2024 के रण में NDA के 38 दल बनाम 'INDIA' के 'Special 26', कौन पड़ेगा किस पर भारी

Written by Navnish Kumar | Published on: July 19, 2023
"लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर पक्ष-विपक्ष ने कमर कस ली है तो वहीं INDIA Vs NDA बनने से मुकाबला रोमांचक हो गया है। देखना यही होगा कि 2024 के रण में एनडीए के 38 दलों और 'इंडिया' के 'Special 26' में कौन किस पर भारी पड़ता है? कांग्रेस सहित विपक्ष यानी INDIA अपनी 'स्पेशल 26' के साथ बीजेपी (BJP) को केंद्र से हटाने की तैयारी में है। वहीं, बीजेपी NDA के 38 दलों के साथ हैट्रिक लगाने की फिराक में है। हालांकि आंकड़ों में जाएं तो भले एनडीए के पास 38 दल हैं, लेकिन इनमें से दर्जनों ऐसे दल हैं, जिसके पास एक भी लोकसभा सांसद नहीं है। विपक्ष के भी कई दलों के पास एक भी सांसद नहीं है।"


 
लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर देश भर के तमाम राजनीतिक दलों ने अपनी कमर कस ली है। सत्तारूढ़ एनडीए (NDA) लगातार दो बार विजय रथ पर चढ़ने के बाद हैट्रिक लगाने के प्रयास में है, जबकि विपक्ष की कोशिश है कि इस बार किसी भी तरह से केंद्र में सरकार परिवर्तन हो। इस चुनाव में बीजेपी को हराने के लिए विपक्ष तमाम वैचारिक मतभेदों को भुलाकर एक साथ आने के लिए रजामंद नजर आ रहे हैं। लोकसभा चुनाव के मद्देनजर विपक्ष की दूसरी बेंगलुरु बैठक में 26 दलों ने हिस्सा लिया है और INDIA (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस) का गठन किया है। कांग्रेस समेत देश के 26 राजनीतिक दलों का मकसद एक है, 2024 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को जीत की हैट्रिक होने से रोकना।

देखा जाए तो विपक्षी पार्टियों की इस एकजुटता की नींव बीते महीने 23 जून को बिहार की राजधानी पटना में रखी गई थी। उस समय 16 विपक्षी पार्टियों ने बीजेपी के ख़िलाफ़ गोलबंदी की थी। बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ एक मंच आईं ये पार्टियां, नरेंद्र मोदी की सरकार पर केंद्रीय जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाती रही हैं। वहीं महंगाई, बेरोज़गारी, लोकतंत्र और संविधान की रक्षा, अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों जैसे कई मुद्दों ने भी इन सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को एक साथ आने का आधार दिया है।

दूसरी ओर विपक्ष की महागठबंधन के जवाब में एनडीए (बीजेपी) ने भी छोटे छोटे 38 दलों को अपने साथ जोड़ लिया है जिनकी भी मंगलवार को दिल्ली में बैठक हुई है। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एनडीए की इस बैठक में 38 पार्टियों ने उपस्थिति की पुष्टि की है। बैठक की अध्यक्षता बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने की जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए। बैठक में वो दल तो शामिल हो ही रहे हैं जो एनडीए का हिस्सा हैं लेकिन कुछ ऐसे दल भी आ रहे हैं जो एनडीए का हिस्सा नहीं हैं। बैठक से एक दिन पहले एनडीए में चिराग पासवान की एंट्री हो गई है। चिराग के अलावा बिहार से राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के उपेंद्र कुशवाहा, विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश साहनी और हम पार्टी के जीतन राम मांझी शामिल हुए तो इसमें एनसीपी का अजित पवार धड़ा और शिवसेना शिंदे गुट आदि भी बैठक में शामिल रहे। यूपी में ओमप्रकाश राजभर और संजय निषाद की पार्टी भी बैठक में शामिल हुई।

