हाथरस बर्बरता: संवैधानिक दिशा-निर्देश बनाम मनुवादी सामंती “संस्कृति”

Written by Divya Kapoor | Published on: October 9, 2020
राम-राज्य को स्थापित करने का दावा करने वाली यूपी सरकार के राज में उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यकों, दलितों, पिछड़े, और अनुसूचित जाति के खिलाफ हिंसा पिछले कुछ सालों से बढ़ती ही जा रही हैं। मार्च 2017 में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद सहारनपुर के शब्बीरपुर गाँव से शुरू हुई दलितों के खिलाफ हिंसा के बाद उन्नाव बलात्कार मामला, चिन्मयानन्द बलात्कार मामला, लखीमपुर में बलात्कार की घटनाएँ और अब हाथरस में बलात्कार की घटना के बाद पूरे शासन और प्रशासन का दबंगों के पक्ष में खड़े होकर अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण प्रदान करना सत्ता के मनुवादी चेहरे को दिखाता है।


 
दरअसल यूपी की कुल जनसंख्या का केवल 7% होने बावजूद आजादी के पहले से ही आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत होने के कारण ठाकुरों का उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक ख़ास दबदबा रहा है। आज़ादी के बाद 1947 से 1980 तक यूपी में ब्राह्मणों के राज में ठाकुरों ने अपनी आर्थिक मज़बूती के सहारे राजनीति में पैठ बनानी शुरू की तथा 1985 में कांग्रेस के वीर बहादुर की जीत के साथ ठाकुरों ने, कम समय के लिए ही सही, लेकिन पहली बार जीत का स्वाद चखा। उसके बाद मंदिर और मंडल की राजनीति के कारण बीजेपी और बसपा अपनी राजनीतिक जड़े यूपी में मज़बूत करने में सफल होती गयी वहीँ कांग्रेस यूपी में कमजोर होती चली गयी। लेकिन राज्य में सरकार चाहे किसी की भी रही हो सपा  बसपा या बीजेपी सभी ने ठकुरों के आर्थिक और सामाजिक वर्चस्व के कारण उनको अपने राजनीतिक साथी बनाए रखने के लिए प्रभावित करती रही। 

बीजेपी ने मिलीजुली सरकार बनने पर 2000 में राजनाथ सिंह को यूपी की कमान देकर ठाकुरों को लुभाने की ही कोशिश की थी। लेकिन फिर लम्बे अरसे तक यूपी में दलितों और पिछड़ों की सरकार होने के कारण उनकी राजनीतिक जमीन मज़बूत होने लगी और ठाकुरों के वर्चस्व को दबंगई में बदलने पर रोके लगने लगी जो उन्हें खटकता रहा। आज करीब 15 सालों के बाद उत्तर प्रदेश की सत्ता में संपूर्ण बहुमत से सवर्णों की सरकार आई है जिसका मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ठाकुर जाति से है तथा उग्र हिंदुत्व की राजनीति का पक्षधर है। यह देख कर ठाकुर अब अपना वर्चस्व दोबारा हासिल करने की मंशा से दलितों पर अत्याचार करने पर आमदा हैं। और यूपी का  शासन और प्रशासन वर्चस्ववादी जाति संरचना के अनुकूल राजनीतिक वातावरण को बल देकर संविधान और कानून की उपेक्षा करते हुए अपने लोगों का साथ दे रहे हैं। 

हाथरस की घटना कई मायनों में उत्तर प्रदेश की शासन व्यवस्था में जातिवादी और राजनीतिक वर्चस्व की पोल खोलती हैं। 14 सितंबर को हाथरस, उत्तर प्रदेश में ठाकुर जाति के चार पुरुषों द्वारा उनके गाँव की दलित लड़की का बर्बर सामूहिक बलात्कार करके बुरी तरह से घायल किया गया जिसके कारण 29 सितंबर 2020 को उसकी मौत हो गयी। इस बर्बर घटना के बाद यूपी पुलिस ने केस में उच्च जाति (ठाकुर) के लोगों के आरोपी होने के कारण पहले तो निष्क्रियता दिखाते हुए केस को दबाने की लाख कोशिशें की। लेकिन बाद में जब परिवार की कोशिशों, सोशल मीडिया और दलित व् अन्य संगठनों की सक्रियता के कारण मामला तूल पकड़ता दिखा तो आरोपियों को बचाने के लिए सारे सबूतों को ख़त्म करने की मंशा के साथ पीड़िता के निधन के बाद भी बर्बरता और अमानवीयता का स्तर जारी रखते हुए 30 सितंबर को तड़के करीब 3 बजे पीड़िता के परिवार की मर्ज़ी के खिलाफ शव को जबरन जला दिया। 

