21 जुलाई को राजधानी पटना में बिहार की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर एक जन सुनवाई की गई। इस सुनवाई का आयोजन भारत जोड़ो अभियान, जन जागरण शक्ति संगठन, कोसी नव निर्माण मंच, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम), समर चैरिटेबल ट्रस्ट और स्वराज अभियान ने संयुक्त रूप से किया।

बिहार की राजधानी पटना में 21 जुलाई को बिहार की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर जन सुनवाई की गई। इस कार्यक्रम का आयोजन भारत जोड़ो अभियान, जन जागरण शक्ति संगठन, कोसी नव निर्माण मंच, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM), समर चैरिटेबल ट्रस्ट और स्वराज अभियान ने संयुक्त रूप से किया।
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, इस जन सुनवाई में एक स्वतंत्र पैनल के रूप में कई प्रतिष्ठित हस्तियों ने भाग लिया। इनमें जस्टिस अंजना प्रकाश (सेवानिवृत्त पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय), वजाहत हबीबुल्लाह (पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष), प्रसिद्ध विकास अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, समाजशास्त्री प्रो. नंदिनी सुंदर (दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स), डॉ. डी. एम. दिवाकर (पूर्व निदेशक, ए. एन. सिन्हा संस्थान, पटना) और लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी शामिल थे।
पैनल के अनुसार, यह बिहार में एसआईआर प्रक्रिया पर पहली व्यापक और समावेशी सार्वजनिक चर्चा थी। उनका कहना था कि राज्य में एसआईआर की पूरी प्रक्रिया नागरिक समाज, राजनीतिक दलों, सामुदायिक संगठनों और अन्य संबद्ध समूहों से पर्याप्त परामर्श किए बिना शुरू की गई थी।
इस जन सुनवाई में बिहार के 38 में से 19 जिलों से लगभग 250 प्रतिभागी शामिल हुए। इनमें मुख्य रूप से विभिन्न समुदायों से जुड़े कामकाजी लोग शामिल थे, जिनमें महिलाओं की भागीदारी उल्लेखनीय रही।
पैनल ने जन सुनवाई के दौरान उन 32 लोगों की गवाही सुनी, जिन्हें एसआईआर प्रक्रिया के दौरान विभिन्न कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अलावा, 25 लोगों ने अपने बयान लिखित रूप में पैनल को सौंपे।
जन सुनवाई के दौरान श्रोताओं में एसआईआर प्रक्रिया को लेकर काफी विरोध देखने को मिला। प्रस्तुत गवाहियों से बार-बार सामने आई प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं:
प्रक्रिया व्यावहारिक नहीं
एसआईआर प्रक्रिया व्यावहारिक नहीं है। सीमित कर्मचारी संसाधनों के बीच कुछ ही हफ्तों में करोड़ों दस्तावेजों को इकट्ठा करना, अपलोड करना और सत्यापित करना असंभव है। निर्धारित समय सीमा पूरी तरह से यथार्थवादी नहीं है। इसके अलावा, गणना फॉर्म (ईएफ) को वितरित करने, इकट्ठा करने और अपलोड करने के लिए जिम्मेदार पहली पंक्ति के कार्यकर्ताओं, जैसे बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ), को कोई महत्वपूर्ण प्रशिक्षण नहीं दिया गया है। इस स्थिति को और जटिल बनाता है कि यह पूरी प्रक्रिया मानसून के दौरान चल रही है, जब ग्रामीण किसान अपने खेतों में व्यस्त होते हैं और कई क्षेत्र बाढ़ के कारण कटे हुए हैं। इसके अलावा, कई प्रवासी मजदूर भी देश के अन्य हिस्सों में काम कर रहे होने के कारण अनुपस्थित हैं।