हालांकि साल 1998 में जब एनडीए बना था तो इसमें 24 पार्टियां शामिल हुई थीं। लेकिन उस समय के एनडीए और आज के एनडीए में काफ़ी बदलाव आ चुका है। आज बीजेपी के साथ शिवसेना (अविभाजित), जनता दल यूनाइटेड, अकाली दल जैसे उसके सहयोगी रहे दल साथ नहीं हैं। ऐसे में अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी, एनडीए को एक बार फिर बनाने और छोटी छोटी पार्टियों को साथ जोड़कर इसके विस्तार में जुट गई है। कई ऐसे दल भी साथ जोड़ लिए हैं जिन पर बीजेपी खुद भ्रष्टाचारी होने के आरोप लगाती रही है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि आखिर 2024 से पहले बीजेपी छोटे दलों (कई भ्रष्टाचार के आरोपियों) को एनडीए की नाव में क्यों सवार कर रही है? यह भी तब जब, पीएम मोदी विपक्षी गठबंधन में, सारे भ्रष्टाचारियों के डरकर एक साथ आने के आरोपों के साथ, दावा करते रहे है कि "वो एक अकेला सब पर भारी"। दूसरी ओर विपक्ष इसे मोदी की बौखलाहट और डर बता रहा है।

NDA Vs INDIA में कौन किस पर भारी? 

एनडीए गठबंधन की बैठक में ये 38 दल शामिल हुए

समाचार एजेंसी एएनआई ने बैठक में शामिल होने वाली पार्टियों की लिस्ट जारी की है।

भारतीय जनता पार्टी
शिवसेना (शिंदे)
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजित पवार)
राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (पशुपति कुमार पारस गुट)
अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम
अपना दल (सोनेलाल)
नेशनल पीपुल्स पार्टी
नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी
ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन
सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा
मिज़ो नेशनल फ्रंट
इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा
नागा पीपुल्स फ्रंट, नागालैंड
रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले)
असम गण परिषद
पट्टली मक्कल काचीडॉ अंबुमणि
तमिल मनीला कांग्रेस
यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल, असम
सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी
शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त)
महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी
जननायक जनता पार्टी, हरियाणा
प्रहार जनशक्ति पार्टी
राष्ट्रीय समाज पक्ष
जन सुराज्य शक्ति पार्टी (महाराष्ट्र)
कुकी पीपुल्स अलायंस (मणिपुर)
यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी (मेघालय)
हिल स्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (मेघालय)
निषाद पार्टी (यूपी)
एआईएनआरसी (पुडुचेरी)
हम (बिहार)
जन सेना पार्टी
हरियाणा लोकहित पार्टी (हरियाणा)
भारत धर्म जन सेना
केरल कामराज कांग्रेस
पुठिया तमिलागम पार्टी
लोक जन शक्ति पार्टी
गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट


आइए जानते हैं INDIA के 26 घटक दलों के नाम…..

कांग्रेस 
डीएमके 
टीएमसी 
जदयू 
शिवसेना (UBT)  
एनसीपी (शरद पवार) 
सीपीआईएम 
समाजवादी पार्टी 
इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग 
सीपीआई 
आम आदमी पार्टी 
झारखंड मुक्ति मोर्चा 
केरल कांग्रेस (M)  
आरजेडी 
नेशनल कॉन्फ्रेंस
पीडीपी, सीपीआई (ML)
आरएलडी
मनीथानेया मक्कल काची (MMK)
एमडीएमके
वीसीके
आरएसपी
केरल कांग्रेस
केएमडीके
अपना दल (कमेरावादी) 
एआईएफबी।


आंकड़ों को देखते हुए आपको लग सकता है कि एनडीए मजबूत है, क्योंकि एनडीए के साथ कुल 38 पार्टियां है, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि इनमें से करीब दो दर्जन दल ऐसे हैं, जिनके पास एक भी लोकसभा सांसद नहीं है। वहीं, विपक्ष में भी कुल 10 ऐसी पार्टी है, जिसके पास एक भी लोकसभा सांसद नहीं है। हरिभूमि की एक रिपोर्ट के अनुसार, एनडीए की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली बैठक में कुल 38 दलों ने हिस्सा लिया है, इनमें से 25 दल ऐसे हैं, जिनके पास एक भी सांसद नहीं है। जिनमें जेजेपी, आजसू, आईएमकेएमके, आरपीआई, बीपीपी, आईटीएफटी, तमिल महिला कांग्रेस, पीएमके, एमजीपी, निषाद पार्टी, असम गण परिषद, यूपीपीएल, जनसेना, आरएलएसपी (उपेंद्र कुशवाहा), हिंदुस्तान आवाम मोर्चा, सुभासपा, बीडीजेएस, जीएनएलएफ, केरला कांग्रेस (थामस), जेआरएस, यूडीपी, जेएसपी और पीजेपी दल शामिल है। आरपीआई का एक एक सदस्य राज्यसभा में है, लेकिन लोकसभा में कोई सांसद नहीं है।