इसके अलावा मृतक के परिवार के आखिरी बार पीड़िता के शव को घर लेकर जाने के अधिकार को खारिज करते हुए शव को जलाने के दौरान परिवार के सदस्यों और स्थानीय लोगों को घर के अंदर बंद कर दिया। ये अत्याचार की पराकाष्ठा थी। पर प्रशासन की जातिवादी सोच यही नहीं रुकी। अगले ही दिन प्रशासन के द्वारा ये दावा पेश किया जाने लगा कि बलात्कार की पुष्टि हुई ही नही है जबकि पीड़िता के द्वारा मरने से पहले अधिकारियों की उपस्थिति में दर्ज करवाया गया बयान सार्वजनिक रूप से उपस्थित है, जो 2012 के बाद यौन हिंसा के क़ानूनों में आई व्यापकता के हिसाब से अपराध की पुष्टि के लिए पर्याप्त सबूत है। साथ ही शव को जलाने के बाद गाँव में धारा 144 लगे होने का हवाला देकर दो दिन तक पीड़िता के परिवार को उनके घर में नज़र-बंद करके मीडिया और विपक्ष के नेताओं से मिलने से रोका गया। दूसरी तरफ आसपास के 12 गाँव के सवर्ण जाति के लोगो ने पंचायत करके आरोपियों के बेगुनाह होने की बात कहते हुए घटना को जातिवादी दंगे भड़काने का रूप देने की परियोजना बनाते रहे तथा खुले-आम परिवार के लोगो को जान से मारने का एलान किया। ये देखकर बलात्कार की घटना के खिलाफ शुरू से ही आंदोलित दलित संगठन और आक्रोशित हो उठे और खासतौर पर वाल्मीकि समाज ने काम का बहिष्कार करके कई जगह प्रदर्शन भी किए और राजनीतिक रूप से बीजेपी के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करवाया। लेकिन संविधान की शपथ लेकर मंत्री से मुख्यमंत्री और बाकि प्रशासनिक पद संभालने वाले अधिकारी संविधान की हर मर्यादा को त़ाक पर रख हिंदुत्व और जातिवादी राजनीति के साथ खड़े अपराधियों के हौसले बुलंद करने में लगा है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, देश में हर दिन लगभग दस दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है, जिनमें सबसे अधिक घटनाएं उत्तर प्रदेश में दर्ज की जातीं हैं। ये तो ज्ञात आंकडे हैं, लेकिन अज्ञात आंकड़े इससे कहीं अधिक हैं जहां डर और अज्ञानतावश पीड़ित परिवारों द्वारा मामले दर्ज ही नहीं किए जाते। 

हज़ारों सालों से पित्रसत्तात्मक और जातिवादी व्यवस्था में, बलात्कार एक राजनीतिक हथियार रहा है जिसका प्रयोग अन्याय के ख़िलाफ़ उठने वाली उनकी आवाज़ों को दबाने के लिए, हाशिए पर धकेल दी गयी महिलाओं और दलितों के मन में डर बिठाने के लिए किया जाता रहा है। भारत के जाति, वर्ग और जेंडर के अनुकर्म में दलित महिला हमेशा सबसे निचले पायदान पर रही हैं। अपनी सामाजिक और आर्थिक कमजोर स्तिथि और वर्तमान में राजनीतिक गलिआरों में कोई प्रभावशाली आवाज़ न होने के कारण, महिला होने के साथ दलित और पिछड़े समाज से होना, समाज में उनकी स्तिथि को और भी कठिन बना देता है। उनकी कमजोर स्थिति का फायदा उठाकर सवर्ण-जाति के लोग उनके साथ यौन हिंसा और क्रूरता को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। 