प्रक्रिया में जल्दीबाजी
अत्यधिक कार्यभार और समय की कमी के कारण, अधिकांश बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) बिना आवश्यक सहायक दस्तावेजों के फॉर्म अपलोड कर रहे हैं। फॉर्म भरने की प्रक्रिया भी आमतौर पर जल्दीबाजी में की जा रही है, जिसमें फोटो और हस्ताक्षर के साथ या बिना, आधार और मोबाइल नंबर इकट्ठा किए जा रहे हैं। बीएलओ अक्सर संबंधित व्यक्तियों को सूचित किए बिना उनके फॉर्म पर हस्ताक्षर कर अपलोड करते हैं। कई लोगों ने यह गवाही दी कि जब उन्होंने अपने ईपीआईसी नंबर से पोर्टल पर जांच की, तो पाया कि उनके फॉर्म उनकी जानकारी के बिना अपलोड किए गए हैं। (इन कई समस्याओं को हाल ही में जाने-माने पत्रकार अजीत अंजुम की एक रिपोर्ट में भी उजागर किया गया है।)
अनियमितताएं
चूंकि निर्धारित समय-सीमा के भीतर नियमों का पूरी तरह पालन कर पाना संभव नहीं है, इसलिए उनका व्यापक स्तर पर उल्लंघन हो रहा है। उदाहरण के तौर पर, बीएलओ अक्सर घर-घर सर्वेक्षण नहीं करते या अपना कार्य किसी और को ठेके पर सौंप देते हैं। अधिकांश मामलों में वे दो प्री-फिल्ड (पहले से भरे हुए) फॉर्म वितरित नहीं करते, रसीद नहीं देते और कुछ तो फॉर्म पर नकली हस्ताक्षर तक कर देते हैं।
कई मामलों में एक ही परिवार के कुछ सदस्यों को प्री-फिल्ड फॉर्म दिए गए हैं, जबकि अन्य को नहीं, जिससे भ्रम और चिंता की स्थिति पैदा हो गई है। इसके अलावा, कई बीएलओ पर रिश्वत लेने के आरोप भी सामने आए हैं। जैसा कि एक टिप्पणीकार ने कहीं और लिखा है, ‘84% संग्रहण दर का नवीनतम आंकड़ा ईसीआई के अपने नियम पुस्तिका के मलबे पर बना एक आंकड़ा है’ (जैसा कि पवन कोराडा ने द वायर के लिए अपने लेख ‘आठ (और आधे) नियम जो ईसीआई ने बिहार एसआईआर को ’सफलता की कहानी’ बनाने के लिए तोड़े’ में लिखा है.)
विश्वसनीयता संदेह के घेरे में
चूंकि यह पूरी प्रक्रिया जल्दबाजी में और निर्धारित नियमों का पालन किए बिना चलाई जा रही है, इसलिए अपलोड की जा रही जानकारी की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में है। इसके परिणामस्वरूप, भविष्य में डेटा एंट्री की त्रुटियों और अन्य कारणों से नागरिकों को गंभीर असुविधाओं का सामना करना पड़ सकता है। इस स्थिति में, यह प्रक्रिया अपने मूल उद्देश्य को काफी हद तक कमजोर या विफल कर देती है।
असुविधा और उत्पीड़न
कई गवाहों ने शिकायत की कि उन्हें केवल फॉर्म भरने की औपचारिकताएं पूरी करने के लिए ही समय और पैस खर्च करना पड़ा। कुछ मामलों में उन्हें इसके लिए कई दिनों की मजदूरी तक गंवानी पड़ी। आवश्यक दस्तावेज प्रदान करने की तो बात ही छोड़ दे। रिपोर्ट के अनुसार कई लोगों का आरोप है कि फॉर्म प्राप्त करने, भरने, अपलोड करने या सहायक दस्तावेज जुटाने में ‘मदद’ के नाम पर उनसे प्रति व्यक्ति औसतन 100 रुपये की राशि वसूली गई।
दुर्लभ दस्तावेज