NDA के 8 दलों के पास 1-1 सासंद

इसके अलावा एनडीए में आठ दल ऐसे हैं, जिनके पास लोकसभा में सिर्फ एक सांसद है। जिनमें एआईआरएनसी, एआईएडीएमके, एनपीएफ, एनपीपी, सिक्किम क्रांति मोर्चा, एनडीपीपी, एमएनएफ और चिराग पासवान की एलजेपी शामिल है। वहीं, अपना दल के पास 2, जबकि पशुपति पारस की एलजेपी के पास पांच सांसद हैं। इसके अलावा एकनाथ शिंदे की शिवसेना के पास 12 सांसद हैं। बीजेपी के पास सबसे अधिक 303 सांसद हैं। ऐसे में एनडीए में शामिल तमाम दलों की स्थिति साफ नजर आती है।

विपक्ष के 10 दलों के पास शून्य सासंद

बता दें कि सिर्फ एनडीए ही नहीं, बल्कि विपक्षी खेमें के कुल 26 दलों में 10 दल ऐसे हैं, जिनके पास लोकसभा में जीरो सांसद है। इसमें आम आदमी पार्टी, पीडीपी, आरजेडी, आरएलडी, आरएसपी, केरला कांग्रेस, सीपीआई (माले), एआईएफबी, फॉरवर्ड ब्लॉक, अपना दल (कमेरावादी) और एमएमके दल शामिल है। आरएलडी और आम आदमी पार्टी के राज्यसभा में सांसद है, लेकिन लोकसभा में सांसद नहीं है।

INDIA में किसके पास कितने लोकसभा सांसद

विपक्षी खेमे में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है, जिसके पास कुल 52 लोकसभा सांसद हैं। इसके अलावा टीएमसी के पास 22 लोकसभा सांसद है, जबकि डीएमके के पास 24, जेडीयू के पास 16, एनसीपी के पास 4, ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के पास 3, सीपीएम के पास 3 और शिवसेना (उद्धव गुट) के पास 8 लोकसभा सांसद हैं। वहीं, केरला कांग्रेस (एम), केएमडीके और एमडीएमके के पास एक-एक लोकसभा सांसद हैं। जबकि जेएमएम, वीसीके और सीपीआई के पास 2-2 लोकसभा सांसद हैं। इससे एनडीए और INDIA में फर्क साफ नजर आ रहा है। हरिभूमि के अनुसार, विपक्ष में भले ही सिर्फ 26 दल हो, लेकिन इनमें से ज्यादातर दल ऐसे हैं, जिनके पास अच्छे खासे लोकसभा सांसद है। दूसरी ओर एनडीए में 38 दलों के शामिल होने के बाद भी बीजेपी को छोड़कर अन्य दलों के पास लोकसभा सांसद की संख्या काफी कम है।

विपक्षी गठबंधन पर बरसे मोदी, कांग्रेस ने बताया हार का डर  

मंगलवार सुबह पीएम नरेंद्र मोदी ने बेंगलुरु में एकजुट हो रहे विपक्ष को भ्रष्टाचारियों का सम्मेलन बताया तो कांग्रेस ने इसे पीएम मोदी का डर बताते हुए करारा जवाब दिया। कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने ट्वीट कर लिखा, "प्रधानमंत्री मोदी की भाषा और बयान उनके डर का प्रमाण हैं। 9 साल सत्ता में रहने के बाद मोदी जी के अंदर यह दम नहीं है कि अपने काम पर वोट मांग लें।"

"आज भी सिर्फ़ और सिर्फ़ विपक्ष के ख़िलाफ़ ज़हर उगल रहे हैं और अनर्गल आरोप लगा रहे हैं। जिस प्रधानमंत्री की नाक के नीचे देश का सबसे बड़ा अडानी महाघोटाला हुआ हो उसकी हिम्मत कैसे है भ्रष्टाचार पर अपना मुँह खोलने की?" कहा "जो प्रधानमंत्री पानी पी-पी के विपक्ष के कुछ नेताओं को भ्रष्टाचार पर कोसे और फिर कुछ ही घंटों बाद पार्टी तोड़ कर उन्हें अपनी सरकार में शामिल करे, वो दोहरे मापदंड का जीता जागता सबूत है।"

सुप्रिया श्रीनेत ने लिखा "आपकी बदले की भावना से प्रेरित केस भी आपकी बातों की ही तरह फ़र्ज़ी और निराधार हैं और लगे हाथ एक बात ज़रूर बताइएगा मोदी जी, बड़ा सीना ठोक कर चिल्लाते थे ‘एक अकेला एक अकेला’ तो अब 38 औरों की ज़रूरत क्यों आन पड़ी?"

