद्ध विराम की अपील करते हुए एक प्रस्ताव पारित करना चाहती थी परन्तु अमेरिका ने अपने वीटो का प्रयोग करते हुए इस प्रस्ताव को पारित नहीं होने दिया और इज़राइल के रक्षामंत्री ने कहा कि यह युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक इज़राइल अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर लेता. अमरीका के पूर्ण समर्थन के कारण ही इज़राइल अन्तर्राष्ट्रीय और नैतिक मानदंडों का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन करता आया है.
संयुक्त राष्ट्र संघ(UN) चार्टर के अनुसार किसी भी राष्ट्रों द्वारा अन्य राष्ट्र पर किसी भी प्रकार का बल प्रयोग करना निषेध है. केवल आत्मरक्षा के लिए ही एक राष्ट्र अपने सीमा के अन्दर रह कर और सशस्त्र हमले होने की स्थिति में दुसरे राष्ट्र के ख़िलाफ़ बल प्रयोग कर सकता है. इसका मतलब यह है कि एक राष्ट्र को दुसरे राष्ट्र की नियमित सेना द्वारा केवल सीमा पार करने पर ही सशस्त्र हमले को रोकने के लिए कार्यवाई का अधिकार है जो सुरक्षा परिषद् के हस्तक्षेप से समाप्त हो जाता है. 2001 में अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय कानून की एक नयी व्याख्या सामने आई जिसमें अग्रिम आत्मरक्षा के लिए कार्यवाई को मान्यता देने की मांग की गयी. उस मान्यता के अनुसार अगर किसी देश पर हमला किया गया है और निकट भविष्य में फिर से कोई हमला संभावित है तो उसे अगले हमले से पहले हमला करने वाले संभावित स्रोत पर कार्यवाई करने का अधिकार उस देश को प्राप्त है. हालाँकि इस विषय पर अंतर राष्ट्रीय स्तर पर एक मत नहीं है फिर भी इस सिद्धांत को मान्यता प्राप्त है. हाल के अमले के सन्दर्भ में अगर इसे देखें तो अगर इज़राइल नें हमास द्वारा किए गए हमले की अधिकांश मिसाइल को हवा में ही नष्ट कर दिया था तब फिलिस्तीन पर बड़े पैमाने पर हमला करने की कोई आवश्यकता नहीं थी. इज़राइल द्वारा किए गए हमले में फिलिस्तीन के सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गए जिसमें बड़ी संख्यां में बच्चे और महिलाऐं शामिल थे. सवाल यह है कि इस तरह से किए जा रहे हमले क्या सुरक्षा परिषद् के पैमाने के अनुकूल है?
अगर यहूदियों को आज़ाद मुल्क में रहने का हक है तो वही फिलिस्तीनियों को भी यह अधिकार बराबर का है. इन दोनों देशों के इस संघर्ष ने दुनिया भर के समक्ष कई प्रश्न पैदा किए हैं जिनमें अंतरराष्ट्रीय शांति-सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय कानून व् संस्थाओं की प्रासंगिकता व् संघर्ष से उपजे मानवीय पहलु प्रमुख हैं. पश्चिमी देशों के हितैषी सुरक्षा परिषद् का इज़राइल मामले में संज्ञान लेने में देरी करना इजराईल के पक्ष में खड़ा होने जैसा ही है. दुनिया भर में शांति कायम रहे इसके लिए जरुरी है कि अतिक्रमंवादी, साम्राज्यवादी मंसूबों से ऊपर उठ कर अंतर राष्ट्रीय स्तर पर बनाए गए संस्थाओं का का मान रखा जाए और उसे स्वतंत्र संस्था के रूप में काम करने दिया जाए ताकि वैश्विक स्तर पर शांति और सद्भाव लम्बे समय तक कायम रह सके.
इज़राइल निर्माण का इतिहास:
ऐतिहासिक रूप से इज़राइल नामक देश वैश्विक पटल पर अस्तित्व में नहीं था और न ही यहूदी धर्म के नाम पर अलग राष्ट्र बनाने की कोई हलचल थी. आज से करीब सवा सौ साल पहले 1897 में यहूदीवादी लोगों द्वारा जर्मनी में सम्मेलन रखा गया. यह सम्पूर्ण यहूदियों का सम्मलेन नहीं था बल्कि कुछ यहूदीवादियों का सम्मलेन था इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि भारत में जितना अंतर हिन्दू और हिन्दुत्ववादी में है इनमें भी उतना ही अंतर है. उस समय के ज्यादातर यहूदियों ने जर्मनी में प्रस्तावित इस सम्मेलन का विरोध किया, नतीजतन इस सम्मलेन को जर्मनी में नहीं करवा कर स्विट्जरलैंड के शहर बासेल में करना पड़ा. ज्यादातर यहूदियों ने इस सम्मलेन द्वारा किए गए आह्वाहन को दो कारणों से ख़ारिज किया पहला- उनके धर्म में देश या राष्ट्र की अवधारणा का नहीं होना और दूसरा –उनका यह मानना था कि इस तरह के कदम को उठाने से दुनिया भर में रह रहे यहूदियों की मुश्किलें बढेंगी. यहूदियों को लोग निशाना बनाएँगे और उनके व्यापार पर भी असर पड़ेगा.