आज के आधुनिक समाज में जहाँ जातिवाद खत्म हो जाने के तर्क रोज़ दिए जाते हैं लेकिन आज भी बलात्कार, दलित महिला और उसके परिवार को उनकी औक़ात दिखाने के एक ज़रिए की तरह है जिसमें जातिवादी वर्चस्व और दबंगयी एक-साथ काम करती हैं। हाथरस के केस में ये साफ़ दिखता है। करीब 20 साल पहले आरोपी परिवार के सदस्य द्वारा दबंगयी दिखाते हुए पीड़िता के दादा के हाथ की उंगलियाँ काट दी गयी थी और आरोपी को जेल जाना पड़ा था इसलिए दोनों परिवारों के बीच पुरानी दुश्मनी थी। और गाँव में ठाकुर परिवारों की संख्या अधिक होने के कारण दबाव बनाने के लिए आये दिन पीड़िता के परिवार को परेशान किया जाता था। बलात्कार की ये घटना उसी रंजिश का कड़ी है जिसमें लड़की के बलात्कार का एक कारण पूरे परिवार को सबक सिखाना भी है।

पीड़िता की मौत के बाद से ही हरकत में आते हुए भीम आर्मी तथा अन्य दलित संगठनों के साथ-साथ विपक्ष की लगभग सभी पार्टिया, महिला संगठन और दलित समाज सरकार की इस अमानवीयता के खिलाफ अपनी आवाज़ को बुलंद कर रहे हैं जिसके कारण उनको सरकार के गुस्से का सामना भी करना पड़ा। आलम ये है कि पीड़ित परिवार से मिलने जाने वाले विपक्ष और बाकि संगठन के लोगों में से शायद ही कोई हो जिसे यूपी पुलिस के लाठी-डंडों का सामना न करना पड़ा हो। इसके अलावा इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मामले की गंभीरता को भापते हुए स्वसंज्ञान लेते हुए सम्बन्धित अधिकारीयों को कोर्ट में पेश होने के आदेश पारित किये हैं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने भी कोर्ट के सामने मामले पर कारवाही की गुहार लगायी है। परन्तु सरकार और मीडिया की मिलीभगत से मामले को कमजोर करने के उद्देश्य से गलत तरीके से प्रचारित किया जा रहा है। 

आज पितृसत्ता, जाति और सत्ता के गठजोड़ से सामाजिक और राजनीतिक जीवन में बढती हुई असमानता के कारण संवैधानिक जन-तंत्र कमजोर होता प्रतीत हो रहा है जिसकी आशंका बाबा साहब ने संविधान लागू होते समय जताई थी। उन्होंने भारत के लोकतंत्र की प्रकृति और सीमाओं के बारे में लोगों को सावधान करते हुए कहा था कि  "26 जनवरी, 1950 को हम अंतर्विरोधों के जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता है और सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता है। राजनीति में हम एक आदमी, एक वोट, एक मूल्य के सिद्धांत को मान्यता दें रहे होगें। लेकिन हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में, हम अपनी सामाजिक और आर्थिक संरचना के कारण एक व्यक्ति, एक मूल्य के सिद्धांत को नकारते रहेंगे। हम कब तक अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम इसे लंबे समय तक नकारते रहे तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डालकर ऐसा करेंगे।‘’

आधुनिक लोकतंत्र में राज्य अपनी सारी ताक़त संविधान से हासिल करता है। बदले में वो संविधान के दिशा-निर्देशों का पालन करने को बाध्य होता है। संविधान के तहत जैसे राज्य और राज्य के ज़रिए सरकार को ये हक़ है कि वो अपराधियों को संविधान के अनुरूप सजा दिलवाए वैसे ही संविधान के अंतर्गत राज्य के लिए भी कुछ नियम क़ायदें हैं जिसके विरूद्ध जाने पर सरकार हो या अधिकारी सभी के लिए सज़ा का प्रवधान है। इस केस में पीड़िता के उत्तम इलाज़ और परिवार का  संरक्षण संविधान के तहत सरकार की ज़िम्मेदारी है जिसको निभाने में सरकार पूरी तरह विफल रही है जिस तरह से बलात्कार के आरोपी मुलजिम हैं उसी तरह से घटना हो जाने के बाद उचित करवाई ना करने तथा आरोपियों का साथ देने के साथ-साथ, पीड़िता और उसके परिवार के मौलिक और मानवीय अधिकारों के हनन लिए राज्य सरकार से लेकर सभी अधिकारी भी मुलजिम हैं। उन पर कई संगीन धाराओं के तहत मुक़दमा बनता है। मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा तो सबसे कमतर कदम है।