एसआईआर के तहत मांगे जा रहे दस्तावेज न तो आसानी से उपलब्ध हैं और न ही सभी लोगों के पास मौजूद हैं। कई नागरिक इन्हें समय पर जुटाने में असमर्थ हैं। भारत जोड़ो अभियान द्वारा किए गए एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार के लगभग 37% पात्र मतदाताओं के पास वे दस्तावेज नहीं हैं जो चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया के लिए अनिवार्य किए हैं। इसी तरह, स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (एसडब्ल्यूएएन) और उसके सहयोगियों द्वारा बिहार के प्रवासी श्रमिकों पर किए गए एक अन्य सर्वेक्षण में भी लगभग 33% की ऐसी ही स्थिति सामने आई है। यह स्पष्ट है कि 33–37% पात्र मतदाताओं को सिर्फ दस्तावेजों की अनुपलब्धता के आधार पर मतदाता सूची से बाहर नहीं किया जा सकता।
नाम हटाना
एसआईआर प्रक्रिया से सबसे बड़ा खतरा यह है कि बड़ी संख्या में लोगों को अनुचित रूप से मतदाता सूची से बाहर किया जा सकता है। मतदान करना हर नागरिक का संवैधानिक अधिकार है और केवल दस्तावेजों की अनुपलब्धता के आधार पर किसी को भी इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। दुर्भाग्यवश, पहली बार इस स्थापित सिद्धांत को चुनौती दी जा रही है, क्योंकि मतदाताओं से ऐसे दस्तावेज मांगे जा रहे हैं जो ज्यादातर लोगों के पास नहीं हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि मतदाता पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) किस आधार पर यह निर्णय लेंगे कि किसे प्रारूप मतदाता सूची में शामिल किया जाए और किसे नहीं। एसआईआर के नियम ईआरओ को यह निर्णय लेने की अत्यधिक विवेकाधीन शक्ति प्रदान करते हैं। एक ऐसी शक्ति जिसका दुरुपयोग आसानी से संभव है।
वंचित को निशाना बनाना
इस अत्यधिक विवेकाधीन शक्ति के दुरुपयोग का सबसे बड़ा खतरा यह है कि इसका इस्तेमाल विशेष समुदायों, क्षेत्रों, सामाजिक वर्गों या निर्वाचन क्षेत्रों को लक्षित करने के लिए किया जा सकता है। जन सुनवाई के दौरान कई गवाहों ने एसआईआर प्रक्रिया में दोहरे मापदंडों की ओर इशारा किया जहां एक ओर विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के प्रति लचीला रुख अपनाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कमजोर वर्गों को अनावश्यक रूप से परेशान किया जा रहा है। यह स्थिति आगामी चरणों में और भी गंभीर हो सकती है, जब सहायक दस्तावेजों का संग्रह और 'सत्यापन' शुरू होगा। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, अभी तक अधिकांश मामलों में केवल फॉर्म ही इकट्ठा किए गए हैं।
कई महिलाएं भी मनमाने ढंग से मतदाता सूची से बाहर किए जाने के खतरे का सामना कर रही हैं। कुछ मामलों में उनसे अपने माता-पिता के घर से दस्तावेज लाने की मांग की जा रही है, जो अक्सर बहुत दूर होता है और व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। विशेष रूप से बिहार के उत्तरी जिलों में, अनेक विवाहित महिलाएं नेपाल में जन्मी हैं, लेकिन अब वे भारत की नागरिक हैं और पहले भी कई बार मतदान कर चुकी हैं। इसके बावजूद, दस्तावेजों की कमी या जन्मस्थल के आधार पर उन्हें मतदाता सूची से हटाए जाने की आशंका बनी हुई है।
लंबे समय के लिए भ्रम की स्थिति