पीएम मोदी ने क्या कहा था?

पोर्ट ब्लेयर के वीर सावरकर इंटरनेशनल एयरपोर्ट के नए टर्मिनल के उद्घाटन के मौके पर पीएम मोदी ने कहा, "भारत की बदहाली के जिम्मेदार कुछ लोग अपनी दुकान खोलकर बैठ गए हैं।" पीएम मोदी ने कहा, "2024 के लिए 26 होने वाले राजनीतिक दलों पर ये बड़ा फिट बैठता है कि ये लोग गा कुछ रहे हैं, हाल कुछ है, लेबल कुछ है और माल कुछ है...इनकी दुकान पर दो चीजों की गारंटी मिलती है। ये अपनी दुकान पर जातिवाद का जहर बेचते हैं और दूसरा असीमित भ्रष्टाचार करते हैं। आज कल ये लोग बेंगलुरु में जुटे हैं।"

उन्होंने कहा, "जब ये लोग कैमरे के सामने एक फ्रेम में आ जाते हैं तो पहला विचार देश के लोगों के मन में यही आता है कि लाखों करोड़ों रुपये का भ्रष्टाचार। इसलिए देश की जनता कह रही है कि ये तो कट्टर भ्रष्टाचारी सम्मेलन हो रहा है।"

पीएम मोदी ने कहा, "इस बैठक की एक और खास बात है, अगर कोई करोड़ों रुपये के घोटाले में जमानत पर है तो उसे बहुत सम्मान की नजर से देखा जाता है। अगर पूरा का पूरा परिवार जमानत पर है तो उसकी और ज्यादा खातिर होती है।"

छोटे दलों का साथ बीजेपी की मजबूरी या महज परसेप्शन की लड़ाई! 

बीजेपी ने बीते लोकसभा चुनाव में खुद के दम पर 303 सीटें जीती थीं, बीजेपी का वोट शेयर 37 फ़ीसदी था। सवाल कि ऐसे में आखिर उसे छोटे दलों से गठबंधन की ज़रूरत क्यों है? यह प्रसेप्शन की बात हो या फिर कोई और मजबूरी, बीजेपी की हालिया कोशिश छोटे दलों को साथ लाने की है। इसमें कुछ हद तक सफलता भी मिलती दिख रही है। दरअसल, कर्नाटक में हुई हार के बाद बीजेपी ये समझ चुकी है कि उसे पार्टियों के साथ की ज़रूरत है। खासकर दक्षिण में जहां बीजेपी उत्तर भारत के मुकाबले कमज़ोर है और क्षेत्रीय दल काफ़ी मज़बूत हैं। दक्षिण में 130 लोकसभा सीटें हैं। यहां बीजेपी की मुख्य सहयोगी पार्टी एआईएडीएमके है जिसने 2019 लोकसभा चुनाव में तमिलनाडु में 39 सीटें जीती थीं। वही ख़बर है कि तेलंगाना में बीजेपी टीडीपी के बीच गठबंधन को लेकर बातचीत चल रही है। तो वहीं अटकलों का बाज़ार गरम है कि कर्नाटक में जेडीएस लोकसभा चुनाव बीजेपी के साथ लड़ सकती है।

इस साल मई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीजेपी शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की थी, इस बैठक में एक खास संदेश दिया गया कि क्षेत्रीय दलों के बीच बीजेपी को लेकर एक धारणा बन रही है कि वह इन पार्टियों को ‘सहयोगी दल बनाने के लिए बहुत इच्छुक नहीं है।’ इस धारणा को तोड़ना होगा। दरअसल साल 2014 से अब तक एनडीए से जिस तरह बड़े और पुराने दल दूर हुए हैं उन्हें देखा जाए तो क्षेत्रीय दलों की इस सोच के पीछे का तर्क समझ आता है। साल 2014 से अब तक एनडीए से शिरोमणि अकाली दल, तेलुगू देशम पार्टी, शिवसेना (एकजुट) और जेडीयू अलग हो चुकी हैं। नीरजा चौधरी कहती हैं, “बीजेपी के संदर्भ में छोटी पार्टियों को एक डर ये है कि अगर वो अपने दम पर अधिक सीटें ले आईं तो उसे इन दलों की ज़रूरत नहीं होगी। अतीत में सबने देखा है कि बीजेपी ने अपने पुराने और घनिष्ट सहयोगियों को भी बांध कर रखने की कोशिश नहीं की।”