बाबा साहब जिस सामाजिक असमानता की बात कह रहे थे वो हमारे समाज में जाति, धर्म और लिंग के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव के कारण उत्पन्न असमानता है जिसकी जड़े हजारों सालों पुरानी विवादित मनुस्मृति के पितृसत्तात्मक, जातिवादी और अमानवीय क़ानूनों में हैं जो आज तक भी हमारे सामाजिक व्यवहार मे दिखती हैं। जहाँ भारत की एक बेटी के साथ बर्बरता देख 2012 में पूरा देश एक होकर देश की बेटी को न्याय दिलाता सड़कों पर था वही दूसरी बेटी की बर्बरतापुर्ण बलात्कार और मौत के बाद संविधान के तहत नियुक्त संरक्षकों के द्वारा ही पैट्रोल डाल फूंक दिए जाने पर व्यापक मध्यम वर्ग असहज तो है पर पीड़िता को दूसरे जाति/समाज/देश का समझ नज़रअंदाज़ कर रहा है। वाल्मीकि समाज सहित बाकि दलित और जनतांत्रिक संगठनों का सरकार के सामने अपनी रीढ़ की हड्डी सीधे कर खड़े हो जाना योगी आदित्यनाथ के उग्र हिंदुत्व को कड़ी चुनौती दे रहा है परन्तु इसमें व्यापक मध्यम वर्ग की भागीदारी भी जरूरी है। हमारी इस नाकामी का नतीज़ा यह है कि सरकार और प्रशासन मिल कर हजारों नाइंसाफीयां करने के बाद भी पीड़िता को ही झूठी बताते हुए इस मामले में विदेशी साज़िश होने जैसे भ्रमक तथा हास्य-पूर्ण बहाने बना कर आरोपियों को बचाने में लगा है। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि सरकार “ठोक दो” नीति का पालन करते और करवाते आज पीड़ित और आरोपी के बीच फर्क करना भूल चुकी है।  

हाथरस की पीड़िता सिर्फ एक दलित और गरीब परिवार की लड़की ही नही थी बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की नागरिक भी थी जो संविधान के अंतर्गत देश के बाकी सभी नागरिकों की तरह उन सभी मौलिक अधिकारों की हक़दार थी जिसकी गारंटी संविधान देता हैं। उसको समानता, स्वतंत्रता, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म, संस्कृति एवं शिक्षा की स्वतंत्रता का अधिकार था। साथ ही सम्मान के साथ जीने और मरने का हक भी था। लेकिन उसके नाम के आगे लगे शब्द “दलित” के कारण भारतीय संविधान अपने 70 साल पुरे करने के बाद भी हजारों साल पुराने मनुस्मृति के जातिवादी और महिला विरोधी नियमों के आगे नतमस्तक हो गया। हजारों सालों से जिन मनुवादी क़ानूनों का परंपरा और रीतिरिवाजों के नाम पर बचाव किया गया उस पितृसत्ता और जातिवाद के तंत्र का ये नंगा रूप है।

प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि ‘अदम गोंडवी’ की कविता “मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको” की महत्ता को समझते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 1980 में एक बलात्कार का फ़ैसला लिखते हुए साक्ष्य के रूप में प्रयोग किया था। जो हाथरस की घटना को हुबहू दर्शाती है- 
कृष्णा
                                 -अदम गोंडवी 
आईए महसूस करिए जि़न्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुंए में डूब कर

है सधी सर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है चाँद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरजू पार की मोना-लिज़ा

कैसी ये भयभीत है हिरणी सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल तो ये वाचाल थी, पर आज कैसे मौन है
जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट कोे

डूबती सूरज की किरणें खेलती थीं रेत से
घास का गठ्ठर लिऐ वो आ रही थी खेत से

आ रही थी वो चली खोई हुई जज़बात में
क्या पता उसको कि कोई भेडि़या है घात में

होनी से बे ख़बर क्रिश्ना बे खबर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी 
¬¬¬¬-----¬¬¬¬¬¬¬¬------------------------------------------
--

                                       - रामनाथ सिंह ‘‘अदम‘‘ गोंडवी

पूरी कविता यहाँ पढ़ी जा सकती है... (http://kavitakosh.org/kk/मैं_चमारों_की_गली_तक_ले_चलूँगा_आपको_/_अदम_गोंडवी)।



नोट: दिव्या कपूर ने पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से पोलिटिकल साइंस में मास्टर्स और मास कॉम्युनिकेशन में पोस्ट ग्रेजुएशन डिप्लोमा किया है।

बाकी ख़बरें