जब अंग्रेजों से आज़ादी की लड़ाई चरम पर थी, संघ असम में मुक्ति की संकल्पना में व्यस्त था

Written by Dunu Roy | Published on: January 22, 2020
1946 में जब आज़ादी की लड़ाई चरम सीमा पर थी और देश के कोने कोने में लाखों की भीड़ सड़क पर डंडे गोली खा रही थी, उसी समय राष्ट्रीय सेवा संघ ने अपने तीन प्रचारकों को चुपके से असम भेज दिया। उनका काम था सरसंघचालक गोलवलकर के विचारों का प्रचार करना। क्या था गोलवलकर का पैगाम? यही कि "राष्ट्र पांच तत्वों पर आधारित है - भूगोल, जाति, धर्म, संस्कृति, और भाषा; मुसलमान हमलावरों के आने के पहले ऐसा ही हिन्दू राष्ट्र हज़ारों साल तक फलता फूलता रहा; उसके बाद एक हज़ार साल के लिए हिन्दुओं ने मुसलमानों के खिलाफ अनवरत लड़ाई की; कांग्रेस में वे 'शिक्षित' हिन्दू हैं जिनको हिन्दू सांस्कृतिक व्यवस्था (याने कि वर्ण व्यवस्था) से एतराज़ है; लेकिन जातिवाद की भावना फिर से उमड़ रही है; और असली राष्ट्रवादी का लक्ष्य है कि वो हिन्दू राष्ट्र को फिर से बनाकर जीवित करे और मुक्ति के लिए जागृत करे।"  



प्रचारकों ने असम में इसी का प्रचार करते हुए शाखा बनाना शुरू किया। असम में पहले से जो स्थानीय और बाहरी के बीच की तनातनी थी, उसी को शाखाओं द्वारा रोज़गार और सांस्कृतिक धरोहर के मुद्दों की तरफ बढ़ाया। साथ ही विवेकानंद, सरस्वती, कस्तूरबा, वनवासी, इत्यादि जनप्रिय नामों को लेकर विद्यालय, आश्रम, बालवाड़ी, हस्पताल भी खोलने लगे ताकि संघ 'परिवार' की हिंदुत्व सोच को अहोम और आदिवासी समुदायों में फैला सकें। तीन दशक के अंदर, 1957 तक, असम के हर ज़िले में शाखाएं स्थापित हो चुकी थीं। 

इसी तरह जब 1973-74 में गुजरात और बिहार में विद्यार्थियों ने संघर्ष छेड़ा, तब संघ परिवार के लोग उसमें भी शामिल हो गए। आपात काल के खिलाफ आंदोलन में भाग लेकर उन्होंने उस कलंक को भी मिटाने की कोशिश की जो कि महात्मा गाँधी की हत्या और जंग-ए-आज़ादी से ना जुड़ने की वजह से उनके माथे पर लगी हुई थी। नतीजतन 1977 में उनके राजनैतिक दल, जन संघ, ने जनता पार्टी से गठजोड़ बना कर अपनी सीट संख्या 22 से 93 तक बढ़ा ली और सरकार बनाने में भी सफल हुई। लेकिन 1980 में सरकार गिर गयी और जन संघ वापस अपने 16 सांसदों पर आकर टिक गयी। 

इस बीच में संघ परिवार ने मौके का पूरा फायदा उठाकर अपने प्रचार द्वारा मुसलमान को दुश्मन बनाने का कार्यक्रम जारी रखा। असम में स्थानीय-बाहरी के तनाव को उन्होंने बांग्लादेशी के खिलाफ मोड़ दिया। बंगलादेशी को ही मुसलमान हमलावर की तस्वीर में ढालकर संघियों ने 'सुराग लगाना, देश से निकालना, और नाम मिटाना' की तिकोनी नीति को अपनी तमाम संस्थाओं द्वारा प्रचारित किया। 1983 तक संघ की असम में 300 शाखाएं बन गयी थीं और उसी साल हज़ारों की गिनती में भड़काऊ भीड़ ने नेल्ली गांव को घेर कर 1819 मुसलमानों की निर्मम हत्या कर दी। 

इस तरह के सीधे हिंसा का खास फायदा संघ परिवार को नहीं मिला। 1984 के चुनाव में जन संघ संसद में मात्र 2 सीट जीत पायी। इसलिए संघ के चालकों ने एक कदम पीछे लिया। असम के स्थानीय आंदोलन के कंधे से टेढ़ी वार करके उन्होंने कांग्रेस सरकार पर दबाव डाल कर असम समझौते में अपनी तिकोनी नीति को मनवा लिया। साथ में राम जन्म भूमि आंदोलन को फिर से जीवित किया। इस सांस्कृतिक मोड़ का नतीजा 1989 में दिखने को मिला जब भारतीय जनता पार्टी (जन संघ का नया अवतार) संसद में 85 सीट पर विजयी हुई और 1992 के चुनाव में और अधिक 120 सीटें मिल गयीं। 