जब दुनिया में यहूदियों के लिए अलग देश की मांग की जा रही थी उस समय फिलिस्तीन की आबादी 6 लाख थी. ऐसा नहीं है कि इस देश के नागरिक केवल मुसलमान हैं, यहाँ 95 प्रतिशत अरब (जिसमें सारे अरब मुसलमान नहीं थे ईसाई भी थे) और 5 प्रतिशत यहूदी भी थे. उस समय फिलिस्तीन ओटोमन साम्राज्य का हिस्सा था जिसे प्रथम विश्व युद्ध के विजेता गठबंधन द्वारा बर्बाद कर दिया गया था. फिलिस्तीन लम्बे अरसे से एक अलग देश रहा है. इस इलाके में यहूदियों का देश बनाने के पीछे तर्क यह दिया गया कि धार्मिक रूप से यहूदी धर्म की जड़ें वहां हैं जबकि जेरुसलम तीन धर्मों यहूदी, इस्लाम, और ईसाई के धार्मिक आस्था का केंद्र है. विश्व युद्ध के समय जर्मनी में यहूदियों के कत्लेआम ने अलग यहूदी देश की मांग को मजबूती प्रदान की. 1948 में इन्ही ज़िओनिस्टों ने दुनिया भर के यहूदीवादियों को इकट्ठा करने का नारा दिया और ब्रिटेन, अमरीका, फ़्रांस, आस्ट्रिया आदि देशों के हथियारों की मदद और सैन्य शक्ति के साथ फिलिस्तीन में युद्ध छेड़ दिया गया. इज़राइल के निर्माण के लिए फिलिस्तीन का एक बड़ा भूभाग छीन लिया गया. इस लड़ाई के बाद इज़रायल नाम के देश का जन्म हुआ. इस थोपे गए युद्ध में आधी से ज्यादा फिलिस्तीनी आबादी शरणार्थी बन गयी. अपने देश में ही बेघर या बाहर के देशों में बिना नागरिकता के रहने के लिए मजबूर कर दी गयी. अब इन शरणार्थियों की तादाद लगभग 35 से 40 लाख तक है. अब तक के सबसे प्रकाण्ड वैज्ञानिक अल्बर्ट आईन्स्टीन को इस नए देश ‘इज़रायल’ का दूसरा राष्ट्रपति बनने का न्यौता दिया गया था, जिन्हे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था.
अगर साफ़ शब्दों में कहा जाए तो दुसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने फिलिस्तीन की धरती पर जबरन इज़राइल नामक देश को बसाया जिसका कारण यह जरुर दिया गया कि दुनिया भर से सताए गए यहूदियों को एक अलग देश की जरुरत है लेकिन उनका मूल उद्धेश्य तेल उत्पादक क्षेत्र में अपनी मौजूदगी को बढ़ाना था. प्रो. राम पुनियानी के अनुसार “इज़राइल दरअसल अधिवासी औपनिवेश वाद, सैनिक कब्ज़े और जमीन की चोरी का उदाहरण है” साम्राज्यवादी देशों की मदद से बने इस देश को बनाने के पीछे मजबूत साम्राज्यवादी मंसूबा रहा है जो मध्य एशिया में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षत्रों पर अपना आधिपत्य बनाए रखना चाहते हैं.
संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका:
संयुक्त राष्ट्र संघ जो दुसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया भर के देशों में शांति और सुरक्षा बहाल करने के उद्धेश्य से बनाया गया, ने अपने पूरे इतिहास में जितने प्रस्ताव इज़राइल की करतूतों और मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ पारित किये हैं उतने किसी और मामले में नहीं किये. संयुक्त राष्ट्र संघ में फिलिस्तीन की समस्या को लेकर जब-जब भी वोटिंग हुई है तब-तब ज्यादातर मामलों में इज़रायल के पक्ष में सिर्फ एक वोट पड़ा है और यह वोट अमरीका का रहा है. ट्रूमैन, आइजनहॉवर, केनेडी, जॉनसन, निक्सन से लेकर फोर्ड, कार्टर, रीगन, बड़े छोटे बुश, क्लिन्टन, ओबामा से होते हुए डोनाल्ड ट्रम्प के अमरीका तक, सभी की साम्राज्यवादी विदेश नीति एक सी ही रही. मई 2021 ने साबित कर दिया है कि बाइडेन का अमरीका भी इससे बहुत अलग नहीं रहने वाला है.