एसआईआर एक ऐसी प्रक्रिया की नींव रख रहा है, जिसे साफ करने में वर्षों लग सकते हैं। इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद, विभिन्न दस्तावेजों जैसे मतदाता सूची, आधार और अन्य सहायक दस्तावेजों में नामों की वर्तनी और विवरणों में असंगतियां सामने आने की पूरी संभावना है। संभव है कि चुनाव आयोग (ईसीआई) इन विसंगतियों को सुलझाने की दिशा में दबाव डाले, लेकिन पहले के अनुभव- जैसे बैंकिंग क्षेत्र में ‘केवाईसी’ या शिक्षा प्रणाली में ‘अपार’-दिखाते हैं कि ऐसे मामलों में सुधार प्रक्रिया वंचित समुदायों के लिए बेहद कठिन और महंगी हो जाती है। इसके साथ ही, यह आशंका भी बनी रहती है कि इन अनुचित मांगों का इस्तेमाल कुछ विशेष समूहों को निशाना बनाने के लिए किया जा सकता है।
एसआईआर रद्द करने की मांग
यह जन सुनवाई एक सर्वसम्मत प्रस्ताव के साथ संपन्न हुई जिसमें बिहार में चल रही एसआईआर प्रक्रिया को रद्द करने की मांग की गई। सुनवाई में शामिल पैनल सदस्यों ने इस प्रक्रिया को नागरिकों के मतदान जैसे संवैधानिक अधिकार पर एक गंभीर और अनुचित हस्तक्षेप बताया।
उनके अनुसार, यह प्रक्रिया अविवेकपूर्ण, अव्यवहारिक, लाभहीन और बहिष्कारकारी है। यह बड़ी संख्या में लोगों को बिना किसी वैध कारण के मतदाता सूची से बाहर करने का जोखिम पैदा करती है और सभी मतदाताओं पर पात्रता साबित करने का अनुचित बोझ डालती है।
इसके अलावा, यह प्रक्रिया आवश्यक नहीं है क्योंकि बिहार में पहले से ही एक विश्वसनीय मतदाता सूची मौजूद है, जिसे हाल ही में उचित और पारदर्शी प्रक्रिया के जरिए अपडेट किया गया है।
Related

बिहार की राजधानी पटना में 21 जुलाई को बिहार की मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) को लेकर जन सुनवाई की गई। इस कार्यक्रम का आयोजन भारत जोड़ो अभियान, जन जागरण शक्ति संगठन, कोसी नव निर्माण मंच, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM), समर चैरिटेबल ट्रस्ट और स्वराज अभियान ने संयुक्त रूप से किया।
द वायर की रिपोर्ट के अनुसार, इस जन सुनवाई में एक स्वतंत्र पैनल के रूप में कई प्रतिष्ठित हस्तियों ने भाग लिया। इनमें जस्टिस अंजना प्रकाश (सेवानिवृत्त पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय), वजाहत हबीबुल्लाह (पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष), प्रसिद्ध विकास अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज, समाजशास्त्री प्रो. नंदिनी सुंदर (दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स), डॉ. डी. एम. दिवाकर (पूर्व निदेशक, ए. एन. सिन्हा संस्थान, पटना) और लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी शामिल थे।
पैनल के अनुसार, यह बिहार में एसआईआर प्रक्रिया पर पहली व्यापक और समावेशी सार्वजनिक चर्चा थी। उनका कहना था कि राज्य में एसआईआर की पूरी प्रक्रिया नागरिक समाज, राजनीतिक दलों, सामुदायिक संगठनों और अन्य संबद्ध समूहों से पर्याप्त परामर्श किए बिना शुरू की गई थी।
इस जन सुनवाई में बिहार के 38 में से 19 जिलों से लगभग 250 प्रतिभागी शामिल हुए। इनमें मुख्य रूप से विभिन्न समुदायों से जुड़े कामकाजी लोग शामिल थे, जिनमें महिलाओं की भागीदारी उल्लेखनीय रही।