अपनी राजनैतिक ताक़त को बढ़ता देख संघ परिवार ने 1988 के एक सर्वे का प्रचार शुरू कर दिया। इस सर्वे को विदेशी पंजीकरण कार्यालय (FRO) ने दिल्ली में बंगलादेशी बस्तियों का सुराग लगाने के लिए किया था। तथाकथित बंग्लादेशियों की संख्या का जब आनन-फानन में प्रचार होने लगा तब कांग्रेस सरकार ने 1992 में एक कार्य योजना की घोषणा की जो Operation Pushback (पीछे हटाओ) में तब्दील हो गयी। जिन ग्यारह बस्तियों का FRO द्वारा सुराग मिला था, उनमें से पुलिस को हुक्म दिया गया कि हर महीने 2,000 से 2,500 विदेशियों को देश से निकालना पड़ेगा। 'विदेशी मुसलमान' पर पुलिस ने भी जम कर अपना गुस्सा निकाला। जब पहला 132 बंदियों का जत्था तैयार हुआ तब उनका मुंडन करा के, उनके सामान को जला कर, जानबूझ कर पैगम्बर के सालगिरह पर उन्हें स्यालदाह स्टेशन तक ले जाकर सीमा सुरक्षा बल के हवाले कर दिया, और बल ने सीमा पार करवाते समय उनकी दिन दहाड़े पिटाई भी की। इस प्रकार भीड़ की हिंसा को पुलिस के हिंसा में तब्दील कर दिया गया। 

इस दौरान बाबरी मस्जिद को संघ द्वारा पुनर्निर्मित और जागृत जन सैलाब ने तोड़ दिया। दिल्ली में Pushback की जगह पूरे देश में Flushout (बाहर निकालो) आरम्भ हुआ और भाजपा दिल्ली की पहली प्रादेशिक चुनाव में सफल हुई। संघ-निर्मित नफरत की आग को और भड़काते हुए 1996 के घोषणापत्र में भाजपा ने ऐलान कर दिया कि ना ही जनता के एक विशेष हिस्से को देश से निकाला जाएगा, बल्कि राम मंदिर भी बनेगा, कश्मीर संबंधी धारा 370 को ख़ारिज किया जायेगा, समान नागरिक संहिता का कानून बनेगा, और धारा 48 (गोरक्षा) को लागू किया जायेगा। संघ के प्रचार का असर 1996, 1998 और 1999 के चुनाव में साफ़ दिखता है क्योंकि हर बार भाजपा मिलीजुली सरकार बनाने में सक्षम हुई।

इस असर को देखते हुए संघ परिवार ने एक और मोर्चा खोला। अब अदालत और कानून इनके निशाने पर था। असम का अनुभव बता रही थी कि वहां के तथाकथित विदेशी को देश से निकालने में IMDT (अवैध प्रवासी निर्धारण अधिकरण) अधिनियम आड़े आ रहा था। क्योंकि IMDT में पुलिस को सिद्ध करना पड़ता था कि आरोपी अवैद है। इसलिए 2000 में संघ के शुभ-चिंतक ने IMDT को ख़ारिज करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका डाल दी। 2001 में एक याचिका अवैद बांग्लादेशियों को दिल्ली से हटाने के लिए उच्च न्यायालय में भी डाल दिया। अब तो भाजपा की सरकार थी इसलिए एक और कार्य योजना बनाई गयी जिसमे हर रोज़ 300 आरोपियों को गिरफ्तार करने का लक्ष्य रखा गया।

1983 और 2003 की कार्य योजनाओं में फर्क यह भी पाया गया कि 20 वर्षों के अंदर न केवल पुलिस का गुस्सा बढ़ गया था लेकिन अब वे मानसिक और आर्थिक भ्र्ष्टाचार में भी लिप्त हो गए थे। ब्नाग्लदेशी को लुंगी, नाम, और भाषा के आधार पर पहचानने के अलावा जो व्यक्ति सही 'कागज़ात', याने कि गांधीजी का नोट, दे पाता था वो 'वैद' करार जाता था। बाकि 'अवैद' गरीबों को बंद गाड़ी में FRO ले जाकर एक वरिष्ठ पुलिस अफसर बिना देखे 'भारत छोडो' नोटिस जारी कर देता, और फिर तरह तरह की प्रताड़ना देकर, हर मौके पर पैसा वसूल कर, बीच रात के अंधरे में बंदूक की नोक पर बंगलादेश की सीमा  के उस  पार धकेल दिया जाता। इससे साफ दिखने लगा था की संघ के कार्यकर्ताओं ने हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रति पुलिस को भी 'जागृत' कर दिया था।

2004 के चुनाव में भाजपा हार गयी लेकिन संघ का विजय रथ आगे बढ़ता गया। अगले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने IMDT को ख़ारिज भी कर दिया। लेकिन न्यायमूर्तियों का तर्क कुछ अजीबोगरीब था। उनके हिसाब से IMDT देश को बाहरी हमले और अंधरुनी अशांति से बचाने में उतना असरदार नहीं था जितना की विदेशी अधिनियम (Foreigners Act) क्योंकि FA के तहत ज़्यादा आरोपियों को पकड़ कर देश-निकाला किया गया था। अदालत ने माना की इसकी वजह यह भी थी कि FA के मुताबिक आरोपी को सिद्ध करना पड़ता है की वह निर्दोष है - जो कि न्याय के उसूलों के बिलकुल खिलाफ है। लेकिन फिर भी अदालत ने इस तर्क पर बिना ध्यान दिए संघ परिवार के प्रचार को और मज़बूत कर दिया। 