ग़ौरतलब बात यह है कि विश्व भर में हिंसक गतिविधियों को रोकने, अतिक्रमण की नीतियों पर चलने वाले देशों को सही रास्ता दिखाने और पीड़ित देशों को न्याय दिलाने के लिए बनायीं गयी संस्थाएं आज क्या कर रही हैं. दुनिया भर के देशों में शांति और सुरक्षा कायम रहे यह प्रत्येक देशों के हित में हैं लेकिन अतिक्रमण की चाहत, और मुनाफ़े की लालसा में पूंजीपति देशों और उनके आकाओं को दुसरे देश की और उन्मुख कर देता है. इतिहास गवाह है महज दो देशों के मध्य शुरू हुआ विवाद व् संघर्ष की वजह से भी दुनिया को विश्व युद्ध की तरफ़ धकेला जा सकता है. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना वैश्विक शांति, प्रगति व् समृद्धि के लिए की गयी थी व् उसका मुख्य उद्देश्य विश्व में शांति और सुरक्षा स्थापित करना है.
धर्म के नाम पर दयनीय स्थिति बता कर बनाए गए देश के इस पुरे मामले में धर्म की कोई भूमिका ही नहीं है. असल मुद्दा मध्य एशिया में स्थित तेल के संसाधनों पर वर्चस्व बनाए रखने का है. संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् दोनों पक्षों से युद्ध विराम की अपील करते हुए एक प्रस्ताव पारित करना चाहती थी परन्तु अमेरिका ने अपने वीटो का प्रयोग करते हुए इस प्रस्ताव को पारित नहीं होने दिया और इज़राइल के रक्षामंत्री ने कहा कि यह युद्ध तब तक जारी रहेगा जब तक इज़राइल अपने लक्ष्य हासिल नहीं कर लेता. अमरीका के पूर्ण समर्थन के कारण ही इज़राइल अन्तर्राष्ट्रीय और नैतिक मानदंडों का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन करता आया है.
संयुक्त राष्ट्र संघ(UN) चार्टर के अनुसार किसी भी राष्ट्रों द्वारा अन्य राष्ट्र पर किसी भी प्रकार का बल प्रयोग करना निषेध है. केवल आत्मरक्षा के लिए ही एक राष्ट्र अपने सीमा के अन्दर रह कर और सशस्त्र हमले होने की स्थिति में दुसरे राष्ट्र के ख़िलाफ़ बल प्रयोग कर सकता है. इसका मतलब यह है कि एक राष्ट्र को दुसरे राष्ट्र की नियमित सेना द्वारा केवल सीमा पार करने पर ही सशस्त्र हमले को रोकने के लिए कार्यवाई का अधिकार है जो सुरक्षा परिषद् के हस्तक्षेप से समाप्त हो जाता है. 2001 में अमेरिका में हुए आतंकी हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय कानून की एक नयी व्याख्या सामने आई जिसमें अग्रिम आत्मरक्षा के लिए कार्यवाई को मान्यता देने की मांग की गयी. उस मान्यता के अनुसार अगर किसी देश पर हमला किया गया है और निकट भविष्य में फिर से कोई हमला संभावित है तो उसे अगले हमले से पहले हमला करने वाले संभावित स्रोत पर कार्यवाई करने का अधिकार उस देश को प्राप्त है. हालाँकि इस विषय पर अंतर राष्ट्रीय स्तर पर एक मत नहीं है फिर भी इस सिद्धांत को मान्यता प्राप्त है. हाल के अमले के सन्दर्भ में अगर इसे देखें तो अगर इज़राइल नें हमास द्वारा किए गए हमले की अधिकांश मिसाइल को हवा में ही नष्ट कर दिया था तब फिलिस्तीन पर बड़े पैमाने पर हमला करने की कोई आवश्यकता नहीं थी. इज़राइल द्वारा किए गए हमले में फिलिस्तीन के सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गए जिसमें बड़ी संख्यां में बच्चे और महिलाऐं शामिल थे. सवाल यह है कि इस तरह से किए जा रहे हमले क्या सुरक्षा परिषद् के पैमाने के अनुकूल है?
अगर यहूदियों को आज़ाद मुल्क में रहने का हक है तो वही फिलिस्तीनियों को भी यह अधिकार बराबर का है. इन दोनों देशों के इस संघर्ष ने दुनिया भर के समक्ष कई प्रश्न पैदा किए हैं जिनमें अंतरराष्ट्रीय शांति-सुरक्षा और अंतरराष्ट्रीय कानून व् संस्थाओं की प्रासंगिकता व् संघर्ष से उपजे मानवीय पहलु प्रमुख हैं. पश्चिमी देशों के हितैषी सुरक्षा परिषद् का इज़राइल मामले में संज्ञान लेने में देरी करना इजराईल के पक्ष में खड़ा होने जैसा ही है. दुनिया भर में शांति कायम रहे इसके लिए जरुरी है कि अतिक्रमंवादी, साम्राज्यवादी मंसूबों से ऊपर उठ कर अंतर राष्ट्रीय स्तर पर बनाए गए संस्थाओं का का मान रखा जाए और उसे स्वतंत्र संस्था के रूप में काम करने दिया जाए ताकि वैश्विक स्तर पर शांति और सद्भाव लम्बे समय तक कायम रह सके.