किसान खेती छोड़ रहे हैं और अन्नदाता बूढ़ा हो रहा है....

Written by कबीर संजय | Published on: July 26, 2019
पता नहीं आप लोगों को याद है कि नहीं, बचपन में हमें ‘अधिक अन्न उपजाओ’ विषय पर लेख या निबंध लिखने को आता था। कई बार कला विषय में इस पर कोई सीनरी बनाने को भी कहा जाता था। हम कुछ उल्टा-पुल्टा करते थे। पता नहीं आज क्या हालत है। लेकिन, आज इसकी जरूरत बहुत ज्यादा बढ़ गई है। क्योंकि, हमारा किसान बूढ़ा हो रहा है। नई पीढ़ी उसकी जगह नहीं ले रही है। यही हालत रही तो हमें इस बात की भी चिंता करनी होगी कि हमारा खाना कहां से आएगा। 

दुनिया भले ही चांद पर चली जाए और इंटरनेट की रफ्तार 100 जीबी प्रति सेकेंड हो जाए, लेकिन दुनिया का सबसे कीमती काम खाद्यान्न उपजाना ही रहेगा। यह वो सबसे जरूरी काम है, जिसके बिना हमारी सारी तरक्कियां धरी की धरी रह जाएंगी। भूखे पेट हम चांद और मंगल की कक्षाओं में अपने अंतरिक्ष यान लिए घूम नहीं पाएंगे। भूखे पेट भजन न होए गोपाला। हैरानी की बात यह है कि सबसे ज्यादा जरूरी पेशे में जाने का अब किसी का मन नहीं रहा। किसान अपना पेशा छोड़ रहा है और नई पीढ़ी उसकी जगह नहीं ले रही है। 

आज के समय में चालीस वर्ष से कम आयु के किसान ही हैं। ज्यादातर जो किसानी के पेशे में लगे हुए हैं, उनकी आयु चालीस वर्ष से ज्यादा की हो चुकी है। वर्ष 2016 में भारत के किसानों की औसत आयु 50.1 वर्ष थी। यह इसलिए चिंता की बात है कि क्योंकि नई पीढ़ी को इस पेशे में जाने की कोई रुचि नहीं है। वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि गांवों में रहने वाली 70 फीसदी युवा आबादी के जीवन का आधार खेती ही है। जबकि, इसी में इस बात का खुलासा भी होता है कि हर दिन लगभग दो हजार किसान अपना पेशा छोड़ रहे हैं। जबकि, किसानों की आय किसानी नहीं करने वालों की तुलना में एक बटे पांच ही है। 

वर्ष 2017 में प्रथम नाम की संस्था ने खेती पर निर्भर तीस हजार ग्रामीण युवाओं के बीच सर्वेक्षण किया। इसमें से केवल 1.2 फीसदी युवा ही अपना पुश्तैनी पेशा यानी खेती करने के इच्छुक थे। 18 फीसदी सेना में जाने के इच्छुक थे और 12 फीसदी चाहते थे कि वे इंजीनियर बन जाएं। खेती-किसानी में स्त्रियां महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लेकन, युवा लड़कियों का 25 फीसदी हिस्सा खेती की बजाय शिक्षक बनकर जीवन बिताने की इच्छा रखती है। 

ऐसा केवल भारत में नहीं है। पूरी दुनिया में ही किसान खेती छोड़ रहे हैं और अन्नदाता बूढ़ा हो रहा है। अमेरिका में किसान की औसत आयु 58 साल और जापान में 67 साल है। हर तीसरा यूरोपीय किसान 65 साल की उम्र का है। भारत की तरह ही दुनिया भर में किसान खेती छोड़ रहे हैं। उदाहरण के लिए जापान में अगले कुछ सालों में 40 फीसदी तक किसान खेती छोड़ देंगे। इसे देखते हुए जापान की सरकार ने खेती में लाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने के उपायों की भी शुरुआत की है। 

जाहिर है कि उस पेशे में कौन जाना चाहेगा, जिसमें ता-जिंदगी अपने ख्वाहिशों पर पैबंद लगाना ही किस्मत बन जाए। जहां पर कर्ज न चुकाने के चलते लोग अपनी जान ले लेते हो। जहां पर पेशे से जुड़ी बीमारियां और जिंदगी पर खतरे सबसे ज्यादा हो। जहां खेत में चारा काटते हुए हाथ कट जाता हो, रात में पानी चलाने के लिए जाते समय सांप काट लेता हो, कीटनाशकों का छिड़काव करते-करते शरीर में कैंसर की गांठे पैंदा हो जाती हो, कठिन परिश्रम के चलते शरीर को लकवा मार जाता हो, हाथ और पैर तक गल जाते हो। 
भारत के किसान की व्यथा कहीं किसी जगह दिखाई नहीं पड़ती। वह घुट-घुट कर जी और मर रहा है। कभी-कभी वह जब लांग मार्च करता है तो उसकी शकल लोगों को याद आती है। अपनी परेशानियों को लेकर वह एकजुट भी नहीं है और अपने खेत की मेढ़ पर बैठा अकेले-अकेले ही अपनी चिंताओं के समाधान के बारे में सोचता रहता है। खेती से उसकी लागत भी नहीं निकल रही है। जबकि, हमारी सरकारें लगातार इस चिंता में डूबी रहती हैं कि कैसे कारपोरेट अपनी लागत का कम से कम बीस-पच्चीस गुना तो कमाए ही। 
फिर तो अन्नदाता तो बूढ़ा होने से कौन रोक सकता है। 

(इस लेख के कई तथ्य डाउन टू अर्थ पत्रिका में रिचर्ड महापात्रा के लेख से लिए गए हैं, फोटो इंटरनेट से ली गई है)

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