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, “बीजेपी आज भी इस स्थिति में नज़र आती है कि वो सरकार बना सकती है लेकिन सबसे अहम ये है कि विपक्ष जिस तरह से एकजुट हो रहा है उसे देखते हुए बीजेपी एनडीए का वर्चुअल पुर्नगठन कर रही है। बीजेपी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती, उसे पता है कि नरेंद्र मोदी जितनी पॉपुलैरिटी वाला नेता देश में कोई और नहीं है लेकिन फिर भी वो तमाम छोटे दलों को दिल्ली की बैठक में बुला रही है। इनमें से कई पार्टियों के पास लोकसभा में एक-दो सीटें हैं कुछ के पास तो एक भी सीट नहीं है।”

“बीजेपी का कहना है कि 38 पार्टियां उसके डिनर मीटिंग में शामिल होने वाली हैं। पटना में बैठक के बाद बीजेपी ने ये हलचल तेज़ की है। दूसरा, राजनीति नज़रिए का खेल है। ये संदेश देना ज्यादा अहम माना जाता है कि किसके पास कितने पार्टियों का समर्थन है।” यही नहीं, “बीजेपी के लिए एनडीए से नई पार्टियों को जोड़ने के साथ-साथ ये संदेश देना भी अहम है कि अगर विपक्ष की बैठक में 26 दल शामिल हुए तो बीजेपी की बैठक में 38 दल आ रहे हैं।” हालांकि कुछ ऐसे भी राज्य हैं जहां बीजेपी ने अकेले चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं। मसलन हरियाणा जहां अमित शाह ने अपनी हालिया रैली में कहा कि-"सभी दस सीटें बीजेपी को दें।" यहां मनोहर लाल खट्टर की सरकार जननायक जनता पार्टी के साथ गठबंधन में हैं लेकिन अटकलें हैं कि लोकसभा चुनाव दोनों पार्टियां अलग-अलग लड़ सकती हैं। 

यही नहीं, यूपी-बिहार में कई पार्टियां ऐसी हैं जिसने लोकसभा चुनाव एनडीए का हिस्सा बन कर लड़ा, लेकिन राज्य के विधानसभा चुनाव में या तो वो विपक्षी खेमे में चली गईं या चुनाव के बाद पाला बदल लिया। जेडीयू, एलजेपी इसके उदाहरण हैं। पूर्वांचली राजनीति में बड़ा नाम ओम प्रकाश राजभर ने लोकसभा चुनाव से पहले एक बार फिर पाला बदल लिया है और एनडीए में शामिल हो चुके हैं। वही इलाके में निषादों के बड़े नेता संजय निषाद तो पहले से ही एनडीए का हिस्सा हैं। चार साल पहले राजभर की पार्टी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने एनडीए से रिश्ता तोड़ा था लेकिन लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी इस पुराने सहयोगी को मनाने में कामयाब हुई है। 
 
लोकनीति-सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार बीबीसी से कहते हैं, “ये समझना होगा कि जो पार्टियां बीजेपी से दूर गई थीं उनका कोई बहुत बड़ा विचारधारा का मतभेद नहीं था। अगर ओमप्रकाश राजभर की ही बात करें तो उन्होंने उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले एनडीए ये सोचकर छोड़ा होगा कि अखिलेश यादव के चुनाव जीतने पर उनको कोई अहम पद मिल जाएगा।” “विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों का अलग हो जाना आम बात है क्योंकि विधानसभा में सीटें अधिक होती हैं इस सीटों पर जाति और पहचान की राजनीति करने वाली पार्टियों के लिए जीतने के मौके अधिक होते हैं। 30 साल का इतिहास देख लें तो पता चलता है कि विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय पार्टियों का वोट शेयर बढ़ता है और लोकसभा चुनावों में इन्हीं पार्टियों का वोट शेयर घटता है।”