पैनल ने जन सुनवाई के दौरान उन 32 लोगों की गवाही सुनी, जिन्हें एसआईआर प्रक्रिया के दौरान विभिन्न कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके अलावा, 25 लोगों ने अपने बयान लिखित रूप में पैनल को सौंपे।
जन सुनवाई के दौरान श्रोताओं में एसआईआर प्रक्रिया को लेकर काफी विरोध देखने को मिला। प्रस्तुत गवाहियों से बार-बार सामने आई प्रमुख समस्याएं निम्नलिखित हैं:
प्रक्रिया व्यावहारिक नहीं
एसआईआर प्रक्रिया व्यावहारिक नहीं है। सीमित कर्मचारी संसाधनों के बीच कुछ ही हफ्तों में करोड़ों दस्तावेजों को इकट्ठा करना, अपलोड करना और सत्यापित करना असंभव है। निर्धारित समय सीमा पूरी तरह से यथार्थवादी नहीं है। इसके अलावा, गणना फॉर्म (ईएफ) को वितरित करने, इकट्ठा करने और अपलोड करने के लिए जिम्मेदार पहली पंक्ति के कार्यकर्ताओं, जैसे बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ), को कोई महत्वपूर्ण प्रशिक्षण नहीं दिया गया है। इस स्थिति को और जटिल बनाता है कि यह पूरी प्रक्रिया मानसून के दौरान चल रही है, जब ग्रामीण किसान अपने खेतों में व्यस्त होते हैं और कई क्षेत्र बाढ़ के कारण कटे हुए हैं। इसके अलावा, कई प्रवासी मजदूर भी देश के अन्य हिस्सों में काम कर रहे होने के कारण अनुपस्थित हैं।
प्रक्रिया में जल्दीबाजी
अत्यधिक कार्यभार और समय की कमी के कारण, अधिकांश बूथ लेवल ऑफिसर (बीएलओ) बिना आवश्यक सहायक दस्तावेजों के फॉर्म अपलोड कर रहे हैं। फॉर्म भरने की प्रक्रिया भी आमतौर पर जल्दीबाजी में की जा रही है, जिसमें फोटो और हस्ताक्षर के साथ या बिना, आधार और मोबाइल नंबर इकट्ठा किए जा रहे हैं। बीएलओ अक्सर संबंधित व्यक्तियों को सूचित किए बिना उनके फॉर्म पर हस्ताक्षर कर अपलोड करते हैं। कई लोगों ने यह गवाही दी कि जब उन्होंने अपने ईपीआईसी नंबर से पोर्टल पर जांच की, तो पाया कि उनके फॉर्म उनकी जानकारी के बिना अपलोड किए गए हैं। (इन कई समस्याओं को हाल ही में जाने-माने पत्रकार अजीत अंजुम की एक रिपोर्ट में भी उजागर किया गया है।)
अनियमितताएं
चूंकि निर्धारित समय-सीमा के भीतर नियमों का पूरी तरह पालन कर पाना संभव नहीं है, इसलिए उनका व्यापक स्तर पर उल्लंघन हो रहा है। उदाहरण के तौर पर, बीएलओ अक्सर घर-घर सर्वेक्षण नहीं करते या अपना कार्य किसी और को ठेके पर सौंप देते हैं। अधिकांश मामलों में वे दो प्री-फिल्ड (पहले से भरे हुए) फॉर्म वितरित नहीं करते, रसीद नहीं देते और कुछ तो फॉर्म पर नकली हस्ताक्षर तक कर देते हैं।
कई मामलों में एक ही परिवार के कुछ सदस्यों को प्री-फिल्ड फॉर्म दिए गए हैं, जबकि अन्य को नहीं, जिससे भ्रम और चिंता की स्थिति पैदा हो गई है। इसके अलावा, कई बीएलओ पर रिश्वत लेने के आरोप भी सामने आए हैं। जैसा कि एक टिप्पणीकार ने कहीं और लिखा है, ‘84% संग्रहण दर का नवीनतम आंकड़ा ईसीआई के अपने नियम पुस्तिका के मलबे पर बना एक आंकड़ा है’ (जैसा कि पवन कोराडा ने द वायर के लिए अपने लेख ‘आठ (और आधे) नियम जो ईसीआई ने बिहार एसआईआर को ’सफलता की कहानी’ बनाने के लिए तोड़े’ में लिखा है.)