अब संघ परिवार गोलवलकर के सपने को साकार करने की दिशा में बढ़ रहा है। क्या था गोलवलकर का सपना? 1939 में उन्होंने पूछा था, "उनका क्या  होगा जो इस भूमि पर रहते हैं लेकिन जो हिन्दू जाति, धर्म, और संस्कृति के नहीं है?" उत्तर बड़ा कठोर था: "वे म्लेच्छ हैं --- उनके लिए सिर्फ दो रास्ते हैं। या तो वे राष्ट्रिय (हिन्दू) जाति का हिस्सा बन कर उसकी संस्कृति अपना लें, या उन्हें राष्ट्रिय जाति की दया पर जीना होगा --- पूरी तरह से हिन्दू राष्ट्र के अधीन, बिना किसी हक़ के, ना कोई विशेषता, कोई खास बर्ताव - नागरिक अधिकार से बिलकुल वंचित।"

वर्तमान में जिन तीन नीतियों को लेकर देश भर में हल्ला मचा हुआ है - CAA, NPR, और NRC - सब इसी सपने को साकार कर रहे हैं। कोई ज़रूरी नहीं कि म्लेच्छ को देश से निकाला जाये या क़ैदख़ानों में भरा जाये; बस्ती बस्ती में उन्हें अवैद घोषित करना भी काफ़ी है, बशर्ते उन बस्तियों को, कश्मीर की तरह, नफरत और हथियार से घेर दिया जाये। 

'बस्ती' और 'विदेशी' के बीच एक सीधा रिश्ता है। पराधीनता, हीनता, अधिकारों से वंचित, ज़िंदगी में बूटों की मार, लाठी और गैस का अक्सर प्रहार, हर वक़्त उजड़ने और बेघर, बेरोज़गार, बेनाम होने का भय - कम से कम पिछले पांच दशकों से इस 'आज़ाद' देश की मेहनतकश जनता इस बर्ताव से भली भांति परिचित है। आज उस बर्ताव को विद्यालयों के युवा और शिक्षित छात्र देखने और पहचानने लगे हैं क्योंकि वे अब वैश्विक पूँजी के निशाने में हैं। दुनिया भर में महा अमीरों को समझ में आ गया है कि काम करने वाला जितना गरीब असंगठित और हताश होगा उतना उसके खून को चूसा जा सकता है। भाजपा के 2019 के चुनावी घोषणापत्र को देखने से ही समझ में आ सकता है कि हिन्दू राष्ट्र और पूंजीवाद एक कदम ताल पर चल रहे हैं। पुलिस को हथियारों से लैस करना, विकास पैसेवालों के इशारे पर हो, मज़दूरों की जगह मशीन और कम्प्यूटर ले लें, युवा अपना धंधा शुरू कर किसी तरह से जीयें, और शिक्षा पाठशालाओं में नहीं बल्कि नेट से हो - ये सब उसी भयावह सपने का हिस्सा हैं। 

ज़ाहिर है CAA/NPR/NRC को खारिज करने पर भी संघ रुकने वाली नहीं है। वो तो राष्ट्र को 'मुक्त' करने पर तुली हुई है। इस चुनौती के लिए एक और कल्पना की ज़रूरत है। और वो दूसरी कप्लना शायद अब महिला और युवा ही देख पाएंगे। 

क्या नागरिकता को बचाने की कोशिश होनी चाहिए, या उसकी कल्पना को बदलने का भी मौका आ गया है? जन्म, निवास, पंजीकरण (और अब धर्म) के अलावा क्या इंसान की और कोई पहचान नहीं है? क्या किसी समाज में उस मेहनत की कीमत नहीं है जो उस समाज को ज़िंदा रखता है? क्या संविधान को बचाने से हो जायेगा, या उसे बढ़ाने की भी ज़रूरत है? उसके नीति निर्देश अनिवार्य क्यों नहीं हैं? जनतंत्र में सत्ता का ही हुक्म चलेगा या जनता को भी चुनाव के अलावा कुछ ताक़त है? यदि खास लोगों के लिए बनी व्यवस्था डगमगा रही है, तो क्या आम लोगों के ज़रूरतों को पूरी करने के लिए समाज की नयी कल्पना नहीं हो सकती? शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, बैंक, बीमा, रोज़गार सार्वजनिक क्षेत्र में हर चीज़ का ठेका लगने लगा है तो क्या ठेका रोकना काफी है या ठेकेदारों की जड़ से उजाड़ने का समय आ गया है?

कुछ करने, कुछ सोचने बदलने का वक़्त है ये; जब बादल छायें, बिजली गिरने का वक़्त है ये। 

बाकी ख़बरें