लेकिन.. 2014 और 2019 से इस बार फर्क है 

इस बार फर्क यह है कि भाजपा को अपनी चुनौतियों का पता है। उसे एकजुट विपक्ष की ताकत और नरेंद्र मोदी के 10 साल के राज को लेकर बन रहे सत्ताविरोधी माहौल का अंदाजा भी है। तभी वह चुनाव के एक साल पहले से तैयारियों में जुट गई है। वरिष्ठ पत्रकार अजीत दिवेद्धी नया इंडिया के अपने कॉलम में लिखते है कि भाजपा की मुश्किल दो तरह की है। एक मुश्किल अंदरूनी है और दूसरी बाहरी। बाहरी मुश्किल का मतलब विपक्ष की चुनौती से है। इससे पहले 2019 के चुनाव में विपक्ष चुनौती देने की स्थिति में नहीं था। लोकसभा चुनाव पुलवामा कांड और उरी व बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक की पृष्ठभूमि में हुए थे। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता चरम पर थी। साथ ही अपनी सरकार के पहले पांच साल में नरेंद्र मोदी ने दर्जनों योजनाएं शुरू की थीं, जिनसे आम लोगों में अपना जीवन बदल जाने की उम्मीद बंधी थीं। लोग अच्छे दिन आने का इंतजार कर रहे थे और उनको लग रहा था कि सरकार की योजनाएं अगर पूरी होती हैं तो निश्चित रूप से अच्छे दिन आएंगे। पहले पांच साल में सरकार का फोकस राजनीति पर कम और योजनाओं पर ज्यादा था। तभी लोगों ने पहले से ज्यादा बहुमत देकर नरेंद्र मोदी को दूसरी बार प्रधानमंत्री बनाया था।

मोदी का दूसरा कार्यकाल लोगों की उम्मीदें पूरी करने वाला नहीं साबित हुआ, बल्कि विवादित राजनीतिक फैसलों का रहा और विपक्षी पार्टियों की साख बिगाड़ने और उनके खिलाफ कार्रवाई करने वाला रहा। पहले कार्यकाल में जो योजनाएं शुरू हुई थीं उनको पूरा करने का प्रयास कहीं नहीं दिखा। काला धन वापस नहीं आया। स्मार्ट सिटी नहीं बनी। मेक इन इंडिया का अभियान कहीं नहीं पहुंचा। महंगाई कम होने की बजाय आसमान छूने लगी। पेट्रोल-डीजल के दाम कम नहीं हुए। डॉलर की कीमत 80 से ऊपर पहुंच गई। स्वच्छता अभियान और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ नारा बन कर रह गया। सो, दूसरा कार्यकाल मोहभंग वाला रहा। भले वह प्रत्यक्ष नहीं दिख रहा हो या सोशल मीडिया में हिंदू-मुस्लिम के नैरेटिव से उसे दबाया जा रहा हो लेकिन सत्ता विरोध की अंतर्धारा हकीकत है। भाजपा के नेता इस बात को समझ रहे हैं।

दूसरी बाहरी मुश्किल विपक्ष का गठबंधन है। भाजपा ने पहले इसे गंभीरता से नहीं लिया था। लेकिन पटना की बैठक के बाद उसे गंभीरता समझ में आई। पहली बार उसको लगा कि विपक्षी पार्टियां अपने निजी हितों को छोड़ कर साथ आ सकती हैं। सचमुच आमने सामने का मुकाबला बन सकता है। तभी उसके बाद विपक्ष को कमजोर करने का प्रयास तेज हुआ, जिसके तहत महाराष्ट्र में एनसीपी को तोड़ा गया। दूसरा काम यह हुआ कि ठंडे बस्ते में डाल दिए गए एनडीए को झाड़-पोंछ कर मुकाबले के लिए तैयार किया गया।

