कोरोना काल में किन्नर होना कितना मुश्किल?

Written by Hrishi Raj Anand | Published on: August 3, 2021
"सर पर छत और समाज में इज्जत, इससे ऊपर कोई भी मांग नहीं है हमारी",  संजना किन्नर ने कहा जब उनसे पूछा कि वे लोगों से, सरकार से क्या अपेक्षा करती है।

प्रतीकात्मक फोटो


किन्नर समुदाय हमेशा से समाज में उपहास का पात्र रहा है, और अलग अलग माध्यम से अपनी पीड़ाओं से निष्क्रम होने का रास्ता ढूंढता रहा है, हालांकि इसमें सम्पूर्ण रूप से वे असक्षम रहे हैं। अपनी रोज़ी-रोटी सिग्नल पर, ट्रेन के डब्बों में और इसी तरह की जगहों पर भिक्षा मांगकर दो पैसे कमाने का साधन ढूंढने वाले जमसेदपुर के किन्नरों के लिए पिछले डेढ़ साल अत्यंत दुखदायी रहे हैं। पहले तो सहसा तालाबंदी हो जाने के कारण इन्हें किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं मिली, ऊपर से जब लोगों का बाहर निकलना बंद हुआ, ट्रेन बंद हुईं, तो खाने-पीने के लाले पड़ गए। वे बताती है कि एक तो पहले ही लोग उन्हें जल्दी भाड़े पर घर नहीं देते, अब जब तालाबंदी हुई, पैसों की कड़की हुई, तो कई मकान मालिकों ने किन्नरों को भाड़ा न देने के कारण घर से निकाल तक दिया, नतीजा ये हुआ कि एक घर पर जहां दो किन्नर रह रही थीं, उस घर पर बाकियों को शरण देने के कारण संख्या 5-6 तक की हो गई। इससे कई तरह की परेशानियां हुईं, पहले तो स्वास्थ्य संबंधित और फिर एक छोटे से मकान में सबका रहना सोना भी मुश्किल हो ही जाता था। और तो और, इन्होंने बरमामाइंस के नजदीक एक बंजर जमीन पर अपना घर बनाना भी शुरू किया था, उस आधे बने घर औऱ आस पास उसे घेरे हुए तकरीबन 15-20 साड़ियों को भी किसी ने जला दिया। 

मुसीबत के इस पहाड़ को टूटने के बाद भी वे हिम्मत नहीं हारीं, लेकिन जब सामाजिक प्रताड़ना का सामना करना पड़ता है तो समझना मुश्किल हो जाता है कि चैन से जीविका कैसे व्यतीत की जाए। संघर्ष से कोई आपत्ति नहीं, मगर उस संघर्ष का कोई अंत तो दिखे? ''जब मैं किसी भी तरह से अपनी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम नहीं हुई तो मजबूरन अपना जिस्म बेचना पड़ा'', बताया कंचना किन्नर ने। उन्होंने अपनी मजबूरी का विस्तार से विश्लेषण करते हुए कहा, ''जब तालाबंदी हुई, और पैसे के सारे दरवाजे बंद हो गए, यहां तक कि अपने घर वाले, जिनकी हर मोड़ पर मैंने सहायता की, उन्होंने पूछना जरूरी नहीं समझा कि मैं जिंदा हूं या मर गई, ऐसे में सेक्स वर्क के अलावा कोई चारा नहीं था। हालांकि अलग-अलग कंपनियां, संस्थाओं ने अपने हिसाब से राशन की व्यवस्था की, लेकिन यदि आपको दाल, चावल और ज्यादा से ज्यादा आलू, प्याज दे दी जाए तो क्या आप गुजारा कर लेंगे? गैस चूल्हे का खर्ज, बिजली का बिल, यहां तक कि तेल व मसालों की व्यवस्था भी नहीं थी।''

इनका कहना है कि यहीं जमसेदपुर में तीन किन्नरों की भुखमरी से मौत हो गई। एक ने तो सामाजिक, पारिवारिक व आर्थिक दबाव के कारण आत्महत्या तक कर ली। इन सबके बावजूद किसी भी सरकारी कर्मचारी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। 

पिछले वर्ष जब कोरोना की पहली लहर के बाद लोगों ने बाहर निकलना शुरू किया तब इन्हें ऐसा लगा कि शायद स्तिथि थोड़ी सुधर जाएगी, लेकिन समयके साथ ये पता चला कि बढ़ोत्तरी केवल उनके प्रति भेद भाव में हुई है। संजना यादव बताती हैं, ''लोग हमें देख कर दूर से ही रोक देते थे, कहते थे तुम पास मत आना वरना हमें कोरोना हो जाएगा। लोगों की विडंबना देखकर हंसी भी आती है, और खुद पर तरस भी। शादी, मुंडन इत्यादि जहां बुलाया जाता था, वहां से भी न्योते आने बंद हो गए, कुछ लोग तो मुंह पर ये तक कह देते हैं कि तुम लोग न जाने कहां-कहां जाती होगी, अभी हम तुम्हें नहीं बुला सकते।''

जब टीकाकरण की शुरूआत हुई, तो पहले समुदाय में काफी डर बैठ चुका था। इन्हें लगता था कि इनके साथ धोखा होगा और टीकाकरण से इनकी मौत हो जाएगी। मगर फिर जब आस पड़ोस के कुछ लोगों को पहला डोज व दूसरा डोज लेते देखा तो वह डर निकला और अब हर किसी को वैक्सीन दिलवाने के प्रयास किये जा रहे हैं। सोचने वाली बात यह है कि इस मामले में जागरुकता लाने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार एवं जिला अधिकारियों की होनी चाहिए थी, मगर यहां भी लोग खुद ही एक दूसरे का सहारा बने, कुछ ने तो केवल यूट्यूब के खुद को सारी जानकारियों से अवगत कराया। 

स्वाधार समिति एवं शुभकामना फाउंडेशन से जुड़ी किन्नरों का कहना है, कि उन्हें सरकार द्वारा और कुछ नहीं तो कम से कम एक छत दी जाए, जहां वे अपने चेलों या गुरुओं के साथ जीविका व्यतीत कर सकें। एक अपील यह भी है कि सामाजिक या सरकारी कामों में उन्हें भी मौका दिया जाए, और कुछ नहीं तो कम से कम जिन जगहों पर नाली बनाने जैसे छोटे कामों में लोगों की जरूरत हो, या आंगनवाड़ियों में सहायिका की जरूरत हो, वहां थोड़ी जगह उन्हें भी दी जाए। उनका मानना है कि वे खाना तक खिला कर लोगों की सेवा कर सकती हैं, केवल एक मौके की जरूरत है। और यह मौका जल्द चाहिए क्योंकि अब धीरे-धीरे पिछले एक साल के विनाशकाल प्रकोप के बाद हिम्मत टूटने लगी है। 

यदि सरकार मदद पहुंचाने के लिए प्रयास कर रही है, तो वह कारगर क्यों नहीं हो रही? आखिर सरकार और इनके बीच संवादहीनता के लिए ज़िम्मेदार कौन है?

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