विश्वसनीयता संदेह के घेरे में
चूंकि यह पूरी प्रक्रिया जल्दबाजी में और निर्धारित नियमों का पालन किए बिना चलाई जा रही है, इसलिए अपलोड की जा रही जानकारी की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में है। इसके परिणामस्वरूप, भविष्य में डेटा एंट्री की त्रुटियों और अन्य कारणों से नागरिकों को गंभीर असुविधाओं का सामना करना पड़ सकता है। इस स्थिति में, यह प्रक्रिया अपने मूल उद्देश्य को काफी हद तक कमजोर या विफल कर देती है।
असुविधा और उत्पीड़न
कई गवाहों ने शिकायत की कि उन्हें केवल फॉर्म भरने की औपचारिकताएं पूरी करने के लिए ही समय और पैस खर्च करना पड़ा। कुछ मामलों में उन्हें इसके लिए कई दिनों की मजदूरी तक गंवानी पड़ी। आवश्यक दस्तावेज प्रदान करने की तो बात ही छोड़ दे। रिपोर्ट के अनुसार कई लोगों का आरोप है कि फॉर्म प्राप्त करने, भरने, अपलोड करने या सहायक दस्तावेज जुटाने में ‘मदद’ के नाम पर उनसे प्रति व्यक्ति औसतन 100 रुपये की राशि वसूली गई।
दुर्लभ दस्तावेज
एसआईआर के तहत मांगे जा रहे दस्तावेज न तो आसानी से उपलब्ध हैं और न ही सभी लोगों के पास मौजूद हैं। कई नागरिक इन्हें समय पर जुटाने में असमर्थ हैं। भारत जोड़ो अभियान द्वारा किए गए एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार, बिहार के लगभग 37% पात्र मतदाताओं के पास वे दस्तावेज नहीं हैं जो चुनाव आयोग ने इस प्रक्रिया के लिए अनिवार्य किए हैं। इसी तरह, स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (एसडब्ल्यूएएन) और उसके सहयोगियों द्वारा बिहार के प्रवासी श्रमिकों पर किए गए एक अन्य सर्वेक्षण में भी लगभग 33% की ऐसी ही स्थिति सामने आई है। यह स्पष्ट है कि 33–37% पात्र मतदाताओं को सिर्फ दस्तावेजों की अनुपलब्धता के आधार पर मतदाता सूची से बाहर नहीं किया जा सकता।
नाम हटाना
एसआईआर प्रक्रिया से सबसे बड़ा खतरा यह है कि बड़ी संख्या में लोगों को अनुचित रूप से मतदाता सूची से बाहर किया जा सकता है। मतदान करना हर नागरिक का संवैधानिक अधिकार है और केवल दस्तावेजों की अनुपलब्धता के आधार पर किसी को भी इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। दुर्भाग्यवश, पहली बार इस स्थापित सिद्धांत को चुनौती दी जा रही है, क्योंकि मतदाताओं से ऐसे दस्तावेज मांगे जा रहे हैं जो ज्यादातर लोगों के पास नहीं हैं। ऐसे में यह सवाल उठता है कि मतदाता पंजीकरण अधिकारी (ईआरओ) किस आधार पर यह निर्णय लेंगे कि किसे प्रारूप मतदाता सूची में शामिल किया जाए और किसे नहीं। एसआईआर के नियम ईआरओ को यह निर्णय लेने की अत्यधिक विवेकाधीन शक्ति प्रदान करते हैं। एक ऐसी शक्ति जिसका दुरुपयोग आसानी से संभव है।
वंचित को निशाना बनाना