मुश्किल नैरेटिव की भी है। अजीत दिवेद्धी के अनुसार, नरेंद्र मोदी विकास के दावे और विपक्ष के भ्रष्ट होने के नैरेटिव पर चुनाव जीते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपने मुंह से कहा था कि वे ऊपर से नीचे तक राजनीति की सफाई करेंगे। लेकिन राजनीति की सफाई नहीं हुई। उलटे समय के साथ संसद के दोनों सदनों में दागी और करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ती गई। दूसरी पार्टियों के भी जितने आरोपी और दागी नेता थे उनमें से बहुत से नेता भाजपा में शामिल हो गए। प्रधानमंत्री आज भी विपक्ष पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं लेकिन अब ये आरोप लोगों के मन में विपक्ष के प्रति गुस्सा नहीं पैदा कर रहे हैं, बल्कि इनसे भाजपा का अपना दोहरा रवैया जाहिर हो रहा है। विकास के मामले में भी भारत पिछड़ गया है तभी 2022 के लिए तय किए तमाम लक्ष्य 2047 तक बढ़ा दिए गए हैं। अब भारत को अमृतकाल में यानी अगले 24 साल में विकसित बनाने का वादा किया जा रहा है। परंतु यह ध्यान रखने की बात है कि 10 साल राज करने के बाद कोई भी सरकार सिर्फ वादों पर वोट नहीं ले सकती है। सो, भाजपा के पास नैरेटिव की कमी है।

इन बाहरी मुश्किलों के साथ साथ भाजपा के सामने आंतरिक चुनौतियां भी हैं। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की हार में इस आतंरिक चुनौती का बड़ा हाथ रहा। असल में भाजपा के 10 साल के शासन में दो काम मुख्य रूप से हुए हैं। एक सत्ता का केंद्रीकरण हुआ है। भाजपा जैसी विकेंद्रित पार्टी के लिए यह नई बात थी। जिस पार्टी में छोटे नेता और कार्यकर्ता की पहुंच भी शीर्ष तक थी वहां सब कुछ चंद लोगों के हाथ में सिमट गया। थोड़े समय के बाद यह आम कार्यकर्ता और मध्य व निचले क्रम के नेताओं के लिए बहुत बेचैनी पैदा करने वाला था। उसके बाद दूसरा काम दूसरी पार्टियों से तोड़ कर नेताओं को भाजपा में लाना था। दूसरी पार्टियों के नेताओं और लैटरल एंट्री से पार्टी में आने वाले यानी रिटायर अधिकारियों आदि की वजह से पार्टी के पुराने और प्रतिबद्ध नेताओं के लिए अवसर कम हुए। उनको लगने लगा कि भाजपा में उनकी महत्वाकांक्षाएं पूरी नहीं हो सकती हैं। ध्यान रहे किसी पार्टी का टूटना या नेताओं का पार्टी छोड़ना बुरा है लेकिन उससे ज्यादा बुरा होता है कि पार्टी के अंदर नेताओं व कार्यकर्ताओं का उत्साह खत्म होना, यही भाजपा के साथ हुआ है। नेताओं का उत्साह खत्म है और उनके अंदर कोई बड़ा मोटिवेशन नहीं बचा है। दूसरे नेताओं के आने और राज्यों में सरकार बनाने के लिए होने वाली जोड़-तोड़ ने वैचारिक भटकाव पैदा किया और इससे भी आम नेता, कार्यकर्ता और यहां तक कि प्रतिबद्ध मतदाता भी प्रभावित हुआ है।

तभी सब कुछ होने के बावजूद भाजपा मुश्किल में है। भाजपा सबसे बड़ी और मजूबूत पार्टी है, मोदी के मुकाबले कोई मजबूत विपक्षी नेता नहीं है और सूचना प्रवाह को नियंत्रित करने का पूरा साधन भाजपा के पास है। फिर भी उसके लिए लड़ाई कठिन हो गई है। 10 साल में सरकार ने क्या किया बनाम 24 साल में क्या करेंगे के बीच तुलना हो रही है। भाजपा की ओर से जन कल्याण के काम गिनाए जा रहे हैं लेकिन जो काम भाजपा बता रही है वही काम उससे बेहतर तरीके से राज्यों में सरकारें कर रही हैं। इसलिए उसमें अब कोई नयापन नहीं है। उलटे धीरे धीरे किसान आंदोलन से लेकर पहलवान आंदोलन और मणिपुर हिंसा से लेकर चीन के अतिक्रमण तक की बातें लोगों के दिमाग में जगह बना रही हैं। भाजपा के लिए अच्छी बात यह है कि उसके नेता इन चुनौतियों को समझ रहे हैं इसलिए उनके निपटने के उपाय कर रहे हैं। अब छोटे दलों को लेकर एनडीए को पुनर्जीवित करना उन्हीं उपायों का एक हिस्सा है।

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