इस अत्यधिक विवेकाधीन शक्ति के दुरुपयोग का सबसे बड़ा खतरा यह है कि इसका इस्तेमाल विशेष समुदायों, क्षेत्रों, सामाजिक वर्गों या निर्वाचन क्षेत्रों को लक्षित करने के लिए किया जा सकता है। जन सुनवाई के दौरान कई गवाहों ने एसआईआर प्रक्रिया में दोहरे मापदंडों की ओर इशारा किया जहां एक ओर विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के प्रति लचीला रुख अपनाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कमजोर वर्गों को अनावश्यक रूप से परेशान किया जा रहा है। यह स्थिति आगामी चरणों में और भी गंभीर हो सकती है, जब सहायक दस्तावेजों का संग्रह और 'सत्यापन' शुरू होगा। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, अभी तक अधिकांश मामलों में केवल फॉर्म ही इकट्ठा किए गए हैं।
कई महिलाएं भी मनमाने ढंग से मतदाता सूची से बाहर किए जाने के खतरे का सामना कर रही हैं। कुछ मामलों में उनसे अपने माता-पिता के घर से दस्तावेज लाने की मांग की जा रही है, जो अक्सर बहुत दूर होता है और व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। विशेष रूप से बिहार के उत्तरी जिलों में, अनेक विवाहित महिलाएं नेपाल में जन्मी हैं, लेकिन अब वे भारत की नागरिक हैं और पहले भी कई बार मतदान कर चुकी हैं। इसके बावजूद, दस्तावेजों की कमी या जन्मस्थल के आधार पर उन्हें मतदाता सूची से हटाए जाने की आशंका बनी हुई है।
लंबे समय के लिए भ्रम की स्थिति
एसआईआर एक ऐसी प्रक्रिया की नींव रख रहा है, जिसे साफ करने में वर्षों लग सकते हैं। इस प्रक्रिया के पूरा होने के बाद, विभिन्न दस्तावेजों जैसे मतदाता सूची, आधार और अन्य सहायक दस्तावेजों में नामों की वर्तनी और विवरणों में असंगतियां सामने आने की पूरी संभावना है। संभव है कि चुनाव आयोग (ईसीआई) इन विसंगतियों को सुलझाने की दिशा में दबाव डाले, लेकिन पहले के अनुभव- जैसे बैंकिंग क्षेत्र में ‘केवाईसी’ या शिक्षा प्रणाली में ‘अपार’-दिखाते हैं कि ऐसे मामलों में सुधार प्रक्रिया वंचित समुदायों के लिए बेहद कठिन और महंगी हो जाती है। इसके साथ ही, यह आशंका भी बनी रहती है कि इन अनुचित मांगों का इस्तेमाल कुछ विशेष समूहों को निशाना बनाने के लिए किया जा सकता है।
एसआईआर रद्द करने की मांग
यह जन सुनवाई एक सर्वसम्मत प्रस्ताव के साथ संपन्न हुई जिसमें बिहार में चल रही एसआईआर प्रक्रिया को रद्द करने की मांग की गई। सुनवाई में शामिल पैनल सदस्यों ने इस प्रक्रिया को नागरिकों के मतदान जैसे संवैधानिक अधिकार पर एक गंभीर और अनुचित हस्तक्षेप बताया।
उनके अनुसार, यह प्रक्रिया अविवेकपूर्ण, अव्यवहारिक, लाभहीन और बहिष्कारकारी है। यह बड़ी संख्या में लोगों को बिना किसी वैध कारण के मतदाता सूची से बाहर करने का जोखिम पैदा करती है और सभी मतदाताओं पर पात्रता साबित करने का अनुचित बोझ डालती है।
इसके अलावा, यह प्रक्रिया आवश्यक नहीं है क्योंकि बिहार में पहले से ही एक विश्वसनीय मतदाता सूची मौजूद है, जिसे हाल ही में उचित और पारदर्शी प्रक्रिया के जरिए अपडेट किया गया है।
Related
बिहार: वैध मतदाताओं को बाहर करने की साजिश, चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची का ‘गहन’ पुनरीक्षण चिंता का विषय
बिहार : अजीत अंजुम के खिलाफ मामला दर्ज करना पत्रकारों को डराना है कि वे एसआईआर प्रक्रिया पर रिपोर्टिंग न करें!